नारद मोह की कथा

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नारद जी ने एक आश्रम में जन्म लिया था । उनकी माँ उस आश्रम की सेविका थीं। नारद जी का बचपन ऋषि कुमारों के साथ खेल-कूदकर बीता। ऋषि-महर्षियों के संग ने उनके मन में छुपी हुई आध्यात्मिक जिज्ञासा को जगा दिया और वे भी योग के रास्ते पर चल पड़े। अपनी तपस्या के बल पर उन्होंने ऋद्धि-सिद्धियां प्राप्त कीं और सदा के लिए अमर हो गए। नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उनसे बढ़कर इस पृथ्वी पर और कोई दूसरा विष्णु भगवान का भक्त नहीं है। उनका व्यवहार भी इस भावना से प्रेरित होकर कुछ बदलने लगा। वे भगवान के गुणों का गान करने के साथ-साथ अपने सेवा कार्यों का भी वर्णन करने लगे। भगवान से कोई बात छुपी थोड़े ही है। उन्हें तुरंत इसका पता चल गया। भला वे अपने भक्त का पतन कैसे देख सकते थे। इसलिए उन्होंने नारदजी को इस दुष्प्रवृत्ति से बचाने का निर्णय किया।


Blockquote-open.gif एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे कि अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले, 'भई नारद जी हम तो थक गए, प्यास भी लगी है। कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला ही नहीं जा रहा है। हमारा तो गला सूख रहा है।' Blockquote-close.gif

एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे कि अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले, 'भई नारद जी हम तो थक गए,प्यास भी लगी है। कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला ही नहीं जा रहा है। हमारा तो गला सूख रहा है।' नारद जी तुंरत सावधान हो गए, उनके होते हुए भला भगवान प्यासे रहें। वे बोले, 'भगवान अभी लाया, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें।' नारद जी एक ओर दौड़ लिए। उनके जाते ही भगवान मुस्कराए और अपनी माया को नारद जी को सत्य के मार्ग पर लाने का आदेश दिया। माया शुरू हो गई। नारद जी थोड़ी दूर ही गए होगें कि एक गांव दिखाई पड़ा, जिसके बाहर कुएं पर कुछ युवा स्त्रियां पानी भर रही थीं। कुएं के पास जब वे पहुंचे तो एक कन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठे, बस उसे ही निहारने लगे। यह भूल गए कि वे भगवान के लिए पानी लेने आए थे। कन्या भी समझ गई। वह जल्दी-जल्दी जल से घड़ा भरकर अपनी सहेलियों को पीछे छोड़कर घर की ओर लपकी। नारद जी भी उसके पीछे हो लिए। कन्या तो घर के अंदर चली गई लेकिन नारद जी ने द्वार पर खड़े होकर 'नारायण', 'नारायण' का अलख जगाया । गृहस्वामी नारायण का नाम सुनकर बाहर आया। उसने नारद जी को तुरंत पहचान लिया। अत्यन्त विनम्रता और आदर के साथा वह उन्हें घर के अन्दर ले गया और उनके हाथ-पैर धुलाकर स्वच्छ आसन पर बैठाया तथा उनकी सेवा-सत्कार में कोई कमी न छोड़ी। तब शान्ति के साथ उनके आगमन से अपने को धन्य बताते हुए अपने योग्य सेवा के लिए आग्रह किया। नारदजी बोले, 'आपके घर में जो आपकी कन्या जल का घड़ा लेकर अभी-अभी आई है, मैं उससे विवाह करना चाहता हूं।' गृहस्वामी एकदम चकित रह गया लेकिन उसे प्रसन्नता भी हुई कि मेरी कन्या एक ऐसे महान योगी तथा संत के पास जाएगी। उसने स्वीकृति प्रदान कर दी और नारद जी को अपने घर में ही रख लिया। दो-चार दिन पश्चात् शुभ मुहूर्त ने अपनी कन्या का विवाह नारद जी के साथ कर दिया तथा उन्हें ग्राम में ही उतनी धरती का टुकड़ा दे दिया कि खेती करके वे आराम से अपना पेट भर सकें। अब नारद जी की वीणा एक खूंटी पर टंगी रहती जिसकी ओर उनका ध्यान बहुत कम जाता। अपनी पत्नी के आगे नारायण को वे भूल गए। दिन भर खेती में लगे रहते। कभी हल चलाते, कभी पानी देते, कभी बीज बोते, कभी निराई-गुड़ाई करते। जैसे-जैसे पौधे बढ़ते उनकी प्रसन्नता का पारा वार न रहता। फ़सलें हर वर्ष पकतीं, कटतीं, अनाज से उनके कोठोर भर जाते। नारद जी की गृहस्थी भी बढ़ती गई। तीन-चार लड़के-लड़कियां भी हो गए। अब नारद जी को एक क्षण भी फुरसत न थी। वे हर समय उनके पालन-पोषण तथा पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते अथवा खेती में काम करते।

अचानक एक बार वर्षा के दिनों में तेज़ बारिश हुई। कई दिनों तक बंद होने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की गरज और बिजली की कड़क ने सबके ह्दय में भय उत्पन्न कर दिया। मूसलाधार वर्षा ने ग्राम के पास बहने वाली नदी में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी। किनारे तोड़कर नदी उफन पड़ी। चारों ओर पानी ही पानी कच्चे-पक्के सभी मकान ढहने लगे। घर का सामान बह गया। पशु भी डूब गए। अनेक व्यक्ति मर गए। गांव में त्राहि-त्राहि मच गई। नारद जी अब क्या करें। उन्होंने भी घर में जो कीमती थोड़ा-बहुत सामान बचा था उसकी गठड़ी-मुठरी बांधी और अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर पानी में से होते हुए जान बचाने के लिए घर से बाहर निकले। बगल में गठरी, एक हाथ से एक बच्चे का पकड़े, दूसरे से अपनी स्त्री को संभाले तथा पत्नी भी एक बच्चे को गोद में लिए, एक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़े। पानी का बहाव अत्यन्त तेज़ था तथा यह भी पता नहीं चलता था कि कहां गड्ढा है और कहां टीला। अचानक नारद जी ने ठोकर खाई और गठरी बगल से निकलकर बह गई। नारद जी गठरी कैसे पकड़ें, दोनों हाथ तो घिरे थे। सोचा जैसा उसकी इच्छा फिर कमा लेंगे। कुछ दूर जाने पर पत्नी एक गड्ढे में गिर पड़ी ओर गोद का बच्चा बह गया। पत्नी बहुत रोई, लेकिन क्या हो सकता था, धीरे-धीरे और दो बच्चे भी पानी में बह गए, बहुत कोशिश की उन्हें बचाने की, लेकिन कुछ न हो सका। दोनों पति-पत्नी बड़े दुखी, रोते, कलपते, एक-दूसरे को सात्वना देते, आगे कोई ऊंची जगह ढूंढते बढ़ते रहे। एक जगह आगे चलकर दोनों एक गड्ढे समा गए। नारद जी तो किसी प्रकार के गड्ढे में से निकल आए, लेकिन उनकी पत्नी का पता नहीं चला । बहुत देर तक नारदजी उसे इधर से उधर दूर-दूर तक ढूंढ़ते रहे लेकिन व्यर्थ, रोते-रोते उनका बुरा हाल था, ह्दय पत्नी और बच्चों को याद कर करके फटा जा रहा था । उनकी तो सारी गृहस्थी उजड़ गई थी। बेचारे क्या करें, किसे कोसें अपने भाग्य को या भगवान को। भगवान का ध्यान आते ही नारद जी के मस्तिष्क में प्रकाश फैल गया और पुरानी सभी बातें याद आ गई। वे किसलिए आए थे और कहां फंस गए। ओ हो! भगवान विष्णु तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वे तो उनके लिए जल लेने आए थे और यहाँ गृहस्थी बसाकर बैठ गए। वर्षो बीत गए, गृहस्थी को बसाने में और फिर सब नष्ट हो गया। क्या भगवान अब भी मेरी प्रतीक्षा में उसी वृक्ष के नीचे बैठे होंगे। यह सोचते ही बाढ़ नदारद हो गई। गांव भी अतंर्धान हो गया। वे तो घने वन में खड़े थे। नारद जी पछताते और शरमाते हुए दौड़े, देखा कुछ ही दूर पर उसी वृक्ष के नीचे भगवान लेटे हैं। नारद जी को देखते ही वे उठ बैठे और बोले, 'अरे भाई नारद, कहां चले गए थे, बड़ी देर लगा दी । पानी लाए या नहीं।'

नारद जी भगवान के चरण पकड़कर बैठ गए और लगे अश्रु बहाने। उनके मुंह से एक बोल भी न फटा। भगवान मुस्कराए और बोल, 'तुम अभी तो गए थे। कुछ अधिक देर थोड़े ही हुई है।' लेकिन नारद जी को लगता है कि वर्षों बीत गए। अब उनकी समझ में आया कि सब भगवान की माया थी, जो उनके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए पैदा हुई थी। उन्हें बड़ा घमण्ड था कि उनसे बढ़कर त्रिलोक में दूसरा कोई भक्त नहीं है। जरा सी देर में ढेर हो गया। वे पुनः सरलता और विनय के साथ भगवान के गुण गाने लगे।


इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमारे पास कुछ है, हमने अथक परिश्रम, लगन तथा निष्ठा से कुछ प्राप्त कर लिया है चाहे वह अपार धन हो, शारीरिक शक्ति हो, भरा-पूरा परिवार हो या फिर कोई ऊंची योग्यता, पद या यश हो तो उस पर घमण्ड क्यों करें। क्या हमसे ऊपर और लोग नहीं हैं? क्या हम ही सर्वोपरि हैं? अनेक हमसे पहले हो चुके हैं और आगे भी होगें फिर घमण्ड कैसा। अपनी इस विशेषता से अपना और दूसरों का लाभ होने दें तभी उसका कुछ महत्त्व है अन्यथा वह तो कोयले की बोरी के समान है जो आपके स्टोर में व्यर्थ में ही बिना उपयोग में आए रखी है। इकट्ठा करने में नहीं बांटने में सुख है, आनन्द है।

शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर[1]

सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हज़ारों हाथों से बांटो।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अथर्ववेद-3/24/5

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