के. आर. नारायणन

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के. आर. नारायणन
K.R.Narayanan.jpg
पूरा नाम कोच्चेरील रामन नारायणन
जन्म 27 अक्टूबर, 1920
जन्म भूमि त्रावणकोर, भारत
मृत्यु 9 नवम्बर, 2005
मृत्यु स्थान नई दिल्ली, भारत
अभिभावक कोच्चेरिल रामन वेद्यार
पति/पत्नी उषा नारायणन
संतान चित्रा और अमृता
पद भारत के दसवें राष्ट्रपति, पत्रकार
कार्य काल 25 जुलाई, 1997 से 25 जुलाई, 2002
शिक्षा स्नातकोत्तर, बी. एस. सी. (इकोनामिक्स), एल. एस. ई.
विद्यालय प्राथमिक विद्यालय, सेंट मेरी हाई स्कूल, सी. एम. एस. स्कूल, त्रावणकोर विश्वविद्यालय, लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स
पुरस्कार-उपाधि वर्ल्ड स्टेट्समैन अवार्ड, 'डॉक्टर ऑफ़ साइंस, डॉक्टर ऑफ़ लॉस
रचनाएँ 'इण्डिया एण्ड अमेरिका एस्सेस इन अंडरस्टैडिंग', 'इमेजेस एण्ड इनसाइट्स' और 'नॉन अलाइमेंट इन कन्टैम्परेरी इंटरनेशनल निलेशंस'
अन्य जानकारी राष्ट्रपति नियुक्त होने के बाद नारायणन ने एक नीति अथवा सिद्धान्त बना लिया था कि वह किसी भी पूजा स्थान या इबादतग़ाह पर नहीं जाएँगे-चाहे वह देवता का हो या देवी का। यह एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति रहे, जिन्होंने अपने कार्यकाल में किसी भी पूजा स्थल का दौरा नहीं किया।

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कोच्चेरील रामन नारायणन (अंग्रेज़ी: Kocheril Raman Narayanan, जन्म- 27 अक्टूबर, 1920; मृत्यु- 9 नवम्बर, 2005) भारतीय गणराज्य के दसवें निर्वाचित राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते हैं। यह प्रथम दलित राष्ट्रपति तथा प्रथम मलयाली व्यक्ति थे, जिन्हें देश का सर्वोच्च पद प्राप्त हुआ। इन्हें 14 जुलाई, 1997 को हुए राष्ट्रपति चुनाव में विजय प्राप्त हुई थी। श्री के. आर. नारायणन को कुल मतों का 95 प्रतिशत प्राप्त हुआ। मतगणना का कार्य 17 जुलाई, 1997 को सम्पन्न हुआ। भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त श्री टी. एन. शेषन इनके प्रतिद्वन्द्वी थे। 25 जुलाई, 1997 को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे. एस. वर्मा ने श्री के. आर. नारायणन को राष्ट्रपति पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। इनका कार्यकाल 25 जुलाई, 2002 को समाप्त हुआ था।

जन्म एवं परिवार

श्री के. आर. नारायणन का जन्म 27 अक्टूबर, 1920 को हुआ था, जो सरकारी दस्तावेज़ों में उल्लिखित है। लेकिन सत्य यह है कि इनकी वास्तविक जन्मतिथि विवादों के घेरे में है। श्री नारायणन के चाचा इनके प्रथम दिन स्कूल गए थे और अनुमान से 27 अक्टूबर, 1920 इनकी जन्मतिथि लिखा दी थी। इनका जन्म पैतृक घर में हुआ था, जो कि एक कच्ची झोपड़ी की शक्ल में था। यह कच्ची झोपड़ी पेरुमथॉनम उझावूर ग्राम, त्रावणकोर में थी। वर्तमान में यह ग्राम ज़िला कोट्टायम (केरल) में विद्यमान है। श्री के. आर. नारायणन अपने पिता की सात सन्तानों में चौथे थे। इनके पिता का नाम कोच्चेरिल रामन वेद्यार था। यह भारतीय पद्धति के सिद्धहस्त आयुर्वेदाचार्य थे। इनके पूर्वज पारवान जाति से सम्बन्धित थे, जो कि नारियल तोड़ने का कार्य करता है। इनका परिवार काफ़ी ग़रीब था, लेकिन इनके पिता अपनी चिकित्सकीय प्रतिभा के कारण सम्मान के पात्र माने जाते थे। श्री नारायणन के चार भाई-बहन थे– के. आर. गौरी, के. आर. भार्गवी, के. आर. भारती और के. आर. भास्करन। इनके दो भाइयों की मृत्यु तब हुई जब के. आर. नारायणन 20 वर्ष के थे। इनकी बड़ी बहन गौरी एक होमियोपैथ हैं और इन्होंने शादी नहीं की। इनके छोटे भाई भास्करन ने भी विवाह नहीं किया, जो कि पेशे से अध्यापक हैं और उझावूर में ही रहते थे। उझावूर को आज श्री के. आर. नारायणन की जन्मभूमि के लिए जाना जाता है।

विद्यार्थी जीवन

श्री नारायणन का परिवार आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं था, लेकिन उनके पिता शिक्षा का महत्त्व समझते थे। इनकी आरम्भिक शिक्षा उझावूर के अवर प्राथमिक विद्यालय में हुई। यहाँ 5 मई, 1927 को यह स्कूल के छात्र के रूप में नामांकित हुए, जबकि उच्च प्राथमिक विद्यालय उझावूर में इन्होंने 1931 से 1935 तक अध्ययन किया। इन्हें 15 किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाना पड़ता था और चावल के खेतों से होकर गुज़रना पड़ता था। उस समय शिक्षा शुल्क बेहद साधारण था, लेकिन उसे देने में भी इन्हें कठिनाई होती थी। श्री नारायणन को प्राय: कक्षा के बाहर खड़े होकर कक्षा में पढ़ाये जा रहे पाठ को सुनना पड़ता था, क्योंकि शिक्षा शुल्क न देने के कारण इन्हें कक्षा से बाहर निकाल दिया जाता था। इनके पास पुस्तकें ख़रीदने के लिए भी धन नहीं होता था। तब अपने छोटे भाई की सहायता के लिए के. आर. नारायणन नीलकांतन छात्रों से पुस्तकें मांगकर उनकी नक़ल उतारकर नारायणन को देते थे। अस्थमा के कारण रुग्ण नीलकांतन घर पर ही रहते थे। नारायणन ने सेंट मेरी हाई स्कूल से 1936-37 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पूर्व 1935-36 में इन्होंने सेंट मेरी जोंस हाई स्कूल कूथाट्टुकुलम में भी अध्ययन किया था।

छात्रवृत्ति का सहारा पाकर श्री नारायणन ने इंटरमीडिएट परीक्षा 1938-40 में कोट्टायम के सी. एम. एस. स्कूल से उत्तीर्ण की। इसके बाद इन्होंने कला (ऑनर्स) में स्नातक स्तर की परीक्षा पास की। फिर अंग्रेज़ी साहित्य में त्रावणकोर विश्वविद्यालय से 1943 में स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की (वर्तमान में यह केरल विश्वविद्यालय है)। इसके पूर्व त्रावणकोर विश्वविद्यालय में किसी भी दलित छात्र ने प्रथम स्थान नहीं प्राप्त नहीं किया था। जब इनका परिवार विकट परेशानियों का सामना कर रहा था, तब 1944-45 में श्री नारायणन ने बतौर पत्रकार 'द हिन्दू' और 'द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' में कार्य किया। 10 अप्रैल, 1945 को पत्रकारिता का धर्म निभाते हुए इन्होंने मुम्बई में महात्मा गाँधी का साक्षात्कार लिया। इसके बाद वह 1945 में ही इंग्लैण्ड चले गए और 'लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनामिक्स' में राजनीति विज्ञान का अध्ययन किया। इन्होंने बी. एस. सी. इकोनामिक्स (ऑनर्स) की डिग्री और राजनीति विज्ञान में विशिष्टता हासिल की। इस दौरान जे. आर. डी. टाटा ने इन्हें छात्रवृत्ति प्रदान करके इनकी सहायता की। श्री नारायणन इण्डिया लीग में भी सक्रिय रहे। तब वी. के. कृष्णामेनन इण्डिया लीग के इंग्लैण्ड में प्रभारी थे। यह के. एन. मुंशी द्वारा प्रकाशित किए जाने वाले 'द सोशल वेलफेयर' वीकली समाचार पत्र के लंदन स्थित संवाददाता भी रहे। लंदन में इनके साथ आवास करने वाले वीरासामी रिंगाडू भी थे, जो बाद में मॉरिशस के राष्ट्रपति बने। इस समय इनके एक अन्य प्रगाढ़ मित्र ट्रुडयु भी थे, जो कि बाद में कनाडा के प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए।

व्यावसायिक जीवन

श्री नारयणन 1984 में जब भारत लौटे तो उनके पास लस्की का एक पत्र था, जिसके माध्यम से पण्डित नेहरू से परिचयात्मक मुलाकात सम्भव थी। इस सन्दर्भ में उन्होंने एक दिलचस्प क़िस्सा बयान किया- 'जब मैंने एल. एस. ई. का कोर्स समाप्त कर लिया तो लस्की ने मुझे पण्डित नेहरू के नाम का एक परिचयात्मक पत्र प्रदान किया। दिल्ली पहुँचने के बाद मैंने प्रधानमंत्री नेहरू से मुलाकात का समय ले लिया। मैंने सोचा था कि मैं एक भारतीय विद्यार्थी हूँ और लंदन से लौटा हूँ, इस कारण मुझे मुलाकात का समय मिल सकता है। पण्डित नेहरू ने संसद भवन में मुझसे मुलाकात की। हमने कुछ देर लंदन की बातें कीं और कुछ औपचारिक बातें भी कीं। उसके बाद मैंने आभास कर लिया कि मुलाकात का समय समाप्त हो गया है। अत: उन्हें अलविदा कहा और कमरे से बाहर जाने के पूर्व लस्की का पत्र पण्डित नेहरू को सौंप दिया। मैं बाहर घुमावदार आधे गलियारे तक ही पहुँच पाया था कि मुझे लगा कि मैं जिस दिशा से आया हूँ, उधर कोई ताली बजा रहा है। मैंने घूमकर देखा तो पण्डित नेहरू ने मुझे वापस आने का इशारा किया। दरअसल मेरे जाने के बाद पण्डित नेहरू ने वह पत्र खोलकर पढ़ लिया था।

"तुमने यह पत्र पहले मुझे क्यों नहीं दिया?" पण्डित जी ने पूछा।
"मैं क्षमा चाहता हूँ श्रीमान! मुझे बेहतर लगा कि मैं विदाई के समय ही आपको पत्र सौंपूँ।"

फिर पण्डित नेहरू ने मुझसे कई सवाल किए। कुछ दिनों के बाद मैंने स्वयं को 'भारतीय विदेश सेवा' में पाया।' इस प्रकार 1949 में श्री नारायणन ने भारतीय विदेश सेवा में नेहरू जी की प्रार्थना पर नियुक्ति प्राप्त कर ली। एक राजनयिक के रूप में वह रंगून (अब यांगून), टोकियो, लंदन, कैनसास और हेनोई दूतावास में रहे। 1967-69 में यह थाइलैण्ड के, 1973-75 में तुर्की के और 1976-78 में चीन गणराज्य के राजदूत बने। 1954 में इन्होंने 'दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनामिक्स' में अध्ययन भी किया।

1972 में श्री के. आर. नारायणन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सभासद और गृह मामलों के मंत्रालय के सचिव बने। 1978 से 1980 तक यह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। इस समय के अनुभव को इन्होंने आगे चलकर सामान्य जन से जुड़ाव की आधार शिला माना। श्री नारायणन की प्रतिभा के कारण ही इंदिरा गांधी प्रशासन के द्वारा इन्हें सेवानिवृत्ति के बाद भी पुन: बुलाया गया और 1980 से 1984 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय राजदूत बनाकर वाशिंगटन भेजा गया। श्री नारायणन का चीन में राजदूत के रूप में जो कार्यकाल रहा, वह भारत-चीन युद्ध (1962) के बाद प्रथम कूटनीतिक नियुक्ति के रूप में रहा। अमेरिका के राजदूत रहते हुए उन्होंने अमेरिका तथा भारत के रिश्तों को सुधारने में प्रभावी भूमिका निभाई। इसका लाभ उस समय प्राप्त हुआ, जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1982 में रोनाल्ड रीगन के राष्ट्रपतित्व में वाशिंगटन की यात्रा की। पण्डित नेहरू ने 16 वर्षों तक देश का प्रतिनिधित्व किया था। उनका मानना था कि श्री नारायणन अब तक के सर्वश्रेष्ठ राजनयिक हैं।

दाम्पत्य जीवन

8 जून, 1951 को श्री नारायणन ने 'मा टिंट टिंट' से विवाह किया। जब यह रंगून और बर्मा (म्यांमार) में कार्यरत थे, तब इनकी भेंट कुमारी मा टिंट टिंट से हुई थी। यह मित्रता शीघ्र ही प्रेम में बदल गई और दोनों ने विवाह करने का निर्णय कर लिया। तब मा टिंट टिंट वाई. डब्ल्यू. सी. ए. में कार्यरत थीं और नारायणन विद्यार्थी थे। लस्की ने नारायणन से कहा कि वह राजनीतिक आज़ादी के सम्बन्ध में व्याख्यान दें। तभी मा टिंट टिंट इनके सम्पर्क में आई थीं। इनके विवाह को तब विशिष्ट विधान की आवश्यकता पण्डित नेहरू से आशयित थी, क्योंकि भारतीय क़ानून के अनुसार नारायणन 'भारतीय विदेश सेवा' में कार्यरत थे और मा टिंट टिंट एक विदेशी महिला थीं। शादी के बाद मा टिंट टिंट का भारतीय नाम उषा रखा गया और वह भारतीय नागरिक भी बन गईं। श्रीमती उषा नारायणन ने भारत में महिलाओं तथा बच्चों के कल्याण के लिए कई कार्य किए। इन्होंने बर्मा की लघु कथाओं का अनुवाद करके प्रकाशित करवाया, जिसका शीर्षक था, 'थेइन पे मिंट'। इन्हें चित्रा और अमृता के रूप में दो पुत्रियों की प्राप्ति हुईं चित्रा भारतीय राजदूत के रूप में स्वीडन और तुर्की में अपनी सेवाएँ दे चुकी हैं।

राजनीतिक जीवन

श्री नारायणन का राजनीति में प्रवेश श्रीमती इंदिरा गाँधी के आग्रह से सम्भव हुआ। वह लगातार तीन लोकसभा चुनावों 1984, 1989 एवं 1991 में विजयी होकर संसद पहुँचे। यह ओट्टापलल (केरल) की लोकसभा सीट से निर्वाचित हुए। कांग्रेसी सांसद बनने के बाद वह राजीव गाँधी सरकार के केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में सम्मिलित किए गए। एक मंत्री के रूप में इन्होंने योजना (1985), विदेश मामले (1985-86) तथा विज्ञान एवं तकनीकी (1986-89) विभागों का कार्यभार सम्भाला। सांसद के रूप में इन्होंने अंतराष्ट्रीय पेटेण्ट क़ानून को भारत में नियंत्रित किया। 1989-91 में जब कांग्रेस सत्ता से बाहर थी, तब श्री नारायणन विपक्षी सांसद की भूमिका में रहे। 1991 में जब पुन: कांग्रेस सत्ता में लौटी तो इन्हें कैबिनेट में सम्मिलित नहीं किया गया। तब केरल के मुख्यमंत्री के. करुणाकरन जो कि इनके राजनीतिक प्रतिस्पर्धी थे, ने इन्हें सूचित किया कि केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में सम्मिलित न किए जाने का कारण उनकी कम्युनिस्ट समर्थक नीति है। तब उन्होंने जवाब दिया कि मैंने कम्युनिस्ट उम्मीदवारों (ए. के. बालन और लेनिन राजेन्द्रन) को ही तीनों बार चुनाव में पराजित किया था। अत: मैं कम्युनिस्ट विचारधारा का समर्थक कैसे हो सकता हूँ।

श्री नारायणन 21 अगस्त, 1992 को डॉ. शंकर दयाल शर्मा के राष्ट्रपतित्व काल में उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इनका नाम प्राथमिक रूप से वी. पी. सिंह ने अनुमोदित किया था। उसके बाद जनता पार्टी संसदीय नेतृत्व द्वारा वाम मोर्चे ने भी इन्हें अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। पी. वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने भी इन्हें उम्मीदवार के रूप में हरी झण्डी दिखा दी। इस प्रकार उपराष्ट्रपति पद हेतु वह सर्वसम्मति से उम्मीदवार बने। वाम मोर्चे के बारे में नारायणन ने स्पष्टीकरण दिया कि वह कभी भी साम्यवादी के कट्टर समर्थक अथवा विरोधी नहीं रहे। वाम मोर्चा उनके वैचारिक अन्तर को समझता था लेकिन इसके बाद भी उसने उपराष्ट्रपति चुनाव में उनका समर्थन किया और बाद में राष्ट्रपति चुनाव में भी। इस प्रकार वाम मोर्चे के समर्थन से नारायणन को लाभ पहुँचा और उनकी राजनीतिक स्थिति को स्वीकार्य किया गया। जब 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ, तब इस घटना को इन्होंने 'महात्मा गांधी की हत्या के बाद देश में यह सबसे बड़ी दुखांतिका घटी है' कथन से निरूपित किया।

राष्ट्रपति पद पर

14 जुलाई, 1997 को हुए राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा जब 17 जुलाई, 1997 को घोषित हुआ तो पता चला कि श्री नारायणन को कुल वैध मतों का 95 प्रतिशत प्राप्त हुआ था। यह एकमात्र ऐसा राष्ट्रपति चुनाव था जो कि केन्द्र में अल्पमत सरकार के रहते हुए भी समाप्त हुआ। इसमें पूर्व चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार थे। शिव सेना के अतिरिक्त सभी दलों ने नारायणन के पक्ष में मतदान किया, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह कहते हुए इनका विरोध किया कि उन्हें भारतीय संस्कृति की जीत का आधार उनका दलित होना है। इससे पूर्व कोई भी दलित राष्ट्रपति नहीं बना था। श्री नारायणन को 25 जुलाई, 1997 को संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री जे. एस. वर्मा ने राष्ट्रपति पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। इस अवसर पर अपने आरम्भिक सम्बोधन में इन्होंने कहा- "देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद एक ऐसे व्यक्ति को प्रदान किया गया है, जो समाज के धरातल से जुड़ा था, परन्तु धूल और गर्मी के मध्य चला। यह निर्वाचन साबित करता है कि एक सामान्य नागरिक भी सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में केन्द्रीय भूमिका का निर्वहन कर सकता है। मैं इसे अपनी व्यक्तिगत प्रसन्नता न मानकर एक सार्थक एवं प्रतिष्ठापूर्ण परम्परा का आरम्भ मानता हूँ।"

स्वर्णिम वर्षगांठ

1997 में जब भारत की आज़ादी की स्वर्णिम वर्षगांठ मनाई गई तो भारतवर्ष के राष्ट्रपति श्री नारायणन ही थे। स्वर्णिम वर्षगांठ की पूर्व संध्या अर्थात् 14 अगस्त, 1997 को राष्ट्र के नाम अपना सम्बोधन देते हुए इन्होंने भारत की प्रजातांत्रिक व्यवस्था और सरकार की नीतियों को आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बताया। अगली सुबह लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल ने देश को सम्बोधित करते हुए कहा था- "गांधी जी ने जब भारत के भविष्य को लेकर स्वप्न देखा था, तब उन्होंने कहा था कि भारत को सच्ची आज़ादी उस दिन प्राप्त होगी, जब एक दलित देश का राष्ट्रपति होगा। आज हमारा यह सौभाग्य है कि हम गांधी जी के स्वप्न को पूर्ण होता देख रहे हैं। हमारे राष्ट्रपति जिन पर समस्त देश को गर्व है, एक बेहद ग़रीब परिवार से सम्बन्ध रखते थे। इन्होंने राष्ट्रपति भवन को गर्व और सम्मान प्रदान किया है। यह हमारे प्रजातंत्र की शोभा है कि समाज के कमज़ोर वर्ग से निकले व्यक्ति को उसकी प्रतिभा के अनुकूल सही सम्मान प्राप्त हो रहा है। आज देश के सभी नागरिक चाहे वे अल्पसंख्यक समुदाय हों, दलित समुदाय से हों अथवा आदिवासी समुदाय से हों, देश के विकास के लिए एकजुट होकर कार्य कर रहे हैं।"

पोलिंग बूथ मतदान

1998 के आम चुनावों में राष्ट्रपति रहते हुए भी श्री नारायणन ने 16 फ़रवरी, 1998 को एक स्कूल के पोलिंग बूथ में मतदान किया जो राष्ट्रपति भवन के कॉम्प्लेक्स में स्थित था। इन्होंने एक साधारण मतदान में भाग लेकर लोगों को मतदान के प्रति उत्साहित करने का कार्य किया। वह उस परम्परा को बदलना चाहते थे, जिसके अनुसार पूर्व भारतीय राष्ट्रपति चुनावों में मतदान नहीं करते थे। इन्होंने राष्ट्रपति के रूप में 1999 के आम चुनावों में भी अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। इस प्रकार देश के प्रथम नागरिक अर्थात् राष्ट्रपति रहते हुए भी एक आम व्यक्ति बने रहे। अपने कार्यकाल के दौरान श्री नारायणन ने अपनी शक्तियों का विवेक सम्मत रूप से उपयोग किया और राष्ट्रपति की शक्तियों को पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत किया। इस प्रकार इन्होंने राष्ट्रपति की शक्तियों को व्यावहारिक रूप में अपनाकर दिखाया। फिर परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि इन्हें अपने क्षेत्राधिकार की शक्तियों का उपयोग करना आवश्यक हो गया।

दो बार संसद भंग

अपने राष्ट्रपति काल के दौरान श्री नारायणन ने दो बार संसद को भंग करने का कार्य किया। लेकिन ऐसा करने के पूर्व इन्होंने अपने अधिकार का उपयोग करते हुए राजनीतिक परिदृश्य को संचालित करने वाले लोगों से परामर्श भी किया था। तब यह नतीजा निकाला कि उन स्थितियों में कोई भी राजनीतिक दल बहुमत सिद्ध करने की स्थिति में नहीं था। यह स्थिति तब उत्पन्न हुई थी, जब कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने इन्द्रकुमार गुजराल सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार के बहुमत में होने का दावा दांव पर लग गया। श्री इन्द्रकुमार गुजराल को 28 नवम्बर, 1997 तक सदन में अपने बहुमत का जादुई आंकड़ा साबित करना था। प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल बहुमत सिद्ध करने में असमर्थ थे, अत: उन्होंने राष्ट्रपति को परामर्श दिया कि लोकसभा भंग कर दी जाए। श्री नारायणन ने भी परिस्थितियों की समीक्षा करते हुए निर्णय लिया कि कोई भी दल बहुमत द्वारा सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। अत: श्री गुजराल का परामर्श स्वीकार करते हुए उन्होंने लोकसभा भंग कर दी। इसके बाद हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी सकल पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई, जिसके पास में सबसे ज़्यादा सांसद थे। भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को एन. डी. ए. का भी समर्थन प्राप्त था। अत: नारायणन ने वाजपेयी से कहा कि वह समर्थन करने वाली पार्टियों के समर्थन पत्र प्रदान करें, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि उनके पास सरकार बनाने के लायक़ बहुमत है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी समर्थन जुटाने में समर्थ थे और इस आधार पर उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया। साथ ही यह शर्त भी थी कि 10 दिन में वाजपेयी अपना बहुमत सदन में साबित करें। 14 अप्रैल, 1999 को जयललिता ने राष्ट्रपति नारायणन को पत्र लिखा कि वह वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस ले रही हैं। तब श्री नारायणन ने वाजपेयी को सदन में बहुमत साबित करने को कहा। 17 अप्रैल को वाजपेयी सदन में बहुमत साबित करने की स्थिति में नहीं थे। इस कारण वाजपेयी को हार का सामना करना पड़ा।

लोकसभा चुनाव

श्री अटल बिहारी वाजपेयी तथा विपक्ष की नेता एवं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी दोनों सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थे। अत: जब दोनों के द्वारा सार्थक संकेत प्राप्त नहीं हुए तो राष्ट्रपति श्री नारायणन ने प्रधानमंत्री को सूचित किया कि केन्द्र सरकार का संकट टालने का एक मात्र उपाय है कि नए लोकसभा चुनाव करवाएँ जाएँ। तब अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर श्री नारायणन ने लोकसभा भंग कर दी। इसके बाद हुए चुनावों में एन. डी. ए. को बहुमत प्राप्त हुआ और वाजपेयी पुन: प्रधानमंत्री बनाए गए। इन निर्णयों के द्वारा राष्ट्रपति श्री के. आर. नारायणन ने प्रधानमंत्री की नियुक्ति के सम्बन्ध में नया उदाहरण पेश किया। यदि किसी दल अथवा चुनाव पूर्व के गठबन्धन को बहुमत प्राप्त होता है तो किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री तभी बनाया जा सकता है, जब वह राष्ट्रपति को यह विश्वास दिलाने में सफल हो जाए कि उसके पास सदन में बहुमत है (गठबन्धन के दलों द्वारा समर्थन का पत्र प्रदान करे) और वह उसे साबित भी कर सकता है। इस प्रकार त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में राष्ट्रपति श्री नारायणन ने यह उदाहरण पेश किया कि किस प्रकार बहुमत साबित किया जाना चाहिए। इससे पूर्व के राष्ट्रपतियों- नीलम संजीव रेड्डी, आर. वेंकटरमण और डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने पूर्व परम्परा के अनुसार सबसे बड़ी एकल पार्टी अथवा चुनाव पूर्व उस गठबन्धन के मुखिया को सरकार बनाने का न्योता प्रदान किया था। लेकिन उन्होंने यह पड़ताल नहीं की थी कि उनके पास सदन में बहुमत साबित करने की योग्यता है अथवा नहीं।

राष्ट्रपति शासन

आर्टिकल 356 के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा किसी भी राज्य की क़ानून व्यवस्था बिगड़ने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। ऐसे मौक़े दो बार आए। पहली बार इन्द्रकुमार गुजराल सरकार ने उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग 22 अक्टूबर, 1999 को की। दूसरी बार अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को 25 सितम्बर, 1994 को बर्ख़ास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की। इन दोनों मौकों पर राष्ट्रपति श्री नारायणन ने उच्चतम न्यायालय के 1994 के निर्णय का अवलोकन किया, जो एस. आर. बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ़ इण्डिया के मामले में दिया गया था। दोनों प्रकरणों में कैबिनेट द्वारा राष्ट्रपति के विशेषाधिकार का सम्मान किया गया था। इन मौकों पर राष्ट्रपति ने ऐसे आग्रह पुनर्विचार के लिए लौटाकर एक महत्त्वपूर्ण दृष्टान्त पेश किया, ताकि संघता में राज्य सरकारों के अधिकारों की भी सुरक्षा सम्भव हो सके।

कार्यवाहक सरकार द्वारा शासन

मई 1999 में पाकिस्तान के साथ कारगिल में युद्ध छिड़ गया। पाकिस्तानी सैनिकों ने आतंकवादियों के साथ में मिलकर युद्ध की स्थिति पैदा कर दी थी। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में सरकार चला रहे थे। वाजपेयी सरकार अविश्वास प्रस्ताव पर हार चुकी थी और विपक्ष भी सरकार बनाने में असफल रहा। ऐसी स्थिति में लोकसभा भंग कर दी गई थी और कार्यवाहक सरकार द्वारा शासन चलाया जा रहा था। इस कारण प्रजातंत्रीय जवाबदेही की समस्या उत्पन्न हो गई थी। जिस प्रकार मुख्य सरकार के कार्यों की समीक्षा, विवेचना और परख संसद में की जाती है, उस प्रकार किया जाना सम्भव नहीं था। ऐसी विकट स्थिति में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सलाह दी कि राज्यसभा में युद्ध को लेकर चर्चा की जाए। इसी प्रकार की मांग कई विपक्षी दलों के द्वारा भी उठाई गई।[1] यद्यपि इस प्रकार का कोई भी पूर्व उदाहरण नहीं था कि सरकार न रहने की स्थिति में राज्यसभा का सत्र अलग से बुलाया जाए। इसके अतिरिक्त श्री नारायणन ने तीनों सेनाओं के सेनाधिकारियों से युद्ध में शहीद हुए सैनिकों को श्रंद्धाजंलि भी दी थी। राष्ट्रपति के रूप में यह संवैधानिक मर्यादाओं से बंधे हुए थे। वह बहुत कुछ करना चाहते थे, लेकिन मर्यादाओं का कभी भी उल्लंघन नहीं किया।

राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार

राष्ट्रपति नियुक्त होने के बाद नारायणन ने एक नीति अथवा सिद्धान्त बना लिया था कि वह किसी भी पूजा स्थान या इबादतग़ाह पर नहीं जाएँगे-चाहे वह देवता का हो या देवी का। यह एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति रहे जिन्होंने अपने कार्यकाल में किसी भी पूजा स्थल का दौरा नहीं किया। राष्ट्रपति के रूप में जब श्री नारायणन की पदावधि के अवसान का समय निकट आया तो विभिन्न जनसमुदायों की राय थी कि इन्हें दूसरे सत्र के लिए भी राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। इस समय एन. डी. ए. के पास अपर्याप्त बहुमत था। लेकिन नारायणन ने स्पष्ट कर दिया कि वह सर्वसम्मति के आधार पर ही पुन: राष्ट्रपति बनना स्वीकार करेंगे। उस समय की विपक्षी पार्टियों- कांग्रेस, जनता दल, वाम मोर्चा तथा अन्य ने भी इनको दूसरी बार राष्ट्रपति बनाये जाने का समर्थन किया था। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति श्री नारायणन से मुलाक़ात करके यह प्रार्थना की कि वह अगले सत्र हेतु भी राष्ट्रपति बनें। लेकिन वाजपेयी ने इनसे भेंट करके यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी उम्मीदवारी को लेकर एन. डी. ए. में असहमति है। एन. डी. ए. ने उपराष्ट्रपति कृष्णकान्त को सर्वसम्मति से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का प्रयास किया। विपक्ष से इस बारे में सहयोग मांगा गया और कांग्रेस तक भी वाजपेयी का संदेश गया। लेकिन एक ही दिन में यह स्पष्ट हो गया कि कृष्णकान्त की उम्मीदवारी को लेकर एन. डी. ए. के घटक दल ही एकमत नहीं हैं। इसके बाद राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में डॉ. पी. सी. अलेक्जेण्डर के नाम पर विचार किया गया। लेकिन विपक्षी दलों ने इनकी उम्मीदवारी को नकार दिया। फिर विपक्षियों ने श्री नारायणन से पुन: सम्पर्क किया और राष्ट्रपति पद हेतु विचार करने का अनुरोध किया। तब एन. डी. ए. द्वारा डॉ. अब्दुल कलाम का नाम अधिकारिक उम्मीदवार के रूप में आगे आया। लेकिन इस बारे में सर्वसम्मति की परवाह नहीं की गई। मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी ने विपक्ष की एकजुटता की परवाह न करते हुए अब्दुल क़लाम के नाम पर सहमति व्यक्त कर दी। ऐसी स्थिति में श्री नारायणन ने स्वयं को राष्ट्रपति पद की पुन: उम्मीदवारी से अलग कर लिया। बाद में जब इस सन्दर्भ में श्री नारायणन से पूछा गया तो उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की नीति को ज़िम्मेदार ठहराया, जिसके कारण दूसरी बार राष्ट्रपति बनना मंज़ूर नहीं किया। इन्होंने आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि भाजपा भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति को आक्रामक हिन्दुत्ववादी नीति से नुक़सान पहुँचाने का काम कर रही है।

विदाई

श्री नारायणन ने विशेष रूप से मुरली मनोहर जोशी (जो एच. आर. डी. मंत्री थे) का उल्लेख किया, जिन्होंने शिक्षा व्यवस्था में बी. जे. पी. की हिन्दुत्ववादी विचारधारा को सम्मिलित करने का प्रयास किया था। साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने संवैधानिक रूप से ऐसे लोगों की नियुक्तियाँ की थीं, जो बी. जे. पी. की विचारधारा को स्थापित करने का कार्य कर सकते थे। श्री नारायणन प्रजातांत्रिक एवं संवैधानिक मूल्यों के अनुसार ही कार्य करना चाहते थे और बी. जे. पी. को इनकी यह कार्यशैली पसन्द नहीं थी। 24 जुलाई, 2002 को श्री नारायणन ने अपने विदाई सम्बोधन में युवा वर्ग से कहा कि वह सामाजिक कार्यों के उत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे। इन्होंने अपने अनुभवों पर आधारित संस्मरणों के माध्यम से भारतीय लोगों की अच्छाइयों एवं बुद्धिमत्ता को परिलक्षित किया। श्री नारायणन ने कहा कि जब वह उझावूर में विभिन्न धर्मावलम्बियों के साथ रहते हुए बड़े हो रहे थे, तब धार्मिक सहिष्णुता और एकता के साथ हिन्दू एवं क्रिश्चियन लोगों ने उनकी आरम्भिक शिक्षा में मदद की थी। इसी प्रकार ओट्टापासम में निर्वाचन के समय भी सभी जाति एवं धर्म के लोगों ने इनके चुनाव प्रचार में भाग लिया था। इन्होंने कहा कि भारत की एकता और प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए धार्मिक सहिष्णुता का भाव काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार रहा है। अत: हिन्दुओं को चाहिए कि वे बहुसंख्यक होने के कारण हिन्दुत्व के पारम्परिक मूल्यों के अनुसार सभी धर्मों का सम्मान करें।

श्री नारायणन के शब्दों में

श्री नारायणन ने विशेष रूप से कहा-"भारत के राष्ट्रपति के रूप में मैंने बेहद दु:ख और स्वयं को असहाय महसूस किया। ऐसे कई अवसर आए जब मैं देश के नागरिकों के लिए कुछ नहीं कर सका। इन अनुभवों ने मुझे काफ़ी दु:ख पहुँचाया। सीमित शक्तियों के कारण मैं वेदना महसूस करता था। वस्तुत: शक्ति और असहायता के मिश्रण को दुखान्त ही कहना चाहिए।"

निधन

श्री के. आर. नारायणन का निधन 9 नवम्बर, 2005 को आर्मी रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पिटल, नई दिल्ली में हुआ। इन्हें न्यूमोनिया की शिकायत थी। फिर गुर्दों के काम न करने के कारण इनकी मृत्यु हो गई। 10 नवम्बर, 2005 को पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ सूर्यास्त के समय इनका अन्तिम संस्कार इनके भतीजे डॉ. पी. वी. रामचन्द्रन ने यमुना नदी के किनारे 'एकता स्थल' पर किया। यह स्थान 'शान्ति वन' के निकट है, जहाँ इनके मार्गदर्शक पण्डित नेहरू की स्मृतियाँ जीवित हैं। इनकी पुत्री चित्रा (तुर्की में भारतीय राजदूत), पत्नी उषा, दूसरी पुत्री अमृता तथा परिवार के अन्य सदस्यों को देश-विदेश से कई संवेदना संदेश प्राप्त हुए। पुत्री चित्रा ने कहा कि उनके पिता को राष्ट्र प्रेम, विशिष्ट नैतिक मनोबल तथा साहस के लिए सदैव याद किया जाएगा।

सम्मान

श्री के. आर. नारायणन ने कुछ पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें 'इण्डिया एण्ड अमेरिका एस्सेस इन अंडरस्टैडिंग', 'इमेजेस एण्ड इनसाइट्स' और 'नॉन अलाइमेंट इन कन्टैम्परेरी इंटरनेशनल निलेशंस' उल्लेखनीय हैं। इन्हें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई पुरस्कार प्राप्त हुए थे। 1998 में इन्हें 'द अपील ऑफ़ कॉनसाइंस फ़ाउंडेशन', न्यूयार्क द्वारा 'वर्ल्ड स्टेट्समैन अवार्ड' दिया गया। 'टोलेडो विश्वविद्यालय', अमेरिका ने इन्हें 'डॉक्टर ऑफ़ साइंस' की तथा 'आस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय' ने 'डॉक्टर ऑफ़ लॉस' की उपाधि दी। इसी प्रकार से राजनीति विज्ञान में इन्हें डॉक्टरेट की उपाधि तुर्की और सेन कार्लोस विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की गई। भारत माता के इस सच्चे सपूत को सदैव याद किया जाएगा जो राष्ट्रपति से ज़्यादा एक बेहतर इंसान थे।



भारत के राष्ट्रपति
Arrow-left.png पूर्वाधिकारी
शंकरदयाल शर्मा
के. आर. नारायणन उत्तराधिकारी
अब्दुल कलाम
Arrow-right.png

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टीका टिप्पणी

  1. 1962-के भारत-चीन युद्ध के दौरान ऐसी मांग वाजपेयी ने उठाई थी और नेहरू जी ने उसे स्वीकार कर लिया था

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