कुण्डलिया

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कुण्डलिया मात्रिक छन्द है, जो दोहा और रोला छन्दों के मिलने से बनता है। दोहे का अन्तिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है, अर्थात् 'दोहा' एवं 'रोला' छन्द एक दूसरे में कुण्डलित रहते हैं। इसीलिए इस छन्द को 'कुण्डलिया' कहा जाता है। एक अच्छे कुण्डलिया छन्द की यह विशेषता होती है कि वह जिस शब्द से प्रारम्भ होता है, उसी पर समाप्त भी होता है।

उदाहरण-1

साँई बैर न कीजिये, गुरु, पंडि़त, कवि, यार
बेटा, बनिता, पौरिया, यज्ञकरावनहार
यज्ञकरावनहार, राज मंत्री जो होई
विप्र, पड़ोसी, वैद्य, आपुको तपै रसोई
कह गिरधर कविराय युगन सों यह चलि आई
इन तेरह को तरह दिये बनि आवै साँई ॥

उदाहरण-2

दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान।
चंचल जल दिन चारिको, ठाऊँ न रहत निदान।।
ठाँऊ न रहत निदान, जयत जग में जस लीजै।
मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।।
कह 'गिरिधर कविराय' अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निशि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।।

उदाहरण-3

रत्नाकर सबके लिए, होता एक समान ।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान ।।
सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता ।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता ।।
'ठकुरेला' कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर ।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर ।। -त्रिलोक सिंह ठकुरेला


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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