कत्था

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कत्था भारत में एक सुपरिचित वस्तु है, जो मुख्य रूप से पान में लगाकर खाने के काम आता है। कभी-कभी औषधि और रंग के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। कत्था 'खैर'[1] नामक वृक्ष की भीतरी कठोर लकड़ी से निकाला जाता है। खैर के वृक्ष भारत भर में, विशेषत: सूखे क्षेत्रों में पाए जाते हैं। खैर का वृक्ष वनस्पति विज्ञान में, असली कैटिचू किस्म का कहा जाता है। यह पंजाब, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश में गढ़वाल और कुमाऊँ, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तरी कनारा और दक्षिण में गंजाम तक पाया जाता है।

पुराना उद्योग

पूर्वी हिमालय तथा असम की ओर इस खैर के वृक्षों के होने की सूचना नहीं है। खैर की लकड़ी से कत्था निकालने का उद्योग बहुत पुराना है। खैर से कत्था निकालने का काम प्राय: वे लोग करते हैं जो पीढ़ियों से इसे करते आए हैं। ये लोग 'खैरय्या' या 'चाई' कहलाते हैं और उत्तरी भाग में गोंडा और बहराइच ज़िले के निवासी अथवा पहाड़ी होते हैं। कत्था कुटीर उद्योग के करने वाले दूर-दूर फैले हुए हैं। इन व्यक्तियों द्वारा प्रतिवर्ष कितना कत्था तैयार किया जाता है, इसके विषय में ठीक आँकड़े प्राप्य नहीं हैं। अनुमान है कि ये लोग प्रति वर्ष 2-2 हज़ार टन कत्था तैयार करते हैं। कत्था बनाने का काम कुछ संगठित कारखानों में भी किया जाता है। ये कारखाने अधिकतर उत्तर प्रदेश, मुंबई और मध्य प्रदेश में स्थित हैं। इनके द्वारा प्रतिवर्ष 1-1 हज़ार टन कत्था तैयार किया जाता है।[2]

कत्था निकालने की पुरानी विधि

देश के विभिन्न भागों में सब मिलाकर लगभग 50,000 खैर के वृक्ष प्रतिवर्ष कत्था बनाने के लिए काटे जाते हैं। जो वृक्ष 25-30 वर्ष पुराने होते हैं और जिनकी मोटाई एक फुट या अधिक होती है, वे इस काम के लिए प्रयुक्त हाते हैं। गिराने के बाद वृक्षों के दो तीन फुट (60 से 100 सें.मी.) लंबे बोटे बना लिए जाते हैं और उन पर से छाल और मुलायम लकड़ी उतार दी जाती है। इनका उपयोग ईधंन के रूप में किया जा सकता है। भीतर वाली लाल लकड़ी को छाटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है, जो आकार में लगभग एक वर्ग इंच (लगभग साढ़े छह वर्ग से.मी.) होते हैं। इनको मिट्टी की हाँडियों में रखकर पानी के साथ खौलाया जाता है। हाँडियों को एक लंबी भट्ठी के ऊपर पंक्ति में रखा जाता है। खौलने से लकड़ी का घुलनशील भाग पानी में आ जाता है। निष्कर्षण की इस क्रिया को ई घंटों तक किया जाता है और तीन से लेकर पाँच बार तक दुहराया जाता है। इन छिपटियों (टुकड़ों) से लाल रंग का जो निसार मिलता है उसे ताजी छिपटियों पर डालते और उबालते हैं। इस काम को उस समय तक दुहराते हैं, जब तक इच्छित सघनता का घोल तैयार नहीं हो जाता। गर्म निष्कर्ष को मलमल से छान लेते हैं और छनित को मिट्टी के बर्तनों में उस समय तक गाढ़ा करते हैं, जब तक वह चाशनी के समान नहीं हो जाता। इस प्रकार सांद्र बनाए हुए निष्कर्ष को ठंडा किया जाता है और फिर महीन रेत में गढ़े बनाकर अथवा मिट्टी के बर्तनों पर टोकरी रखकर उनमें उड़ेल दिया जाता है।

अब इसको टाट से ढककर कुछ सप्ताह के लिए छोड़ देते हैं, जिससे कत्था अलग हो जाता है। जब निष्कर्ष को टोकरी में रखा जाता है, तब घुलनशील टैंनीने बर्तन में छन जाती हैं और अशोधित कत्था टोकरी में ऊपर रह जाता है। जब निष्कर्ष रेत में गढ़ों में भरा जाता है तो ये टेनीने रेत में चली जाती हैं और कत्था ऊपर रह जाता है। ऊपर की ठोस वस्तु को उठा लेते हैं। उसे दबाकर सिल्लियाँ बनाते हैं। इनको छोटी सिल्लियों और अंत में टिकियों के रूप में काट लेते हैं। इसके बाद कत्थे के टुकड़ों को कई सप्ताह तक छाया में सुखाया जाता है और बाज़ार में भेजा जाता है। सूखे पेड़ की अपेक्षा ताजे कटे हुए पेड़ों से अधिक कत्था मिलता है। कत्था बनाने का काम मौसमी है। यह वर्ष में लगभग 60 दिन चलता है और औसतन एक भट्ठी से, ताजे वृक्षों का प्रयोग करने से 25-30 बोरी कत्था मिलता है। एक बोरी में लगभग दो मन (लगभग 75 किलोग्राम) माल होता है।[2]

कमियाँ

कत्था निकालने की पुरानी विधि में जो क्रियाएँ काम में लाई जाती हैं, उनके कारण कत्था उद्योग मौसमी उद्योग बन गया है। यह वर्ष में 90 दिन से अधिक नहीं चलाया जा सकता। बाज़ार के योग्य माल तैयार करने में सब मिलाकर दो तीन महीने का समय लग जाता है। भीतरी लकड़ी का जो निष्कर्ष तैयार होता है, उसमें पानी की मात्रा अधिक होती है। उसे सांद्र बनाने के लिए देर तक उबालना पड़ता है, जिससे माल का गुण खराब होता है और कैटिचीन की मात्रा में कमी आती है। अशोधित कत्थे में पर्याप्त पानी होता है और उसे सूखने में अधिक समय लगता है। इससे कत्थे में फफूँद लग जाती है, उसका रंग बिगड़ जाता है और माल घटिया हो जाता है। निष्कर्ष का जो घुलनशील अंश रेत में सीझ जाता है, उसमें एक पदार्थ होता है, जो 'कच' कहलाता है। कच एक उपयोगी पदार्थ है। यह उद्योगों में काम आता है और बेचा जा सकता है। कत्था बनाने की इस पुरानी विधि में कच को प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता।

सुधरी विधि

सुधरी विधि में खैर के भीतर की कठोर लकड़ी की बारीक छिपटियाँ बनाई जाती हैं और उनका निष्कर्ष ताँबे के पात्रों में तैयार किया जाता है। छिपटियाँ पात्र में संपर्क में न आएँ, इसलिए उनकों ताँबे के तार से बने हुए पिंजड़ों में रखकर पात्र के भीतर लटकाया जाता है। प्रत्येक पिंजड़े में लगभग 11 किलोग्राम छिपटी रखी जाती है और उसको लगभग 28 किलोग्राम पानी से डेढ़ से लेकर दो घंटे तक निष्कर्षित किया जाता है। निष्कर्षण की क्रिया को 28 किलोग्राम साफ पानी के साथ लगभग आध अंघे तक दुहराया जाता है और इसके बाद उसी प्रकार तीसरी बारकि निष्कर्षण की क्रिया की जाती है। इस अंतिम निष्कर्ष को नई छिपटियों के पहले निष्कर्षण के लिए काम में लाया जाता है। विभिन्न निष्कर्षों को मिलाकर ताँबे के खुले बर्तन में उस समय तक सांद्र बनाते हैं, जब तक घोल का घनत्व 1.07-1.13 नहीं हो जाता। इस काम में साधारणत: लगभग तीन घंटे लगते हैं। इस सांद्र निष्कर्ष को ठंडा होने देते हैं। यदि इसमें कत्थे के कुछ रवे डाल दिए जाते हैं तो कत्थे के मणिभित[3] होने की क्रिया शीघ्र हो जाती है। कत्थे के मणिभ अलग होकर तली पर जम जाते हैं और ऊपर के घोल (मातृत्व) से अलग कर लिए जाते हैं। आवश्यक होने पर कत्थे के मणिभों की दूसरी फसल प्राप्त करने के लिए इस द्रव को सांद्र बनाकर फिर पहले की तरह रवे प्राप्त किए जा सकते हैं।

कत्थे के अलग निकाले हुए मणिभों को पानी में लेकर हाथ से चलाए जाने वाले फ़िल्टर प्रेस में छान लिया जाता है। इससे मातृत्व कत्थे से अलग हो जाता है। फ़िल्टर प्रेस में कत्था कैनवैस से चिपक जाता है। उसे कैनवैस पर से स्टेनलेस इस्पात या निकिल की खुरचियों द्वारा खुरचा जाता है और लकड़ी के हत्थे से चलाने वाले स्क्रूप्रेस में दबाकर यथा संभव अधिक से अधिक पानी निकाल दिया जाता है। कत्थे की सिल को हाथ से वांछित आकार की छोटी टिकियों में काट लेते हैं और इन टिकियों को तारों की जाली की आल्मारियों में छाया में सूखने दिया जाता है। इन टिकियों को खुली धूप में सुखाना ठीक नहीं होता। इससे कैटिचीन को हानि पहुँचती है, वह विच्छिन्न हो जाता है और उसका रंग गहरा पड़ जाता है। छाया में सुखाने के बाद टिकियों को अंतिम रूप से एक गर्म-हवा-पेटी में 40 सेंटीग्रेट पर सुखाया जाता है। इस पेटी को गर्म करने के लिए वे बेकार गैसें काम में लाई जाती हैं जो निसारक पात्रों और सांद्रण की कड़ाहियों के चूल्हों से आती हैं। इस रीति से माल का एक घान तैयार करने में लगभग एक सप्ताह का समय लगता है।[2]

कत्थे को दुबारा मणिभीकृत करने के बाद जो मातृद्रव बचता है, उसको ताँबे की खुली कड़ाही में इच्छानुसार गाढ़ा कर लिया जाता है, फिर इस सांद्र तरल को लकड़ी के चौखटों में भर दिया जाता है। इससे जो पदार्थ मिलता है, वह 'कच' कहलाता है। कच कत्था उद्योग का उपजात है। इस विधि से कत्था शीघ्र तैयार होता है। वह लकड़ी में से पर्याप्त मात्रा में भली प्रकार निकल आता है। इस से कत्था बनाने का काम किसी उपयुक्त स्थान पर पूरे वर्ष में किया जा सकता है। पुरानी विधि में मिट्टी हाँडियों की टूट फूट से जो हानि होती है, वह इस विधि में नही होती। इस विधि से जो कत्था तैयार होता है, वह पुरानी रीति से तैयार किए गए कत्थे की अपेक्षा हल्का होता है, उसका रंग और स्वाद बढ़िया होता है और उसमें कैटिचीन का अंश 65-70 प्रतिशत होता है।

बड़ा उद्योग

बड़े पैमाने पर कत्था निकालने की विधि मोटे तौर से वैसे ही होती है, जैसी छोटे पैमाने पर काम में लाई जाती है। अंतर इस बात का है कि बड़े कारखानों में यांत्रिक साधन काम में लाए जाते हैं। बड़े-बड़े लट्ठों को शक्ति से चलने वाली मशीनों द्वारा काटकर छिपटियाँ बनाई जाती हैं और उनको ताँबे के ऑटोक्लेवों में हल्के से दाब के नीचे निष्कर्षित किया जाता है। निष्कर्ष को निर्वात में सांद्रित करके लगभग एक सप्ताह तक ठंडी टंकियों में रखते हैं। इससे कत्थे के रवे बनकर अलग हो जाते हैं। इसको फ़िल्टर प्रेसों में छान लते हैं। फिर सिल्लियों और वर्गाकार टिकियों में काटकर ऐसे कमरों में सुखाते हैं, जिन्हें गर्म हवा से गरम किया जाता है। निष्कर्षित लकड़ी के बोझ पर कत्थे की प्राप्ति 4 से 4.5 प्रतिशत होती है। मातृत्व को सांद्रित करके लकड़ी के चौखटों में डाल दिया जाता है। उसके ठंडा होने पर यहाँ 'कच' जम जाता है।

परख और मानक

बाज़ार में बिकने वाले साधारण कत्थे में बहुत मिलावट होती है। रेत, मिट्टी और राख तो उसमें मिली ही रहती है, इनके अतिरिक्त कत्थे का बोझ बढ़ाने के लिए चीनी मिट्टी, सेलखड़ी, मंड, गोंद, लाल मिट्टी और लोहे के लाल ऑक्साइड के समान रंगदार पदार्थ मनमाने ढंग से मिलाए जाते हैं।

कच

कत्था बनाने की पुरानी देशी विधि में कच प्राप्त नहीं किया जाता। सुधरी विधि में कच उपलब्ध किया जाता है और उसकी मात्रा कत्थे की मात्रा में 2-2 गुनी होती है। कत्था बनाने के सभी संगठित कारखानों में कच तैयार किया जाता है। इसकी मात्रा 4-5 हजार टन प्रति वर्ष होती है। आकेशा कैटिचू[4] के अतिरिक्त सिक्किम, तराई, बंगाल, असम और कुछ सीमा तक मैसूर तथा नीलगिरि में खैर की एक किस्म मिलती है जो कैटिचुआइडीज़ कहलाती है। इससे बर्मा में कच निकाला जाता है। यह कच 'पेगू कच' के नाम से बिकता है। खैर की तीसरी किस्म 'सुंदरा' या 'लाल खैर' कहलाती है। लाल खैर के वृक्ष दक्षिण और पश्चिम भारत में दूर-दूर बिखरे हुए पाए जाते हैं। इन वृक्षों के दक्षिण में 'कच' या 'श्यामल कत्था' तैयार किया जाता है। कच छोटे घनाकार टुकड़ों में बिकता है। इन टुकड़ों का रंग लोहे के जंग के समान कत्थई या धुँधला नारंगी होता है। कच के कमावक[5] पदार्थ 53-58, अ-कमावक अंश 30-33, अघुलनशील 0.5-1.5 और नमी 12-14 प्रतिशत तक पाई जाती है। लोवीवौंड पैमाने पर उसका रंगमान लाल 8-10 : पीला 18-20 होता है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आकेशा कैटिचू, Acacia catechu
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 कत्था (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 17 फ़रवरी, 2014।
  3. क्रिस्टेलाइज़
  4. किस्म असली
  5. टैनिन

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