"वीसलदेव रासो" के अवतरणों में अंतर

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10:21, 30 सितम्बर 2011 का अवतरण

वीसलदेव पश्चिमी राजस्थान के राजा थे। वीसलदेव रासो की रचना तिथि सं. 1400 वि. के आसपास की है। इसके रचयिता नरपति नाल्ह हैं। रचना वीर गीतों के रुप में उपलब्ध है। इसमें वीसलदेव के जीवन के 12 वर्षों के कालखण्ड का वर्णन किया गया है। वीरगीत के रूप में सबसे पुरानी पुस्तक 'बीसलदेव रासो' मिलती है।

यद्यपि वीसलदेव रासो में समयानुसार भाषा के परिवर्तन का आभास मिलता है। जो रचना कई सौ वर्षों से लोगों में बराबर गाई जाती रही हो, उसकी भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह सकती। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण 'आल्हा' है जिसको गाने वाले प्राय: समस्त उत्तरी भारत में पाए जाते हैं। वीरगाथा काल के ग्रंथ, जिनकी या तो प्रतियाँ मिलती हैं या कहीं उल्लेख मात्र पाया जाता है। यह ग्रंथ 'रासो' कहलाते हैं। कुछ लोग इस शब्द का संबंध 'रहस्य' से बतलाते हैं। पर 'बीसलदेव रासो' में काव्य के अर्थ में 'रसायण' शब्द बार-बार आया है। अत: 'रसायण' शब्द से होते-होते 'रासो' हो गया है।[1]

श्री रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार

श्री रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है - 'बीसलदेव रासो नरपति नाल्ह कवि विग्रहराज चतुर्थ उपनाम बीसलदेव का समकालीन था। कदाचित् यह राजकवि था। इसने 'बीसलदेवरासो' नामक एक छोटा-सा (100 पृष्ठों का) ग्रंथ लिखा है जो वीरगीत के रूप में है। ग्रंथ में निर्माणकाल यों दिया है -

बारह सै बहोत्तराँ मझारि। जेठबदी नवमी बुधावारि।
'नाल्ह' रसायण आरंभइ। शारदा तुठी ब्रह्मकुमारि

'बारह सै बहोत्तराँ' का स्पष्ट अर्थ 1212 है। 'बहोत्तर शब्द, 'बरहोत्तर', 'द्वादशोत्तर' का रूपांतर है। अत: 'बारह सै बहोत्तराँ' का अर्थ 'द्वादशोत्तर बारह सै' अर्थात 1212 होगा। गणना करने पर विक्रम संवत 1212 में ज्येष्ठ बदी नवमी को बुधवार ही पड़ता है। कवि ने अपने रासो में सर्वत्र वर्तमान काल का ही प्रयोग किया है जिससे वह बीसलदेव का समकालीन जान पड़ता है। विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) का समय भी 1220 के आसपास है। उसके शिलालेख भी संवत 1210 और 1220 के प्राप्त हैं। बीसलदेव रासो में चार खंड है। यह काव्य लगभग 2000 चरणों में समाप्त हुआ है। इसकी कथा का सार यों है -

  1. खंड 1 - मालवा के भोज परमार की पुत्री राजमती से साँभर के बीसलदेव का विवाह होना।
  2. खंड 2 - बीसलदेव का राजमती से रूठकर उड़ीसा की ओर प्रस्थान करना तथा वहाँ एक वर्ष रहना।
  3. खंड 3 - राजमती का विरह वर्णन तथा बीसलदेव का उड़ीसा से लौटना।
  4. खंड 4 - भोज का अपनी पुत्री को अपने घर लिवा ले जाना तथा बीसलदेव का वहाँ जाकर राजमती को फिर चित्तौड़ लाना।

दिए हुए संवत के विचार से कवि अपने नायक का समसामयिक जान पड़ता है। पर वर्णित घटनाएँ, विचार करने पर, बीसलदेव के बहुत पीछे की लिखी जान पड़ती हैं, जबकि उनके संबंध में कल्पना की गुंजाइश हुई होगी। यह घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है। इसमें दो ही घटनाएँ हैं बीसलदेव का विवाह और उनका उड़ीसा जाना। इनमें से पहली बात तो कल्पनाप्रसूत प्रतीत होती है। बीसलदेव से सौ वर्ष पहले ही धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज का देहांत हो चुका था। अत: उनकी कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह किसी पीछे के कवि की कल्पना ही प्रतीत होती है। उस समय मालवा में भोज नाम का कोई राजा नहीं था। बीसलदेव की एक परमार वंश की रानी थी, यह बात परंपरा से अवश्य प्रसिद्ध चली आती थी, क्योंकि इसका उल्लेख पृथ्वीराज रासो में भी है। इसी बात को लेकर पुस्तक में भोज का नाम रखा हुआ जान पड़ता है। अथवा यह हो सकता है कि धार के परमारों की उपाधि ही भोज रही हो और उस आधार पर कवि ने उसका यह केवल उपाधि सूचक नाम ही दिया हो, असली नाम न दिया हो। कदाचित इन्हीं में से किसी की कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह हुआ हो। परमार कन्या के संबंध में कई स्थानों पर जो वाक्य आए हैं, उन पर ध्यान देने से यह सिध्दांत पुष्ट होता है कि राजा भोज का नाम कहीं पीछे से न मिलाया गया हो; जैसे 'जनमी गोरी तू जेसलमेर', 'गोरड़ी जेसलमेर की'आबू के परमार भी राजपूताने में फैले हुए थे। अत: राजमती का उनमें से किसी सरदार की कन्या होना भी संभव है। पर भोज के अतिरिक्त और भी नाम इसी प्रकार जोड़े हुए मिलते हैं; जैसे 'माघ अचरज, कवि कालिदास'।[2]

श्री रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार - 'अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) बड़े वीर और प्रतापी थे और उन्होंने मुसलमानों के विरुद्ध कई चढ़ाइयाँ की थीं और कई प्रदेशों को मुसलमानों से ख़ाली कराया था। दिल्ली और झाँसी के प्रदेश इन्हीं ने अपने राज्य में मिलाए थे। इनके वीर चरित का बहुत कुछ वर्णन इनके राजकवि सोमदेव रचित 'ललित विग्रहराज नाटक' [3] में है जिसका कुछ अंश बड़ी-बड़ी शिलाओं पर खुदा हुआ मिला है और 'राजपूताना म्यूज़ियम' में सुरक्षित है। पर 'नाल्ह' के इस बीसलदेव में, जैसा कि होना चाहिए था, न तो उक्त वीर राजा की ऐतिहासिक चढ़ाइयों का वर्णन है, न उसके शौर्य-पराक्रम का। श्रृंगार रस की दृष्टि से विवाह और रूठकर विदेश जाने का (प्रोषितपतिका के वर्णन के लिए) मनमाना वर्णन है। अत: इस छोटी-सी पुस्तक को बीसलदेव ऐसे वीर का 'रासो' कहना खटकता है। पर जब हम देखते हैं कि यह कोई काव्य ग्रंथ नहीं है, केवल गाने के लिए इसे रचा गया था, तो बहुत कुछ समाधान हो जाता है।[4]

भाषा की दृष्टि से

भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है। जैसे -

  • सूकइ छै = सूखता है,
  • पाटण थीं = पाटन से,
  • भोज तणा = भोज का,
  • खंड-खंडरा = खंड-खंड का इत्यादि।

इस ग्रंथ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है। वह यह कि शिष्ट काव्यभाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा 'हिन्दी' ही थी जो पिंगल भाषा कहलाती थी। बीसलदेव रासो में भी बीच-बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिन्दी) को मिलाने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। भाषा की प्राचीनता पर विचार करने के पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गाने की चीज़ होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया है। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है। उदाहरण के लिए -

  • मेलवि = मिलाकर, जोड़कर;
  • चितह = चिता में;
  • रणि = रण में;
  • प्रापिजइ = प्राप्त हो या किया जाय;
  • ईणी विधि = इस विधि;
  • इसउ = ऐसा;
  • बाल हो = बाला का।

इसी प्रकार 'नयर' (नगर), 'पसाउ' (प्रसाद), पयोहर (पयोधर) आदि प्राकृत शब्द भी हैं जिनका प्रयोग कविता में अपभ्रंश काल से लेकर पीछे तक होता रहा। इसमें आए हुए कुछ फारसी, अरबी, तुरकी शब्दों की ओर भी ध्यान जाता है। जैसे महल, इनाम, नेजा, ताजनों (ताजियाना) आदि। पुस्तक की भाषा में फेरफार अवश्य हुआ है; अत: ये शब्द पीछे से मिले हुए भी हो सकते हैं और कवि द्वारा व्यवहृत भी। कवि के समय से पहले ही पंजाब में मुसलमानों का प्रवेश हो गया था और वे इधर-उधर जीविका के लिए फैलने लगे थे। अत: ऐसे साधारण शब्दों का प्रचार कोई आश्चर्य की बात नहीं। बीसलदेव के सरदारों में ताजुद्दीन मियाँ भी मौजूद हैं

मंहल पलाण्यो ताजदीन। खुरसाणी चढ़ि चाल्यो गोंड़

यह पुस्तक न तो वस्तु के विचार से और न भाषा के विचार से अपने असली और मूल रूप में कही जा सकती है। रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे हम्मीर के समय की रचना कहा है। [5] यह नरपति नाल्ह की पोथी का विकृत रूप अवश्य है जिसके आधार पर हम भाषा और साहित्य संबंधी कई तथ्यों पर पहुँचते हैं। ध्यान देने की पहली बात है, राजपूताने के एक भाट का अपनी राजस्थानी में हिन्दी का मेल करना। जैसे 'मोती का आखा किया', 'चंदन काठ को माँड़वो', 'सोना की चोरी', 'मोती की माल' इत्यादि। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रादेशिक बोलियों के साथ-साथ ब्रज या मध्य देश की भाषा का आश्रय लेकर एक सामान्य साहित्यिक भाषा भी स्वीकृत हो चुकी थी, जो चारणों में पिंगल भाषा के नाम से पुकारी जाती थी। अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह 'डिंगल' कहलाता था। हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम केवल पिंगल भाषा में लिखे हुए ग्रंथों का ही विचार कर सकते हैं। दूसरी बात, जो कि साहित्य से संबंध रखती है, वीर और श्रृंगार का मेल है। इस ग्रंथ में श्रृंगार की ही प्रधानता है, वीररस किंचित आभास मात्र है। संयोग और वियोग के गीत ही कवि ने गाए हैं। [6]

  • बीसलदेव रासो के कुछ पद्य इस प्रकार हैं -

परणबा चाल्यो बीसलराय । चउरास्या सहु लिया बोलाइ।
जान तणी साजति करउ । जीरह रँगावली पहरज्यो टोप हुअउ पइसारउ बीसलराव ।
आवी सयल अंतेवरी राव रूप अपूरब पेषियइ ।
इसी अस्त्री नहिं सयल संसार अतिरंगस्वामीसूँ मिलीराति।
बेटी राजा भोज की गरब करि ऊभो छइ साँभरयो राव।
मो सरीखा नहिं ऊर भुवाल म्हाँ घरि साँभर उग्गहइ।
चिहुँ दिसि थाण जेसलमेर 'गरबि न बोलो हो साँभरयो राव।
तो सरीखा घणा ओर भुवाल एक उड़ीसा को धाणी ।
बचन हमारइ तू मानि जु मानि ज्यूँ थारइ साँभर उग्गहइ।
राजा उणि घरि उग्गहइ हीराखान। कुँवरि कहइ 'सुणि, साँभरया राव।
काई स्वामी तू उलगई जाइ? कहेउ हमारउ जइ सुणउ। थारइ छइ साठि अंतेवरी नारि'
'कड़वा बोल न बोलिस नारि । तू मो मेल्हसी चित्त बिसारि जीभ न जीभ विगोयनो।
दव का दाधा कुपली मेल्हइÏ'
जीभ का दाधा नु पाँगुरइ। नाल्ह कहइ सुणीजइ सब कोइ आव्यो राजा मास बसंत।
गढ़ माहीं गूड़ी उछलीÏ जइ धान मिलती अंग सँभार।
मान भंग हो तो बाल हो ईणी परिरहता राज दुवारि।[7]





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रासो काव्य : वीरगाथायें (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 मई, 2011।
  2. हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) प्रकरण 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल
  3. ललित विग्रहराज नाटक, सोमदेव रचित(संस्कृत
  4. हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) प्रकरण 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल
  5. राजपूताने का इतिहास, भूमिका, पृष्ठ 19, पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा।
  6. हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) अध्याय 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल
  7. हिन्दी साहित्य का इतिहास, वीरगाथा काल (संवत् 1050 - 1375) अध्याय 3, लेखक - रामचन्द्र शुक्ल

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