अचलेश्वर महादेव मंदिर, धौलपुर

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अचलेश्वर महादेव मंदिर, धौलपुर
अचलेश्वर महादेव, धौलपुर
विवरण 'अचलेश्वर महादेव मंदिर' राजस्थान स्थित प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक स्थल है। इस मंदिर में भगवान शिव के पैर के अंगूठे की पूजा-अर्चना की जाती है।
राज्य राजस्थान
ज़िला धौलपुर
स्थिति माउण्ट आबू से लगभग 11 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में अचलगढ़ की पहाड़ियों पर।
सम्बंधित देवता शिव
विशेष मंदिर में अंगूठे के नीचे बने प्राकृतिक पाताल खड्डे में कितना भी जल डाला जाये, किन्तु खाई नहीं भरती। इसमें चढ़ाया जाने वाला जल कहाँ जाता है, यह आज भी एक रहस्य है।
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अन्य जानकारी मंदिर के अंदर गर्भगृह में शिवलिंग पाताल खंड के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिसके ऊपर एक तरफ़ पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है, जिसे स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है। यह देवाधिदेव शिव का दाहिना अंगूठा माना जाता है।

अचलेश्वर महादेव मंदिर धौलपुर, राजस्थान के माउण्ट आबू में स्थित है। यह विश्व का ऐसा एकमात्र मंदिर है, जहाँ भगवान शिव तथा उनके शिवलिंग की नहीं, अपितु उनके पैर के अंगूठे की पूजा की जाती है। यहाँ भगवान शिव अंगूठे के रूप में विराजते हैं और सावन के महीने में इस रूप के दर्शन का विशेष महत्त्व है।

स्थिति

अचलेश्वर महदेव मंदिर माउण्ट आबू से लगभग 11 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा में अचलगढ़ की पहाड़ियों पर अचलगढ़ के क़िले के पास स्थित है। अचलेश्वर महादेव के नाम से भारत में कई मंदिर है, जिसमें से एक धौलपुर का 'अचलेश्वर महादेव मंदिर' है। राजस्थान के एक मात्र हिल स्टेशन माउण्ट आबू को "अर्धकाशी" के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहाँ पर भगवान शिव के कई प्राचीन मंदिर हैं। 'स्कंद पुराण' के अनुसार "वाराणसी शिव की नगरी है तो माउण्ट आबू भगवान शंकर की उपनगरी।"

मान्यता

मंदिर में प्रवेश करते ही पंच धातु की बनी नंदी की एक विशाल प्रतिमा है, जिसका वज़न चार टन है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में शिवलिंग पाताल खंड के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिसके ऊपर एक तरफ़ पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है, जिसे स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है। यह देवाधिदेव शिव का दाहिना अंगूठा माना जाता है। पारम्परिक मान्यता है कि इसी अंगूठे ने पूरे माउण्ट आबू के पहाड़ को थाम रखा है, जिस दिन अंगूठे का निशान गायब हो जाएगा, माउण्ट आबू का पहाड़ ख़त्म हो जाएगा।

मंदिर परिसर

अचलेश्वर महादेव मंदिर परिसर के विशाल चौक में चंपा का विशाल पेड़ अपनी प्राचीनता को दर्शाता है। मंदिर की बायीं बाजू की तरफ़ दो कलात्मक खंभों का धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी शिल्पकला अद्भुत है। कहते हैं कि इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे। मंदिर परिसर में द्वारिकाधीश मंदिर भी बना हुआ है। गर्भगृह के बाहर वराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम, बुद्ध व कलंगी अवतारों की काले पत्थर की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं।[1]

पौराणिक कथा

पौराणिक काल में जहाँ आज आबू पर्वत स्थित है, वहाँ नीचे विराट ब्रह्म खाई थी। इसके तट पर वशिष्ठ मुनि रहते थे। उनकी गाय कामधेनु एक बार हरी घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई तो उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती, गंगा का आह्वान किया तो ब्रह्म खाई पानी से जमीन की सतह तक भर गई और कामधेनु गाय गोमुख पर बाहर जमीन पर आ गई।

एक बार दोबारा ऐसा ही हुआ। इसे देखते हुए बार-बार के हादसे को टालने के लिए वशिष्ठ मुनि ने हिमालय जाकर उससे ब्रह्म खाई को पाटने का अनुरोध किया। हिमालय ने मुनि का अनुरोध स्वीकार कर अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्रधन को जाने का आदेश दिया। अर्बुद नाग नंदी वद्रधन को उड़ाकर ब्रह्म खाई के पास वशिष्ठ आश्रम लाया। आश्रम में नंदी वद्रधन ने वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए एवं पहाड़ सबसे सुंदर व विभिन्न वनस्पतियों वाला होना चाहिए। वशिष्ठ ने वांछित वरदान दिए। उसी प्रकार अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो। इसके बाद से नंदी वद्रधन आबू पर्वत के नाम से विख्यात हुआ। वरदान प्राप्त कर नंदी वद्रधन खाई में उतरा तो धंसता ही चला गया, केवल नंदी वद्रधन की नाक एवं ऊपर का हिस्सा जमीन से ऊपर रहा, जो आज आबू पर्वत है। इसके बाद भी वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर महादेव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे को पसार कर इसे स्थिर किया यानी अचल कर दिया तभी यह अचलगढ़ कहलाया। तभी से यहां अचलेश्वर महादेव के रूप में महादेव के अंगूठे की पूजा-अर्चना की जाती है। इस अंगूठे के नीचे बने प्राकृतिक पाताल खड्डे में कितना भी पानी डालने पर खाई पानी से नहीं भरती। इसमें चढ़ाया जाने वाला जल कहाँ जाता है, यह आज भी एक रहस्य है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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