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*विनयपत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है।
 
*विनयपत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है।
 
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गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य [[रामानंद‎|रामानन्द]] की शिष्यपरम्परा में थे।  इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा।  इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और[[वेद|वेदमार्ग]] का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है।  गोस्वामीजी पन्थ वा सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे।  उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के विद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था।  लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया।  इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:
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गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य [[रामानंद‎|रामानन्द]] की शिष्यपरम्परा में थे।  इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा।  इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और [[वेद|वेदमार्ग]] का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है।  गोस्वामीजी पन्थ वा सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे।  उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के विद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था।  लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया।  इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:
  
 
"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।
 
"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।
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जैसा पहले लिखा जा चुका है, गोस्वामीजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो [[रामानुजाचार्य]] के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी।  उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार [[वैष्णव]], [[शैव मत|शैव]], शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है।  वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे।  उनके ग्रन्थों में रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि अधिक प्रसिद्ध है।     
 
जैसा पहले लिखा जा चुका है, गोस्वामीजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो [[रामानुजाचार्य]] के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी।  उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार [[वैष्णव]], [[शैव मत|शैव]], शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है।  वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे।  उनके ग्रन्थों में रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि अधिक प्रसिद्ध है।     
 
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भगवान [[शंकर|शंकरजी]] की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे [[अयोध्या]] ( [[उत्तर प्रदेश]] प्रान्त का एक ज़िला है।) ले गये और वहाँ संवत्‌ 1561 माघ शुकला पञ्चमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया । बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने [[गायत्री|गायत्री-मन्त्र]] का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये । इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी । एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था । वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र ([[सोरों]]) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह [[काशी]] चले आये । काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक [[वेद]]-[[वेदांग]] का अध्ययन किया । इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है । उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध् किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे ।  
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भगवान [[शंकर|शंकरजी]] की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे [[अयोध्या]] ( [[उत्तर प्रदेश]] प्रान्त का एक ज़िला है।) ले गये और वहाँ संवत्‌ 1561 माघ शुकला पञ्चमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया । बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने [[गायत्री|गायत्री-मन्त्र]] का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये । इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी । एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था । वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों [[शूकरक्षेत्र उत्तर प्रदेश|शूकरक्षेत्र]] ([[सोरों]]) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह [[काशी]] चले आये । काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक [[वेद]]-[[वेदांग]] का अध्ययन किया । इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है । उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध् किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे ।  
 
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इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई । वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे । उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे । चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं । वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी । उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी । इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी । उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं । पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा । इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की । श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-
 
इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई । वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे । उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे । चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं । वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी । उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी । इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी । उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं । पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा । इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की । श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-

07:01, 23 जुलाई 2010 का अवतरण

तुलसीदास
Tulsidas.jpg
जन्म 1532
जन्म भूमि राजापुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 1623
पति/पत्नी रत्नावली
कर्म भूमि बनारस
कर्म-क्षेत्र कवि
मुख्य रचनाएँ रामचरितमानस, दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, आदि
विषय सगुण भक्ति
भाषा अवधी, हिन्दी बोलचाल
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
  • गोस्वामी तुलसीदास [1497(1532?) - 1623] एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर, (वर्तमान बाँदा ज़िला) उत्तर प्रदेश में हुआ था।
  • अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने 12 ग्रन्थ लिखे और उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ट कवियों में एक माना जाता है।
  • तुलसीदासजी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे। श्रीराम जी को समर्पित ग्रन्थ श्री रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारांतर से अवधी भाषांतर था जिसे समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है।
  • विनयपत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है।

गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है। गोस्वामीजी पन्थ वा सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के विद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:

"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।

तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।"


उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंक्काओं का रामचरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो कबीरदास की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं। जैसा पहले लिखा जा चुका है, गोस्वामीजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो रामानुजाचार्य के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार वैष्णव, शैव, शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे। उनके ग्रन्थों में रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि अधिक प्रसिद्ध है।


भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ( उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक ज़िला है।) ले गये और वहाँ संवत्‌ 1561 माघ शुकला पञ्चमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया । बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये । इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी । एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था । वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये । काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया । इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है । उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध् किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे ।


इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई । वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे । उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे । चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं । वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी । उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी । इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी । उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं । पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा । इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की । श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-

आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।

कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥


अपने दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएं कीं -


तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छः मध्यम श्रेणी में आती हैं।

मुख्य रचनाएँ

रामचरितमानस – “रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह हिन्दू धर्म की महान काव्य रचना है।

दोहावली -दोहावली में दोहा और सोरठा की कुल संख्या 573 है।

कवितावली - सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं।

गीतावली -गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है।

विनय पत्रिका -विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की।

कृष्ण गीतावली -कृष्ण गीतावली में श्री कृष्ण जी 61 स्तुतियाँ है।

छोटी रचनाएँ

बरवै रामायण, जानकी मंगल, रामलला नहछू, रामज्ञा प्रश्न, पार्वती मंगल, हनुमान बाहुक, संकट मोचन और वैराग्य संदीपनी तुलसीदास जी की छोटी रचनाएँ हैं।

रामचरितमानस के बाद हनुमान चालीसा, जो कि हिन्दुओं की दैनिक प्रार्थना कही जाती है, तुलसीदास जी की अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य रचना है।


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