"ग़यासुद्दीन बलबन" के अवतरणों में अंतर

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ग़यासुद्दीन बलबन [[ग़ुलाम वंश]] का नवाँ सुल्तान (1266-87) था। बलबन मूलतः सुल्तान [[इल्तुतमिश]] का तुर्की ग़ुलाम था। अपनी योग्यता और गुणों के कारण वह धीरे-धीरे ऊँचे पदों पर प्रतिष्ठा को प्राप्त करता गया। उसकी पुत्री सुल्तान नसीरउद्दीन (1246-66 ई.) को ब्याही थी। जिसने उसे अपना मंत्री तथा सहायक नियुक्त किया। सुल्तान के सहायक के रूप में बलबन अपने दामाद के नाम पर 1266 ई. में उसकी मृत्यु तक [[दिल्ली सल्तनत]] का प्रशासन चलाता रहा। उसके बाद वह स्वयं सिंहासन पर बैठ गया और सुल्तान ग़यासुद्दीन की उपाधि धारण की। उसने बड़ी योग्यता से शासन किया। विद्रोही तुर्की अमीरों को कुचल कर, मेवाती सदृश्य लुटेरों को कठोर दंड देकर, निष्पक्ष न्याय व्यवस्था, जिसमें छोटे-बड़े के साथ कोई भेदभाव नहीं होता था तथा एक बहुत ही कार्यकुशल गुप्तचर व्यवस्था संगठित कर, जो उसके राज्य में होने वाली सभी बातों से उसे अवगत रखती थी, बलबन ने राज्य में शान्ति व्यवस्था पुनः क़ायम की।
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'''गयासुद्दीन बलबन''' (1266-1286 ई.) इल्बारि जाति का व्यक्ति था, जिसने एक नये राजवंश ‘बलबनी वंश’ की स्थापना की थी। ग़यासुद्दीन बलबन [[ग़ुलाम वंश]] का नवाँ सुल्तान था। बलबन मूलतः सुल्तान [[इल्तुतमिश]] का तुर्की ग़ुलाम था। बलबन को ख़्वाजा 'जमालुद्दीन बसरी' नाम का एक व्यक्ति ख़रीद कर 1232-33 ई. में [[दिल्ली]] लाया था। [[इल्तुतमिश]] ने [[ग्वालियर]] को जीतने के उपरान्त बलबन को ख़रीद लिया। अपनी योग्यता के कारण ही बलबन इल्तुतमिश के समय में, विशेषकर [[रज़िया सुल्तान]] के समय में 'अमीर-ए-शिकार', [[मुइज़ुद्दीन बहरामशाह]] के समय में 'अमीर-ए-आखूर', [[अलाउद्दीन मसूद]] के समय में 'अमीर-ए-हाजिब' एवं सुल्तान [[नसीरूद्दीन महमूद]] के समय में 'अमीर-ए-हाजिब' व नाइन के रूप में राज्य की सम्पूर्ण शक्ति का केन्द्र बन गया। बलबन की पुत्री सुल्तान मुईजुद्दीन बहरामशाह (1246-66 ई.) को ब्याही थी। जिसने उसे अपना मंत्री तथा सहायक नियुक्त किया था। नसिरुद्दीन की मृत्यु के उपरान्त 1266 ई. में अमीर सरदारों के सहयोग से वह 'गयासुद्दीन बलबन' के नाम से दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठा। इस प्रकार वह इल्बारि जाति का द्वितीय शासक बना। बलबन जातीय श्रेष्ठता में विश्वास रखता था। इसीलिए उसने अपना संबंध फ़िरदौसी के 'शाहनामा' में उल्लिखित तुरानी शासक के वंश 'अफ़रासियाब' से जोड़ा। अपने पौत्रों का नामकरण मध्य [[एशिया]] के ख्याति प्राप्त शासक 'कैखुसरो', [[कैकुबाद]] इत्यादि के नाम पर किया। उसने प्रशासन में सिर्फ कुलीन व्यक्तियों को नियुक्त किया। उसका कहना था कि “जब मै किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो, मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी उत्तेजित हो जाती है।”
==बलबन==
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==विद्रोह का दमन==
[[नसीरूद्दीन महमूद]] की मौत होने पर बलबन ने सिंहासन पर कब्‍ज़ा किया और [[दिल्ली]] पर राज किया। वर्ष 1246-86 तक बलबन ने अपने कार्यकाल में साम्राज्‍य का प्रशासनिक ढांचा सुगठित किया तथा [[इल्तुतमिश]] द्वारा शुरू किए गए कार्यों को पूरा किया।
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'''बलबन ने इल्तुतमिश द्वारा स्थापित''' 40 तुर्की सरदारों के दल को समाप्त कर दिया, तुर्क अमीरों को शक्तिशाली होने से रोका, अपने शासन काल में हुए एक मात्र [[बंगाल]] का तुर्क विद्रोह, जहाँ के शासक तुगरिल ख़ाँ वेग ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था, की सूचना पाकर बलबन ने [[अवध]] के सूबेदार अमीन ख़ाँ को भेजा, परन्तु वह असफल होकर लौटा। अतः क्रोधित होकर बलबन ने उसकी हत्या करवा दी और उसका सिर [[अयोध्या]] के फाटक पर लटका दिया और स्वंय इस विद्रोह का वखूबी दमन किया। बंगाल की तत्कालीन राजधनी लखनौती को उस समय ‘विद्रोह का नगर’ कहा जाता था। तुगरिल वेग को पकड़ने एवं उसकी हत्या करने का श्रेय मलिक मुकद्दीर को मिला, चूंकि इसके पहले तुगरिल को पकड़ने में काफ़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था, इसलिए मुकद्दीर की सफलता से प्रसन्न होकर बलबन ने उसे ‘तुगरिलकुश’ (तुगरिल की हत्या करने वाला) की उपाधि प्रदान की। अपने पुत्र बुखरा ख़ाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। इसके अतिरिक्त बलबन ने मेवातियों एवं कटेहर में हुए विद्रोह का भी दमन किया तथा दोआब एवं [[पंजाब]] क्षेत्र में शान्ति स्थापित की। इस प्रकार अपनी शक्ति को समेकित करने के बाद बलबन ने भव्य उपाधि 'जिल्ले-इलाही' धारण को किया।
==सिंहासन पर==
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==बलबन की नीति==
एक तुर्क सरदार 'उलघु ख़ाँ' ने, जिसे उसके बाद के नाम, 'बलबन' से जाना जाता है, धीरे-धीरे सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली और वह 1265 में सिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद तुर्क सरदार और शासन के बीच संघर्ष रुका।
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'''पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त पर''' [[मंगोल]] आक्रमण के भय को समाप्त करने के लिए बलबन ने एक सुनिश्चत योजना का क्रियान्वयन किया। उसने सीमा पर कीलों की एकतार बनवायी और प्रत्येक क़िले में एक बड़ी संख्या में सेना रखी। कुछ वर्षो के पश्चात् उत्तर-पश्चिमी सीमा को दो भागों में बांट दिया गया। [[लाहौर]], मुल्तान और दिपालपुर का क्षेत्र शाहज़ादा मुहम्मद को और सुमन, समाना तथा [[कच्छ]] का क्षेत्र शाहजादा बुगरा ख़ाँ को दिया गया। प्रत्येक शाहज़ादे के लिए प्रायः 18 हज़ार घुड़सवारों की एक शक्तिशाली सेना रखी गयी। उसने सैन्य विभाग ‘दीवान-ए-अर्ज’ को पुनर्गठित करवाया, इमादुलमुल्क को दीवान-ए-अर्ज के पद पर प्रतिष्ठित किया तथा सीमान्त क्षेत्र में स्थित क़िलों का पुननिर्माण करवाया। बलबन ने दीवान-ए-अर्ज को वज़ीर के नियंत्रण से मुक्त कर दिया, जिससे उसे धन की कमी न हो। बलबन की अच्छी सेना व्यवस्था का श्रेय इमादुलमुल्क को ही था। साथ ही उसने अयोग्य एवं वृद्ध सैनिकों को वेतन का भुगतान नकद वेतन में किया। उसने तुर्क प्रभाव को कम करने के लिए [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] परम्परा पर आधारित ‘सिजदा’ (घुटने पर बैठकर सम्राट के सामने सिर झुकाना) एवं ‘पाबोस’ (पांव को चूमना) के प्रचलन को अनिवार्य कर दिया। बलबन ने गुप्तचर विभाग की स्थापना राज्य के अन्तर्गत होने वाले षड़यन्त्रों एवं विद्रोह के विषय में पूर्व जानकारी के लिए किया। गुप्तचरों की नियुक्त बलबन स्वयं करता था और उन्हें पर्याप्त धन उपलब्ध कराता था। कोई भी गुप्तचर खुले दरबार में उससे नहीं मिलता था। यदि कोई गुप्तचर अपने कर्तव्य की पूर्ति नहीं करता था, तो उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। उसने फ़ारसी रीति-रिवाज पर आधारित नवरोज उत्सव को प्रारम्भ करवाया। अपने विरोधियों के प्रति बलबन ने कठोर ‘लौह एवं रक्त’ नीति का पालन किया। इस नीति के अन्तर्गत विद्रोही व्यक्ति की हत्या कर उसकी स्त्री एवं बच्चों को दास बना लिया जाता था।
==नसीरुद्दीन महमूद का नायब==
 
आरम्भ में बलबन [[इल्तुतमिश|अल्तमश]] के छोटे पुत्र नसीरुद्दीन महमूद का नायब था, जिसे उसने 1246 में गद्दी पर बैठने में मदद की थी। बलबन ने अपनी एक पुत्री का विवाह युवा सुल्तान से करवा कर अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली। बलबन की बढ़ती शक्ति उन तुर्क सरदारों की आंखों में चुभ रही थी जो नसीरुद्दीन महमूद के युवा और अनुभवहीन होने के कारण शासन में अपना प्रभाव क़ायम रखना चाहते थे।
 
 
==बलबन के विरुद्ध षड़यंत्र==
 
==बलबन के विरुद्ध षड़यंत्र==
उन्होंने मिल कर 1250 में बलबन के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक भारतीय मुसलमान 'इमादुद्दीन रिहान' की नियुक्ति हुई। यद्यपि तुर्क सरदार सारे अधिकारों और सारी शक्ति को अपने ही हाथों में रखना चाहते थे तथापि वे रिहान की नियुक्ति के लिए इसलिए राज़ी हो गए क्योंकि वे इस बात पर एकमत नहीं हो सके कि उनमें से बलबन के स्थान पर किसकी नियुक्ति हो। बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा।  
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'''बलबन को प्राप्त होने वाली सफलताओं से''' तुर्क सरदारों का एक बड़ा दल उससे ईर्ष्या करने लगा था तथा वे उसे पद से हटाने का उपाय सोचने लगे। उन्होंने मिल कर 1250 ई. में बलबन के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक भारतीय मुसलमान 'इमादुद्दीन रिहान' की नियुक्ति हुई। यद्यपि तुर्क सरदार सारे अधिकारों और सारी शक्ति को अपने ही हाथों में रखना चाहते थे तथापि वे रिहान की नियुक्ति के लिए इसलिए राज़ी हो गए क्योंकि वे इस बात पर एकमत नहीं हो सके कि उनमें से बलबन के स्थान पर किसकी नियुक्ति हो। बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा।
 
==शक्ति परीक्षा==
 
==शक्ति परीक्षा==
पदच्युत होने के दो वर्षों के अन्दर ही बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने पंजाब के एक बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने वाले मंगोलों से भी सम्पर्क स्थापित किया। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े और उसने रिहान को बर्ख़ास्त कर दिया। कुछ समय बाद रिहान पराजित हुआ और उसे मार दिया गया। बलबन ने उचित-अनुचित तरीक़ों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक 'छत्र' को भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी सम्भवतः तुर्क सरदारों की भावनाओं को ध्यान में रख वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265 में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बलबन ने सुल्तान को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी। बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और अवांछनीय होते थे, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के युग का आरम्भ हुआ।  
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'''पदच्युत होने के दो वर्षों के अन्दर ही''' बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने [[पंजाब]] के एक बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने वाले [[मंगोल]] लोगों से भी सम्पर्क स्थापित किया। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े और उसने रिहान को बर्ख़ास्त कर दिया। कुछ समय बाद रिहान पराजित हुआ और उसे मार दिया गया। बलबन ने उचित-अनुचित तरीक़ों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक 'छत्र' को भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी सम्भवतः तुर्क सरदारों की भावनाओं को ध्यान में रख वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265 ई. में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बलबन ने सुल्तान को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी। बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और अवांछनीय होते थे, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के युग का आरम्भ हुआ।  
 
==अफ़रासियान का वंशज==
 
==अफ़रासियान का वंशज==
बलबन का विश्वास था कि आंतरिक और बाहरी ख़तरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान और उसकी शक्ति को बढ़ाना है और इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयत्न करता रहा। उस काल में मान्यता थी कि अधिकार और शक्ति केवल राजसी और प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे को मज़बूत करने के लिए घोषणा की कि वह कहानियों में प्रसिद्ध तुर्क योद्धा 'अफ़रासियान' का वंशज है। राजसी वंशज से अपने सम्बन्धों के दावों को मज़बूत करने के लिए बलबन ने स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने शासन के उच्च पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरम्भ किया। इसका अर्थ यह था कि भारतीय मुसलमान इन पदों से वंचित रह जाते थे। बलबन कभी-कभी तो इस बात की हद कर देता था। उदाहरणार्थ उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया जो ऊँचे ख़ानदान का नहीं था। इतिहासकार 'ईरानी' ने, जो स्वयं ख़ानदानी तुर्कों का समर्थक था, अपनी रचना में बलबन से यह कहलवाया है- 'जब भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ तो क्रोध से मेरी आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक (उसे मारने के लिए) पहुँच जाते हैं।' बलबन ने वास्तव में ऐसे शब्द कहे थे या नहीं, लेकिन इनसे सम्भवतः गैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है।  
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'''बलबन का विश्वास था कि''' आंतरिक और बाहरी ख़तरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान और उसकी शक्ति को बढ़ाना है और इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयत्न करता रहा। उस काल में मान्यता थी कि, अधिकार और शक्ति केवल राजसी और प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे को मज़बूत करने के लिए घोषणा की, कि वह कहानियों में प्रसिद्ध तुर्क योद्धा 'अफ़रासियान' का वंशज है। राजसी वंशज से अपने सम्बन्धों के दावों को मज़बूत करने के लिए बलबन ने स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने शासन के उच्च पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरम्भ किया। इसका अर्थ यह था कि, भारतीय [[मुसलमान]] इन पदों से वंचित रह जाते थे। बलबन कभी-कभी तो इस बात की हद कर देता था। उदाहरणार्थ उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया, जो ऊँचे ख़ानदान का नहीं था। इतिहासकार 'ईरानी' ने, जो स्वयं ख़ानदानी तुर्कों का समर्थक था, अपनी रचना में बलबन से यह कहलवाया है-"'जब भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ, तो क्रोध से मेरी आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक (उसे मारने के लिए) पहुँच जाते हैं।" बलबन ने वास्तव में ऐसे शब्द कहे थे या नहीं, लेकिन इनसे सम्भवतः ग़ैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है।
 
==शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन==
 
==शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन==
ख़ानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी बताते हुए भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक की अपने परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं था। उसकी तानाशाही इस हद तक थी कि और तो और वह अपने किसी समर्थ की भी आलोचना सहन नहीं कर सकता था। उसका एक प्रधान कार्य 'चहलगानी' की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मज़बूत करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपने सम्बन्धी 'शेर ख़ाँ' को ज़हर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार ग़ुलामों के प्रति दुर्व्यवहार करने पर [[बदायूँ]] तथा [[अवध]] के शासकों के पिताओं को कड़ी सजा दी गई। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए। आंतरिक विद्रोहों तथा [[पंजाब]] में जमे हुए मंगोलों से मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन किया। इन मंगोलों से दिल्ली सल्तनत को गम्भीर ख़तरा बना हुआ था। इसके लिए उसने सैनिक विभाग 'दीवान-ई-अर्ज़' को पुनर्गठित किया और ऐसे सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया जो अब सेवा के लायक नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और अल्तमश के हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस क़दम के विरोध में अपनी आवाज़ उठाई, पर बलबन ने उनकी एक न सुनी।  
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'''ख़ानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी बताते हुए''' भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक की अपने परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं था। उसकी तानाशाही इस हद तक थी कि और तो और वह अपने किसी समर्थ की भी आलोचना सहन नहीं कर सकता था। उसका एक प्रधान कार्य 'चहलगानी' की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मज़बूत करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपने सम्बन्धी 'शेर ख़ाँ' को ज़हर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार ग़ुलामों के प्रति दुर्व्यवहार करने पर [[बदायूँ]] तथा [[अवध]] के शासकों के पिताओं को कड़ी सजा दी गई। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए। आंतरिक विद्रोहों तथा [[पंजाब]] में जमे हुए मंगोलों से मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन किया। इन मंगोलों से [[दिल्ली सल्तनत]] को गम्भीर ख़तरा बना हुआ था। इसके लिए उसने सैनिक विभाग 'दीवान-ई-अर्ज़' को पुनर्गठित किया और ऐसे सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया, जो अब सेवा के लायक नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और [[इल्तुतमिश]] के हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस क़दम के विरोध में अपनी आवाज़ उठाई, पर बलबन ने उनकी एक न सुनी।
 
==राजपूतों की स्वतंत्रता==
 
==राजपूतों की स्वतंत्रता==
दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों तथा दोआब में अल्तमश की मृत्यु के बाद क़ानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गयी थी। गंगा-यमुना दोआब तथा [[अवध]] में सड़कों की स्थिति ख़राब थी और चारों ओर डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि पूर्वी क्षेत्रों से सम्पर्क रखना कठिन हो गया। कुछ [[राजपूत]] ज़मीदारों ने इस क्षेत्र में क़िले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। मेवातियों में दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत के घाट उतार दिया गया। बदायूँ के आसपास के क्षेत्रों में राजपूतों के क़िलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ़ कर वहाँ अफ़ग़ान सैनिकों बस्तियाँ बना दी गईं, ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत ज़मीदारों के शासन के विरुद्ध विद्रोहों को तुरन्त कुचल सकें।  
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'''दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों तथा दोआब में''' अल्तमश की मृत्यु के बाद क़ानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गयी थी। [[गंगा नदी|गंगा]]-[[यमुना नदी|यमुना]] दोआब तथा [[अवध]] में सड़कों की स्थिति ख़राब थी और चारों ओर डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि, पूर्वी क्षेत्रों से सम्पर्क रखना कठिन हो गया। कुछ [[राजपूत]] ज़मीदारों ने इस क्षेत्र में क़िले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। मेवातियों में [[दिल्ली]] के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत के घाट उतार दिया गया। [[बदायूँ]] के आसपास के क्षेत्रों में [[राजपूत|राजपूतों]] के क़िलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ़ कर वहाँ [[अफ़ग़ान]] सैनिकों की बस्तियाँ बना दी गईं, ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत ज़मीदारों के शासन के विरुद्ध विद्रोहों को तुरन्त कुचल सकें।
 
==इस्लाम के नेता का रूप==
 
==इस्लाम के नेता का रूप==
इन कठोर तरीक़ों से बलबन ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए उसने अपने दरबार की शान-शौक़त को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ़ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में हँसी-मज़ाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी नहीं कर सकते, उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने 'सिज्दा' और 'पैबोस' (सम्राट के सामने झुक कर उसके पैरों को चूमना) के रिवाजों को आवश्यक बना दिया। ये और उसके द्वारा अपनाए गए कई अन्य रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें ग़ैर-इस्लामी समझा जाता था। लेकिन इसके बावजूद उनका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी। क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य ख़त्म हो चुके थे, बलबन और दिल्ली सल्तनत को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था।  
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'''इन कठोर तरीक़ों से बलबन ने''' स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए उसने अपने दरबार की शान-शौक़त को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ़ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में हँसी-मज़ाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी नहीं कर सकते, उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने 'सिज्दा' और 'पैबोस' (सम्राट के सामने झुक कर उसके पैरों को चूमना) के रिवाजों को आवश्यक बना दिया। ये और उसके द्वारा अपनाए गए कई अन्य रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें ग़ैर-इस्लामी समझा जाता था। लेकिन इसके बावजूद उनका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी। क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम [[एशिया]] में [[मंगोल|मंगोलों]] के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य ख़त्म हो चुके थे, बलबन और [[दिल्ली सल्तनत]] को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था।  
 
==मृत्यु ==
 
==मृत्यु ==
बलबन की 1286 में मृत्यु हो गई। वह निस्संदेह दिल्ली सल्तनत और विशेषकर उसके प्रशासन के प्रमुख प्रतिष्ठाताओं में से एक था। सम्राट के अधिकारों को प्रमुखता देकर बलबन ने [[दिल्ली सल्तनत]] की शक्ति को भी मज़बूत किया, लेकिन वह मंगोलों के आक्रमण से [[भारत]] की उत्तरी सीमा को पूरी तरह नहीं बचा सका। इसके अलावा ग़ैर-तुर्कों को उच्च पदों पर नियुक्त न करने और प्रशासन के आधार को संकीर्ण बनाने की नीति से लोगों में असंतोष फैला, जिसके कारण उसकी मृत्यु के बाद नये विद्रोह आरम्भ हो गए।
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'''1286 ई. में बलबन का बड़ा पुत्र मुहम्मद''' अचानक एक बड़ी मंगोल सेना से घिर जाने के कारण युद्ध करते हुए मारा गया। विख्यात कवि अमीर खुसरा, जिसका नाम तूतिए-हिन्द ([[भारत]] का तोता) था तथा अमीर हसन देहलवी ने अपना साहित्यिक जीवन शाहजादा मुहम्मद के समय में शुरू किया था। अपने प्रिय पुत्र मुहम्मद की मृत्यु के सदमे को न बर्दाश्त कर पाने के कारण 80 वर्ष की अवस्था में 1286 ई. में बलबन की मृत्यु हो गई। मुत्यु पूर्व बलबन ने अपने दूसरे पुत्र बुगरा ख़ाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के आशय से [[बंगाल]] से वापस बुलाया, किन्तु विलासी बुगरा ख़ाँ ने बंगाल के आराम-पसन्द एवं स्वतन्त्र जीवन को अधिक पसन्द किया और चुपके से बंगाल वापस चला गाय। तदुपरान्त बलबन ने अपने पौत्र (मुहम्मद के पुत्र) कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी चुना।
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==बलबन के कथन==
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#“राजा का ह्नदय ईश्वर की कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में उसके समान कोई नहीं है।”
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#“एक अनुग्रही राजा सदा ईश्वर के संरक्षण के छत्र से रहित रहता है।”
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#“राजा को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि, [[मुसलमान]] उसके प्रत्येक कार्य शब्द या क्रियाकलाप को मान्यता दे और प्रशंसा करे।”
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#“जब मै किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो, मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी उत्तेजित हो जाती है।”
  
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
 
{{ग़ुलाम वंश}}
 
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[[Category:इतिहास_कोश]][[Category:ग़ुलाम_वंश]][[Category:मध्य_काल]]
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[[Category:इतिहास_कोश]]
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[[Category:ग़ुलाम_वंश]]
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12:33, 22 फ़रवरी 2011 का अवतरण

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गयासुद्दीन बलबन (1266-1286 ई.) इल्बारि जाति का व्यक्ति था, जिसने एक नये राजवंश ‘बलबनी वंश’ की स्थापना की थी। ग़यासुद्दीन बलबन ग़ुलाम वंश का नवाँ सुल्तान था। बलबन मूलतः सुल्तान इल्तुतमिश का तुर्की ग़ुलाम था। बलबन को ख़्वाजा 'जमालुद्दीन बसरी' नाम का एक व्यक्ति ख़रीद कर 1232-33 ई. में दिल्ली लाया था। इल्तुतमिश ने ग्वालियर को जीतने के उपरान्त बलबन को ख़रीद लिया। अपनी योग्यता के कारण ही बलबन इल्तुतमिश के समय में, विशेषकर रज़िया सुल्तान के समय में 'अमीर-ए-शिकार', मुइज़ुद्दीन बहरामशाह के समय में 'अमीर-ए-आखूर', अलाउद्दीन मसूद के समय में 'अमीर-ए-हाजिब' एवं सुल्तान नसीरूद्दीन महमूद के समय में 'अमीर-ए-हाजिब' व नाइन के रूप में राज्य की सम्पूर्ण शक्ति का केन्द्र बन गया। बलबन की पुत्री सुल्तान मुईजुद्दीन बहरामशाह (1246-66 ई.) को ब्याही थी। जिसने उसे अपना मंत्री तथा सहायक नियुक्त किया था। नसिरुद्दीन की मृत्यु के उपरान्त 1266 ई. में अमीर सरदारों के सहयोग से वह 'गयासुद्दीन बलबन' के नाम से दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठा। इस प्रकार वह इल्बारि जाति का द्वितीय शासक बना। बलबन जातीय श्रेष्ठता में विश्वास रखता था। इसीलिए उसने अपना संबंध फ़िरदौसी के 'शाहनामा' में उल्लिखित तुरानी शासक के वंश 'अफ़रासियाब' से जोड़ा। अपने पौत्रों का नामकरण मध्य एशिया के ख्याति प्राप्त शासक 'कैखुसरो', कैकुबाद इत्यादि के नाम पर किया। उसने प्रशासन में सिर्फ कुलीन व्यक्तियों को नियुक्त किया। उसका कहना था कि “जब मै किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो, मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी उत्तेजित हो जाती है।”

विद्रोह का दमन

बलबन ने इल्तुतमिश द्वारा स्थापित 40 तुर्की सरदारों के दल को समाप्त कर दिया, तुर्क अमीरों को शक्तिशाली होने से रोका, अपने शासन काल में हुए एक मात्र बंगाल का तुर्क विद्रोह, जहाँ के शासक तुगरिल ख़ाँ वेग ने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था, की सूचना पाकर बलबन ने अवध के सूबेदार अमीन ख़ाँ को भेजा, परन्तु वह असफल होकर लौटा। अतः क्रोधित होकर बलबन ने उसकी हत्या करवा दी और उसका सिर अयोध्या के फाटक पर लटका दिया और स्वंय इस विद्रोह का वखूबी दमन किया। बंगाल की तत्कालीन राजधनी लखनौती को उस समय ‘विद्रोह का नगर’ कहा जाता था। तुगरिल वेग को पकड़ने एवं उसकी हत्या करने का श्रेय मलिक मुकद्दीर को मिला, चूंकि इसके पहले तुगरिल को पकड़ने में काफ़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था, इसलिए मुकद्दीर की सफलता से प्रसन्न होकर बलबन ने उसे ‘तुगरिलकुश’ (तुगरिल की हत्या करने वाला) की उपाधि प्रदान की। अपने पुत्र बुखरा ख़ाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। इसके अतिरिक्त बलबन ने मेवातियों एवं कटेहर में हुए विद्रोह का भी दमन किया तथा दोआब एवं पंजाब क्षेत्र में शान्ति स्थापित की। इस प्रकार अपनी शक्ति को समेकित करने के बाद बलबन ने भव्य उपाधि 'जिल्ले-इलाही' धारण को किया।

बलबन की नीति

पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त पर मंगोल आक्रमण के भय को समाप्त करने के लिए बलबन ने एक सुनिश्चत योजना का क्रियान्वयन किया। उसने सीमा पर कीलों की एकतार बनवायी और प्रत्येक क़िले में एक बड़ी संख्या में सेना रखी। कुछ वर्षो के पश्चात् उत्तर-पश्चिमी सीमा को दो भागों में बांट दिया गया। लाहौर, मुल्तान और दिपालपुर का क्षेत्र शाहज़ादा मुहम्मद को और सुमन, समाना तथा कच्छ का क्षेत्र शाहजादा बुगरा ख़ाँ को दिया गया। प्रत्येक शाहज़ादे के लिए प्रायः 18 हज़ार घुड़सवारों की एक शक्तिशाली सेना रखी गयी। उसने सैन्य विभाग ‘दीवान-ए-अर्ज’ को पुनर्गठित करवाया, इमादुलमुल्क को दीवान-ए-अर्ज के पद पर प्रतिष्ठित किया तथा सीमान्त क्षेत्र में स्थित क़िलों का पुननिर्माण करवाया। बलबन ने दीवान-ए-अर्ज को वज़ीर के नियंत्रण से मुक्त कर दिया, जिससे उसे धन की कमी न हो। बलबन की अच्छी सेना व्यवस्था का श्रेय इमादुलमुल्क को ही था। साथ ही उसने अयोग्य एवं वृद्ध सैनिकों को वेतन का भुगतान नकद वेतन में किया। उसने तुर्क प्रभाव को कम करने के लिए फ़ारसी परम्परा पर आधारित ‘सिजदा’ (घुटने पर बैठकर सम्राट के सामने सिर झुकाना) एवं ‘पाबोस’ (पांव को चूमना) के प्रचलन को अनिवार्य कर दिया। बलबन ने गुप्तचर विभाग की स्थापना राज्य के अन्तर्गत होने वाले षड़यन्त्रों एवं विद्रोह के विषय में पूर्व जानकारी के लिए किया। गुप्तचरों की नियुक्त बलबन स्वयं करता था और उन्हें पर्याप्त धन उपलब्ध कराता था। कोई भी गुप्तचर खुले दरबार में उससे नहीं मिलता था। यदि कोई गुप्तचर अपने कर्तव्य की पूर्ति नहीं करता था, तो उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। उसने फ़ारसी रीति-रिवाज पर आधारित नवरोज उत्सव को प्रारम्भ करवाया। अपने विरोधियों के प्रति बलबन ने कठोर ‘लौह एवं रक्त’ नीति का पालन किया। इस नीति के अन्तर्गत विद्रोही व्यक्ति की हत्या कर उसकी स्त्री एवं बच्चों को दास बना लिया जाता था।

बलबन के विरुद्ध षड़यंत्र

बलबन को प्राप्त होने वाली सफलताओं से तुर्क सरदारों का एक बड़ा दल उससे ईर्ष्या करने लगा था तथा वे उसे पद से हटाने का उपाय सोचने लगे। उन्होंने मिल कर 1250 ई. में बलबन के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक भारतीय मुसलमान 'इमादुद्दीन रिहान' की नियुक्ति हुई। यद्यपि तुर्क सरदार सारे अधिकारों और सारी शक्ति को अपने ही हाथों में रखना चाहते थे तथापि वे रिहान की नियुक्ति के लिए इसलिए राज़ी हो गए क्योंकि वे इस बात पर एकमत नहीं हो सके कि उनमें से बलबन के स्थान पर किसकी नियुक्ति हो। बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा।

शक्ति परीक्षा

पदच्युत होने के दो वर्षों के अन्दर ही बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने पंजाब के एक बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने वाले मंगोल लोगों से भी सम्पर्क स्थापित किया। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े और उसने रिहान को बर्ख़ास्त कर दिया। कुछ समय बाद रिहान पराजित हुआ और उसे मार दिया गया। बलबन ने उचित-अनुचित तरीक़ों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक 'छत्र' को भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी सम्भवतः तुर्क सरदारों की भावनाओं को ध्यान में रख वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265 ई. में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बलबन ने सुल्तान को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी। बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और अवांछनीय होते थे, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के युग का आरम्भ हुआ।

अफ़रासियान का वंशज

बलबन का विश्वास था कि आंतरिक और बाहरी ख़तरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान और उसकी शक्ति को बढ़ाना है और इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयत्न करता रहा। उस काल में मान्यता थी कि, अधिकार और शक्ति केवल राजसी और प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे को मज़बूत करने के लिए घोषणा की, कि वह कहानियों में प्रसिद्ध तुर्क योद्धा 'अफ़रासियान' का वंशज है। राजसी वंशज से अपने सम्बन्धों के दावों को मज़बूत करने के लिए बलबन ने स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने शासन के उच्च पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरम्भ किया। इसका अर्थ यह था कि, भारतीय मुसलमान इन पदों से वंचित रह जाते थे। बलबन कभी-कभी तो इस बात की हद कर देता था। उदाहरणार्थ उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया, जो ऊँचे ख़ानदान का नहीं था। इतिहासकार 'ईरानी' ने, जो स्वयं ख़ानदानी तुर्कों का समर्थक था, अपनी रचना में बलबन से यह कहलवाया है-"'जब भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ, तो क्रोध से मेरी आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक (उसे मारने के लिए) पहुँच जाते हैं।" बलबन ने वास्तव में ऐसे शब्द कहे थे या नहीं, लेकिन इनसे सम्भवतः ग़ैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है।

शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन

ख़ानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी बताते हुए भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक की अपने परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं था। उसकी तानाशाही इस हद तक थी कि और तो और वह अपने किसी समर्थ की भी आलोचना सहन नहीं कर सकता था। उसका एक प्रधान कार्य 'चहलगानी' की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मज़बूत करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपने सम्बन्धी 'शेर ख़ाँ' को ज़हर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार ग़ुलामों के प्रति दुर्व्यवहार करने पर बदायूँ तथा अवध के शासकों के पिताओं को कड़ी सजा दी गई। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए। आंतरिक विद्रोहों तथा पंजाब में जमे हुए मंगोलों से मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन किया। इन मंगोलों से दिल्ली सल्तनत को गम्भीर ख़तरा बना हुआ था। इसके लिए उसने सैनिक विभाग 'दीवान-ई-अर्ज़' को पुनर्गठित किया और ऐसे सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया, जो अब सेवा के लायक नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और इल्तुतमिश के हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस क़दम के विरोध में अपनी आवाज़ उठाई, पर बलबन ने उनकी एक न सुनी।

राजपूतों की स्वतंत्रता

दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों तथा दोआब में अल्तमश की मृत्यु के बाद क़ानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गयी थी। गंगा-यमुना दोआब तथा अवध में सड़कों की स्थिति ख़राब थी और चारों ओर डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि, पूर्वी क्षेत्रों से सम्पर्क रखना कठिन हो गया। कुछ राजपूत ज़मीदारों ने इस क्षेत्र में क़िले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। मेवातियों में दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत के घाट उतार दिया गया। बदायूँ के आसपास के क्षेत्रों में राजपूतों के क़िलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ़ कर वहाँ अफ़ग़ान सैनिकों की बस्तियाँ बना दी गईं, ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत ज़मीदारों के शासन के विरुद्ध विद्रोहों को तुरन्त कुचल सकें।

इस्लाम के नेता का रूप

इन कठोर तरीक़ों से बलबन ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए उसने अपने दरबार की शान-शौक़त को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ़ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में हँसी-मज़ाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी नहीं कर सकते, उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने 'सिज्दा' और 'पैबोस' (सम्राट के सामने झुक कर उसके पैरों को चूमना) के रिवाजों को आवश्यक बना दिया। ये और उसके द्वारा अपनाए गए कई अन्य रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें ग़ैर-इस्लामी समझा जाता था। लेकिन इसके बावजूद उनका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी। क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य ख़त्म हो चुके थे, बलबन और दिल्ली सल्तनत को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था।

मृत्यु

1286 ई. में बलबन का बड़ा पुत्र मुहम्मद अचानक एक बड़ी मंगोल सेना से घिर जाने के कारण युद्ध करते हुए मारा गया। विख्यात कवि अमीर खुसरा, जिसका नाम तूतिए-हिन्द (भारत का तोता) था तथा अमीर हसन देहलवी ने अपना साहित्यिक जीवन शाहजादा मुहम्मद के समय में शुरू किया था। अपने प्रिय पुत्र मुहम्मद की मृत्यु के सदमे को न बर्दाश्त कर पाने के कारण 80 वर्ष की अवस्था में 1286 ई. में बलबन की मृत्यु हो गई। मुत्यु पूर्व बलबन ने अपने दूसरे पुत्र बुगरा ख़ाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के आशय से बंगाल से वापस बुलाया, किन्तु विलासी बुगरा ख़ाँ ने बंगाल के आराम-पसन्द एवं स्वतन्त्र जीवन को अधिक पसन्द किया और चुपके से बंगाल वापस चला गाय। तदुपरान्त बलबन ने अपने पौत्र (मुहम्मद के पुत्र) कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी चुना।

बलबन के कथन

  1. “राजा का ह्नदय ईश्वर की कृपा का विशेष कोष है और समस्त मनुष्य जाति में उसके समान कोई नहीं है।”
  2. “एक अनुग्रही राजा सदा ईश्वर के संरक्षण के छत्र से रहित रहता है।”
  3. “राजा को इस प्रकार जीवन व्यतीत करना चाहिए कि, मुसलमान उसके प्रत्येक कार्य शब्द या क्रियाकलाप को मान्यता दे और प्रशंसा करे।”
  4. “जब मै किसी तुच्छ परिवार के व्यक्ति को देखता हूँ तो, मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी उत्तेजित हो जाती है।”

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