धरनीदास

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धरनीदास संत परंपरा में ‘धरनी’ के नाम से विख्यात हैं। धरनीदास का जन्म बिहार के छपरा ज़िले के माझी गांव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके जन्म के समय के संबंध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। फिर भी उनकी बानी-साक्ष्य के आधार पर 1616 ई. उनका जन्म-समय माना गया है।

धरनीदास का परिवार कृषक था। उन्होंने गांव के जमींदार के यहाँ दीवान के रूप में काम किया। वे सत्यनिष्ठ तो थे ही, वैराग्य की भावना उनके अंदर बराबर रही। धरनीदास के संबंध में अनेक चमत्कारिक घटनाएँ प्रचलित है। एक बार बहीखाते पर पानी का भरा लोटा लुढ़क गया जिससे खाते की लिखावट मिट गई। जमींदार को उनकी ईमानदारी पर संदेह हुआ। जब उनसे इस लापरवाही के संबंध में पूछा गया तो बोले- मैं तो पुरी के जगन्नाथ जी के वस्त्रों में लगी आग बुझा रहा था। जब जमींदार ने पुरी के मंदिर से इस संबंध में पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि वहां आग लगी थी और एक साधु ने लोटे से जल डालकर उसे बुझाया। इससे जमींदार बड़ा लज्जित हुआ, धरनी जी से क्षमा मांगी, पर उन्होंने फिर उसके यहां नौकरी नहीं की।

धरनीदास ने रामानंद की शिष्य-परंपरा के स्वामी विनोदानंद से दीक्षा ली थी। उनकी भक्ति रचनाओं में तीन प्रसिद्ध हैं- ‘शब्द प्रकाश’, ‘रत्नावली’ और ‘प्रेम प्रगास’। ‘शब्द प्रकाश’ में भोजपुरी के गेय पद हैं। ‘रत्नावली’ में गुरु परंपरा के साथ कुछ अन्य संतों का परिचय मिलता है। ‘प्रेम प्रगास’ सूफियों की प्रेमाख्यान शैली में रचित मनमोहन और प्रानमती की प्रेम कहानी है। धरनीदास ने अपनी रचनाओं में आत्महीनता, नाम स्मरण, विनय और आध्यात्मिक विषयों का समावेश है। उनका कहना था कि व्यक्ति को एक ओर अपने ‘निज’ की पहचान होनी चाहिए, दूसरी ओर संतों के व्यक्तित्व और अपने कार्यों को भी जानना आवश्यक है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग और बिहार में संत धरनीदास के बहुत से अनुयायी हैं।


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