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पूरा नाम प्रफुल्लचंद्र सेन
अन्य नाम आरामबाग के गांधी
जन्म 10 अप्रैल 1897
जन्म भूमि हुगली ज़िला
मृत्यु 25 सितम्बर,1990
मृत्यु स्थान कलकत्ता
नागरिकता भारतीय
धर्म हिन्दू
आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
जेल यात्रा 11 वर्ष
विद्यालय स्कॉटिश चर्च कॉलेज
शिक्षा स्नातक
विशेष योगदान स्वतंत्रता सेनानी, बंगाल के प्रमुख कांग्रेसी नेता थे।
संबंधित लेख महात्मा गाँधी, लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल
अन्य जानकारी 1968 के कांग्रेस विभाजन में इंदिरा जी के साथ न जाकर प्रफुल्लचंद्र सेन ने पुराने नेतृत्व के साथ ही रहने का निश्चय किया था।

प्रफुल्लचंद्र सेन (अंग्रेज़ी: Prafulla Chandra Sen, जन्म-10 अप्रैल 1897, हुगली ज़िला; मृत्यु- 25 सितम्बर,1990, कलकत्ता) बंगाल के प्रमुख कांग्रेसी नेता, गांधी जी के अनुयायी और स्वतंत्रता सेनानी थे। प्रफुल्लचंद्र सेन 1961 से 1967 तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। ग्राम विकास के कार्यों और हरिजनोद्धार में योगदान के कारण उन्हें 'आरामबाग का गांधी' कहने लगे थे। प्रफुल्लचंद्र सेन ने 11 वर्ष तक जेल की सज़ा भी भोगी थी।[1]

जन्म एवं शिक्षा

प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रफुल्लचंद्र सेन का जन्म 1897 ई. में हुगली जिले के आरामबाग नामक स्थान में एक गरीब परिवार में हुआ था। अपने पिता की हस्तांतरणीय सेवा के कारण, उन्होंने पूर्वी भारत के बिहार प्रांत में अपने बचपन बिताया। प्रफुल्लचंद्र ने बिहार के देवघर में आर मित्रा इंस्टीट्यूट से अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसके बाद, उन्होंने कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में विज्ञान का अध्ययन किया। फिर कोलकाता विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक हुए । गांधी के भाषण से प्रभावित होकर प्रफुल्लचंद्र सेन ने विदेशों में अध्ययन की सभी योजनाओं को त्याग दिया और अंग्रेजों के खिलाफ एक जन गैर सहयोग आंदोलन के लिए महात्मा गांधी का साथ दिया। प्रफुल्लचंद्र सेन उदार जीवन शैली के साथ जीवन व्यतीत करते रहें।

गांधी जी के अनुयायी

प्रफुल्लचंद्र सेन के ऊपर आरंभ से लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल (लाल बाल पाल) के विचारों का प्रभाव था। रामकृष्णा परमहंस और स्वामी विवेकानंद से भी वे प्रभावित थे। बाद में जब गांधी जी से संपर्क हुआ तो वे सदा के लिए उनके अनुयायी बन गए। प्रफुल्लचंद्र सेन खादी उद्योग के समर्थन में थे।

स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान

प्रफुल्लचंद्र सेन स्वतंत्रता आंदोलन में सदा सक्रिय रहे। 1921, 1930, 1932, 1934 और 1942 में उन्होंने कैद की सजा भोगी और कुल ग्यारह वर्ष तक जेल में बंद रहे। रचनात्मक कार्यों में प्रफुल्लचंद्र सेन की बड़ी निष्ठा थी। ग्राम विकास के कार्यों और हरिजनोद्धार में योगदान के कारण ओग उन्हें 'आरामबाग का गांधी' कहने लगे थे।

राजनैतिक जीवन

प्रफुल्लचंद्र सेन के राजनैतिक जीवन का आरंभ 1948 में डॉ. विधान चंद्र राय के मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में सम्मिलित होने के साथ हुआ। 1962 में विधान चंद्र राय की मृत्यु के बाद वे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने और 1967 तक इस पद पर रहे। इस वर्ष के निर्वाचन में कांग्रेस पराजित हो गई थी। इसके बाद का प्रफुल्लचंद्र सेन का समय रचनात्मक कार्यों में ही बीता। 1968 के कांग्रेस विभाजन में इंदिरा जी के साथ न जाकर प्रफुल्लचंद्र सेन ने पुराने नेतृत्व के साथ ही रहने का निश्चय किया। इस प्रकार उनकी राजनैतिक गतिविधियाँ समाप्त हो गईं।

निधन

प्रफुल्लचंद्र सेन का 25 सितंबर 1990 को कलकत्ता में निधन हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 486 |

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प्रफुल्लचंद चाकी (अंग्रेज़ी: Prafulla Chand Chaki, जन्म-10 दिसंबर 1888, बंगाल; मृत्यु- 1 मई,1908, कलकत्ता) बंगाल का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। इन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।[1]

जन्म एवं शिक्षा

क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी का जन्म 10 दिसंबर, 1888 ई. को उत्तरी बंगाल के एक गांव में हुआ था। दो वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया। मां ने बड़ी कठिनाई से प्रफुल्ल का पालन पोषण किया। विद्यार्थी जीवन में प्रफुल्ल का स्वामी महेश्वरानंद द्वारा स्थापित गुप्त क्रांतिकारी संगठन से परिचय हुआ। उन्होंने स्वामी विवेकानंद के साहित्य का और क्रांतिकारियों के विचारों का अध्ययन किया। इससे उनके अंदर देश को स्वतंत्र करने की भावना पुष्ट हो गई। इसी बीच बंगाल का विभाजन हुआ जिसके विरोध में लोग उठ खड़े हुए। विद्यार्थियों ने भी इस आंदोलन में आगे बढ़कर भाग लिया। कक्षा 9 के छात्र प्रफुल्ल आंदोलन में भाग लेने के कारण स्कूल से निकाल दिए गए। इसके बाद ही उनका संपर्क क्रांतिकारियों की 'युगांतर' पार्टी से हो गया।

मुजफ्फरपुर काण्ड

उन दिनों कोलकाता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं को अपमानित और दंडित करने के लिए बहुत बदनाम था। क्रांतिकारियों ने उसे समाप्त करने का काम प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को सौंपा। सरकार ने किंग्सफोर्ड के प्रति लोगों के आक्रोश को भांपकर उसकी सुरक्षा की दृष्टि से उसे सेशन जज बनाकर मुजफ्फरपुर भेज दिया। पर दोनों क्रांतिकारी भी उसके पीछे-पीछे पहुँच गए। किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन करने के बाद उन्होंने 30 अप्रैल, 1908 को यूरोपियन क्लब से बाहर निकलते ही किंग्सफोर्ड की बग्धी पर बम फेंक दिया। किन्तु दुर्भाग्य से उस समान आकार-प्रकार की बग्धी में दो यूरोपियन महिलाएँ बैठी थीं और वे मारी गईं। क्रांतिकारी किंग्सफोर्ड को मारने में सफलता समझ कर वे घटना स्थल से भाग निकले।

बलिदान

प्रफुल्ल ने समस्तीपुर पहुँच कर कपड़े बदले और टिकट खरीद कर ट्रेन में बैठ गए। दुर्भाग्यवश उसी डिब्बे में पुलिस सब इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी बैठा था। बम कांड की सूचना चारों ओर फैल चुकी थी। इंस्पेक्टर को प्रफुल्ल पर कुछ संदेह हुआ। उसने चुपचाप अगले स्टेशन पर सूचना भेजकर चाकी को गिरफ्तार करने का प्रबंध कर लिया। पर स्टेशन आते ही ज्यों ही प्रफुल्ल को गिरफ्तार करना चाहा वे बच निकलने के लिए दौड़ पड़े। पर जब देखा कि वे चारों ओर से घिर गए हैं तो उन्होंने अपनी रिवाल्वर से अपने ऊपर स्वयं को फायर करके प्राणाहुति दे दी। यह 1 मई, 1908 की घटना है।

अन्य जानकारी

कालीचरण घोष ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'रोल ऑफ आनर' में प्रफुल्ल कुमार चाकी का विवरण अन्य प्रकार से दिया है। उनके अनुसार प्रफुल्ल ने खुदीराम बोस के साथ किंग्सफोर्ड से बदला लेते समय अपना नाम दिनेश चंद्र राय रखा था। घटना के बाद जब उन्होंने अपने हाथों अपने प्राण ले लिए तो उनकी पहचान नहीं हो सकी। इसलिए अधिकारियों ने उनका सिर धड़ से काट कर स्पिरिट में रखा और उसे लेकर पहचान के लिए कोलकाता ले गए। वहाँ पता चली कि यह दोनेश चंद्र राय और कोई नहीं, रंगपुर का प्रसिद्ध क्रांतिकारी प्रफुल्ल कुमार चाकी था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 490 |

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