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पतंजलि

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महर्षि पतंजलि

पतंजलि या 'पतञ्जलि' ‘व्याकरण-महाभाष्य’ के रचयिता, योग दर्शन के प्रणेता तथा आयुर्वेद की चरक परम्परा के जनक हैं। इनकी गणना भारत के अग्रगण्य विद्वानों में की जाति है। इनका निवास स्थान 'गोनार्द' नामक ग्राम (कश्मीर) अथवा 'गोंडा' (उत्तर प्रदेश) माना जाता है। इनकी माता का नाम 'गोणिका' बताया गया है तथा इनके पिता का नाम ज्ञात नहीं है। पतंजलि योगसूत्र के रचनाकार हैं, जो हिन्दुओं के छः दर्शनों-( न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त) में से एक है। भारतीय साहित्य में पतंजलि के लिखे हुए तीन मुख्य ग्रन्थ मिलते है-योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ। पतंजलि को नमन करते हुए भृतहरि ने अपने ग्रन्थ 'वाक्यपदीय' के प्रारम्भ में निम्न श्लोक लिखा है-

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां, मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां, पतंजलि प्रांजलिरानतोऽस्मि।।

अर्थ- योग से चित्त का, पद (व्याकरण) से वाणी का व वैद्यक से शरीर का मल, जिन्होंने दूर किया, उन मुनि श्रेष्ठ पतंजलि को मैं अंजलि बद्ध होकर नमस्कार करता हूँ।

जन्म कथा

पतंजलि के अन्य नाम भी हैं, जैसे-गोनर्दीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, चूर्णिकार, फणिभुत, शेषाहि, शेषराज और पदकार। रामचन्द्र दीक्षित ने 'पंतजलिचरित' नामक उनका चरित्र लिखा है, जिसमें पतंजलि को शेष का अवतार मानकर, तत्सम्बन्धी निम्न आख्यायिका दी गई है-

एक बार जब श्री विष्णु शेषशय्या पर निद्रित थे, भगवान शंकर ने अपना तांडव नृत्य प्रारम्भ किया। उस समय श्री विष्णु गहरी निद्रा में नहीं थे। अत: स्वाभाविकत: उनका ध्यान उस शिव नृत्य की ओर आकर्षित हुआ। उस नृत्य को देखते हुए श्री विष्णु को इतना आनन्द प्राप्त हुआ कि, वह उनके शरीर में समाता नहीं था। अत: उन्होंने अपने शरीर को बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। श्री विष्णु का शरीर वृद्धिगत होते ही शेष को उनका भार असहनीय हो उठा। वे अपने सहस्र मुखों से फुंकार करने लगे। उसके कारण लक्ष्मी जी घबराईं और उन्होंने श्री विष्णु को नींद से जगाया। उनके जागने पर ही उनका शरीर संकुचित हुआ। तब छुटकारे की श्वांस लेते हुए शेष ने पूछा, 'क्या आज मेरी परीक्षा लेना चाहते थे।' इस पर श्री विष्णु ने शेष को शिवजी के तांडव नृत्य का कलात्मक श्रेष्ठत्व विशद करके बताया। तब शेष बोले-'वह नृत्य एक बार मैं देखना चाहता हूँ।' इस पर श्री विष्णु ने कहा-'तुम एक बार पुन: पृथ्वी पर अवतार लो, उसी अवतार में तुम शिवजी का तांडव नृत्य देख सकोगे।'

नामकरण

तदनुसार अवतार लेने हेतु उचित स्थान की खोज में शेष जी चल पड़े। चलते-चलते गोनर्द नामक स्थान पर उन्हें गोणिका नामक एक महिला, पुत्र प्राप्ति की इच्छा से तपस्या करती हुई दीख पड़ी। शेष जी ने उसे मातृ रूप में स्वीकार करने का मन ही मन निश्चय किया। अत: जब गोणिका सूर्य को अर्ध्य देने हेतु सिद्ध हुई, तब शेष जी सूक्ष्म रूप धारण उसकी अंजलि में जा बैठै और उसकी अंजलि के जल के साथ नीचे आते ही, उसके सम्मुख बालक के रूप में खड़े हो गए। गोणिका ने उन्हें अपना पुत्र मानकर गोदी में उठा लिया और बोली-‘मेरी अंजलि से पतन पाने के कारण, मैं तुम्हारा नाम पतंजलि रखती हूँ।’

अध्यापन कार्य

पतंजलि ने बाल्यावस्था से ही विद्याभ्यास प्रारम्भ किया। फिर तपस्या के द्वारा उन्होंने शिव जी को प्रसन्न कर लिया। शिव जी ने उन्हें चिदम्बर क्षेत्र में अपना तांडव नृत्य दिखलाया और पदशास्त्र पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। तदनुसार चिदम्बरम् में ही रहकर पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों तथा कात्यायन के वार्तिकों पर विस्तृत भाष्य की रचना की। यह ग्रन्थ ‘पातंजल महाभाष्य’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस महाभाष्य की कीर्ति सुनकर, उसके अध्ययनार्थ हज़ारों पंडित पतंजलि के यहाँ पर आने लगे। पतंजलि एक यवनिका (पर्दे) की ओट में बैठकर, शेषनाग के रूप में उन सहस्रों शिष्यों को एक साथ पढ़ाने लगे।

अध्यापन के समय पंतजलि ने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दे रखी थी, कि कोई भी यवनिका के अन्दर झांककर न देखे, किन्तु शिष्यों के हृदय में इस बारे से भारी कोतुहल जागृत हो चुका था, कि एक ही व्यक्ति एक ही समय में इतने शिष्यों को ग्रन्थ के अन्यान्य भाग किस प्रकार पढ़ा सकता है। अत: एक दिन उन्होंने जब यवनिका दूर की, तो उन्हें दिखाई दिया, कि पतंजलि सहस्र मुख वाले शेषनाग के रूप में अध्यापन कार्य कर रहे हैं, किन्तु शेष जी का तेज इतना प्रखर था कि सभी शिष्य जलकर भष्म हो गए। केवल एक शिष्य जो कि उस समय जल लाने के लिए बाहर गया था, बच गया। पतंजलि ने उसे आदेश दिया, कि वह सुयोग्य शिष्यों को महाभाष्य पढ़ाये। फिर पतंजलि चिदम्बर क्षेत्र से गोनर्द ग्राम लौटे।

रचनाएँ

अपने ग्राम पहुँचकर उन्होंने अपनी माता जी के दर्शन किए, और फिर अपने मूल शेष रूप में वह प्रविष्ठ हो गए। महाभाष्य के समान ही पतंजलि ने आयुर्वेद की चरकसंहिता भी लिखी, ऐसा कहा गया है। चरकसंहिता का मूल नाम है ‘आत्रेय संहिता’। 'चरक' कृष्ण यजुर्वेद की एक थी। उसके अनुयायियों को भी चरक ही कहा जाता था। ऐसा प्रसिद्ध है कि चरक लोग सामान्यत: आयुर्वेदज्ञ, मांत्रिक तथा नागोपासक थे। कहा जाता है कि पतंजलि भी इसी शाखा के होंगे। चरकसंहिता अत्रि के नाम पर होते हुए भी अधिकांश विद्वान मानते हैं कि पतंजलि ने उस पर प्रबल संस्कार अवश्य किए होंगे। पतंजलि को आयुर्वेद की अच्छी जानकारी थी, यह बात उनके महाभाष्य से भी दिखाई देती है। उनके महाभाष्य में शरीर रचना, शरीर सौंदर्य, शरीर विकृति, रोग निदान, औषधि विज्ञान आदि के विषय में अनेक स्थानों पर उल्लेख आए हैं।

योगसूत्रों की भी रचना पतंजलि ने ही की, ऐसा प्रसिद्ध है, किन्तु 'भाष्यकार', 'योगसूत्रकार' तथा 'चरकसंस्कर्ता' को एक ही व्यक्ति मानना, अनेक विद्वानों को मान्य नहीं है। उनका तर्क है कि ये तीनों पतंजलि भिन्न काल के भिन्न व्यक्ति होने चाहिए। योगसूत्रों में आर्ष (ऋषि प्रणीत) प्रयोग नहीं है। सूत्रों के अर्थों के लिए अध्याहार (वाक्यपूर्ति के लिए शब्द-योजना) की आवश्यकता नहीं पड़ती और उसकी रचना-शैली महाभाष्य के अनुसार अनुरूप स्पष्ट एवं प्रासादिक है। इन आधारों पर डॉक्टर प्रभुदयाल अग्निहोत्री, महाभाष्यकर्ता को ही योगसूत्रों का कर्ता मानते हैं। अन्य किसी भी दार्शनिक की तुलना में योगसूत्रकार एक श्रेष्ठ वैयाकरण प्रतीत होते हैं। चक्रपाणि नामक एक प्राचीन टीकाकार ने भी निम्न श्लोक द्वारा पतंजलि को एक ही व्यक्ति माना है-

पातंजल-महाभाष्य-चरकप्रतिसंस्कृतै:।
मनोवाक्कायदोषाणां हन्त्रेऽहिपतये नम:।।

अर्थ- योगसूत्र, महाभाष्य तथा चरक संहिता का प्रतिसंस्करण इन कृतियों से, क्रमश: मन, वाणी एवं देह के दोषों का निरसन करने वाले पतंजलि को मैं नमस्कार करता हूँ।

महाभाष्य की रचना

कात्यायन के वार्त्तिकों के पश्चात महर्षि पतंजलि ने पाणिनीय अष्टाध्यायी पर एक महती व्याख्या लिखी, जो 'महाभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें उन्होंने पाणिनीय सूत्रों तथा उन पर लिखे गये वार्त्तिकों का विवेचन किया, और साथ ही साथ अपने इष्टि-वाक्यों का भी समावेश किया। महाभाष्य में 86 आहिनक हैं। 'आहिनक' शब्द का अर्थ है, 'एक दिन में अधीत अंश'। पतंजलि-महाभाष्य के 83 आहिनक विद्यार्थियों को पढ़ाए गये 86 दिन के पाठ हैं। महर्षि पतंजलि ने अपने समय के समस्त संस्कृत-वाङ्मय का आलोडन किया था, अत: उनसे व्याकरण का कोई भी विषय अछूता नहीं रहा। उनकी निरूपण-पद्धति सर्वथा मौलिक और नैयायिकों तर्कशैली पर आधारित है। पतंजलि के हाथों पाणिनीय शास्त्र का इतना गहन और व्यापक विस्तार हुआ कि अन्य व्याकरणों की परम्परा लगभग समाप्त हो गई और चारों ओर पाणिनीय व्याकरण की ही पताका फहराने लगी। अष्टाध्यायी के 1689 सूत्रों पर पतंजलि ने भाष्य लिखा। इसमें उन्होंने कात्यायन एवं अन्य आचार्यों के वार्त्तिकों की भी समीक्षा की है, साथ ही चार सौ से अधिक ऐसे सूत्रों पर भाष्य लिखा, जिन पर वार्त्तिक उपलब्ध नहीं थे। पतंजलि ने कात्यायन के अनेक आक्षेपों से पाणिनि की रक्षा की, जहाँ उन्हें वार्त्तिककात का मत ठीक दिखाई दिया, वहाँ उसे स्वीकार भी कर लिया।

महाभाष्य की रचनाशैली

महाभाष्य की रचनाशैली अत्यन्त सरल, सहज और प्रवाहयुक्त है। शास्त्रीय ग्रन्थ होने के कारण महाभाष्य में पारिभाषिक और शास्त्रीय शब्दों का आना स्वाभाविक ही था, परन्तु महाभाष्यकार ने शास्त्रीय शब्दावली के साथ-साथ लोकव्यवहार की भाषा और मुहावरों का प्रयोग कर अपने ग्रन्थ को दुरूह होने से बचा लिया है। जहाँ विषय गम्भीर है, वहाँ महाभाष्यकार ने बीच-बीच में विनोदपूर्ण वाक्य डालकर संवादमयी शैली का प्रयोग और लौकिक दृष्टान्तों का समावेश कर प्रसंग को शुष्क और नीरस होने से बचा लिया है। महाभाष्य को सरस और आकर्षक बनाने में उनकी भाषा का बहुत योगदान है। उसमें उपमान, न्याय, दृष्टान्त और सूक्तियाँ भी कम मनोरम नहीं हैं। महाभाष्य में उपमान और दृष्टान्तों का कुछ इस ढ़ंग से प्रयोग किया गया है कि पाठक बिना तर्क के वक्ता की बात स्वीकार करने को बाध्य हो जाता है। भाष्य में प्रयुक्त सूक्तियाँ और कहावतें जीवन के वास्तविक अनुभवों पर आधारित हैं। भाष्य में प्रयुक्त अनेक शब्द संस्कृत शब्दपौराणिक कोश की अमूल्य निधि हैं। पतंजलि ने महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय सिद्धान्तों की विवेचना करते समय यह ध्यान रखा कि वे सिद्धान्त लोगों को सरलता से समझ में आ सकें। इसके लिये उन्होंने लोक-व्यवहार की सहायता ली। प्रत्यय से स्थान को निश्चित करने के लिये वे गाय के बछड़े का उदाहरण देते हुए कहते हैं, कि यदि प्रत्यय का स्थान निश्चित नहीं होगा, तो जैसे बछड़ा गाय के कभी आगे व कभी पीछे और कभी उसके बराबर चलने लगता है, ऐसी ही स्थिति प्रत्ययों की हो जायेगी। इस प्रकार पतंजलि ने पाणिनीय व्याकरण को न केवल सर्वजन-सुलभ बनाया, अपितु उसमें अपने भौतिक विचारों का समावेश कर उसे दर्शन का रूप भी प्रदान कर दिया। महाभाष्य का आरम्भ ही शब्द की परिभाषा से होता है। शब्द का यह विवाद वैयाकरणों का प्राचीन विवाद था। पाणिनि से पूर्व आचार्य शब्द के नित्यत्व और कार्यत्व पक्ष को मानते थे।

विद्वान विचार

'चरक' शब्द के कल्पित अर्थ लेकर विद्वानों ने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, उनमें द्विवेदी कहते हैं-'अध्याय की समाप्ति के पश्चात्, पतंजलि कुछ समय के लिए चरक अर्थात् भ्रमणशील रहे।' विभिन्न प्रदेशों व ग्रामों में घूम-फिरकर, उन्होंने पाणिनि, कात्यायन के पश्चात् संस्कृत भाषा के शब्द-प्रयोगों में जो परिवर्तन रूढ़ हुए उनका अध्ययन किया, और उनका निरूपण करने के लिए 'इष्टि' के नाम से कुछ नये नियम बनाए। पुणे निवासी करंदीकर ने चरक के 'चर' अर्थात् गुप्तचर इस अर्थ के आधार पर अपनी सम्भावना व्यक्त करते हुए लिखा है-

'प्रारम्भ में पतंजलि ने एक गुप्तचर की भूमिका से भारत भ्रमण किया होगा। उस स्थिति में उनका समावेश, अर्थशास्त्र में वर्णित सत्री नामक गुप्तचरों में हुआ होना चाहिए। आर्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि पितृहीन व आप्तहीन बालकों को सामुद्रिक, मुख-परीक्षा, जादू-विद्या, वशीकरण, आश्रम-धर्म, शकुन-विद्या आदि सिखाकर, उनमें से संसर्ग अथवा समागम द्वारा व्रत्त-संग्रह करने वाले गुप्तचरों का चुनाव किया जाना चाहिए। पतंजलि को गोणिका-पुत्र कहकर ही पहचाना जाता है। अत: उनके पिता की अकाल मृत्यु हुई होगी और वे निराधार रहे होंगे। परिणामस्वरूप सत्री नामक गुप्तचरों के बीच ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई होगी, अथवा उन्होंने स्वेच्छा से ही उस साहसी व्यवसाय को स्वीकार किया होगा।'

मतभेद

पतंजलि के जन्म स्थान के बारे में भी विद्वानों का एक मत नहीं है। पतंजलि ने कात्यायन को 'दाक्षिणात्य' कहा है। इससे अनुमान होता है, कि वे उत्तर भारत के निवासी रहे होंगे। उनके जन्म-ग्राम के रूप में गोनर्द ग्राम का नामोल्लेख हो चुका है। किन्तु गोनर्द का सम्बन्ध गोंड प्रदेश से भी मानते हैं। कतिपय पंडितों के मतानुसार गोनर्द ग्राम अवध प्रदेश का गोंडा होगा। वेबर इस गांव को मगध के पूर्व में स्थित मानते हैं। कनिंघम के अनुसार, गोनर्द गौड हैं, किन्तु पतंजलि आर्यावर्त का अभिमान रखने वाले थे। अत: उनका जन्म-ग्राम, आर्यावर्त ही में कहीं न कहीं होना चाहिए, इसमें संदेह नहीं। उस दृष्टि से वह गोनर्द, विदिशा और उज्जैन के बीच किसी स्थान पर होना चाहिए। प्रोफ़ेसर सिल्व्हां लेव्ही भी गोनर्द को विदिशा व उज्जैन के मार्ग पर ही मानते हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि विदिशा के समीप स्थित सांची के बौद्ध स्तूप को, आसपास के प्राय: सभी गांवों के लोगों द्वारा दान दिए जाने के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु उसमें गोनर्द के लोगों के नाम दिखाई नहीं देते।

इस बात पर उन्होंने आश्चर्य भी व्यक्त किया है। तथापि इस पर से अनुमान निकलता है कि गोनर्द के लोग कट्टर बौद्ध विरोधक होंगे। ऐसे बौद्ध विरोधकों के केन्द्र में पतंजलि पले यह घटना उनके चरित्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। व्याकरण-महाभाष्य से यह सूचित होता है, कि पतंजलि की मौर्य सम्राट बृहद्रथ का वध कराने वाले पुष्यमित्र शुंग से मित्रता थी। पतंजलि ने व्याकरण की परीक्षा पाटलिपुत्र (पटना) में दी। वहीं पर उन दोनों की मित्रता हुई होगी। बौद्ध बनकर वैदिक धर्म का विरोध करने वाले मौर्य वंश का उच्छेद कर भारत में वैदिक धर्मी राज्य की प्रस्थापना करने की योजना उन दोनों ने वहीं पर बनाई होगी। इस दृष्टि से करंदीकर ने पतंजलि से सम्बन्धित आख्यायिकाओं को ऐतिहासिक अर्थ लगाने का निम्न प्रकार से प्रयत्न किया है-

श्री विष्णु ने अपने शरीर को बढ़ाया और उसका भार शेष जी को असह्य हुआ। इसका अर्थ यह है कि पृथ्वीपति रूपी विष्णु अर्थात् मौर्य सम्राट् द्वारा अपने अधिकार-मर्यादा का किया गया उल्लंघन, पतंजलि के समान ही मध्य भारत के सभी नाग कुलोत्पन्नों को असह्य हो चुका था। प्रतीत होता है कि पतंजलि का नागकुल से घनिष्ठ सम्बन्ध था। क्योंकि उन्हें शेषनाग का अवतार माना गया है। इन नागों का पुष्यमाणव नामक एक संघठन, पुष्यमित्र के ही नेतृत्व में निर्माण हुआ होगा। यह बात ‘महीपालवच: श्रुत्वा जुघुषु: पुष्यमाणवा:’ अर्थात् महीपाल का (राजा का) वचन सुनकर पुष्यमानव प्रक्षुब्ध हुए-इस महाभाष्यांतर्गत श्लोक से सूचित होती है। यह कल्पना प्रभातचंद्र चटर्जी से लेकर डॉक्टर वासुदेव शरण अग्रवाल तक अनेक विद्वानों ने स्वीकार की है। पुष्यमित्र के साथ ही पतंजलि ने भी इस संगठन का नेतृत्व किया होगा।

संस्कृत भाषा का उत्कर्ष

पुष्यमित्र शुंग व पतंजलि दोनों ही वैदिक धर्म एवं संस्कृत भाषा के अभिमानी थे। पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध यज्ञ किए थे और उनका पौरोहित्य किया था, पतंजलि ने। व्याकरण महाभाष्य लिखकर तो पतंजलि ने संस्कृत भाषा के गौरव को तो शिखर पर ही पहुंचा दिया था। इसके परिणामस्वरूप पाली-अर्धमागधी जैसी बौद्ध जनों की धर्म भाषाएं तक संस्कृत के सामने पिछड़ गईं। ‘संस्कृत तथा अपभ्रंश शब्दों से यद्यपि एक जैसा अर्थ व्यक्त होता है, फिर भी धार्मिक दृष्टि से संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से अभ्युदय होता है’-ऐसा पतंजलि ने कहा है। उस काल में पतंजलि व पुष्यमित्र द्वारा किये गए संस्कृत भाषा के पुनरुत्थान के कारण ही रामायण तथा महाभारत आदि महान ग्रन्थों का अखिल भारत में सामान्यत: एक ही स्वरूप में प्रचार हुआ, और भारत का एक राष्ट्रीयत्व अब तक टिक सका।

व्याकरण महाभाष्य पतंजलि की अजरामर कृति है। भारत में अनेक भाष्यों का निर्माण हुआ, जिनके निर्माता थे- शबर, शंकराचार्य, रामानुज, सायण जैसे महान आचार्य, किन्तु केवल पतजंलि का भाष्य ही 'महाभाष्य' होने के सम्मान को प्राप्त कर सका। इस महाभाष्य के द्वारा व्याकरण के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्यों तक का उदघाटन किया जाता है। इसके साथ ही अपने इस ग्रन्थ में शब्द की व्यापकता पर प्रकाश डालकर पतंजलि ने ‘स्फोटवाद’ नामक एक नवीन दार्शनिक सिद्धान्त की नींव भी डाली है। अनादि, अनंत, अखंड, अज्ञेय, स्वयं प्रकाशमान आदि नाना विशेषणों से विभूषित शब्दब्रह्म ही सृष्टि का आदिकारण है, ऐसा पतंजलि मानते हैं।

अन्य रचनाएँ

व्याकरण महाभाष्य के अतिरिक्त पतंजलि नाम से सम्बन्धित निम्न कृतियाँ हैं-

  1. महाराज समुद्रगुप्त कृत ‘कृष्णचरित’ में पतंजलि को ‘महानंद’ या ‘महानंदमय’ काव्य का प्रणेता कहा गया है, जिसमें काव्य के बहाने योग का वर्णन किया गया है। ‘सदुक्तिकर्णामृत’ में भाष्यकार के नाम से निम्न श्लोक उद्धृत किया गया है-

यद्यपि स्वच्छभावेन दर्शयत्यम्बुधिर्मणीन्।
तथापि जानुदन्धोऽस्मति चेतसि मा कथा:।।

  1. शारदातनय-रचित 'भावप्रकाशन' में किसी वासुकी आचार्य कृत 'साहित्यशास्त्रीय' ग्रन्थ का उल्लेख है। इसमें भावों द्वारा रसोत्पत्ति का कथन किया गया है। इससे अनुमान होता है कि पतंजलि ने कोई काव्य शास्त्रीय ग्रन्थ लिखा होगा।
  2. लोहशास्त्र-शिवदास कृत वैद्यक ग्रन्थ 'चक्रदत्त' की टीका में 'लोहशास्त्र' नामक ग्रन्थ के रचयिता पतंजलि बताए गए हैं।
  3. सिद्धान्त सारावली-इसके प्रणेता भी पतंजलि कहे गए हैं।
  4. कोश-अनेक कोश ग्रन्थों की टीकाओं में वासुकि, शेष, फणपति व भोगींद्र आदि नामों द्वारा रचित कोश ग्रन्थ के उद्धरण प्राप्त होते हैं।

पतंजलि का समय

बहुसंख्य भारतीय व पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार पतंजलि का समय 150 ई. पू. है, पर युधिष्ठिर मीमांसकजी ने जोर देकर बताया है कि पतंजलि विक्रम संवत से दो हज़ार वर्ष पूर्व हुए थे। इस सम्बन्ध में अभी तक कोई निश्चित प्रमाण प्राप्त नहीं हो सका है, पर अंत:साक्ष्य के आधार पर इनका समय निरूपण कोई कठिन कार्य नहीं है। महाभाष्य के वर्णन से पता चलता है कि पुष्यमित्र ने किसी ऐसे विशाल यज्ञ का आयोजन किया था, जिसमें अनेक पुरोहित थे और जिनमें पतंजलि भी शामिल थे। वे स्वयं ब्राह्मण याजक थे और इसी कारण से उन्होंने क्षत्रिय याजक पर कटाक्ष किया है- यदि भवद्विध: क्षत्रियं याजयेत्।[1]

पुष्यमित्रों यजते, याजका: याजयति। तत्र भवितव्यम् पुष्यमित्रो याजयते, याजका: याजयंतीति यज्वादिषु चाविपर्यासो वक्तव्य:।[2]

इससे पता चलता है कि पतंजलि का आभिर्भाव कालिदास के पूर्व व पुष्यमित्र के राज्य काल में हुआ था। ‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्षों तक राज्य किया था। पुष्यमित्र के सिंहासन पर बैठने का समय 185 ई. पू. है और 36 वर्ष कम कर देने पर उसके शासन की सीमा 149 ई. पू. निश्चित होती है। गोल्डस्टुकर ने महाभाष्य का काल 140 से 120 ई. पू. माना है। डॉक्टर भांडारकर के अनुसार पतंजलि का समय 158 ई. पू. के लगभग है, पर प्रोफ़ेसर वेबर के अनुसार इनका समय कनिष्क के बाद, अर्थात् ई. पू. 25 वर्ष होना चाहिए। डॉक्टर भांडारकर ने प्रोफ़ेसर वेबर के इस कथन का खंडन कर दिया है। बोथलिंक के मतानुसार पंतजलि का समय 2000 ई. पू. है।[3] इस मत का समर्थन मेक्समूलर ने भी किया है। कीथ के अनुसार पतंजलि का समय 140-150 ई. पू. है।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (3-3-147, पृष्ठ संख्या 332)
  2. (महाभाष्य, 3-1-26)
  3. (पाणिनीज् ग्रामेटिक)
  4. सं.वा.को. (द्वितीय खण्ड), पृष्ठ 360-363

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