हरितालिका तीज

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हरितालिका तीज
शिव-पार्वती
अन्य नाम हरतालिका तीज
अनुयायी हिन्दू
प्रारम्भ प्राचीन काल
तिथि भाद्रपद माह की शुक्ल तृतीया
प्रसिद्धि हिन्दू त्यौहार
अन्य जानकारी हरितालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी एवम गणेश जी की पूजा का महत्व है। यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता है। रतजगा कर नाच गाने के साथ इस व्रत को किया जाता है।

हरतालिका अथवा हरितालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं। यह तीज का त्यौहार भाद्रपद माह की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। इसे गौरी तृतीया व्रत भी कहते हैं। खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्यौहार मनाया जाता है। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरितालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया है। हरितालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी एवम गणेश जी की पूजा का महत्व है। यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता है। रतजगा कर नाच गाने के साथ इस व्रत को किया जाता है।

नामकरण

माता गौरी के पार्वती रूप में वे शिव जी को पति रूप में चाहती थीं, जिस हेतु उन्होंने कड़ी तपस्या की थी। उस वक्त पार्वती की सहेलियों ने उन्हें अगवा कर लिया था। इस करण इस व्रत को हरतालिका या हरितालिका कहा गया है, क्यूंकि 'हरत' मतलब अगवा करना एवं 'आलिका' मतलब सहेली अर्थात सहेलियों द्वारा अपहरण करना 'हरतालिका' कहलाता है। शिव जैसा पति पाने के लिए कुँवारी कन्या इस व्रत को विधि-विधान से करती हैं।

व्रत नियम

  1. हरतालिका व्रत निर्जला किया जाता है, अर्थात पूरे दिन एवं रात अगले सूर्योदय तक जल ग्रहण नहीं किया जाता।
  2. यह व्रत कुवांरी कन्या, सौभाग्यवती महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसे विधवा महिलायें भी कर सकती हैं।
  3. व्रत का नियम है कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता। इसे प्रति वर्ष पूरे नियमो के साथ किया जाता है।
  4. हरतालिका व्रत के दिन रतजगा किया जाता है। पूरी रात महिलायें एकत्र होकर नाच गाना एवम भजन करती हैं। नये वस्त्र पहनकर पूरा श्रृंगार करती हैं।
  5. व्रत जिस घर में भी होता है, वहाँ इस पूजा का खंडन नहीं किया जा सकता अर्थात इसे एक परम्परा के रूप में प्रति वर्ष किया जाता है।
  6. सामान्यत: महिलायें यह हरतालिका पूजन मंदिर में करती हैं।

मान्यताएँ

हरतालिका के व्रत से जुड़ी कई मान्यता हैं, जिनके अनुसार जो महिला इस व्रत के दौरान जो सोती हैं, वह अगले जन्म में अजगर बनती हैं; जो दूध पीती हैं, वह सर्पिनी बनती हैं; जो व्रत नही करतीं, वह विधवा बनती हैं; जो शक्कर खाती हैं, मक्खी बनती हैं; जो मांस खाती हैं, वह शेरनी बनती हैं; जो जल पीती हैं, वो मछली बनती हैं; जो अन्न खाती हैं, वह सूअरी बनती हैं; जो फल खाती हैं, वह बकरी बनती हैं। इस प्रकार के कई मत सुनने को मिलते हैं।

पूजन विधि

  • हरतालिका पूजन प्रदोष काल में किया जाता है। प्रदोष काल अर्थात दिन रात के मिलने का समय।
  • पूजन के लिए शिव, पार्वती एवं गणेश की प्रतिमा बालू रेत अथवा काली मिट्टी से हाथों से बनाई जाती है।
  • फुलेरा बनाकर उसे सजाया जाता है। उसके भीतर रंगोली डालकर उस पर पटा अथवा चौकी रखी जाती है। चौकी पर एक सातिया बनाकर उस पर थाल रखते हैं। उस थाल में केले के पत्ते को रखते हैं।
  • तीनों प्रतिमाओं को केले के पत्ते पर आसीत किया जाता है।
  • सर्वप्रथम कलश बनाया जाता है, जिसमें एक लौटा अथवा घड़ा लेते हैं। उसके ऊपर श्रीफल रखते हैं अथवा एक दीपक जलाकर रखते हैं। घड़े के मुंह पर लाल नाड़ा बाँधते हैं। घड़े पर सातिया बनाकर उस पर अक्षत चढ़ाया जाता है।
  • कलश का पूजन किया जाता है। सबसे पहले जल चढ़ाते हैं, नाड़ा बाँधते हैं। कुमकुम, हल्दी, चावल चढ़ाते हैं फिर पुष्प चढ़ाते हैं।
  • कलश के बाद गणेश जी की पूजा की जाती है। उसके बाद शिव जी की पूजा जी जाती है। बाद में माता गौरी की पूजा की जाती है। उन्हें सम्पूर्ण श्रृंगार चढ़ाया जाता है।
  • इसके बाद हरतालिका की कथा पढ़ी जाती है। फिर मिलकर आरती की जाती है, जिसमें सर्प्रथम गणेश जी कि आरती फिर शिव जी की, फिर माता गौरी की आरती की जाती है।
  • पूजा के बाद भगवान् की परिक्रमा की जाती है।
  • रात भर जागकर पांच पूजा एवं आरती की जाती है।
  • सुबह आखरी पूजा के बाद माता गौरी को जो सिंदूर चढ़ाया जाता है, उस सिंदूर से सुहागन स्त्री सुहाग लेती हैं।
  • ककड़ी एवं हलवे का भोग लगाया जाता है। उसी ककड़ी को खाकर उपवास तोड़ा जाता है।
  • अंत में सभी सामग्री को एकत्र कर पवित्र नदी एवं कुण्ड में विसर्जित किया जाता है।

व्रत कथा

यह व्रत अच्छे पति की कामना से एवं पति की लम्बी उम्र के लिए किया जाता है। शिव ने माता पार्वती को विस्तार से इस व्रत का महत्व समझाया था-

माता गौरा ने सती होने के बाद हिमालय के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया। बचपन से ही पार्वती भगवान शिव को वर के रूप में चाहती थीं, जिसके लिए पार्वती जी ने कठोर ताप किया। उन्होंने कड़कती ठण्ड में पानी में खड़े रहकर, गर्मी में यज्ञ के सामने बैठकर यज्ञ किया। बारिश में जल में रहकर कठोर तपस्या की। बारह वर्षों तक निराहार पत्तों को खाकर पार्वती जी ने व्रत किया। उनकी इस निष्ठा से प्रभावित होकर भगवान् विष्णु ने हिमालय से पार्वती जी का हाथ विवाह हेतु माँगा, जिससे हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और पार्वती को विवाह की बात बताई, जिससे पार्वती दु:खी हो गईं और अपनी व्यथा सखी से कही और जीवन त्याग देने की बात कहने लगीं। इस पर सखी ने कहा यह वक्त ऐसी सोच का नहीं है। सखी पार्वती को हर कर वन में ले गई, जहाँ पार्वती ने छिपकर तपस्या की। जहाँ पार्वती को शिव ने आशीवाद दिया और पति रूप में मिलने का वर दिया। हिमालय ने बहुत खोजा पर पार्वती ना मिलीं। बहुत वक्त बाद जब पार्वती मिलीं, तब हिमालय ने इस दुःख एवं तपस्या का कारण पूछा। तब पार्वती ने अपने हृदय की बात पिता से कही। इसके बाद पुत्री हठ के करण पिता हिमालय ने पार्वती का विवाह शिव से तय किया। इस प्रकार हरतालिक व्रत एवं पूजन प्रतिवर्ष भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को किया जाता है।


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टीका-टिप्पणे और संदर्भ

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