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फ़िल्म 'सट्टा बाज़ार' के निर्माण के दौरान गुलशन जी को उनका नाम 'बावरा' मिला था। फिल्म के वितरक शांतिभाई पटेल उनके काम से खासे खुश थे। रंग-बिरंगी शर्ट पहनने वाले लगभग 20 साल के युवक को देखकर उन्होंने कहा था कि- "मैं इसका नाम गुलशन बावरा रखूँगा। यह बावरे (पागल व्यक्ति) जैसा दिखता है।" फिल्म प्रदर्शित होने पर उसके पोस्टर्स में सिर्फ़ तीन लोगों के नाम प्रमुखता से प्रदर्शित किए गए थे। एक फिल्म के निर्देशक रविंद्र दवे, संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी और बतौर गीतकार गुलशन बावरा।<ref>{{cite web |url=http://वेबदुनिया.com/bollywood-article/%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%8F-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE-%E0%A4%AA%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BE-%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B6%E0%A4%A8-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BE-110041200063_1.htm |title= इसलिए नाम पड़ा गुलशन बावरा|accessmonthday= 31 मार्च|accessyear=2017 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया.com |language= हिन्दी}}</ref>
 
फ़िल्म 'सट्टा बाज़ार' के निर्माण के दौरान गुलशन जी को उनका नाम 'बावरा' मिला था। फिल्म के वितरक शांतिभाई पटेल उनके काम से खासे खुश थे। रंग-बिरंगी शर्ट पहनने वाले लगभग 20 साल के युवक को देखकर उन्होंने कहा था कि- "मैं इसका नाम गुलशन बावरा रखूँगा। यह बावरे (पागल व्यक्ति) जैसा दिखता है।" फिल्म प्रदर्शित होने पर उसके पोस्टर्स में सिर्फ़ तीन लोगों के नाम प्रमुखता से प्रदर्शित किए गए थे। एक फिल्म के निर्देशक रविंद्र दवे, संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी और बतौर गीतकार गुलशन बावरा।<ref>{{cite web |url=http://वेबदुनिया.com/bollywood-article/%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%8F-%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE-%E0%A4%AA%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BE-%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B6%E0%A4%A8-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BE-110041200063_1.htm |title= इसलिए नाम पड़ा गुलशन बावरा|accessmonthday= 31 मार्च|accessyear=2017 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया.com |language= हिन्दी}}</ref>
 
==प्रसिद्धि==
 
==प्रसिद्धि==
इसके बाद के आगामी कुछ साल गुलशन जी के लिए मशक्कत वाले रहे और इन सालों में वे कई फिल्मों में अभिनय कर अपना गुजारा चलाते रहे। उनके जिस गीत ने पूरे [[भारत]] में उनके नाम का सिक्का जमा दिया, उसके लिए सारा श्रेय उनकी गुड्स क्लर्क की नौकरी को देना उचित जान पड़ता है। दरअसल रेलवे के मालवाहक विभाग में गुलशन बावरा अक्सर [[पंजाब]] से आई [[गेहूँ]] से लदी बोरियाँ देखा करते थे और वहीं उनके मन कभी न भुलाई जा सकने वाली वे पंक्तियाँ बन पड़ीं जो हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अमर हो गईं। '''मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती, मेरे देश की धरती।''' जब उन्होंने अपने मित्र [[मनोज कुमार]] को ये पंक्तियाँ सुनाईं तो उसी समय मनोज जी ने इसे अपनी फिल्म 'उपकार' के लिए चुन लिया। इस गीत ने ही उन्हें सन [[1967]] में सर्वश्रेष्ठ गीत का 'फिल्मफेयर पुरस्कार' दिला गया।<ref name="a"/>
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इसके बाद के आगामी कुछ साल गुलशन जी के लिए मशक्कत वाले रहे और इन सालों में वे कई फिल्मों में अभिनय कर अपना गुजारा चलाते रहे। उनके जिस गीत ने पूरे [[भारत]] में उनके नाम का सिक्का जमा दिया, उसके लिए सारा श्रेय उनकी गुड्स क्लर्क की नौकरी को देना उचित जान पड़ता है। दरअसल रेलवे के मालवाहक विभाग में गुलशन बावरा अक्सर [[पंजाब]] से आई [[गेहूँ]] से लदी बोरियाँ देखा करते थे और वहीं उनके मन कभी न भुलाई जा सकने वाली वे पंक्तियाँ बन पड़ीं जो हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अमर हो गईं। '''मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती, मेरे देश की धरती।''' जब उन्होंने अपने मित्र [[मनोज कुमार]] को ये पंक्तियाँ सुनाईं तो उसी समय मनोज जी ने इसे अपनी फिल्म 'उपकार' के लिए चुन लिया। इस गीत ने ही उन्हें सन [[1967]] में सर्वश्रेष्ठ गीत का 'फिल्मफेयर पुरस्कार' दिला गया।<ref name="a"/> कहते हैं कि गुलशन बावरा ने यह गीत [[राज कपूर]] की फिल्‍म 'जिस देश में गंगा बहती है' के लिए लिखा था। यह गीत राज कपूर को पसंद भी आया था, लेकिन तब तक वे शैलेंद्र के गीत "होंठों पे सच्‍चाई रहती है, जहां दिल में सफाई रहती है" को फाइनल कर चुके थे। आखिरकार मनोज कुमार ने 'उपकार' में इसका प्रभावशाली उपयोग किया।
  
 
सही माएने में फ़िल्म 'उपकार' के इस गीत ने गुलशन बावरा को भारत की जनता से जोड़ दिया। सत्तर की शुरुआत में सबसे पहले [[1974]] में फिल्म 'हाथ की सफाई' में [[लता मंगेशकर]] द्वारा गाए उनके गीत "तू क्या जाने बेवफ़ा.." और "वादा कर ले साजना..." बेहद लोकप्रिय रहे। फिर [[1975]] में आई फिल्म 'जंजीर' में उनके गीतों- "दीवाने हैं दीवानों को ना घर चाहिए..." और "यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िदगी...." ने पूरे देश में धूम मचा दी। इन दोनों ही फिल्मों का संगीत कल्याणजी-आनंदजी ने दिया था।
 
सही माएने में फ़िल्म 'उपकार' के इस गीत ने गुलशन बावरा को भारत की जनता से जोड़ दिया। सत्तर की शुरुआत में सबसे पहले [[1974]] में फिल्म 'हाथ की सफाई' में [[लता मंगेशकर]] द्वारा गाए उनके गीत "तू क्या जाने बेवफ़ा.." और "वादा कर ले साजना..." बेहद लोकप्रिय रहे। फिर [[1975]] में आई फिल्म 'जंजीर' में उनके गीतों- "दीवाने हैं दीवानों को ना घर चाहिए..." और "यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िदगी...." ने पूरे देश में धूम मचा दी। इन दोनों ही फिल्मों का संगीत कल्याणजी-आनंदजी ने दिया था।
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[[7 अगस्त]], [[2009]] को लम्बी बीमारी के चलते गुलशन बावरा का देहांत हो गया। उनकी इच्छानुसार उनके पार्थिव शरीर को जे. जे. अस्पताल को दान कर दिया गया। हिन्दी सिनेमा ही नहीं हिन्दी साहित्य भी गुलशन बावरा जी के अद्भुद योगदान को कभी नहीं भूल पायेगा।
 
[[7 अगस्त]], [[2009]] को लम्बी बीमारी के चलते गुलशन बावरा का देहांत हो गया। उनकी इच्छानुसार उनके पार्थिव शरीर को जे. जे. अस्पताल को दान कर दिया गया। हिन्दी सिनेमा ही नहीं हिन्दी साहित्य भी गुलशन बावरा जी के अद्भुद योगदान को कभी नहीं भूल पायेगा।
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गुलशन बावरा ने एक साक्षात्कार में कहा था- "मैं गाने लिख-लिखकर रखता था। फिर [[कहानी]] सुनने के बाद सिचुएशन के अनुसार गीतों का चयन करता था। कहानी के साथ चलना जरूरी है
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तभी गाने हिट होते हैं। आज किसे फुर्सत है कहानी सुनने की? और कहानी है कहाँ? विदेशी फिल्मों की नकल या दो-चार फिल्मों का मिश्रण। कहानी और विजन दोनों ही गायब हैं फिल्मों से।" गुलशन जी आज के गीत-संगीत से भी विचलित थे। वे कहा करते थे- "गीतों में भावना नहीं है और संगीत में आत्मा। पहले श्रोताओं को ध्यान में रखकर रचना बनती थी। आजकल दर्शकों को जेहन में रखा जाता है। उस जमाने में गीत-संगीत और दृश्यों का उम्दा तालमेल होता था। आजकल मात्र दृश्यों को प्रभावी बनाया जाता है। पंजाबी फिल्म 'पुन्नो' में बतौर नायक अभिनय कर चुके गुलशन फिल्मों में और अधिक लेखन करना चाहते थे, किन्तु इस शर्त पर कि डायरेक्टर और फिल्म अच्छी हो। अंतिम वक्त में उनकी पीड़ा थी- "अब हमें पूछने वाला कौन है? जो प्रतिष्ठा और सम्मान मैंने पुराने गीतों को रचकर हासिल किया था, क्या वह आज चल रहे सस्ते गीत और घटिया धुनों के साथ बरकरार रखा जा सकता है?" लेखन से उनका रिश्ता आजीवन जुड़ा रहा। चाहे फिल्मों के लिए नहीं, अपने रचनाकार मन के लिए ही सही। नई फिल्मों पर उनकी तल्ख टिप्पणी कि "मेरी बर्दाश्त से बाहर हैं नई फिल्में" सोचने को विवश करती हैं।
  
  
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*[http://mohallalive.com/2009/08/08/anand-bakshi-replace-the-image-of-gulshan-bawra-in-toi/ गुलशन बावरा की पहचान बदल दी टाइम्‍स आफ इंडिया ने]
 
*[http://mohallalive.com/2009/08/08/anand-bakshi-replace-the-image-of-gulshan-bawra-in-toi/ गुलशन बावरा की पहचान बदल दी टाइम्‍स आफ इंडिया ने]
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*[http://hindi.webdunia.com/bollywood-focus/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B2-%E0%A4%A4%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B6%E0%A4%A8-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BE-109080900021_1.htm प्यार भरा दिल तोड़ दिया : गुलशन कुमार]
 
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08:22, 31 मार्च 2017 का अवतरण

गुलशन बावरा (अंग्रेज़ी: Gulshan Bawra, जन्म- 12 अप्रैल, 1937, अविभाजित पंजाब; मृत्यु- 7 अगस्त, 2009, महाराष्ट्र) हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध गीतकार थे। उनका मूल नाम गुलशन कुमार मेहता था। उन्हें 'बावरा' का उपनाम फ़िल्म वितरक शांतिभाई पटेल ने दिया था। बाद में यह नाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि पूरा फ़िल्म उद्योग उन्हें इसी नाम से पुकारने लगा। अपनी साहित्यिक सोच के कारण ही गुलशन बावरा फ़िल्म संगीत से जुड़े थे। वे पहले रेलवे में कार्यरत थे, लेकिन उनकी कल्पना की उड़ान ने उन्हें फ़िल्म उद्योग के आसमान पर स्थापित कर दिया, जहाँ उनका योगदान ध्रुव तारे के समान अटल और अविस्मर्णीय है।

परिचय

हिन्दी सिनेमा के प्रसिद्ध गीतकार गुलशन बावरा का जन्म 12 अप्रैल, सन 1937 को अविभाजित भारत के पंजाब में शेखपुरा (अब पाकिस्तान में) नामक क़स्वे में हुआ था। लाहौर से करीब तीस कि.मी. दूर शेखपुरा क़स्बे में जन्मे गुलशन बावरा ने बचपन में ही विभाजन के दौरान रेलगाड़ी से भारत आते वक्त अपने पिता को तलवार से कटते और माँ को सिर पर गोली लगते देखा था। भाई के साथ भागकर वे जयपुर आ गए, जहाँ उनकी बहन ने उनकी परवरिश की। यहाँ पर ये तथ्य उल्लेखनीय है कि इस भयावह त्रासदी की यंत्रणा को झेलने वाले गुलशन बावरा ने इसे अपनी जिंदगी, अपने व्यक्तित्व और अपने लिखे गीतों पर कभी हावी नहीं होने दिया। बाद में भाई को दिल्ली में नौकरी मिलने की वज़ह से वे दिल्ली चले गए। सन 1955 में रेलवे में क्लर्क की नौकरी मिलने पर गुलशन जी मुंबई चले आए। लिखने का शौक उनको बचपन से ही था। बचपन में माँ के साथ भजन मंडली में शिरकत करने की वज़ह से भजन लिखने से उनके लेखन का सफर शुरू हुआ था, जो कॉलेज के दिनों में आते-आते आशानुरूप रुमानी कविताओं में बदल गया। इसीलिए मुंबई में नौकरी करते वक़्त फुर्सत मिलते ही उन्होंने संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के दफ़्तर के चक्कर लगाने नहीं छोड़े। गुलशन बावरा को पहली सफलता इसी जोड़ी के संगीत-निर्देशन में रवींद्र दावे की फिल्म "सट्टा बाज़ार" (1957) में मिली, जब उनका लिखा निम्न गीत बेहद लोकप्रिय हुआ[1]-

"तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे, मोहब्बत की राहों में मिल कर चले थे,
भुला दो मोहब्बत में हम तुम मिले थे, सपना ही समझो कि मिल कर चले थे।

'बावरा' नामकरण

फ़िल्म 'सट्टा बाज़ार' के निर्माण के दौरान गुलशन जी को उनका नाम 'बावरा' मिला था। फिल्म के वितरक शांतिभाई पटेल उनके काम से खासे खुश थे। रंग-बिरंगी शर्ट पहनने वाले लगभग 20 साल के युवक को देखकर उन्होंने कहा था कि- "मैं इसका नाम गुलशन बावरा रखूँगा। यह बावरे (पागल व्यक्ति) जैसा दिखता है।" फिल्म प्रदर्शित होने पर उसके पोस्टर्स में सिर्फ़ तीन लोगों के नाम प्रमुखता से प्रदर्शित किए गए थे। एक फिल्म के निर्देशक रविंद्र दवे, संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी और बतौर गीतकार गुलशन बावरा।[2]

प्रसिद्धि

इसके बाद के आगामी कुछ साल गुलशन जी के लिए मशक्कत वाले रहे और इन सालों में वे कई फिल्मों में अभिनय कर अपना गुजारा चलाते रहे। उनके जिस गीत ने पूरे भारत में उनके नाम का सिक्का जमा दिया, उसके लिए सारा श्रेय उनकी गुड्स क्लर्क की नौकरी को देना उचित जान पड़ता है। दरअसल रेलवे के मालवाहक विभाग में गुलशन बावरा अक्सर पंजाब से आई गेहूँ से लदी बोरियाँ देखा करते थे और वहीं उनके मन कभी न भुलाई जा सकने वाली वे पंक्तियाँ बन पड़ीं जो हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अमर हो गईं। मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती, मेरे देश की धरती। जब उन्होंने अपने मित्र मनोज कुमार को ये पंक्तियाँ सुनाईं तो उसी समय मनोज जी ने इसे अपनी फिल्म 'उपकार' के लिए चुन लिया। इस गीत ने ही उन्हें सन 1967 में सर्वश्रेष्ठ गीत का 'फिल्मफेयर पुरस्कार' दिला गया।[1] कहते हैं कि गुलशन बावरा ने यह गीत राज कपूर की फिल्‍म 'जिस देश में गंगा बहती है' के लिए लिखा था। यह गीत राज कपूर को पसंद भी आया था, लेकिन तब तक वे शैलेंद्र के गीत "होंठों पे सच्‍चाई रहती है, जहां दिल में सफाई रहती है" को फाइनल कर चुके थे। आखिरकार मनोज कुमार ने 'उपकार' में इसका प्रभावशाली उपयोग किया।

सही माएने में फ़िल्म 'उपकार' के इस गीत ने गुलशन बावरा को भारत की जनता से जोड़ दिया। सत्तर की शुरुआत में सबसे पहले 1974 में फिल्म 'हाथ की सफाई' में लता मंगेशकर द्वारा गाए उनके गीत "तू क्या जाने बेवफ़ा.." और "वादा कर ले साजना..." बेहद लोकप्रिय रहे। फिर 1975 में आई फिल्म 'जंजीर' में उनके गीतों- "दीवाने हैं दीवानों को ना घर चाहिए..." और "यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िदगी...." ने पूरे देश में धूम मचा दी। इन दोनों ही फिल्मों का संगीत कल्याणजी-आनंदजी ने दिया था।

सभी प्रकार की गीत रचना

गुलशन बावरा ने जीवन के हर रंग के गीतों को अल्फाज दिए। उनके लिखे गीतों में 'दोस्ती, रोमांस, मस्ती, गम' आदि विभिन्न पहलू देखने को मिलते हैं। 'जंजीर' फिल्म का गीत 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी' दोस्ती की दास्तान बयां करता है, तो 'दुग्गी पे दुग्गी हो या सत्ते पे सत्ता' गीत मस्ती के आलम में डूबा हुआ है। उन्होंने बिंदास प्यार करने वाले जबाँ दिलों के लिए भी 'खुल्ल्म खुल्ला प्यार करेंगे', 'कसमें वादे निभाएंगे हम', आदि गीत लिखे। उनके पास हर मौके के लिए गीत था। पाकिस्तान से आकर बसे बावरा जी ने अपने फ़िल्मी कैरियर की तुलना में यूं तो कम गीत लिखे, लेकिन उनके द्वारा लिखे सादे व अर्थपूर्ण गीतों को हमेशा पसंद किया गया। उन्होंने संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी के संगीत निर्देशन में 69 गीत लिखे और आर. डी. बर्मन के साथ 150 गीत लिखे। पंचम दा गुलशन बावरा जी के पडोसी थे। पंचम दा के साथ उनकी कई यादें जुडी हुई थीं। इन यादों को गुलशन बावरा ने 'अनटोल्ड स्टोरीज' नाम की एक सीडी में संजोया था। इसमें उन्होंने पंचम दा की आवाज़ रिकार्ड की थी और कुछ गीतों के साथ जुड़े किस्से-कहानियां भी प्रस्तुत किये थे।[3]

व्यक्तित्व

गुलशन बावरा दिखने में दुबले-पतले शरीर के थे। उनका व्यक्तित्व हंसमुख था, हांलाकि बचपन में विभाजन के समय उन्होंने जो त्रासदी झेली थी वह अविस्मर्णीय है, लेकिन उनके व्यक्तित्व में उसकी छाप कहीं दिखाई नहीं देती थी। वे कवि से ज्यादा कॉमेडियन दिखाई देते थे। इस गुण के कारण कई निर्माताओं ने उनसे अपनी फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं भी अभिनीत करवायीं। विभाजन का दर्द उन्होंने कभी जाहिर नहीं होने दिया। राहुल देव बर्मन उनके करीबी मित्र थे। राहुल जी के संगीत कक्ष में प्राय: सभी मित्रों की बैठक होती थी और खूब ठहाके लगाये जाते थे। गुलशन बावरा उस सर्कस के स्थायी 'जोकर' थे। यहीं से उनकी मित्रता किशोर कुमार से हुई। फिर क्या था अब तो दोनों लोग मिलकर हास्य की नई-नई स्तिथियाँ गढ़ते थे। गुलशन बावरा को उनके अंतिम दिनों में जब 'किशोर कुमार' सम्मान के लिए चुना गया तो उनके चहरे पर अद्भुद संतोष के भाव उभरते दिखाई दिए। उनके लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षण था। एक तरफ़ यह पुरस्कार उनके लिए विभाजन की त्रासदी से लेकर जीवन पर्यंत किये गए संघर्ष का इनाम था, दूसरी ओर अपने पुराने मित्र की स्मृति में मिलने वाला पुरस्कार एक अनमोल तोहफे से कम नहीं था।

मृत्यु

7 अगस्त, 2009 को लम्बी बीमारी के चलते गुलशन बावरा का देहांत हो गया। उनकी इच्छानुसार उनके पार्थिव शरीर को जे. जे. अस्पताल को दान कर दिया गया। हिन्दी सिनेमा ही नहीं हिन्दी साहित्य भी गुलशन बावरा जी के अद्भुद योगदान को कभी नहीं भूल पायेगा।

गुलशन बावरा ने एक साक्षात्कार में कहा था- "मैं गाने लिख-लिखकर रखता था। फिर कहानी सुनने के बाद सिचुएशन के अनुसार गीतों का चयन करता था। कहानी के साथ चलना जरूरी है तभी गाने हिट होते हैं। आज किसे फुर्सत है कहानी सुनने की? और कहानी है कहाँ? विदेशी फिल्मों की नकल या दो-चार फिल्मों का मिश्रण। कहानी और विजन दोनों ही गायब हैं फिल्मों से।" गुलशन जी आज के गीत-संगीत से भी विचलित थे। वे कहा करते थे- "गीतों में भावना नहीं है और संगीत में आत्मा। पहले श्रोताओं को ध्यान में रखकर रचना बनती थी। आजकल दर्शकों को जेहन में रखा जाता है। उस जमाने में गीत-संगीत और दृश्यों का उम्दा तालमेल होता था। आजकल मात्र दृश्यों को प्रभावी बनाया जाता है। पंजाबी फिल्म 'पुन्नो' में बतौर नायक अभिनय कर चुके गुलशन फिल्मों में और अधिक लेखन करना चाहते थे, किन्तु इस शर्त पर कि डायरेक्टर और फिल्म अच्छी हो। अंतिम वक्त में उनकी पीड़ा थी- "अब हमें पूछने वाला कौन है? जो प्रतिष्ठा और सम्मान मैंने पुराने गीतों को रचकर हासिल किया था, क्या वह आज चल रहे सस्ते गीत और घटिया धुनों के साथ बरकरार रखा जा सकता है?" लेखन से उनका रिश्ता आजीवन जुड़ा रहा। चाहे फिल्मों के लिए नहीं, अपने रचनाकार मन के लिए ही सही। नई फिल्मों पर उनकी तल्ख टिप्पणी कि "मेरी बर्दाश्त से बाहर हैं नई फिल्में" सोचने को विवश करती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 एक शाम मेरे नाम (हिन्दी) ek-shaam-mere-naam.in। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2017।
  2. इसलिए नाम पड़ा गुलशन बावरा (हिन्दी) वेबदुनिया.com। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2017।
  3. यादें गीतकार गुलशन बावरा की (हिन्दी) podcast.hindyugm.com। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2017।

बाहरी कड़ियाँ

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