क्रीं-कुण्ड, वाराणसी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

क्रीं-कुण्ड उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी नगर में स्थित है। काशी में यह अघोर साधना का केन्द्र भी माना जाता है। यह शिवाला मुहल्ले में स्थित है तथा इसका मुख्य द्वार रवीन्द्रपुरी कालोनी मार्ग की तरफ है। यह तपोभूमि अधोरपीठ किनाराम बाबा स्थल के नाम से प्रसिद्ध है। अनेक प्राचीन ग्रन्थों में भी इसकी विशेषताओं का उल्लेख मिलता है। क्रीं कुण्ड केदार खण्ड में स्थित है जिसे धार्मिक दृष्टि से काफ़ी पवित्र क्षेत्र माना जाता है। इस खण्ड के दक्षिणी भाग में विशाल बेल-वन होने के कारण ‘बेलवरिया के नाम से भी इसे जाना जाता था। बढ़ती जनसंख्या के कारण बेल के वन कटते गये और उनकी जगह ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएं ले ली हैं। यहाँ माँ हिंगलाज के नाम पर रमणीक ताल स्थित था, जिसका नाम था ‘हिग्बा ताल’। इसके मध्य में माँ हिंगलाज के बीच मंत्र पर आधारित क्रीं कुण्ड है। ये सभी नाम प्राचीन भू-अभिलेखों में आज भी उपलब्ध है। इसी के मध्य स्थित है अघोरपीठ बाबा किनाराम स्थल, जिसके दक्षिण-पश्चिमी कोण पर स्थित है माता रेणुका का मंदिर। रेणुका ऋषि यमदाग्नी की धर्मपत्नी थीं।

अघोर साधना का केन्द्र

इस अघोर तपस्थली के मुख्य द्वार पर स्थित दोनों खम्भों पर एक के ऊपर एक स्थित तीन मुण्ड अभेद के प्रतीक हैं। जो यह दर्शाते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश में भेद नहीं है। ये तीनों एक ही हैं और कार्य के अनुसार तीन स्वरूप में दर्शाये जाते हैं। क्रीं कुण्ड भगवान सदाशिव का कल्याणकारी स्वरूप है। जनमानस में यह अवधारणा प्रचलित है कि किसी भी प्रकार की विपत्ति व आपदा से हतोत्साहित व्यक्ति रविवारमंगलवार को पाँच दिन क्रीं कुण्ड में स्नान करे या मुँह-हाथ धोने के बाद आचमन करे, तो उसके कष्ट का निवारण हो जायेगा। इस लोक अवधारणा के चलते यहाँ के प्रति रविवार व मंगलवार को श्रद्धालुओं की काफ़ी भीड़ होती है। जो व्यक्ति पहली बार स्नान करते हैं, वे अपना वस्त्र जिसे पहनकर आये होते हैं, स्नान करने के बाद वहीं छोड़ देते हैं और दूसरा वस्त्र पहनकर वापस जाते हैं। वे बारादरी में बैठे व्यक्ति को थोड़ा सा चावल-दाल अर्पित कर विभूति ग्रहण करते हैं। उसके बाद वे बाबा किनाराम की समाधि की तीन बार परिक्रमा करते हैं। श्रद्धालुओं द्वारा छोड़े गये वस्त्र को बाद में ग़रीबों को दे दिया जाता है।

बाबा किनाराम स्थल

किनाराम स्थल पर जलने वाली ‘धुनि’ की विभूति ही यहाँ का प्रसाद है। जनश्रुतियों के अनुसार यह धुनी कभी बुझती नहीं है। इस कक्ष के अन्दर गुरु का आसन है। इसके दक्षिण ओर विशाल व भव्य समाधि से लगा ग्यारह पीठाधीशों की समाधि श्रृंखला एकादश रूद्र का प्रतीक है। इस विशाल समाधि के अन्दर गुफा में माँ हिंगलाज यन्त्रवत स्थित हैं, जिनके बगल में अघोराचार्य बाबा किनाराम का पार्थिव शरीर स्थापित है। इसके ऊपर स्थित पांचवा मुख जो शिव शक्ति का प्रतीक है। यहाँ तक पहुंचने का एक मात्र अवलम्ब है ‘गुरु’। वहाँ जाने वाले संकरे मार्ग के एक ओर आदि गुरु ‘दत्तात्रेय’ स्वरूपी बाबा कालूराम की समाधि और दूसरी ओर बीसवीं सदी के उन्हीं के स्वरूप बाबा राजेश्वर राम की श्वेत मूर्ति है। बाबा किनाराम की चार वैष्णवी व चार अघोरी कृति की गद्दी स्थापित की थी, जिसमें यह स्थल सर्वश्रेष्ठ है। अधोर गद्दी में अन्य तीन रामगढ़ (चन्दौली), देवन (गाजीपुर), हरिहरपुर (चन्दवक) तथा नायकडीह (ग़ाज़ीपुर) में स्थापित है। अघोर का अर्थ है अनघोर अर्थात् जो घोर न हो, कठिन या जटिल न हो। अर्थात् अघोर वह है, जो अत्यन्त सरल, सुगम्य, मधुर व सुपाच्य है। सभी के लिये सहज योग है। यह किसी धर्म, परम्परा, सम्प्रदाय या पन्थ तक ही सीमित नहीं है। वास्तव में यह एक स्थिति, अवस्था व मानसिक स्तर है। दरअसल अघोर पंथ सभी के अन्दर से गुजरने वाला सरल पंथ है। यह न केवल हिन्दू में निहित है और न ही मुसलमान, ईसाई, यहूदी आदि मतावलम्बियों में। इसे कोई भी सीमा रेखा बांध नहीं सकती है। यह न केवल शैव में और न ही इसे शाक्त, वैष्णवी या अघोरी सीमा में ही आबद्ध किया जा सकता है। यह शाश्वत सत्य का परिचायक है। अघोर साधना में मांस व मदिरा का सेवन तथा शव साधना कोई आवश्यक नहीं है। यह साधना की दिशा में एक पड़ाव है, लेकिन बहुत से साधक इसी को अन्तिम चरण मानकर सिर्फ मांस व मदिरा के चक्कर में ही पड़ जाते हैं।
बाबा किनाराम ने मुग़लकाल में समाज में व्याप्त अनेक भ्रान्तियों को अपनी साधना के बल पर दूर करने की कोशिश की और उसमें उन्हें काफ़ी सफलता भी मिली। उनसे सम्बन्धित अनेक लोक कथाएं समाज में प्रचलित हैं। जनता पर उनका व्यापक असर था, यही कारण है कि आज भी लोग श्रद्धा से उनकी याद करते हैं और क्रीं कुण्ड में स्नान कर अपने दुःखों से निजात पाने हेतु प्रार्थना करते हैं। बाबा किनाराम ने अघोर साधना पद्धति को एक नया आयाम प्रदान किया बाद में आधुनिक युग में भगवान राम ने इस साधना पद्धति को सीधे समाज सुधार से जोड़ दिया और सर्वेश्वरी समूह की स्थापना कर उसको एक नया स्वरूप प्रदान किया। स्थान या सामग्री का कोई विशेष महत्व नहीं है अगर महत्व है, तो चेतना व विवेक का। कुर्बानी की प्रथा पर भी अब प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
क्रीं कुण्ड में एक पुराना इमली का का पेड़ है, जिस पर दर्जनों बड़े-बड़े चमगादड़ हैं। बसन्त ऋतु में पतझड़ के समय इनकी संख्या और बढ़ जाती है। परिसर में स्थित कुछ अन्य पेड़ों पर भी ये चमगादड़ रहते हैं, जिनका वजन दो से तीन किलो से भी अधिक होगा। यह आश्चर्य की बात है कि आस-पास के क्षेत्र में अनेक पेड़ हैं लेकिन वहाँ इतने बड़े-बड़े चमगादड़ नहीं रहते हैं, जबकि क्रीं कुण्ड में स्थित वृक्षों पर वे रहते हैं। बाबा किनाराम पीठ के 11 वें पीठाधीश्वर बाबा सिद्धार्थ गौतम हैं।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुंड व तालाब (हिंदी) काशी कथा। अभिगमन तिथि: 11 जनवरी, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख