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चिकित्सक जॉन सी.एस ब्रेटनर के अनुसार, आमतौर पर इस शिकायत के लिए लोग नैप्रौक्सिन और सेलिकोक्सिब जैसी पीड़हारी दवाइयों का सेवन करते हैं, जबकि इनसे कहीं ज्यादा प्रभावी नसैड्स दवा है, जो वर्तमान में बहुत कम उपयोग में है। हम तो यही कहेंगे कि इस बीमारी के प्रारम्भ में इन पीड़ाहारी दवाओं का इस्तेमाल करने की बजाय लोग नॉन स्टीरियोडियल एन्टी इन्फ्लामेट्री ड्रग्स का ही अधिक उपयोग करें।
 
चिकित्सक जॉन सी.एस ब्रेटनर के अनुसार, आमतौर पर इस शिकायत के लिए लोग नैप्रौक्सिन और सेलिकोक्सिब जैसी पीड़हारी दवाइयों का सेवन करते हैं, जबकि इनसे कहीं ज्यादा प्रभावी नसैड्स दवा है, जो वर्तमान में बहुत कम उपयोग में है। हम तो यही कहेंगे कि इस बीमारी के प्रारम्भ में इन पीड़ाहारी दवाओं का इस्तेमाल करने की बजाय लोग नॉन स्टीरियोडियल एन्टी इन्फ्लामेट्री ड्रग्स का ही अधिक उपयोग करें।
 
  
 
===समय से पहले पता चल जाएगा एल्जाइमर का===
 
===समय से पहले पता चल जाएगा एल्जाइमर का===
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शोध के लिए बैकेट और उनके साथियों ने अल्जाइमर रोग के डाटा का उपयोग किया। यह डाटा ८०० से अधिक व्यक्तियों के ब्रेन स्कैन, क्लिनिकल डाटा और अन्य लैब टेस्ट के जरिए इकट्ठा किया गया। इसके बाद शोधकर्ताओं को पता चला कि कुछ व्यक्तियों में इस रोग के लक्षण नहीं थे, जबकि कुछ में थोड़ी मात्रा में लक्षण मौजूद थे और कुछ में एल्जाइमर के अधिक लक्षण मौजूद थे। इसके बाद जिन लोगों में इस रोग के लक्षण मौजूद थे, उनका एमआरआई कराया गया और लक्षण के स्तर का पता लगाया गया और समय रहते उनका इलाज करवाया गया। नतीजतन धीरे-धीरे लक्षण समाप्त होते गए। बैकेट ने बताया कि उनकी यह शोध प्रभावपूर्ण है और जल्द ही उनकी इस खोज का इस्तेमाल अस्पतालों में किया जा सकता है, जिससे एल्जाइमर रोगियों की संख्या में कमी आ सकती है।
 
शोध के लिए बैकेट और उनके साथियों ने अल्जाइमर रोग के डाटा का उपयोग किया। यह डाटा ८०० से अधिक व्यक्तियों के ब्रेन स्कैन, क्लिनिकल डाटा और अन्य लैब टेस्ट के जरिए इकट्ठा किया गया। इसके बाद शोधकर्ताओं को पता चला कि कुछ व्यक्तियों में इस रोग के लक्षण नहीं थे, जबकि कुछ में थोड़ी मात्रा में लक्षण मौजूद थे और कुछ में एल्जाइमर के अधिक लक्षण मौजूद थे। इसके बाद जिन लोगों में इस रोग के लक्षण मौजूद थे, उनका एमआरआई कराया गया और लक्षण के स्तर का पता लगाया गया और समय रहते उनका इलाज करवाया गया। नतीजतन धीरे-धीरे लक्षण समाप्त होते गए। बैकेट ने बताया कि उनकी यह शोध प्रभावपूर्ण है और जल्द ही उनकी इस खोज का इस्तेमाल अस्पतालों में किया जा सकता है, जिससे एल्जाइमर रोगियों की संख्या में कमी आ सकती है।
 
 
  
 
==अल्ज़ाइमर पर बने फिल्मे==
 
==अल्ज़ाइमर पर बने फिल्मे==

08:37, 4 दिसम्बर 2010 का अवतरण

अल्ज़ाइमर रोग से पीड़ित एक वृद्धा
  • अल्ज़ाइमर रोग / अल्जाइमर / एल्ज़ाइमर / एल्जाइमर (Alzheimer's Disease) अथवा विस्मृति रोग (भूलने का रोग) वृद्धावस्था का एक असाध्य रोग माना गया है।
  • यह याददाश्त को प्रभावित करने वाली एक मानसिक गड़बड़ी है, जिसे डेमेनटिया कहा जाता है। एल्जाइमर इसी मानसिक गड़बड़ी का सबसे सामान्य रूप है। आजकल प्रख्यात नेता जॉर्ज फर्नांडिस इस समस्या से ग्रस्त हैं।
  • सन 1906 में जर्मन के डॉ. ओलोए अल्जीमीर ने एक महिला के दिमाग के परीक्षण में पाया कि उसमें कुछ गांठे पड़ गई हैं, जिन्हें चिकित्सक ‘प्लेट’ कहते हैं। यही रोग उस डॉ. के नाम पर अल्ज़ाइमर रोग कहलाया जाने लगा।

लक्षण

अल्ज़ाइमर व्यक्ति के मस्तिष्क को प्रभावित करने वाली बीमारी होती है। इस बीमारी से ग्रसित होने के कई वर्ष बाद इसका लक्षण दिखाई देता है। इस बीमारी के लक्षणों में याददाश्त की कमी होना, जिसमें रोगी धीरे - धीरे सब कुछ भूलने लग जाता है। यहाँ तक कि वह स्वयं को भी भूल जाता है। ज्यादा बढ़ जाने पर व्यक्ति अपनी याद्दाश्त पूरी तरह से गंवा देता है। अल्जाइमर पीड़ित बुजुर्ग छोटी-छोटी बातों को भूलने लगते हैं। शुरुआती लक्षणों पर गौर करना जरूरी है। शुरू -शुरू में वह चीजों के रखने का स्थान, किसी व्यक्ति का नाम, टेलीफोन नम्बर ब्रश करना भूलना आदि भूलने लगता है। उसे अपना चश्मा ढूंढ़ने में समय लग सकता है, या उसे याद नहीं रहता कि उसने चाबी कहाँ रखी है, किसी परिचित के मिलने पर उसका नाम याद नहीं आता, निर्णय न ले पाना, सरल वाक्यों को बोलने में दिक्कत महसूस करना दिनचर्या के सामान्य कार्यों को करने में दिक्कत महसूस करना, अचानक चिड़चिड़ाहट पैदा होना और गुस्से का बढ़ जाना ऐसी समस्या शुरुआती लक्षण हो सकते हैं। फिर धीरे-धीरे रोगी अपने परिवार के सदस्यों का नाम भूलने लगता है। फिर ऐसी स्थिति आती है कि वह किसी को नहीं पहचानता तथा फिर इसकी वजह से सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं की गंभीर स्थिति आदि शामिल हैं। अल्जाइमर उम्र की ढलान पर होने वाला ऐसा असाध्य रोग है जो कई रोगों की वजह बन जाती है। अल्जाइमर में याद्दाश्त इतनी कमजोर हो जाती है कि बुजुर्ग डायबिटीज, दिल व ऐसी ही कुछ अन्य बीमारियां होने पर भी अपने दर्द और परेशानी को नहीं जान पाते हैं।

अवस्था

सामन्य व्यक्ति और अल्ज़ाइमर रोगी के मस्तिष्क का तुलनात्मक द्रश्य

इस रोग की तीन अवस्थाएं होती हैं। मन्द, मध्यम और गंभीर। पहली मंद अवस्था में नाम अथवा संख्या भूलना और मानसिक संतुलन में गड़बड़ी होना हो सकता है। मध्यम अवस्था में घबराहट, उलझन, अस्त-व्यस्तता तथा रोगी के व्यक्तित्व में शोचनीय परिर्वतन नज़र आता है, उसके मानसिक संतुलन में भी अत्यधिक गड़बड़ी दृष्टिगत होती है। तीसरी और अन्तिम अवस्था गम्भीर होती है और रोगी को कपड़े पहनने तथा मूत्र और शौच त्याग आदि का भी ध्यान नहीं रहता। भोजन से लेकर सोने तक वह सब कुछ भूल जाता है।

नसों पर प्रभाव

अल्ज़ाइमर रोगी का मस्तिष्क

डेमेनटिया के शिकार लोगों के दिमाग में प्रोटीन का जमाव होने लगता है। यह दिमाग के मेमोरी सेंटर में फैल जाता है जिससे दिमाग के कुछ हिस्सों के न्यूरॉन मरने लगते हैं। इससे याददाश्त के लिए जरूरी महत्वपूर्ण केमिकल ट्रांसमीटर मसलन एसेटिलकोलाइन का स्तर कम हो जाता है।

अल्ज़ाइमर एक प्रकार का ऐसा मानसिक रोग है जो धीरे धीरे दिमाग के न्यूरॉन्स को नष्ट कर देता है न्यूरॉन्स दिमाग की कोशिकाएं हैं, जो दिमाग को एक्टिव रखने का काम करते हैं। जिससे किसी की भी याददाश्त, सोच और व्यवहार पर गहरा प्रभाव प़डता है। पीड़ित की कार्य प्रणाली, शौक, सामाजिक जिंदगी सब तहस नहस हो जाता है। दरअसल हमारा दिमाग एक मास्टर फैक्टरी की तरह होता है जिसमें छोटे छोटे सब स्टेशन होते हैं, जो नसों से ज़ुडे होते हैं। इन सबसे एक बहुत ही बढ़िया नेटवर्क बनता है। प्रत्येक नस अलग अलग कार्य करती है जैसे कि कुछ नसें सोचने के लिए मदद करती हैं तो कई नसें समझने और सुचारू याददाश्त रखने में भागीदारी निभाती हैं। कुछ नसों का काम होता है हमारी देखने, सूंघने और सुनने की प्रक्रिया को दुरुस्त रखना, बाकी नसें मांसपेशियों की कार्यप्रणाली का निरीक्षण करती हैं, तो पूरी प्रक्रिया को सही रखने के लिए इन सब नसों के बीच सुचारू संपर्क बेहद आवश्यक होता है, लेकिन अल्ज़ाइमर की स्थिति में नसों की सुचारू कार्य प्रणाली रुक जाती है जिससे कि उनके कार्य में बाधाएं उत्पन्न होने लगती हैं और धीरे धीरे नसें मर जाती हैं।

कारण

अगर परिवार में कोई भी इस बीमारी से पीड़ित हो, तो खतरे की संभावना ब़ढ जाती है अर्थात आनुवांशिक होने से खतरा ब़ढ जाता है। रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा, ज्यादा जंक फूड खाने से, आधुनिक जीवनशैली और सिर में कई बार चोट लग जाने से इस बीमारी के होने की आशंका बढ़ जाती है। इसलिए अपने सिर को हमेशा बचाकर रखना चाहिए। संतुलित भोजन की कमी से भी यह हो सकता है। एल्जाइमर से ग्रस्त लोगों में बिटामीन बी 12, विटामिन ए, ई, केरोटॉनाइड्स और जिंक की कमी देखने को मिलती है।

उम्र

60 या 65 वर्ष पार करते करते अक्सर लोगों को इस बीमारी का शिकार होना पड़ता है। इसके बाद हर दस साल में अल्जाइमर के मरीजों में वृद्धि होती जाती है। कम उम्र के लोगों में अमूमन यह नहीं होता है। बहुत ही कम केसों में 30 या 40 की उम्र में लोगों को ये बीमारी होती है। पुरुषों में जहाँ आम तौर पर 60 वर्ष की अवस्था में अल्ज़ाइमर की शिकायत शुरू होती है वहीं महिलाओं में इसके लक्षण 45 वर्ष की अवस्था में दिखते है। भारत में 37 लाख लोग डेमेनटिया के शिकार हैं और इनमें से 90 फीसदी एल्जाइमर से पीड़ित हैं।

उपचार

विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आकलन के मुताबिक दुनिया भर में लगभग एक करोड़ 80 लाख लोग अल्ज़ाइमर से पीड़ित हैं। इस बीमारी से ग्रस्त मरीज पर सतत ध्यान देने की ज़रूरत है। यद्यपि, इस बीमारी के लक्षण का पता चल जाने बाद कई दवाइयां उपलब्ध हैं जिससे व्यक्ति की मानसिक स्थिति में सुधार किया जा सकता है। हालांकि इस बीमारी का उपचार अब तक उपलब्ध नहीं है। लेकिन बीमारी के शुरूआती दौर में नियमित जांच और इलाज से इस पर काबू पाया जा सकता है। बुजुर्गियत में अन्य बीमारियों से पीड़ित मरीज एल्जाइमर की स्थिति में अपनी तकलीफ बयां नही कर पाता है। ऐसे मे अन्य बीमारियों का इलाज संभव नहीं हो पाता।

अल्ज़ाइमर से जुङे शोध और प्रयोग

रक्त जांच से पता चलेगा अल्जाइमर का

अमेरिका के वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने एक साधारण रक्त जांच का विकास किया है, जिससे अल्जाइमर बीमारी के खतरे की जांच की जा सकती है। अल्जाइमर व्यक्ति के मस्तिष्क प्रभावित को करने वाली बीमारी होती। इस बीमारी से ग्रसित होने के कई वर्ष बाद इसका लक्षण दिखाई देता है। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पाया है कि उनके टेस्ट से अल्जाइमर बीमारी से ग्रसित लोगों की पहचान की जा सकती है, साथ ही इस बीमारी से भविष्य ग्रसित होने की आशंका के बारे में भी पता लगाया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने इस पूरी जांच प्रक्रिया में 90 प्रतिशत तक की गारंटी की बात कही है। इस बारे में बीबीसी न्यूज की वेबसाइट पर रिपोर्ट प्रकाशित की गई है।

सिर का बड़ा आकार बचाता है अल्जाइमर से: अध्ययन

छोटे सिर वाले अल्जाइमर रोगियों की तुलना में बड़े सिर वाले अल्जाइमर रोगियों की याद्दाश्त और सोचने समझने की क्षमता अच्छी होती है, चाहे दोनों के मस्तिष्क की कोशिकाएं समान संख्या में खत्म क्यों न हुई हों ।

जर्मनी में म्यूनिख के टेक्नीकल विश्वविद्यालय के रॉबर्ट पर्नीजेकी ने एक अध्ययन में कहा है ये परिणाम इस मस्तिष्क भंडार या मस्तिष्क में होने वाले बदलाव को बर्दाश्त करने की क्षमता के सिद्धांत को बल प्रदान करते हैं। हमारे निष्कर्ष जीवन में मस्तिष्क के ईष्टतम विकास के महत्व को भी रेखांकित करते हैं क्योंकि छह वर्ष की उम्र तक मस्तिष्क अपने अंतिम आकार के 93 प्रतिशत हिस्से तक पहुंच जाता है।

पर्नीजेकी ने शोध दल की अगुवाई की है। अध्ययन के दौरान पाया गया कि सिर के बड़े आकार का सीधा संबंध याददाश्त और सोचने समझने की शक्ति से होता है। इस शोध के मुताबिक, सिर का आकार मस्तिष्क भंडार और मस्तिष्क के विकास का पैमाना है। वैज्ञानिकों के अनुसार, हालांकि मस्तिष्क का विकास अनुवांशिकी से भी निर्धारित होता है, लेकिन इस पर पोषण तथा केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में संक्रमण और मस्तिष्क संबंधी चोट का काफी असर पड़ता है।

संभव हो सकता है अल्जाइमर का इलाज

चूंकी इस बीमारी का अनुवांशिक नाता होने के कारण दुनिया के लोगों में यह आस जगी है कि इस बीमारी पर अब नियंत्रण कर पाना संभव हो सकेगा। सोलह साल में पहली बार इस रोग से संबंधित जीन के बारे में जानकारी मिली है और इस शोध ने वैज्ञानिकों को उन सिध्दांतों पर फिर से सोचने को प्रेरित किया है कि यह रोग कैसे पनपता है। ये जीन्स सोलह हजार डीएनए नमूनों पर चिह्नित किए गए थे और ये कोलेस्टेरॉल के विघटन के लिए जाने जाते हैं। उम्मीद की जा रही है कि इस रोग के अनुवांशिक अध्ययन के जरिए इसके इलाज के नए रास्ते खुलेंगे। अल्जाइमर रोग से संबंधित अंतिम और एकमात्र जीन एपीओई4 जीन है जिस पर शोधकर्ताओं का प्रमुख ध्यान रहा है।

ब्रिटेन के कई विश्वविद्यालयों के सामूहिक प्रयास से जुटाए गए ये आंकड़े फ्रांसीसी शोधकर्ताओं को भी मुहैया कराए गए जिन्होंने सीआर1 नामक एक तीसरे जीन की पहचान की है। शोधपत्र में इस जीन का भी उल्लेख किया गया है। ब्रिटिश शोधकर्ताओं द्वारा खोजे गए दोनों जीन्स सीएलयू और पीआईसीएएलएम मस्तिष्क में अपनी रक्षात्मक भूमिका के लिए जाने जाते हैं। इन जीनों के शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसे जीन्स में कोई भी बदलाव उल्टे में गडबडी पैदा कर सकती है। यह जीन या तो इनकी रक्षात्मक भूमिका को समाप्त कर सकता है या फिर इन्हें रक्षात्मक से आक्रामक बना सकता है। उम्मीद की जा रही है कि इस खोज से परंपरागत दवाओं के माध्यम से इस रोग के इलाज के नए रास्ते खुलेंगे। दवाओं के बाजार में उतरने से मरिजों को काफी राहत मिलेगी क्योंकि अब तक यही माना जाता रहा है कि अल्जाइमर एक लाइलाज बीमारी है। अब सवाल ये उठता है कि यदि हम कोलेस्टेरॉल और प्रदाह को नियंत्रित कर लें तो क्या लोगों में अल्जाइमर रोग के खतरे को कम किया जा सकता है? इस प्रश्न का हल जानने के लिए हमें आगे के वैज्ञानिक प्रयासों और शोधों में आ रही प्रगति को देखना होगा।

इस बीमारी की भयावहता इसी बात से जानी जा सकती है कि अकेले ब्रिटेन में यादाश्त खोने के सात लाख रोगी हैं और अनुमान है कि साल 2050 तक ये संख्या सत्रह लाख तक पहुंच जाएगी। हालांकि जिस ढंग से प्रयास और उस पर वैज्ञानिक आगे बढते जा रहे हैं, उम्मीद की जा सकती है कि ये शोध आगे चलकर काफी महत्वपूर्ण हो सकता है। इस बीमारी में वास्तव में ये बताना बेहद मुश्किल होता है कि सामान्य अल्जाइमर रोग कैसे होता है और इस बीमारी को लेकर सबसे बडी पेंच यही है। लेकिन आने वाले दिनों में इस बारे में स्थिति काफी कुछ साफ हो सकती है। अल्जाइमर पर होने वाले इस महत्वपूर्ण अध्ययन दल में कार्डिफ, लंदन, कैंब्रिज, नॉटिंघम, साउथहैम्पटन, मैनचेस्टर, ऑक्सफोर्ड, ब्रिस्टल और बेलफास्ट के वैज्ञानिक शामिल थे और अगले एक साल में इससे साठ हजार लोगों को और जोड़ने की योजना है। ज्यादा से ज्यादा लोगों के जुडने से इस बीमारी को लेकर दुनिया के हरेक कोने में जनजागृति के अलावा आपसी सदभाव की भूमिका बढेग़ी जो मर्ज और मरीजों के लिए अति महत्वपूर्ण मानी जाती है।

एल्जाइमर के इलाज में विफल हैं पीड़ाहारी दवाएँ

इस सर्वेक्षण के अन्तर्गत अमेरिका में 70 वर्ष की आयु से अधिक आयु-वर्ग के 2,100 लोगों में किया गया जिनकी पृष्ठभूमि इस बीमारी से जुड़ी है। प्रतिभागियों को प्रतिदिन इन पीड़ाहारी दवाइयों की खुराक निश्चित मात्रा में दी जाने लगी। निष्कर्ष के तौर पर पाया गया कि इन दवाइयों से एल्जाइमर के उपचार में कुछ खास उपलब्धि नहीं हुई। साथ ही यह भी पाया गया कि लम्बे समय तक नॉन स्टीरियोडियल एन्टी इन्फ्लामेट्री ड्रग्स के सेवन से इस बीमारी से परेशान लोगों को थोड़ी राहत पहुँची।

चिकित्सक जॉन सी.एस ब्रेटनर के अनुसार, आमतौर पर इस शिकायत के लिए लोग नैप्रौक्सिन और सेलिकोक्सिब जैसी पीड़हारी दवाइयों का सेवन करते हैं, जबकि इनसे कहीं ज्यादा प्रभावी नसैड्स दवा है, जो वर्तमान में बहुत कम उपयोग में है। हम तो यही कहेंगे कि इस बीमारी के प्रारम्भ में इन पीड़ाहारी दवाओं का इस्तेमाल करने की बजाय लोग नॉन स्टीरियोडियल एन्टी इन्फ्लामेट्री ड्रग्स का ही अधिक उपयोग करें।

समय से पहले पता चल जाएगा एल्जाइमर का

इस शोध की अध्यक्ष और यूसी डेविस में पब्लिक हेल्थ साइंस की प्रोफेसर लुरेल बैकेट ने बताया कि असामान्य मस्तिष्क के पिक्चर और रीढ़ के चारों तरफ के तरल पदार्थ की जांच को संयुक्त किए जाने पर अल्जाइमर रोग होने से पहले के लक्षणों का पता लगाया जा सकता है। बैकेट ने बताया कि उनकी यह खोज विशिष्ट खोज है और यह बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है, जिससे अल्जाइमर रोग के पहले लक्षणों का पता लगाया जा सके। इसके जरिए उन रोगियों का पता लगाया जा सकता है, जो अल्जाइमर रोग से ग्रसित हो सकते हैं और इसके जरिए समय रहते उनका निदान किया जा सकता है। इस विधि से अल्जाइमर रोगियों की संख्या में कमी आ सकती है। यह शोध अधिक उम्र के व्यक्तियों पर किया गया है।

शोध के लिए बैकेट और उनके साथियों ने अल्जाइमर रोग के डाटा का उपयोग किया। यह डाटा ८०० से अधिक व्यक्तियों के ब्रेन स्कैन, क्लिनिकल डाटा और अन्य लैब टेस्ट के जरिए इकट्ठा किया गया। इसके बाद शोधकर्ताओं को पता चला कि कुछ व्यक्तियों में इस रोग के लक्षण नहीं थे, जबकि कुछ में थोड़ी मात्रा में लक्षण मौजूद थे और कुछ में एल्जाइमर के अधिक लक्षण मौजूद थे। इसके बाद जिन लोगों में इस रोग के लक्षण मौजूद थे, उनका एमआरआई कराया गया और लक्षण के स्तर का पता लगाया गया और समय रहते उनका इलाज करवाया गया। नतीजतन धीरे-धीरे लक्षण समाप्त होते गए। बैकेट ने बताया कि उनकी यह शोध प्रभावपूर्ण है और जल्द ही उनकी इस खोज का इस्तेमाल अस्पतालों में किया जा सकता है, जिससे एल्जाइमर रोगियों की संख्या में कमी आ सकती है।

अल्ज़ाइमर पर बने फिल्मे

  • ब्लैक -- 'ब्लैक' फिल्म में अमिताभ बच्चन ने एक ऐसे शिक्षक की भूमिका निभाई थी, जिसे बाद में अल्जाइमर हो जाता है और वह सबको भूल जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ