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औरंगज़ेब की मृत्युकाल से लेकर प्लासी की लड़ाई के पूर्वकाल तक बंगाल, बिहार और उड़ीसा की राजनीति मुग़ल प्रशासन से अप्रभावित रहने लगी थी। 'सुकुमार भट्टाचार्य' ने लिखा है कि, "यह सत्य है कि, औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही षड्यन्त्रकारी शाक्तियों ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि जिस राज्य की जड़े इतनी शक्तिशाली थीं, उन्हें धूल-धूसरित कर दिया गया और अब औरंगज़ेब के वंश में कोई भी ऐसा नहीं रह गया, जो इन षड्यन्त्रों को कुचल सकता। इसका कारण यह था कि, मुग़लों का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था, जो सूबेदारों के संरक्षण में थे। प्रत्यक्ष है कि, ऐसा शासन प्रबन्ध शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की उपस्थिति में ही चल सकता था। लेकिन मुग़लों का केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध औरंगज़ेब की अनुपस्थिति में नितान्त शक्तिहीन और अदृढ़ हो गया था।

शक्तिहीन मुग़ल उत्तराधिकारी

बादशाह औरंगज़ेब के सारे उत्तराधिकारी जहाँदारशाह, फ़र्रुख़सियर, मुहम्मदशाह आदि अयोग्य थे, जो गिरते साम्राज्य को संभाल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में मुग़ल सूबेदार अपने प्रान्तों के स्वामी स्वयं बन बैठे। इस कारण मुग़ल साम्राज्य में चारों तरफ़ अशान्ति, उपद्रव षडयन्त्र आदि के बाज़ार गर्म हो गये। दक्षिण भारत के राज्य भी अशान्त हो उठे। दक्षिण में निज़ामुलमुल्क, आसिफ़जान और अवध में सआदत अली ख़ाँ ने स्वतन्त्र राजसत्ता का प्रयोग किया। इसी मार्ग का अनुशीलन रूहेलखण्ड के अफ़ग़ान पठानों ने भी किया। मराठों ने भी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मालवा और गुजरात पर अधिकार करके पूना को अपने राजनीतिक कार्य-कलापों का केन्द्र बना लिया। अगर 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली के हाथों पानीपत के मैदान में मराठों को पराजय न मिली होती तो, आज भारतीय इतिहास की एक नई रूपरेखा होती। भारत में काम करने वाली यूरोपीय कम्पनियाँ क्या इस आन्तरिक फूट से लाभ उठाने के लोभ का संवरण कर सकती थीं? इन्हें भी देखें: मुग़ल वंश, मुग़ल काल, मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला एवं मुग़लकालीन राजस्व प्रणाली

मराठा शक्ति का उदय

मुग़ल शासन की शक्तिहीनता के कारण भारत में आने वाली विदेशी जातियों और उनकी कम्पनियों को प्रभाव जमाने का मौका तो मिला ही, भारत की एक अन्य शक्ति मराठा भी अपना विकास करती गई और मुग़ल प्रशासन की संप्रभुता को चुनौती देकर अपनी प्रधानता कायम कर ली। उन्नीसवीं शताब्दी का एक अंग्रेज़ इतिहासकार लिखता है कि, "औरंगज़ेब की मृत्यु के साथ ही मुग़ल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। जहाँदारशाह लापरवाह, लम्पट और पागलपन की हद तक नशेबाज़ था। उसने दुराचारपूर्ण और स्त्रैण दरबारी जीवन का एक दुष्ट नमूना सामने रखा और शासक वर्ग की नैतिकता को कलंकित किया। इस कठपुतली बादशाह के काल में सारी सत्ता वज़ीर तथा अन्य दरबारियों के हाथों में चली गई। उत्तरदायित्व बँट जाने से प्रशासन में लापरवाही आयी और अराजकता फैल गई। अपने ग्यारह महीने के प्रशासन काल में जहाँदारशाह ने अपने पूर्वजों द्वारा संचित ख़ज़ाने को अधिकांशत: लूटा दिया। सोना, चाँदी और बाबर के समय से इकट्ठी की गई अन्य मूल्यवान चीजें उड़ा दी गईं। युवक मुहम्मदशाह को प्रशासन में कोई रुचि नहीं थी। वह निम्न कोटि के लोगों से घिरा रहता था और तुच्छ कामों में अपना समय बिताता था। इसी के शासन काल में दिल्ली पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ था। इस समय भारत की शक्ति अधिकांशत: मराठों के हाथों में आ चुकी थी, और वही नादिरशाह के आक्रमण का मुकाबला भी कर सकते थे। मुग़ल साम्राज्य के मुकाबले इस समय मराठे ही एक मजबूत स्थिति में थे। इन्हें भी देखें: शाहजी भोंसले, जीजाबाई, शम्भुजी, शाहू, ताराबाई एवं छत्रपति राजाराम

शिवाजी के उत्तराधिकारी

प्राचीन राज्य सब छिन्न-भिन्न हो चुके थे और मुग़लों का सामना मराठों से था, जो प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे, और अन्त में मराठे मुग़लों पर पूरी तरह से छा गये। मराठों में राजनीतिक जागरण एवं संगठन की पृष्ठभूमि का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने किया था। औरंगज़ेब के शासन-काल में ही उन्होंने तोरण, रामगढ़, चाकन, कल्याणी आदि को जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी, तथा बीजापुर के सुल्तान, यहाँ तक की औरंगज़ेब से भी संघर्ष करके अपनी अजेय शक्ति का परिचय दिया। उन्होंने स्वतन्त्र मराठा राज्य की स्थापना कर ली थी, जिसे विवश होकर मुग़ल सम्राट को भी मान्यता देनी पडी। शिवाजी के नेतृत्व में निर्मित मराठा प्रशासन मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोरी का परिचायक है। शिवाजी के उत्तराधिकारियों-शम्भाजी, राजाराम, शिवाजी द्वितीय और शाहू ने मराठा राज्य का संचालन किया। उनके बाद पेशवाओं की प्रधानता मराठा राज्य में कायम हो गई। बालाजी विश्वनाथ, बाजीराव प्रथम और बालाजी बाजीराव नामक पेशवाओं ने मराठा शक्ति को अपने संरक्षण में कायम रखा। यद्यपि एक दिन मराठे अहमदशाह अब्दाली के हाथों पराजित हुए, तथापि उन्होंने भारत की एक महान शक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखा। प्लासी की लड़ाई के बाद वे औरंगज़ेब के एक बड़े विरोधी सिद्ध हुए थे। इन्हें भी देखें: रघुजी भोंसले, राघोवा, नारायणराव एवं माधवराव नारायण

अन्य शक्तियों का उत्कृष्ट

उत्तर मुग़लकालीन शासकों के शासनकाल में मराठों के अतिरिक्त भारत में सिक्खों, राजपूतों, जाटों तथा रुहेलों के रूप में अन्य शक्तियाँ भी उछल-कूद कर रही थीं। सिक्खों ने पंजाब में अपनी शक्ति में वृद्ध कर ली थी। पंजाब में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और मुग़लों की संप्रभूता की अवहेलना कर दी। इसी प्रकार राजपूतों ने राजपूताना में, जाटों ने दिल्ली के आस-पास और रुहेलों ने रूहेलखण्ड में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। मराठों तथा सिक्खों की तरह उन्होंने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना कर डाली। सम्पूर्ण देश को विघटित करने वाली इन तमाम शक्तियों पर नियन्त्रण रखना मुग़ल शासकों के लिए सम्भव नहीं रह गया और देश विघटित होने लगा।

जाट

मुग़ल सल्तनत के आख़री समय में जो शक्तियाँ उभरी, जिन्होंने ब्रजमंडल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर हैं। जाटों का इतिहास पुराना है। जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति है; लेकिन औरंगज़ेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया। मुग़लिया सल्तनत के अन्त से अंग्रेज़ों के शासन तक ब्रजमंड़ल में जाटों का प्रभुत्व रहा। इन्होंने ब्रज के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया। यह समय ब्रज के इतिहास में 'जाट काल' के नाम से जाना जाता है। इस काल का विशेष महत्त्व है।

जाट नेताओं ने इस समय में ब्रज में अनेक जगहों पर, जैसे सिनसिनी, डीग, भरतपुर, मुरसान और हाथरस जैसे कई राज्यों को स्थापित किया। इन राजाओं में डीग−भरतपुर के राजा महत्त्वपूर्ण हैं। इन राजाओं ने ब्रज का गौरव बढ़ाया, इन्हें 'ब्रजेन्द्र' अथवा 'ब्रजराज' भी कहा गया। ब्रज के इतिहास में कृष्ण (अलबेरूनी ने कृष्ण को जाट ही बताया है)[1] के पश्चात जिन कुछ हिन्दू राजाओं ने शासन किया , उनमें डीग और भरतपुर के राजा विशेष थे। इन राजाओं ने लगभग सौ सालों तक ब्रजमंडल के एक बड़े भाग पर राज्य किया। इन जाट शासकों में महाराजा सूरजमल (शासनकाल सन 1755 से सन् 1763 तक) और उनके पुत्र जवाहर सिंह (शासन काल सन 1763 से सन 1768 तक ) ब्रज के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध हैं।

जवाहर सिंह

जवाहर सिंह सन 1763 से 1768 तक ही भरतपुर की राजगद्दी पर रहा, उसी समय में वह अपने अद्भुत साहस और अनुपम शौर्य से अपना नाम अमर कर गया और जाट राज्य के गौरव को भी चरम सीमा पर पहुँचा दिया। जाट राजवंश में चूड़ामन से लेकर अब तक जो वीर पुरुष हुए थे, उनमें जवाहर सिंह किसी से कम नहीं था। यदि वीरता और साहस के साथ उसमें गंभीरता, नीतिज्ञता और व्यवहार−कुशलता भी होती, तो वह ब्रज के इतिहास को एक नया मोड़ दे सकता था। किंतु उसने अपनी शक्ति को व्यर्थ के युद्धों में नष्ट कर दिया। इस कारण उसके बाद ही जाट राज्य का महत्त्व कम होने लगा। जवाहर सिंह साहसी योद्धा होने के साथ ही साथ साहित्य और कला का प्रेमी तथा प्रोत्साहनकर्त्ता भी था। उसके आश्रित कवियों में भूधर, रंगलाल और मोतीराम के नाम उल्लेखनीय हैं। ब्रजभाषा का विख्यात महाकवि देव अपनी वृद्धावस्था में उसके दरबार में उपस्थित हुआ था। अक्टूबर, सन 1763 में जवाहर सिंह ने विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया था। उसके साथ 60 हज़ार जवान और 100 तोपों की जाट सेना थी, 25 हज़ार मराठों की सेना मल्हारराव होल्कर की कमान में थी, और 15 हज़ार सिक्ख सेना थी। जवाहर सिंह का उद्देश्य दिल्ली के नवाब वज़ीर नजीबुद्दोला रूहेले से सूरजमल के ख़ून का बदला लेना और पानीपत में हार जाने से हिन्दुओं के स्वाभिमान को जो ठेस पहुँची थी, उसका बदला लेना भी था।

सिक्ख

सिक्ख जाति को एक लड़ाकू जाति के रूप में परिवर्तित करने का महत्त्वपूरण कार्य गुरु हरगोविन्द सिंह ने किया। सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख एक राजनीतिक एवं फौजी शक्ति बनकर उभरे। गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु के बाद 'गुरु' की परम्परा समाप्त हो गई। उनके शिष्य बन्दा सिंह, जिसे 'बन्दा बहादुर' के नाम से भी जाना जाता है, उसने अपने गुरु की मृत्यु के बाद सिक्खों का नेतृत्व संभाला। उसके शिष्य उसे 'सच्चा पादशाह' कहकर सम्बोधित करते थे। 1715 ई. में बन्दा सिंह को पकड़कर उसकी हत्या कर दी गई। 1748 ई. में नवाब 'कर्पूर सिंह' ने सिक्खों के अलग-अलग दल को 'खालसा दल' में शामिल किया, जिसका नेतृत्व 'जस्सा सिंह' ने किया। सिक्खों का विभाजन 12 मिसलों में हुआ था। 1760 ई. तक सिक्खों का पंजाब पर पूर्ण अधिकार हो गया था। सिक्खों ने 1763 से 1773 ई. के बीच सिक्ख शक्ति का विस्तार पूर्व में सहारनपुर, पश्चिम में अटक, दक्षिण में मुल्तान और उत्तर में जम्मू-कश्मीर तक कर लिया।

राजपूत

राजपूतों ने मुस्लिम आक्रमाणियों से शताब्दियों तक वीरतापूर्वक युद्ध किया। यद्यपि उनमें परस्पर एकता के अभाव के कारण भारत पर अन्तत: मुस्लिमों का राज्य स्थापित हो गया था, तथापि उनके तीव्र विरोध के फलस्वरूप इस कार्य में मुस्लिमों को बहुत समय लगा। दीर्घकाल तक मुस्लिमों का विरोध और उनसे युद्ध करते रहने के कारण राजपूत शिथिल हो गए और उनकी देशभक्ति, वीरता तथा आत्म-बलिदान की भावनाएँ कुंठित हो गईं। यही कारण है कि भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के विरुद्ध किसी भी महत्त्वपूर्ण राजपूत राज्य अथवा शासक ने कोई युद्ध नहीं किया। इसके विपरीत 1817 और 1820 ई. के बीच सभी राजपूत राजाओं ने स्वेच्छा से अंग्रेज़ों की सर्वोपरि सत्ता स्वीकार करके अपनी तथा अपने राज्य की सुरक्षा का भार उन पर छोड़ दिया।

आधुनिक काल की पुमुख लड़ाईयाँ

भारतीय इतिहास में समय-समय पर कई युद्ध हुए हैं। इन युद्धों के द्वारा भारत की राजनीति ने न जाने कितनी ही बार एक अलग ही दिशा प्राप्त की। भारतीय रियासतों में आपस में ही कई इतिहास प्रसिद्ध युद्ध लड़े गए। इन देशी रियासतों की आपसी फूट भी इस हद तक बढ़ चुकी थी, कि अंग्रेज़ों ने उसका पूरा लाभ उठाया। राजपूतों, मराठों और मुसलमानों में भी कई सन्धियाँ हुईं। भारत के इतिहास में अधिकांश युद्धों का लक्ष्य सिर्फ़ एक ही था, दिल्ली सल्तनत पर हुकूमत। आधुनिक काल में अंग्रेज़ों ने ही अपनी सूझबूझ और चालाकी व कूटनीति से दिल्ली की हुकूमत प्राप्त की थी। हालाँकि उन्हें भारत में अपने पाँव जमाने के लिए काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा था, फिर भी उन्होंने भारतियों की आपसी फूट का लाभ उठाते हुए इसे एक लम्बे समय तक ग़ुलाम बनाये रखा।

आंग्ल-मराठा युद्ध

भारत के इतिहास में तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1818 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और मराठा महासंघ के बीच हुए थे। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि, मराठा महासंघ का पूरी तरह से विनाश हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में काफ़ी भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट नहीं हो सके। जहाँ रघुनाथराव ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मित्रता करके पेशवा बनने का सपना देखा, और अंग्रेज़ों के साथ सूरत की सन्धि की, वहीं क़ायर बाजीराव द्वितीय ने बसीन भागकर अंग्रेज़ों के साथ बसीन की सन्धि की और मराठों की स्वतंत्रता को बेच दिया। पहला युद्ध(1775-1782 ई.) रघुनाथराव द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 ई. में बड़गाँव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की सन्धि (मई 1782 ई.) होने तक युद्ध जारी रखा।

आंग्ल-सिक्ख युद्ध

भारत के इतिहास में दो सिक्ख युद्ध हुए हैं। इन दोनों ही युद्धों में सिक्ख अंग्रेज़ों से पराजित हुए और उन्हें अंग्रेज़ों से उनकी मनमानी शर्तों के अनुसार सन्धि करनी पड़ी। प्रथम युद्ध में पराजय के कारण सिक्खों को अंग्रेज़ों के साथ 9 मार्च, 1846 ई. को 'लाहौर की सन्धि' और इसके उपरान्त एक और सन्धि, 'भैरोवाल की सन्धि' 22 दिसम्बर, 1846 ई. को करनी पड़ी। इन सन्धियों के द्वारा 'लाल सिंह' को वज़ीर के रूप में अंग्रेज़ों ने मान्यता प्रदान कर दी और अपनी एक रेजीडेन्ट को लाहौर में रख दिया। महारानी जिन्दा कौर को दलीप सिंह से अलग कर दिया गया, जो की दलीप सिंह की संरक्षिका थीं। उन्हें 'शेखपुरा' भेज दिया गया। द्वितीय युद्ध में सिक्खों ने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया। दलीप सिंह को पेन्शन प्रदान कर दी गई। उसे व रानी जिन्दा कौर को 5 लाख रुपये वार्षिक पेन्शन पर इंग्लैण्ड भेज दिया गया। जहाँ पर कुछ समय बाद ही रानी जिन्दा कौर की मृत्यु हो गई।

गोरखा युद्ध

गोरखा युद्ध 1816 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार और नेपाल के बीच हुआ। उस समय भारत का गवर्नर-जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राज्य का प्रसार नेपाल की तरफ़ भी होने लगा था, जबकि नेपाल अपने राज्य का विस्तार उत्तर की ओर चीन के होने के कारण नहीं कर सकता था। गोरखों ने पुलिस थानों पर हमला कर दिया और कई अंग्रेज़ों को अपना निशाना बनाया। इन सब परिस्थितियों में कम्पनी ने गोरखा लोगों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इन्हें भी देखें: युद्ध सन्धियाँ, आन्दोलन विप्लव सैनिक विद्रोह (1757-1856 ई.) एवं गोरखा

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

लॉर्ड कैनिंग के गवर्नर-जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान क्रान्ति हुई। इस क्रान्ति का आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुआ, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गया। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया।

1857 ई. की इस महान क्रान्ति के स्वरूप को लेकर विद्धान एक मत नहीं है। इस बारे में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत प्रतिपादित किये हैं, जो इस प्रकार हैं-'सिपाही विद्रोह', 'स्वतन्त्रता संग्राम', 'सामन्तवादी प्रतिक्रिया', 'जनक्रान्ति', 'राष्ट्रीय विद्रोह', 'मुस्लिम षडयंत्र', 'ईसाई धर्म के विरुद्ध एक धर्म युद्ध' और 'सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष' आदि।

मंगल पाण्डे

29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफ़सरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और साथ ही उसकी बटालियम '34 एन.आई.' को भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी. परेड मेरठ में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों ने नये कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुडसवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास दिया गया। 'खुला विद्रोह' 10 मई, दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी '20 एन.आई.' में विद्रोह की शुरुआत हुई, तत्पश्चात '3 एल.सी.' में भी विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियाँ चलाई। मंगल पाण्डे ने 'हियरसे' को गोली मारी थी, जबकि 'अफ़सर बाग' की हत्या कर दी गई थी।

झाँसी की रानी

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1828 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर (कानपुर) आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाते थे, जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।

तात्या टोपे

सन 1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणीय वीरों में तात्या टोपे को बड़ा उच्च स्थान प्राप्त है। इस वीर ने कई स्थानों पर अपने सैनिक अभियानों में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात में अंग्रेज़ी सेनाओं से टक्कर ली थी और उन्हें परेशान कर दिया था। गोरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाते हुए तात्या टोपे ने अंग्रेज़ी सेनाओं के कई स्थानों पर छक्के छुड़ा दिये थे। तात्या टोपे जो 'तांतिया टोपी' के नाम से विख्यात हैं, 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के उन महान सैनिक नेताओं में से एक थे, जो प्रकाश में आए। 1857 ई. तक लोग इनके नाम से अपरिचित थे। लेकिन 1857 ई. की नाटकीय घटनाओं ने उन्हें अचानक अंधकार से प्रकाश में ला खड़ा किया। इस महान विद्रोह के प्रारंभ होने से पूर्व वह राज्यच्युत पेशवा बाजीराव द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र बिठूर के राजा, नाना साहब के एक प्रकार से साथी-मुसाहिब मात्र थे, किंतु स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर के सम्मिलित होने के पश्चात तात्या पेशवा की सेना के सेनाध्यक्ष की स्थिति तक पहुँच गए।

बहादुर शाह

बहादुर शाह ज़फ़र अकबर द्वितीय और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। अपने शासनकाल के अधिकांश समय उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह अंग्रेज़ों पर आश्रित रहे। 1857 ई. में स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के समय बहादुर शाह 82 वर्ष के बूढे थे, और स्वयं निर्णय लेने की क्षमता को खो चुके थे। विद्रोहियों ने उनको आज़ाद हिन्दुस्तान का बादशाह बनाया। इस कारण अंग्रेज़ उनसे कुपित हो गये और उन्होंने उनसे शत्रुवत् व्यवहार किया। सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने दुबारा दिल्ली पर क़ब्ज़ा जमा लिया और बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ़्तार करके उन पर मुक़दमा चलाया गया तथा उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया।

अन्तिम मुग़ल शासक बहादुरशाह ज़फ़र, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे (रामचंन्द्र पांडुरंग), बिहार के बाबू कुँवरसिंह, महाराष्ट्र से नाना साहब, इस प्रथम क्रान्ति के प्रयास के नायक थे, किन्तु प्रयास विफल हो गया। अधिकांश देशी राजाओं ने अपने को क्रांति से अलग रखा। कम्पनी को बलपूर्वक क्रांति को कुचल देने में सफलता मिली, परन्तु क्रांति के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत पर कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया। भारत का शासन अब सीधे ब्रिटेन के द्वारा किया जाने लगा।

महात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी ने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन ही समर्पित कर दिया था। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा' की उपाधि दी थी, जिससे वह महात्मा गाँधी के नाम से पुकारे जाने लगे थे। महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था, जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गांधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः राजकोट (काठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गांधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था। इन्हें भी देखें: असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन एवं नमक सत्याग्रह

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

इस प्रकार भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा काल (1858-1947 ई.) आरम्भ हुआ। इस काल का शासन एक के बाद इकत्तीस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। गवर्नर-जनरल को अब वाइसराय (ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि) कहा जाने लगा। लॉर्ड कैनिंग पहला वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। 1885 ई. में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसमें देश के समस्त भागों से 71 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1883 ई. में कलकत्ता में हुआ, जिसमें सारे देश से निर्वाचित 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस अधिवेशन में माँग की गयी कि भारत में केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों का विस्तार किया जाये और उसके आधे सदस्य निर्वाचित भारतीय हों। कांग्रेस हर साल अपने अधिवेशनों में अपनी माँगें दोहराती रही। लॉर्ड डफ़रिन ने कांग्रेस पर व्यंग्य करते हुए उसे ऐसे अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था बताया, जिसे सिर्फ़ ख़ुर्दबीन से देखा जा सकता है। लॉर्ड लैन्सडाउन ने उसके प्रति पूर्ण उपेक्षा की नीति बरती, लॉर्ड कर्ज़न ने उसका खुलेआम मज़ाक उड़ाया तथा लॉर्ड मिन्टो द्वितीय ने 1909 के इंडियन कॉउंसिल एक्ट द्वारा स्थापित विधानमंडलों में मुसलमानों को अनुचित रीति से अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देकर उन्हें फोड़ने तथा कांग्रेस को तोड़ने की कोशिश की, फिर भी कांग्रेस जिन्दा रही।

सफलता की शुरुआत

कांग्रेस को पहली मामूली सफलता 1909 ई. में मिली, जब इंग्लैण्ड में भारतमंत्री के निर्देशन में काम करने वाली 'भारत परिषद' में दो भारतीय सदस्यों की नियुक्ति पहली बार की गयी। वाइसराय की 'एक्जीक्यूटिव काउंसिल' में पहली बार एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गयी तथा 'इंडियन काउंसिल एक्ट' के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधानमंडलों का विस्तार कर दिया गया तथा उनमें निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों का अनुपात पहले से अधिक बढ़ा दिया गया। इन सुधारों के प्रस्ताव लॉर्ड मार्ले ने हालाँकि भारत में संसदीय संस्थाओं की स्थापना करने का कोई इरादा होने से इन्कार किया, फिर भी एक्ट में जो व्यवस्थाएँ की गयीं थी, उनका उद्देश्य उसी दिशा में आगे बढ़ने के सिवा और कुछ नहीं हो सकता था। 1911 ई. में लॉर्ड कर्ज़न के द्वारा 1905 ई. में किया बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया गया और भारत ने ब्रिटेन का पूरा साथ दिया। भारत ने युद्ध को जीतने के लिए ब्रिटेन की फ़ौजों से, धन से तथा समाग्री से मदद की। भारत आशा करता था कि इस राजभक्ति प्रदर्शन के बदले युद्ध से होने वाले लाभों में उसे भी हिस्सा मिलेगा।

सरदार भगत सिंह

1919 ई. में रौलट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियाँवाला बाग़ काण्ड हुआ। इस काण्ड का समाचार सुनकर भगत सिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है। 1920 ई. के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 ई. में भगत सिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपत राय ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगत सिंह ने भी प्रवेश लिया। 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवतीचरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगत सिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया।

चन्द्रशेखर आज़ाद

चन्द्रशेखर आज़ाद के सफल नेतृत्व में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 ई. को दिल्ली की 'केन्द्रीय असेंबली' में बम विस्फोट किए। ये विस्फोट सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किए गए थे। इस काण्ड के फलस्वरूप भी क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए। केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के पश्चात भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया। वे न्यायालय को अपना प्रचार–मंच बनाना चाहते थे। चन्द्रशेखर आज़ाद घूम–घूमकर क्रान्ति प्रयासों को गति देने में लगे हुए थे। आख़िर वह दिन भी आ गया, जब किसी मुखबिर ने पुलिस को वह सूचना दी, कि चन्द्रशेखर आज़ाद अल्फ्रेड पार्क में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं। चन्द्रशेखर आज़ाद ने पार्क में काफ़ी देर तक अंग्रेज़ों से मुकाबला किया। उनके पास सारी गोलियाँ समाप्त हो चुकी थीं, सिर्फ़ एक गोली ही शेष थी। वे अंग्रेज़ों के हाथों में आना नहीं चाहते थे। स्वयं को गिरफ्तारी से बचाने के लिए उन्होंने वह एक शेष गोली अपने मस्तिष्क से सटाकर चली दी। इस प्रकार एक ऐसे देशभक्त का अन्त हो गया, जिसने आज़ादी की प्राप्ति के लिये प्राणों का मोह नहीं किया। देश का हर एक नागरिक इस वीर के ऋण को सदैव याद रखे, यही उस वीर के लिये एक सच्ची श्रृद्धाजंली होगी।

नेताजी बोस

सुभाष चन्द्र बोस एक महान नेता थे। कहते हैं न, कि नेता अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते, पर उनमें विरोधियों को साथ लेकर चलने का महान गुण होता है। सो नेता जी में यह गुण कूट-कूट कर भरा था। दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अलग-अलग विचारों के दल थे। ज़ाहिर तौर पर महात्मा गाँधी को उदार विचारों वाले दल का प्रतिनिधि माना जाता था। वहीं नेताजी अपने जोशीले स्वभाव के कारण क्रांतिकारी विचारों वाले दल में थे। यही कारण था कि महात्मा गाँधी और सुभाष चन्द्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे। लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि, महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। वे यह भी जानते थे कि महात्मा गाँधी ही देश के राष्ट्रपिता कहलाने के सचमुच हक़दार हैं। सबसे पहले गाँधी जी को राष्ट्रपिता कहने वाले नेताजी ही थे। इन्हें भी देखें: सरदार बल्लभ भाई पटेल , सुखदेव, राजगुरु, लाला लाजपत राय एवं आज़ाद हिन्द फ़ौज

सम्प्रदायिक दंगे

कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों की भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लॉर्ड वेवेल अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है, जिसका नियंत्रण मुध्य रूप से अंग्रेज़ों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।

स्वतंत्रता प्राप्ति

भारत का संविधान बनाने के लिए एक भारतीय संविधान सभा का आयोजन किया गया। 1947 ई. के शुरू में लॉर्ड वेवेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटेन वाइसराय नियुक्त हुआ। उसे पंजाब में भयानक सम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा। जिनको भड़काने में वहाँ के कुछ ब्रिटिश अफ़सरों का हाथ था। वह प्रधानमंत्री एटली के नेतृत्व में ब्रिटेन की सरकार को यह समझाने में सफल हो गया कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान करने से शान्ति की स्थापना सम्भव हो सकेगी और ब्रिटेन भारत में अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित रख सकेगा। 3 जून, 1947 ई. को ब्रिटिश सरकार की ओर से यह घोषणा कर दी गयी कि भारत का; भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान कर दी जायगी। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 15 अगस्त, 1947 ई. को 'इंडिपेडंस ऑफ़ इंडिया एक्ट' पास कर दिया। इस तरह भारत उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, बलूचिस्तान, सिंध, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल भागों से रहित हो जाने के बाद, सात शताब्दियों की विदेशी पराधीनता के बाद स्वाधीनता के एक नये पथ पर अग्रसर हुआ।

रियासतों का विलय

अधिकांश देशी रियासतों ने, जिनके सामने भारत अथवा पाकिस्तान में विलय का प्रस्ताव रखा गया था, भारत में विलय के पक्ष में निर्णय लिया, परन्तु, दो रियासतों-कश्मीर तथा हैदराबाद ने कोई निर्णय नहीं किया। पाकिस्तान ने बलपूर्वक कश्मीर की रियासत पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु अक्टूबर 1947 ई. में कश्मीर के महाराज ने भारत में विलय की घोषणा कर दी और भारतीय सेनाओं को वायुयानों से भेजकर श्रीनगर सहित कश्मीरी घाटी तक जम्मू की रक्षा कर ली गयी। पाकिस्तानी आक्रमणकारियों ने रियासत के उत्तरी भाग पर अपना क़ब्ज़ा बनाये रखा और इसके फलस्वरूप पाकिस्तान से युद्ध छिड़ गया। भारत ने यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया और संयुक्त राष्ट्र संघ ने जिस क्षेत्र पर जिसका क़ब्ज़ा था, उसी के आधार पर युद्ध विराम कर दिया। वह आज तक इस सवाल का कोई निपटारा नहीं कर सका है। हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी रियासत को स्वतंत्रता का दर्जा दिलाने का षड़यंत्र रचा, परन्तु भारत सरकार की पुलिस कार्रवाई के फलस्वरूप वह 1948 ई. में अपनी रियासत भारत में विलयन करने के लिए मजबूर हो गये। रियासतों के विलय में तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की मुख्य भूमिका रही।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'वासुदेव जाति का जाट था', 'भारत' अल-बेरूनी

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