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==परिचय==
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ईसा की सातवी शताब्दी में शंकर के रूप में स्वयं भगवान [[शिव]] का अवतार हुआ था। आदि शंकराचार्य जिन्हें 'शंकर भगवद्पादाचार्य' के नाम से भी जाना जाता है, वेदांत के अद्वैत मत के प्रणेता थे। अवतारवाद के अनुसार, ईश्वर तब अवतार लेता है, जब धर्म की हानि होती है। धर्म और समाज को व्यवस्थित करने के लिए ही आशुतोष शिव का आगमन दक्षिण-भारत के [[केरल]] राज्य के कालडी़ ग्राम में हुआ था । वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। शंकर के बचपन में ही उनके पिता का देहान्त हो गया । आरम्भ से ही सन्यास की तरफ रुचि के कारण अल्पायु में ही आग्रह करके माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज मे निकल पड़े ।
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==शिक्षा==
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आदि शंकराचार्य ने अपनी अनन्य निष्ठा के फलस्वरूप अपने सदगुरु से शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त किया बल्कि ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया। जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता को इसने जहाँ [[काशी]] में घटी दो विभिन्न घटनाओं के द्वारा जाना, वहीं मंडन मिश्र से हुए शास्त्रार्थ के बाद परकाया प्रवेश द्वारा उस यथार्थ का भी अनुभव किया, जिसे सन्यास की मर्यादा में भोगा नहीं जा सकता। यही कारण है कि कुछ बातों के बारे में पूर्वाग्रह दिखाते हुए भी लोक संग्रह के लिए, आचार्य शंकर आध्यात्म की चरम स्थिति में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। अपनी माता के जीवन के अंतिम क्षणों में पहुँचकर पुत्र होने के कर्तव्य का पालन करना इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है।
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==हिन्दू धर्म की पुनः स्थापना==
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उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है । एक तरफ उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया । [[सनातन]] [[हिन्दू धर्म]] को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होंने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया । शंकर के मायावाद पर [[महायान]] [[बौद्ध]] चिन्तन का प्रभाव माना जाता है । इसी आधार पर उन्हें प्रछन्न बुद्ध कहा गया है ।
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==पीठों की स्थापना==
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शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की । 'श्रंगेरी' [[कर्नाटक]] (दक्षिण) में, '[[द्वारका]]' [[गुजरात]] (पश्चिम) में, 'पुरी' [[उड़ीसा]] ( पूर्व) में और जोर्तिमठ (जोशी मठ) [[उत्तराखंड|उत्तराखन्ड]] (उत्तर) में ।
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==परम्परावाद का विरोध==
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आचार्य शंकर जीवन में धर्म, अर्थ और काम को निरर्थक मानते हैं। यदि इनके द्वारा परम पुरुषार्थ मोक्ष नही सधता। और मोक्ष के लिए वे ज्ञान को अद्वैत ज्ञान का परम साधना मानते हैं। क्योंकि ज्ञान समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देता है। सृष्टि का विवेचन करते समय कि इसकी उत्पत्ति कैसे होती है। वे इसका मूल कारण ब्रह्म को मानते हैं। वह ब्रह्म अपनी 'माया' शक्ति के सहयोग से इस सृष्टि का निर्माण करता है, ऐसी उनकी धारणा है। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि शक्ति और शक्तिमान एक ही हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार सृष्टि के विवेचन से एक बात और भी स्पष्ट होती है कि परमात्मा को सर्वव्यापक कहना भी भूल है, क्योंकि वह सर्वरूप है। वह अनेकरूप हो गया, 'यह अनेकता है ही नहीं', 'मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँ' अद्धैत मत का यह कथन संकेत करता है कि शैतान या बुरी आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा कहीं दिखाई भी देता है, तो वह वस्तुतः नहीं है भ्रम है बस। जीवों और ब्रह्मैव नापरः- जीव ही ब्रह्म है अन्य नहीं।
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==निष्काम उपासना==
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ऐसे में बंधन और  मुक्ति जैसे शब्द भी खेलमात्र हैं। विचारों से ही व्यक्ति बंधता है। उसी के द्वारा मुक्त होता है। भवरोग से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है विचार। उसी के लिए निष्काम कर्म और निष्काम उपासना को आचार्य शंकर ने साधना बताया। निष्काम होने का अर्थ है संसार की वस्तुओं की कामना न करना, क्योंकि शारीरिक माँग तो प्रारब्धता से पूरी होगी, और मनोवैज्ञानिक चाह की कोई सीमा नहीं है। इस सत्य को जानकर अपने कर्तव्यों का पालन करना तथा ईश्वरीय सत्ता के प्रति समर्पण का भाव, आलस्य प्रसाद से उठाकर चित्त को निश्चल बना देगें, जिसमें ज्ञान टिकेगा। इस प्रकार आचार्य ने बुद्धि, भाव और कर्म इन तीनों के संतुलन पर जोर दिया है। इस तरह वैदान्तिक साधना ही समग्र साधना है। कभी-कभी लगता है कि आचार्य शंकर परम्परावादी हैं। लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। उनकी छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण रचनाओं से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है। परम्परा का निर्वाह करते हुए भी उनका लक्ष्य 'सत्य' प्रतिपादन करना है। प्रश्नात्तरी में कहे इस श्लोकांश से क्या संकेत मिलता है, पशुओं में भी पशु वह है जा धर्म को जानने के बाद भी उसका आचरण नहीं करता और जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया है, फिर भी उसे आत्मबोध नहीं हुआ है। इसी प्रकार भज गोविन्दम में बाहरी रूप-स्वरूप को नकारते हुए वे कहते हैं कि जो संसार को देखते हुए भी नहीं देखता है, उसने अपना पेट भरने के लिए तरह-तरह के वस्त्र धारण किए हुए हैं।
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==व्यवाहरिक सत्य==
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जीवन के परम सत्य को व्यावहारिक सत्य के साथ जोड़ने के कारण ही अपरोक्षानुभूति के बाद आचार्य शंकर मौन बैठकर उसका आनन्द नहीं लेते, बल्कि समूचे भारतवर्ष में घूम-घूम कर उसके रूप-स्वरूप को निखारने में तत्पर होते हैं। मानो त्याग-वैराग्य और निवृत्ति के मूर्तरूप हों, लेकिन प्रवृत्ति की पराकाष्ठा है उनमें श्रीराम, श्री कृष्ण की तरह। चार मठों की स्थापना, दशनाम सन्यास को सुव्यवस्थित रूप देना, सगुण-निर्गण का भेद मिटाने का प्रयास, हरिहर निष्ठा की स्थापना ये कार्य ही उन्हें जगदगुरु पद पर प्रतिष्ठित करते हैं। स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ जैसे युवा सन्यासियों ने विदेशों में जाकर जिस वेदांत का घोष किया, वह शंकर वेदांत ही तो था। जगदगुरु कहलाना, केवल उस परम्परा का निर्वाह करना और स्वयं को उस रूप में प्रतिष्ठित करना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। आज भारत को एक ऐसे ही महान व्यक्तित्व की आवश्यकता है जिसमें योगी, कवि, भक्त, कर्मनिष्ठ और शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही जनकल्याण की भावना हो, जो सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करने को उद्यत हो।
  
आदि शंकराचार्य जिन्हें शंकर भगवद्पादाचार्य के नाम से भी जाना जाता है, वेदांत के अद्वैत मत के प्रणेता थे । आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म केरल के कालडी़ ग्राम में हुआ था । वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे । शंकर के बचपन में ही उनके पिता का देहान्त हो गया । आरम्भ से ही सन्यास की तरफ रुचि के कारण अल्पायु में ही आग्रह करके माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज मे निकल पड़े । उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है । एक तरफ उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया । [[सनातन]] [[हिन्दू धर्म]] को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होंने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया । शंकर के मायावाद पर [[महायान]] [[बौद्ध]] चिन्तन का प्रभाव माना जाता है । इसी आधार पर उन्हें प्रछन्न बुद्ध कहा गया है । शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की । 'श्रंगेरी' कर्नाटक (दक्षिण) में, '[[द्वारका]]' गुजरात (पश्चिम) में, 'पुरी' उड़ीसा ( पूर्व) में और जोर्तिमठ (जोशी मठ) उत्तराखन्ड (उत्तर) में ।
 
  
  
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आदि शंकराचार्य
Adi Shankaracharya

आदि शंकराचार्य / Adi Shankaracharya

(788 ई - 820 ई)

परिचय

ईसा की सातवी शताब्दी में शंकर के रूप में स्वयं भगवान शिव का अवतार हुआ था। आदि शंकराचार्य जिन्हें 'शंकर भगवद्पादाचार्य' के नाम से भी जाना जाता है, वेदांत के अद्वैत मत के प्रणेता थे। अवतारवाद के अनुसार, ईश्वर तब अवतार लेता है, जब धर्म की हानि होती है। धर्म और समाज को व्यवस्थित करने के लिए ही आशुतोष शिव का आगमन दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालडी़ ग्राम में हुआ था । वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। शंकर के बचपन में ही उनके पिता का देहान्त हो गया । आरम्भ से ही सन्यास की तरफ रुचि के कारण अल्पायु में ही आग्रह करके माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज मे निकल पड़े ।

शिक्षा

आदि शंकराचार्य ने अपनी अनन्य निष्ठा के फलस्वरूप अपने सदगुरु से शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त किया बल्कि ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया। जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता को इसने जहाँ काशी में घटी दो विभिन्न घटनाओं के द्वारा जाना, वहीं मंडन मिश्र से हुए शास्त्रार्थ के बाद परकाया प्रवेश द्वारा उस यथार्थ का भी अनुभव किया, जिसे सन्यास की मर्यादा में भोगा नहीं जा सकता। यही कारण है कि कुछ बातों के बारे में पूर्वाग्रह दिखाते हुए भी लोक संग्रह के लिए, आचार्य शंकर आध्यात्म की चरम स्थिति में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। अपनी माता के जीवन के अंतिम क्षणों में पहुँचकर पुत्र होने के कर्तव्य का पालन करना इस संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है।

हिन्दू धर्म की पुनः स्थापना

उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है । एक तरफ उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया । सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होंने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया । शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है । इसी आधार पर उन्हें प्रछन्न बुद्ध कहा गया है ।

पीठों की स्थापना

शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की । 'श्रंगेरी' कर्नाटक (दक्षिण) में, 'द्वारका' गुजरात (पश्चिम) में, 'पुरी' उड़ीसा ( पूर्व) में और जोर्तिमठ (जोशी मठ) उत्तराखन्ड (उत्तर) में ।

परम्परावाद का विरोध

आचार्य शंकर जीवन में धर्म, अर्थ और काम को निरर्थक मानते हैं। यदि इनके द्वारा परम पुरुषार्थ मोक्ष नही सधता। और मोक्ष के लिए वे ज्ञान को अद्वैत ज्ञान का परम साधना मानते हैं। क्योंकि ज्ञान समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देता है। सृष्टि का विवेचन करते समय कि इसकी उत्पत्ति कैसे होती है। वे इसका मूल कारण ब्रह्म को मानते हैं। वह ब्रह्म अपनी 'माया' शक्ति के सहयोग से इस सृष्टि का निर्माण करता है, ऐसी उनकी धारणा है। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि शक्ति और शक्तिमान एक ही हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार सृष्टि के विवेचन से एक बात और भी स्पष्ट होती है कि परमात्मा को सर्वव्यापक कहना भी भूल है, क्योंकि वह सर्वरूप है। वह अनेकरूप हो गया, 'यह अनेकता है ही नहीं', 'मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँ' अद्धैत मत का यह कथन संकेत करता है कि शैतान या बुरी आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसा कहीं दिखाई भी देता है, तो वह वस्तुतः नहीं है भ्रम है बस। जीवों और ब्रह्मैव नापरः- जीव ही ब्रह्म है अन्य नहीं।

निष्काम उपासना

ऐसे में बंधन और मुक्ति जैसे शब्द भी खेलमात्र हैं। विचारों से ही व्यक्ति बंधता है। उसी के द्वारा मुक्त होता है। भवरोग से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है विचार। उसी के लिए निष्काम कर्म और निष्काम उपासना को आचार्य शंकर ने साधना बताया। निष्काम होने का अर्थ है संसार की वस्तुओं की कामना न करना, क्योंकि शारीरिक माँग तो प्रारब्धता से पूरी होगी, और मनोवैज्ञानिक चाह की कोई सीमा नहीं है। इस सत्य को जानकर अपने कर्तव्यों का पालन करना तथा ईश्वरीय सत्ता के प्रति समर्पण का भाव, आलस्य प्रसाद से उठाकर चित्त को निश्चल बना देगें, जिसमें ज्ञान टिकेगा। इस प्रकार आचार्य ने बुद्धि, भाव और कर्म इन तीनों के संतुलन पर जोर दिया है। इस तरह वैदान्तिक साधना ही समग्र साधना है। कभी-कभी लगता है कि आचार्य शंकर परम्परावादी हैं। लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। उनकी छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण रचनाओं से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है। परम्परा का निर्वाह करते हुए भी उनका लक्ष्य 'सत्य' प्रतिपादन करना है। प्रश्नात्तरी में कहे इस श्लोकांश से क्या संकेत मिलता है, पशुओं में भी पशु वह है जा धर्म को जानने के बाद भी उसका आचरण नहीं करता और जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया है, फिर भी उसे आत्मबोध नहीं हुआ है। इसी प्रकार भज गोविन्दम में बाहरी रूप-स्वरूप को नकारते हुए वे कहते हैं कि जो संसार को देखते हुए भी नहीं देखता है, उसने अपना पेट भरने के लिए तरह-तरह के वस्त्र धारण किए हुए हैं।

व्यवाहरिक सत्य

जीवन के परम सत्य को व्यावहारिक सत्य के साथ जोड़ने के कारण ही अपरोक्षानुभूति के बाद आचार्य शंकर मौन बैठकर उसका आनन्द नहीं लेते, बल्कि समूचे भारतवर्ष में घूम-घूम कर उसके रूप-स्वरूप को निखारने में तत्पर होते हैं। मानो त्याग-वैराग्य और निवृत्ति के मूर्तरूप हों, लेकिन प्रवृत्ति की पराकाष्ठा है उनमें श्रीराम, श्री कृष्ण की तरह। चार मठों की स्थापना, दशनाम सन्यास को सुव्यवस्थित रूप देना, सगुण-निर्गण का भेद मिटाने का प्रयास, हरिहर निष्ठा की स्थापना ये कार्य ही उन्हें जगदगुरु पद पर प्रतिष्ठित करते हैं। स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ जैसे युवा सन्यासियों ने विदेशों में जाकर जिस वेदांत का घोष किया, वह शंकर वेदांत ही तो था। जगदगुरु कहलाना, केवल उस परम्परा का निर्वाह करना और स्वयं को उस रूप में प्रतिष्ठित करना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। आज भारत को एक ऐसे ही महान व्यक्तित्व की आवश्यकता है जिसमें योगी, कवि, भक्त, कर्मनिष्ठ और शास्त्रीय ज्ञान के साथ ही जनकल्याण की भावना हो, जो सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करने को उद्यत हो।