"दुर्गा चालीसा" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
रक्षा कर प्रहलाद बचायो । हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो ॥
 
रक्षा कर प्रहलाद बचायो । हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो ॥
  
लक्ष्मी रुप धरो जग माही । श्री नारायण अंग समाही ॥{{दुर्गा}}
+
लक्ष्मी रुप धरो जग माही । श्री नारायण अंग समाही ॥
  
 
क्षीरसिन्धु में करत विलासा । दयासिन्धु दीजै मन आसा ॥
 
क्षीरसिन्धु में करत विलासा । दयासिन्धु दीजै मन आसा ॥

15:42, 3 जनवरी 2011 का अवतरण

नमो नमो दुर्गे सुख करनी । नमो नमो अम्बे दुःख हरनी ॥

निराकार है ज्योति तुम्हारी । तिहूं लोक फैली उजियारी ॥

शशि ललाट मुख महा विशाला । नेत्र लाल भृकुटी विकराला ॥

रुप मातु को अधिक सुहावे । दरश करत जन अति सुख पावे ॥

तुम संसार शक्ति लय कीना । पालन हेतु अन्न धन दीना ॥

अन्नपूर्णा हु‌ई जग पाला । तुम ही आदि सुन्दरी बाला ॥

प्रलयकाल सब नाशन हारी । तुम गौरी शिव शंकर प्यारी ॥

शिव योगी तुम्हरे गुण गावें । ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें ॥

रुप सरस्वती को तुम धारा । दे सुबुद्घि ऋषि मुनिन उबारा ॥

धरा रुप नरसिंह को अम्बा । प्रगट भ‌ई फाड़कर खम्बा ॥

रक्षा कर प्रहलाद बचायो । हिरणाकुश को स्वर्ग पठायो ॥

लक्ष्मी रुप धरो जग माही । श्री नारायण अंग समाही ॥

क्षीरसिन्धु में करत विलासा । दयासिन्धु दीजै मन आसा ॥

हिंगलाज में तुम्हीं भवानी । महिमा अमित न जात बखानी ॥

मातंगी धूमावति माता । भुवनेश्वरि बगला सुखदाता ॥

श्री भैरव तारा जग तारिणि । छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी ॥

केहरि वाहन सोह भवानी । लांगुर वीर चलत अगवानी ॥

कर में खप्पर खड्ग विराजे । जाको देख काल डर भाजे ॥

सोहे अस्त्र और तिरशूला । जाते उठत शत्रु हिय शूला ॥

नगर कोटि में तुम्ही विराजत । तिहूं लोक में डंका बाजत ॥

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे । रक्तबीज शंखन संहारे ॥

महिषासुर नृप अति अभिमानी । जेहि अघ भार मही अकुलानी ॥

रुप कराल कालिका धारा । सेन सहित तुम तिहि संहारा ॥

परी गाढ़ सन्तन पर जब जब । भ‌ई सहाय मातु तुम तब तब ॥

अमरपुरी अरु बासव लोका । तब महिमा सब रहें अशोका ॥

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी । तुम्हें सदा पूजें नर नारी ॥

प्रेम भक्ति से जो यश गावै । दुःख दारिद्र निकट नहिं आवे ॥

ध्यावे तुम्हें जो नर मन ला‌ई । जन्म-मरण ताको छुटि जा‌ई ॥

जोगी सुर मुनि कहत पुकारी । योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी ॥

शंकर आचारज तप कीनो । काम अरु क्रोध जीति सब लीनो ॥

निशिदिन ध्यान धरो शंकर को । काहू काल नहिं सुमिरो तुमको ॥

शक्ति रुप को मरम न पायो । शक्ति ग‌ई तब मन पछतायो ॥

शरणागत हु‌ई कीर्ति बखानी । जय जय जय जगदम्ब भवानी ॥

भ‌ई प्रसन्न आदि जगदम्बा । द‌ई शक्ति नहिं कीन विलम्बा ॥

मोको मातु कष्ट अति घेरो । तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो ॥

आशा तृष्णा निपट सतवे । मोह मदादिक सब विनशावै ॥

शत्रु नाश कीजै महारानी । सुमिरों इकचित तुम्हें भवानी ॥

करौ कृपा हे मातु दयाला । ऋद्घि सिद्घि दे करहु निहाला ॥

जब लगि जियौं दया फल पा‌ऊँ । तुम्हरो यश मैं सदा सुना‌ऊँ ॥

दुर्गा चालीसा जो नित गावै । सब सुख भोग परम पद पावै ॥

देवीदास शरण निज जानी । करहु कृपा जगदम्ब भवानी ॥

संबंधित लेख