तंत्र

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तंत्र को तंत्रशास्त्र शिवप्रणीत भी कहा जाता है। तंत्रशास्त्र तीन भागों में विभक्त है,

(1)आगम तन्त्र

वाराहीतंत्र के अनुसार जिसमें सृष्टि प्रलय, देवताओं की पूजा, सत्कर्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे 'आगम' कहते है।

(2)यामल तन्त्र

तंत्रशास्त्र में सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे 'यामल' कहते है।

(3)मुख्य तन्त्र

तंत्रशास्त्र सृष्टि, लय, मन्त्र, निर्णय, तीर्थ, आश्रमधर्म, कल्प, ज्योतिषसंस्थान, व्रतकथा, शौच-अशौच, स्त्रीपुरुषलक्षण, राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक नियमों का वर्णन हो, वह 'मुख्य तंत्र' कहलाता है।

सिद्धांत

तंत्रशास्त्र के सिद्धांतानुसार कलियुग में वैदिक मंत्रों, जपों और यज्ञों आदि का फल नहीं होता इस युग में सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिए तंत्रशास्त्र में वर्णिक मंत्रों और उपायों आदि से ही सफलता मिलती है।

तंत्रशास्त्र के सिद्धांत बहुत गुप्त रखे जाते है। और इसकी शिक्षा लेने के लिए मनुष्य को पहले दीक्षित होना पड़ता है, आजकल प्राय: मारण, उच्चाटन वशीकरण आदि के लिए तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों के लिए तंत्रोक्त मंत्रों और क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है। तंत्रशास्त्र प्रधानत: शाक्तों (देवी-उपासकों) का है और इसके मंत्र प्राय: अर्थहीन और एकाक्षरी हुआ करते है। जैसे- ह्नीं,क्लीं, श्रीं, ऐं, क्रूं आदि। तांत्रिकों का पच्च मकार सेवन (मद्य, मांस, मत्स्य आदि) तथा चक्र-पूजा का विधान स्वतंत्र होता है। अथर्ववेद में भी मारण, मोहन, उच्चाटन और वशीकरण आदि का विधान है, परंतु कहते हैं कि वैदिक क्रियाओं और तंत्र-मंत्रादि विधियों को महादेव जी ने कीलित कर दिया है और भगवती उमा के आग्रह से ही कलियुग के लिए तंत्रों की रचना की है। बौद्धमत में भी तंत्रशास्त्र एक ग्रंथ है। उनका प्रचार चीन और तिब्बत में है। हिन्दू तांत्रिक उन्हें उपतंत्र कहते हैं। तंत्रशास्त्र की उत्पत्ति कब से हुई इसका निर्णय नहीं हो सकता। प्राचीन स्मृतियों में चौदह विद्याओं का उल्लेख है किंतु उनमें तंत्र गृहीत नहीं हुआ है। इनके सिवा किसी महापुराण में भी तंत्रशास्त्र का उल्लेख नहीं है। इसी तरह के कारणों से तंत्रशास्त्र को प्राचीन काल में विकसित शास्त्र नहीं माना जा सकता।

अथर्ववेदीय नृसिंहतापनीयोपनिषद में सबसे पहले तंत्र का लक्षण देखने में आता है। इस उपनिषद में मंत्रराज नरसिंह- अनुष्टुप प्रसंग में तांत्रिक महामंत्र का स्पष्ट आभास सूचित हुआ है। शंकराचार्य ने भी जब उक्त उपनिषद के भाष्य की रचना की है तब निस्सन्देह वह 8वीं शताब्दी से पहले की है। हिन्दुओं के अनुकरण से बौद्ध तंत्रों की रचना हुई है। 10वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के भीतर बहुत से बौद्ध तंत्रों का तिब्बतीय भाषा में अनुवाद हुआ था। ऐसी दशा में मूल बौद्ध तंत्र 8वीं शताब्दी के पहले और उनके आदर्श हिन्दू तंत्र बौद्ध तंत्रों से भी पहले प्रकटिक हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं। तंत्रों के मत से सबसे पहले दीक्षा ग्रहण करके तांत्रिक कार्यों में हाथ डालना चाहिए। बिना दीक्षा के तांत्रिक कार्य में अधिकार नहीं है। तांत्रिक गण पाँच प्रकार के आचारों में विभक्त हैं, ये श्रेष्ठता के क्रम से निम्नोक्त हैं वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धांताचार एवं कौलाचार। ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने जाते हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ