"कनकलता बरुआ" के अवतरणों में अंतर

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'''कनकलता बरुआ''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Kanakalata Barua''; जन्म- [[22 दिसंबर]], [[1924]]; शहादत- [[20 सितम्बर]], [[1942]]) [[भारत]] की ऐसी शहीद पुत्री थीं, जो भारतीय वीरांगनाओं की लंबी कतार में जा मिलीं। मात्र 18 वर्षीय कनकलता अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से उम्र में छोटी भले ही रही हों, लेकिन त्याग व बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं। एक गुप्त सभा में [[20 सितंबर]], [[1942]] ई. को [[तेजपुर]] की [[कचहरी]] पर [[तिरंगा|तिरंगा झंडा]] फहराने का निर्णय लिया गया था। तिरंगा फहराने आई हुई भीड़ पर गोलियाँ दागी गईं और यहीं पर कनकलता बरुआ ने शहादत पाई।
'''कनकलता बरुआ''' ([[अंग्रेज़ी]]: Kanakalata Barua; जन्म- [[22 दिसंबर]], [[1924]]; शहादत- [[20 सितम्बर]], [[1942]]) [[भारत]] की ऐसी शहीद पुत्री थीं, जो भारतीय वीरांगनाओं की लंबी कतार में जा मिलीं। मात्र 18 वर्षीय कनकलता अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से उम्र में छोटी भले ही रही हों, लेकिन त्याग व बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं। एक गुप्त सभा में [[20 सितंबर]], [[1942]] ई. को [[तेजपुर]] की कचहरी पर [[तिरंगा|तिरंगा झंडा]] फहराने का निर्णय लिया गया था। तिरंगा फहराने आई हुई भीड़ पर गोलियाँ दागी गईं और यहीं पर कनकलता बरुआ ने शहादत पाई।
 
 
==जीवन परिचय==
 
==जीवन परिचय==
 
कनकलता बरुआ का जन्म [[22 दिसंबर]], [[1924]] को [[असम]] के कृष्णकांत बरुआ के घर में हुआ था। ये बांरगबाड़ी गाँव के निवासी थे। इनकी [[माता]] का नाम कर्णेश्वरी देवी था। कनकलता मात्र पाँच वर्ष की हुई थी कि उनकी माता की मृत्यु हो गई। उनके [[पिता]] कृष्णकांत ने दूसरा [[विवाह]] किया, किंतु सन् [[1938]] ई. में उनका भी देहांत हो गया। कुछ दिन पश्चात् सौतेली माँ भी चल बसी। इस प्रकार कनकलता अल्पवय में ही अनाथ हो गई। कनकलता के पालन–पोषण का दायित्व उसकी [[नानी]] को संभालना पड़ा। वह नानी के साथ घर-गृहस्थी के कार्यों में हाथ बँटाती और मन लगाकर पढ़ाई भी करती थी। इतने विषम पारिवारिक परिस्थितियों के बावजूद कनकलता का झुकाव राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर होता गया।
 
कनकलता बरुआ का जन्म [[22 दिसंबर]], [[1924]] को [[असम]] के कृष्णकांत बरुआ के घर में हुआ था। ये बांरगबाड़ी गाँव के निवासी थे। इनकी [[माता]] का नाम कर्णेश्वरी देवी था। कनकलता मात्र पाँच वर्ष की हुई थी कि उनकी माता की मृत्यु हो गई। उनके [[पिता]] कृष्णकांत ने दूसरा [[विवाह]] किया, किंतु सन् [[1938]] ई. में उनका भी देहांत हो गया। कुछ दिन पश्चात् सौतेली माँ भी चल बसी। इस प्रकार कनकलता अल्पवय में ही अनाथ हो गई। कनकलता के पालन–पोषण का दायित्व उसकी [[नानी]] को संभालना पड़ा। वह नानी के साथ घर-गृहस्थी के कार्यों में हाथ बँटाती और मन लगाकर पढ़ाई भी करती थी। इतने विषम पारिवारिक परिस्थितियों के बावजूद कनकलता का झुकाव राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर होता गया।
 
====राष्ट्र भक्ति की भावना====
 
====राष्ट्र भक्ति की भावना====
जब [[मई]] [[1931]] ई. में गमेरी गाँव में रैयत सभा आयोजित की गई, उस समय कनकलता केवल सात वर्ष की थी। फिर भी सभा में अपने मामा देवेन्द्र नाथ और यदुराम बोस के साथ उसने भी भाग लिया। उक्त सभा के आयोजन का प्रबंध विद्यार्थियों ने किया था। सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध नेता [[ज्योति प्रसाद अग्रवाल]] थे। उनके अलावा असम के अन्य प्रमुख नेता भी इस सभा में सम्मिलित हुए थे। ज्योति प्रसाद आगरवाला राजस्थानी थे। वे असम के प्रसिद्ध [[कवि]] और नवजागरण के अग्रदूत थे। उनके द्वारा [[असमिया भाषा]] में लिखे गीत घर–घर में लोकप्रिय थे। अगरवाला के गीतों से कनकलता भी प्रभावित और प्रेरित हुई। इन गीतों के माध्यम से कनकलता के बाल–मन पर राष्ट्र–भक्ति का बीज अंकुरित हुआ।
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जब [[मई]] [[1931]] ई. में गमेरी गाँव में रैयत सभा आयोजित की गई, उस समय कनकलता केवल सात वर्ष की थी। फिर भी सभा में अपने मामा देवेन्द्र नाथ और यदुराम बोस के साथ उसने भी भाग लिया। उक्त सभा के आयोजन का प्रबंध विद्यार्थियों ने किया था। सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध नेता [[ज्योति प्रसाद अग्रवाल]] थे। उनके अलावा असम के अन्य प्रमुख नेता भी इस सभा में सम्मिलित हुए थे। ज्योति प्रसाद आगरवाला राजस्थानी थे। वे [[असम]] के प्रसिद्ध [[कवि]] और नवजागरण के अग्रदूत थे। उनके द्वारा [[असमिया भाषा]] में लिखे गीत घर–घर में लोकप्रिय थे। अगरवाला के गीतों से कनकलता भी प्रभावित और प्रेरित हुई। इन गीतों के माध्यम से कनकलता के बाल–मन पर राष्ट्र–भक्ति का बीज अंकुरित हुआ।
 
==स्वतंत्रता संग्राम में योगदान==
 
==स्वतंत्रता संग्राम में योगदान==
सन् 1931 के रैयत अधिवेशन में भाग लेने वालों को राष्ट्रद्रोह के आरोप में बंदी बना लिया गया। इसी घटना के कारण [[असम]] में क्रांति की आग चारों ओर फैल गई। [[महात्मा गांधी]] के '[[असहयोग आंदोलन]]' को भी उससे बल मिला। [[मुम्बई]] के कांग्रेस अधिवेशन में [[8 अगस्त]], [[1942]] को ‘[[भारत छोड़ो आंदोलन|अंग्रेजों भारत छोड़ो]]’ प्रस्ताव पारित हुआ। यह ब्रिटिश के विरूद्ध देश के कोने-कोने में फैल गया। असम के शीर्ष नेता मुंबई से लौटते ही पकड़कर जेल में डाल दिये गये। गोपीनाथ बरदलै, सिद्धनाथ शर्मा, मौलाना तैयबुल्ला, विष्णुराम मेधि आदि को जेल में बंद कर दिए जाने पर मोहिकांत दास, गहन चंद्र गोस्वामी, महेश्वर बरा तथा अन्य लोगों ने आंदोलन की बागडोर संभाली। अंत में ज्योति प्रसाद आगरवाला को नेतृत्व संभालना पड़ा। उनके नेतृत्व में गुप्त सभा की गई। फलतः आंदोलन को नई दिशा मिली। पुलिस के अत्याचार बढ़ गए और स्वतंत्रता सेनानियों से जेलें भर गई। कई लोगों को पुलिस की गोली का शिकार बनना पड़ा। शासन के दमन चक्र के साथ आंदोलन भी बढ़ता गया।
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सन् [[1931]] के रैयत अधिवेशन में भाग लेने वालों को राष्ट्रद्रोह के आरोप में बंदी बना लिया गया। इसी घटना के कारण असम में क्रांति की आग चारों ओर फैल गई। [[महात्मा गांधी]] के '[[असहयोग आंदोलन]]' को भी उससे बल मिला। [[मुम्बई]] के [[कांग्रेस अधिवेशन]] में [[8 अगस्त]], [[1942]] को ‘[[भारत छोड़ो आंदोलन|अंग्रेजों भारत छोड़ो]]’ प्रस्ताव पारित हुआ। यह ब्रिटिश के विरुद्ध देश के कोने-कोने में फैल गया। असम के शीर्ष नेता मुंबई से लौटते ही पकड़कर जेल में डाल दिये गये। गोपीनाथ बरदलै, सिद्धनाथ शर्मा, मौलाना तैयबुल्ला, विष्णुराम मेधि आदि को जेल में बंद कर दिए जाने पर मोहिकांत दास, गहन चंद्र गोस्वामी, महेश्वर बरा तथा अन्य लोगों ने आंदोलन की बागडोर संभाली। अंत में ज्योति प्रसाद आगरवाला को नेतृत्व संभालना पड़ा। उनके नेतृत्व में गुप्त सभा की गई। फलतः आंदोलन को नई दिशा मिली। पुलिस के अत्याचार बढ़ गए और स्वतंत्रता सेनानियों से जेलें भर गई। कई लोगों को पुलिस की गोली का शिकार बनना पड़ा। शासन के दमन चक्र के साथ आंदोलन भी बढ़ता गया।
 
====थाने पर तिरंगा फहराने का निर्णय====
 
====थाने पर तिरंगा फहराने का निर्णय====
एक गुप्त सभा में [[20 सितंबर]], [[1942]] ई. को [[तेजपुर]] की कचहरी पर [[तिरंगा|तिरंगा झंडा]] फहराने का निर्णय लिया गया। उस समय तक कनकलता [[विवाह]] के योग्य हो चुकी थीं। उनके अभिभावक उनका विवाह करने को उत्सुक थे। किंतु वह अपने विवाह की अपेक्षा [[भारत]] की आजादी को अधिक महत्त्वपूर्ण मान चुकी थीं। भारत की आजादी के लिए वह कुछ भी करने को तत्पर थीं। [[20 सितंबर]], [[1942]] के दिन तेजपुर से 82 मील दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाना था। सुबह-सुबह घर का काम समाप्त करने के बाद वह अपने गंतव्य की ओर चल पड़ीं। कनकलता आत्म बलिदानी दल की सदस्या थीं। गहपुर थाने की ओर चारों दिशाओं से जुलूस उमड़ पड़ा था। उस आत्म बलिदानी जत्थे में सभी युवक और युवतियाँ थीं। दोनों हाथों में तिरंगा झंडा थामे कनकलता उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। जुलूस के नेताओं को संदेह हुआ कि कनकलता और उसके साथी कहीं भाग न जाएँ। संदेह को भाँप कर कनकलता शेरनी के समान गरज उठी- "हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। [[आत्मा]] अमर है, नाशवान है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें ?" ‘करेंगे या मरेंगे’ ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, जैसे नारे से आकाश को गुँजाती हुई थाने की ओर बढ़ चलीं। आत्म बलिदानी जत्था थाने के क़रीब जा पहुँचा। पीछे से जुलूस के गगनभेदी नारों से आकाश गूंजने लगा। उस जत्थे के सदस्यों में थाने पर झंडा फहराने की होड़-सी मच गई। हर एक व्यक्ति सबसे पहले झंडा फहराने को बेचैन था। थाने का प्रभारी पी. एम. सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता ने उससे कहा- "हमारा रास्ता मत रोकिए। हम आपसे संघर्ष करने नहीं आए हैं। हम तो थाने पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता की ज्योति जलाने आए हैं। उसके बाद हम लौट जायेंगे।"
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एक गुप्त सभा में [[20 सितंबर]], [[1942]] ई. को [[तेजपुर]] की [[कचहरी]] पर [[तिरंगा|तिरंगा झंडा]] फहराने का निर्णय लिया गया। उस समय तक कनकलता [[विवाह]] के योग्य हो चुकी थीं। उनके अभिभावक उनका विवाह करने को उत्सुक थे। किंतु वह अपने विवाह की अपेक्षा [[भारत]] की आजादी को अधिक महत्त्वपूर्ण मान चुकी थीं। भारत की आजादी के लिए वह कुछ भी करने को तत्पर थीं। [[20 सितंबर]], [[1942]] के दिन तेजपुर से 82 मील दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाना था। सुबह-सुबह घर का काम समाप्त करने के बाद वह अपने गंतव्य की ओर चल पड़ीं। कनकलता आत्म बलिदानी दल की सदस्या थीं। गहपुर थाने की ओर चारों दिशाओं से जुलूस उमड़ पड़ा था। उस आत्म बलिदानी जत्थे में सभी युवक और युवतियाँ थीं। दोनों हाथों में तिरंगा झंडा थामे कनकलता उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। जुलूस के नेताओं को संदेह हुआ कि कनकलता और उसके साथी कहीं भाग न जाएँ। संदेह को भाँप कर कनकलता शेरनी के समान गरज उठी- "हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। [[आत्मा]] अमर है, नाशवान है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें ?" ‘करेंगे या मरेंगे’ ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, जैसे नारे से आकाश को गुँजाती हुई थाने की ओर बढ़ चलीं। आत्म बलिदानी जत्था थाने के क़रीब जा पहुँचा। पीछे से जुलूस के गगनभेदी नारों से आकाश गूंजने लगा। उस जत्थे के सदस्यों में थाने पर झंडा फहराने की होड़-सी मच गई। हर एक व्यक्ति सबसे पहले झंडा फहराने को बेचैन था। थाने का प्रभारी पी. एम. सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता ने उससे कहा- "हमारा रास्ता मत रोकिए। हम आपसे संघर्ष करने नहीं आए हैं। हम तो थाने पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता की ज्योति जलाने आए हैं। उसके बाद हम लौट जायेंगे।"
 
==शहादत==  
 
==शहादत==  
 
थाने के प्रभारी ने कनकलता को डाँटते हुए कहा कि यदि तुम लोग एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे। इसके बावजूद भी कनकलता आगे बढ़ीं और कहा- "हमारी स्वतंत्रता की ज्योति बुझ नहीं सकती। तुम गोलियाँ चला सकते हो, पर हमें कर्तव्य विमुख नहीं कर सकते।" इतना कह कर वह ज्यों ही आगे बढ़ी, पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी। पहली गोली कनकलता ने अपनी छाती पर झेली। गोली बोगी कछारी नामक सिपाही ने चलाई थी। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को लगी, जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियाँ चलती रहीं। परिणामतः हेमकांत बरुआ, खर्गेश्वर बरुआ, सुनीश्वर राजखोवा और भोला बरदलै गंभीर रूप से घायल हो गए। उन युवकों के मन में स्वतंत्रता की अखंड ज्योति प्रज्वलित थी, जिसके कारण गोलियों की परवाह न करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसके हाथों का [[तिरंगा]] झुका नहीं। उसकी साहस व बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ़ गया। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक आगे बढ़ते गये। एक के बाद एक गिरते गए, किंतु झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया। उसे एक के बाद दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया गया।
 
थाने के प्रभारी ने कनकलता को डाँटते हुए कहा कि यदि तुम लोग एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे। इसके बावजूद भी कनकलता आगे बढ़ीं और कहा- "हमारी स्वतंत्रता की ज्योति बुझ नहीं सकती। तुम गोलियाँ चला सकते हो, पर हमें कर्तव्य विमुख नहीं कर सकते।" इतना कह कर वह ज्यों ही आगे बढ़ी, पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी। पहली गोली कनकलता ने अपनी छाती पर झेली। गोली बोगी कछारी नामक सिपाही ने चलाई थी। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को लगी, जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियाँ चलती रहीं। परिणामतः हेमकांत बरुआ, खर्गेश्वर बरुआ, सुनीश्वर राजखोवा और भोला बरदलै गंभीर रूप से घायल हो गए। उन युवकों के मन में स्वतंत्रता की अखंड ज्योति प्रज्वलित थी, जिसके कारण गोलियों की परवाह न करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसके हाथों का [[तिरंगा]] झुका नहीं। उसकी साहस व बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ़ गया। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक आगे बढ़ते गये। एक के बाद एक गिरते गए, किंतु झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया। उसे एक के बाद दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया गया।
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05:28, 20 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण

कनकलता बरुआ
कनकलता बरुआ की प्रतिमा
पूरा नाम कनकलता बरुआ
जन्म 22 दिसंबर, 1924
जन्म भूमि असम
मृत्यु 20 सितम्बर, 1942
अभिभावक कृष्णकांत बरुआ, कर्णेश्वरी देवी
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी
विशेष मई, 1931 में गमेरी गाँव में रैयत सभा आयोजित की गई थी। उस समय कनकलता केवल सात वर्ष की थीं। फिर भी सभा में अपने मामा देवेन्द्रनाथ और यदुराम बोस के साथ भाग लिया।
अन्य जानकारी शहीद मुकंद काकोती के शव का तेजपुर नगरपालिका के कर्मचारियों ने गुप्त रूप से दाह संस्कार कर दिया था, किंतु कनकलता का शव स्वतंत्रता सेनानी कंधों पर उठाकर ले जाने में सफल रहे।

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कनकलता बरुआ (अंग्रेज़ी: Kanakalata Barua; जन्म- 22 दिसंबर, 1924; शहादत- 20 सितम्बर, 1942) भारत की ऐसी शहीद पुत्री थीं, जो भारतीय वीरांगनाओं की लंबी कतार में जा मिलीं। मात्र 18 वर्षीय कनकलता अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से उम्र में छोटी भले ही रही हों, लेकिन त्याग व बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं। एक गुप्त सभा में 20 सितंबर, 1942 ई. को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया था। तिरंगा फहराने आई हुई भीड़ पर गोलियाँ दागी गईं और यहीं पर कनकलता बरुआ ने शहादत पाई।

जीवन परिचय

कनकलता बरुआ का जन्म 22 दिसंबर, 1924 को असम के कृष्णकांत बरुआ के घर में हुआ था। ये बांरगबाड़ी गाँव के निवासी थे। इनकी माता का नाम कर्णेश्वरी देवी था। कनकलता मात्र पाँच वर्ष की हुई थी कि उनकी माता की मृत्यु हो गई। उनके पिता कृष्णकांत ने दूसरा विवाह किया, किंतु सन् 1938 ई. में उनका भी देहांत हो गया। कुछ दिन पश्चात् सौतेली माँ भी चल बसी। इस प्रकार कनकलता अल्पवय में ही अनाथ हो गई। कनकलता के पालन–पोषण का दायित्व उसकी नानी को संभालना पड़ा। वह नानी के साथ घर-गृहस्थी के कार्यों में हाथ बँटाती और मन लगाकर पढ़ाई भी करती थी। इतने विषम पारिवारिक परिस्थितियों के बावजूद कनकलता का झुकाव राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर होता गया।

राष्ट्र भक्ति की भावना

जब मई 1931 ई. में गमेरी गाँव में रैयत सभा आयोजित की गई, उस समय कनकलता केवल सात वर्ष की थी। फिर भी सभा में अपने मामा देवेन्द्र नाथ और यदुराम बोस के साथ उसने भी भाग लिया। उक्त सभा के आयोजन का प्रबंध विद्यार्थियों ने किया था। सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध नेता ज्योति प्रसाद अग्रवाल थे। उनके अलावा असम के अन्य प्रमुख नेता भी इस सभा में सम्मिलित हुए थे। ज्योति प्रसाद आगरवाला राजस्थानी थे। वे असम के प्रसिद्ध कवि और नवजागरण के अग्रदूत थे। उनके द्वारा असमिया भाषा में लिखे गीत घर–घर में लोकप्रिय थे। अगरवाला के गीतों से कनकलता भी प्रभावित और प्रेरित हुई। इन गीतों के माध्यम से कनकलता के बाल–मन पर राष्ट्र–भक्ति का बीज अंकुरित हुआ।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

सन् 1931 के रैयत अधिवेशन में भाग लेने वालों को राष्ट्रद्रोह के आरोप में बंदी बना लिया गया। इसी घटना के कारण असम में क्रांति की आग चारों ओर फैल गई। महात्मा गांधी के 'असहयोग आंदोलन' को भी उससे बल मिला। मुम्बई के कांग्रेस अधिवेशन में 8 अगस्त, 1942 को ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ। यह ब्रिटिश के विरुद्ध देश के कोने-कोने में फैल गया। असम के शीर्ष नेता मुंबई से लौटते ही पकड़कर जेल में डाल दिये गये। गोपीनाथ बरदलै, सिद्धनाथ शर्मा, मौलाना तैयबुल्ला, विष्णुराम मेधि आदि को जेल में बंद कर दिए जाने पर मोहिकांत दास, गहन चंद्र गोस्वामी, महेश्वर बरा तथा अन्य लोगों ने आंदोलन की बागडोर संभाली। अंत में ज्योति प्रसाद आगरवाला को नेतृत्व संभालना पड़ा। उनके नेतृत्व में गुप्त सभा की गई। फलतः आंदोलन को नई दिशा मिली। पुलिस के अत्याचार बढ़ गए और स्वतंत्रता सेनानियों से जेलें भर गई। कई लोगों को पुलिस की गोली का शिकार बनना पड़ा। शासन के दमन चक्र के साथ आंदोलन भी बढ़ता गया।

थाने पर तिरंगा फहराने का निर्णय

एक गुप्त सभा में 20 सितंबर, 1942 ई. को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया। उस समय तक कनकलता विवाह के योग्य हो चुकी थीं। उनके अभिभावक उनका विवाह करने को उत्सुक थे। किंतु वह अपने विवाह की अपेक्षा भारत की आजादी को अधिक महत्त्वपूर्ण मान चुकी थीं। भारत की आजादी के लिए वह कुछ भी करने को तत्पर थीं। 20 सितंबर, 1942 के दिन तेजपुर से 82 मील दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाना था। सुबह-सुबह घर का काम समाप्त करने के बाद वह अपने गंतव्य की ओर चल पड़ीं। कनकलता आत्म बलिदानी दल की सदस्या थीं। गहपुर थाने की ओर चारों दिशाओं से जुलूस उमड़ पड़ा था। उस आत्म बलिदानी जत्थे में सभी युवक और युवतियाँ थीं। दोनों हाथों में तिरंगा झंडा थामे कनकलता उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। जुलूस के नेताओं को संदेह हुआ कि कनकलता और उसके साथी कहीं भाग न जाएँ। संदेह को भाँप कर कनकलता शेरनी के समान गरज उठी- "हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। आत्मा अमर है, नाशवान है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें ?" ‘करेंगे या मरेंगे’ ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, जैसे नारे से आकाश को गुँजाती हुई थाने की ओर बढ़ चलीं। आत्म बलिदानी जत्था थाने के क़रीब जा पहुँचा। पीछे से जुलूस के गगनभेदी नारों से आकाश गूंजने लगा। उस जत्थे के सदस्यों में थाने पर झंडा फहराने की होड़-सी मच गई। हर एक व्यक्ति सबसे पहले झंडा फहराने को बेचैन था। थाने का प्रभारी पी. एम. सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता ने उससे कहा- "हमारा रास्ता मत रोकिए। हम आपसे संघर्ष करने नहीं आए हैं। हम तो थाने पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता की ज्योति जलाने आए हैं। उसके बाद हम लौट जायेंगे।"

शहादत

थाने के प्रभारी ने कनकलता को डाँटते हुए कहा कि यदि तुम लोग एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे। इसके बावजूद भी कनकलता आगे बढ़ीं और कहा- "हमारी स्वतंत्रता की ज्योति बुझ नहीं सकती। तुम गोलियाँ चला सकते हो, पर हमें कर्तव्य विमुख नहीं कर सकते।" इतना कह कर वह ज्यों ही आगे बढ़ी, पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी। पहली गोली कनकलता ने अपनी छाती पर झेली। गोली बोगी कछारी नामक सिपाही ने चलाई थी। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को लगी, जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियाँ चलती रहीं। परिणामतः हेमकांत बरुआ, खर्गेश्वर बरुआ, सुनीश्वर राजखोवा और भोला बरदलै गंभीर रूप से घायल हो गए। उन युवकों के मन में स्वतंत्रता की अखंड ज्योति प्रज्वलित थी, जिसके कारण गोलियों की परवाह न करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसके हाथों का तिरंगा झुका नहीं। उसकी साहस व बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ़ गया। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक आगे बढ़ते गये। एक के बाद एक गिरते गए, किंतु झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया। उसे एक के बाद दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया गया।

अंतिम संस्कार

शहीद मुकंद काकोती के शव को तेजपुर नगरपालिका के कर्मचारियों ने गुप्त रूप से दाह–संस्कार कर दिया, किंतु कनकलता का शव स्वतंत्रता सेनानी अपने कंधों पर उठाकर उसके घर तक ले जाने में सफल हो गए। उसका अंतिम संस्कार बांरगबाड़ी में ही किया गया। अपने प्राणों की आहुति देकर उसने स्वतंत्रता संग्राम में और अधिक मजबूती लाई। स्वतंत्रता सेनानियों में उसके बलिदान से नया जोश उत्पन्न हुआ। इस तरह अनेक बलिदानियों का बलिदान हमारी स्वतंत्रता की नींव के पत्थर हैं। उनके त्याग और बलिदान की बुनियाद पर ही स्वतंत्रता रूपी भवन खड़ा है। बांरगबाड़ी में स्थापित कनकलता मॉडल गर्ल्स हाईस्कूल जो कनकलता के आत्म–बलिदान की स्मृति में बनाया गया है, आज भी यह भवन स्वतंत्रता की रक्षा करने की प्रेरणा दे रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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