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- स्वर्ग आदि परलोक नहीं हैं। धर्म एवं अधर्म की सत्ता नहीं है। ईश्वर कोई पारलौकिक तत्त्व नहीं है। सब कुछ इस लोक में ही है। यह तभी प्रामाणिक रूप में चार्वाक सिद्ध कर सकता है जब वह अनुमान की प्रामाणिकता का खण्डन करे। यदि अनुमान प्रमाण है तो इन पारलौकिक पदार्थों की अनुमान प्रमाण से हो रही सिद्धि को कौन रोक सकता है। इस प्रकार का प्रश्न अनुमान को प्रमाण मानने वाले विद्वानों की ओर से उठाया जाता है। यदि अनुमान प्रमाण नहीं होता तो धुएँ को देखने के अनन्तर जनसामान्य को कभी भी आग की अनुमिति नहीं होती। जो लोग प्रेक्षावान[1] विवेचक हैं अर्थात् प्रकृष्ट फल का नाम से उल्लेख हुए बिना जो शास्त्र के चिन्तन आदि में प्रवृत्त नहीं होते हैं, वे भी सहज रूप से अनुमान करने में प्रवृत्त देखे जाते हैं। फलत: अनुमान को प्रमाण अवश्य मानना चाहिए।
- 'नदी के किनारे फल रखे हुए हैं', यह वाक्य सुनने के बाद फल की कामना करने वालों में नदी के किनारे जाने के लिए प्रवृत्ति देखी जाती है। इस प्रवृत्ति से यह सिद्ध होता है कि वाक्यों को सुनने के बाद भी जन सामान्य में जो सहज क्रिया होती है वह स्वतन्त्र शब्द प्रमाण मानकर शब्दबोध होने पर ही सम्भव है।
- इस शब्द के सम्बन्ध में कहा गया है कि, यह शब्द बिना किसी भेद भाव के अपने अर्थ का साक्षात्कार सभी को करा देता है। बस अपेक्षा इतनी ही होती है कि इसका प्रयोग व्यवस्थित रूप में किया जाना चाहिए। यहाँ व्यवस्थित रूप से तात्पर्य है कि जिन शब्दों का प्रयोग हो रहा है उनमें परस्पर आकांक्षा, योग्यता एवं आसक्ति आवश्यक रूप में हो। यही कारण है कि शब्द को प्रमाण मानने वालों के यहाँ शब्दमयी देवी सरस्वती[2] की विशेष मान्यता अन्य देवताओं की अपेक्षा मुक्त कण्ठ से स्वीकार की गई है।
- शब्द से होने वाले बोध को चार्वाक प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। कारण यह है कि शब्द से होने वाले बोध में, नियमित रूप से वृत्ति ज्ञान के होने के बाद आकांक्षा योग्यता एवं आसक्ति के निर्णय हो जाने पर पद से होने वाले स्मरण के विषय पदार्थों के सम्बन्ध विशेष ही विषय होते हैं। शब्दबोध में इस सम्बन्ध या अन्वय का ही विशेष रूप से बोध होने के फलस्वरूप इस शब्दबोध को अन्वयबोध नाम से भी विद्वत समाज में जाना जाता है।
- यदि शब्दबोध प्रत्यक्ष होता तो जैसे प्रत्यक्ष अन्य प्रकार से उपस्थित पदार्थों का भी ज्ञानलक्षणा सन्निकर्ष से होता है उसी प्रकार शब्दबोध भी अन्य प्रकार से ज्ञात पदार्थों का अवश्य होता। अत: शब्दबोध में अन्य प्रकार से उपस्थित पदार्थों का बोध अनुभव सिद्ध नहीं है अत: इसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। शब्द से होने वाले बोध के अनन्तर मुझे शब्दबोध हो रहा है इस प्रकार अनुव्यवसाय या शब्दबोध का प्रत्यक्ष होता है। मुझे प्रत्यक्ष हो रहा है यह बोध किसी को नहीं होता है। इस कारण भी शब्द से प्रत्यक्ष होता है यह नहीं माना जा सकता है।
- शब्दबुद्धि को प्रत्यक्ष मानने पर, किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष के प्रति जो शब्दबोध की सामग्री को अवरोधक या प्रतिबन्धक माना जाता है वह नहीं माना जा सकेगा। क्योंकि जो शब्दबोध-स्वरूप प्रत्यक्ष है उसको इस शब्दबोध की सामग्री रोकेगी यह कैसे कहा जा सकता है? यदि कहें कि शब्दबोध-स्वरूप प्रत्यक्ष से भिन्न प्रत्यक्ष में शब्द सामग्री प्रतिबन्धक मानी जा सकती है तो इस प्रकार की लम्बी कल्पना की अपेक्षा शब्दबोध को अलग एक प्रमा मान लेने में ही लाघव है।
- इन युक्तियों के आधार पर यदि प्रमाण के रूप में अनुमान एवं शब्द भी सिद्ध हो जाएँ तो जिन पदार्थों का निराकरण चार्वाक करता है वह सम्भव नहीं हो पायेगा। यही कारण है कि चार्वाक अत्यन्त प्रबल एवं स्वाभाविक युक्तियों के आधार पर अनुमान एवं शब्द की अलग प्रमाण के रूप में मान्यता का उपहासपूर्वक अत्यन्त मनोरंजक पद्धति से खण्डन करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रेक्षावतां विवेचकानां, प्रकृष्टफलोद्देशमन्तरेण शास्त्राध्ययनेऽप्रवर्त्तमानानाम् इति यावत्। -प्रमाण्यवाद गादाधरी- पृ0 3
- ↑ अनुभवहेतु: सकले सद्य: समुपासिता मनुजे। साकाङ्क्षाऽऽसन्ना च स्वार्थे योग्या सरस्वती देवी॥ शब्दशक्तिप्रकाशिका – पृ0 265
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