उंडुकार्ति

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उंडुकार्ति (अपेंडिसाइटीज़) उंडुक (अपेंडिक्स) के प्रदाह (इनफ्लैमेशन) को कहते हैं। उंडुक आंत्र के एक छोटे से विभाग का नाम है जो क्षुद्रांत्र और बृहदांत्र के संगम स्थान के नीचे की ओर से निकला रहता है। इसकी लंबाई लगभग 8 सें.मी. और आधार स्थान पर इसका व्यास 6 मि.मी. होता है। यह उदर के निचले भाग में दाहिनी ओर स्थित रहता है। मनुष्य के शरीर में यह अंग कोई कार्य नहीं करता।

उंड़कार्ति का अर्थ है उंडुक का जीवाणुओं द्वारा संक्रमित होकर शोथयुक्त हो जाना। बहुत से रोगियों के शरीर में साधारणतया रहनेवाले जीवाणु ही उंडुक में शोथ उत्पन्न कर देते हैं। कभी कभी जीवाणु गले और टांसिलों से रक्त के द्वारा भी वहाँ पहुँच जाते हैं। शाकाहारियों की अपेक्षा आमिषभोजियों में यह रोग अधिक होता है और इस कारण हमारे देश की अपेक्षा यूरोप और अमरीका में इसका प्रकोप अधिक है। यह रोग किसी भी आयु के व्यक्ति को हो सकता है, किंतु दो वर्ष की अवस्था से पूर्व बहुत असाधारण है। तीस वर्ष की आयु के पश्चात्‌ भी यह कम होता है। कहा जाता है, विपुच्छ कपि (एप) जाति के वानरों में भी यह रोग होता है।

उंडुकार्ति में उदर में पीड़ा होती है। प्राय: पीड़ा प्रभातवेला में नाभि के चारों ओर प्रारंभ होती है और वहाँ से उंडक प्रांत में आती हुई प्रतीत होती है। प्रारंभ में एक या दो वमन हो सकते हैं। किंतु वमन निरंतर नहीं होते। ज्वर शीघ्र ही आरंभ हो जाता है, किंतु बहुत अधिक नहीं होता। उदर उंडुक प्रांत में कठोर हो जाता है और वहाँ के चर्म को दबाने से रोगी को पीड़ा होती है।

उंडुकार्ति में विशेष भय उंडुक के विदार (फटने) का रहता है, अथवा वह कोथ (गैग्रोन) युक्त हो जाता है। उसके चारों ओर पूय (पीब) भी बन सकता है।

यदि किसी व्यक्ति को यह रोग होने का संदेह हो तो उसको विरेचक औषधियाँ नहीं देनी चाहिए और न उसको कुछ खाने को ही देना चाहिए। उदर की मालिश भी न होनी चाहिए। जब तक कोई डाक्टर न देख ले तब तक पीड़ा कम करने के लिए कोई औषधि देना भी उचित नहीं है। रोग का पूर्ण निदान हो जाने के एक या दो दिन के भीतर उसका शल्यकर्म करवा देना चाहिए। शल्यकर्म की सलाह इसलिए दी जाती है कि विदार या कोथ उत्पन्न हो जाने से रोगी के लिए जीवन और मरण का प्रश्न उपस्थित हो जाता है। शल्यकर्म करके उंडुक को निकाल दिया जाता है।

चित्र : उंडुक

1. वृहदांतत्र; 2. अंधांत्र; 3. उंडुक;

4. पेड़ू; 5. क्षुद्रांत्र; 6. नाभि।

यदि किसी कारण शल्यकर्म न किया जा सके तो शोथयुक्त स्थान पर उष्मस्वेद (फ़ोमेंटेशन, भीगे गरम कपड़े से सेंक) किया जाए, पेनिसिलिन और स्ट्रेप्टोमाइसीन के इंजेक्शन दिए जाएँ और रोगी को शय्या में पूर्णतया निश्चिल करके रखा जाए। उपद्रवों की तुरंत पहचान के लिए रोगी को सावधानी से देखते रहना चाहिए। रोग के अत्यंत तीव्र न होने पर, संभव है, पूर्वोक्त चिकित्सा से वह एक सप्ताह में आरोग्य लाभ कर ले। किंतु एक मास के भीतर उसको शल्यकर्म करवा देना चाहिए जिससे रोग के पुन: आक्रमण का डर न रहे। कभी-कभी यह चिकित्सा करने पर भी उंडुक के चारों और पूय बन जाता है। ऐसी अवस्था में पूय निकाल देना आवश्यक होता है।[1]

यदि रोगी सावधान नहीं रहता तो उसको रोग के बार-बार आक्रमण हो सकते हैं। इसलिए रोगी को शल्यकर्म करवा के रोग के भय को सदा के लिए दूर कर देना उचित है। (प्री.दा.)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 50 |