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‘रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।<br />
 
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जिनके अनगिनत मीत, समैं गरीबन को गनै ॥
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जिनके अनगिनत मीत, समैं ग़रीबन को गनै ॥
  
 
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मालिक से हमने प्रीति जोड़ी, पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं। उसके अनगिनत चाहक हैं, हम गरीबों की साईं के दरबार में गिनती ही क्या।
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मालिक से हमने प्रीति जोड़ी, पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं। उसके अनगिनत चाहक हैं, हम ग़रीबों की साईं के दरबार में गिनती ही क्या।
  
 
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09:18, 12 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण

‘रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।
जिनके अनगिनत मीत, समैं ग़रीबन को गनै ॥

अर्थ

मालिक से हमने प्रीति जोड़ी, पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं। उसके अनगिनत चाहक हैं, हम ग़रीबों की साईं के दरबार में गिनती ही क्या।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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