पारिजात एकादश सर्ग

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पारिजात एकादश सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली मुक्तक काव्य
सर्ग एकादश सर्ग
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पारिजात -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल पंद्रह (15) सर्ग
पारिजात प्रथम सर्ग
पारिजात द्वितीय सर्ग
पारिजात तृतीय सर्ग
पारिजात चतुर्थ सर्ग
पारिजात पंचम सर्ग
पारिजात षष्ठ सर्ग
पारिजात सप्तम सर्ग
पारिजात अष्टम सर्ग
पारिजात नवम सर्ग
पारिजात दशम सर्ग
पारिजात एकादश सर्ग
पारिजात द्वादश सर्ग
पारिजात त्रयोदश सर्ग
पारिजात चतुर्दश सर्ग
पारिजात पंचदश सर्ग

कर्म-विपाक

(1) कर्म-अकर्म

अवसर पर ऑंखें बदले।
बनता है सगा पराया।
काँटा छिंट गया वहाँ पर।
था फूल जहाँ बिछ पाया॥1॥

जो रहा प्यारे का पुतला।
वह है ऑंखों में गड़ता।
अपने पोसे-पाले को।
है कभी पीसना पड़ता॥2॥

जिसकी नहँ उँगली दुखते।
ऑंखों में ऑंसू आता।
जी खटके पीछे पड़कर।
है वही पछाड़ा जाता॥3॥

जिसका मुँह बिना विलोके।
दिन था पहाड़ हो पाता।
वह मुँह न दिखावे, ऐसा।
है कभी चित्त फट जाता॥4॥

हैं भली भली ही बातें।
हैं बुरी बुरी कहलाती।
पर लाग लगे पर-घर में।
है आग लगाई जाती॥5॥

है झूठा तो झूठा ही।
सच्चा है भला कहाता।
पर लगता ही रहता है।
झूठी बातों का ताँता॥6॥

खलता है पग के नीचे।
चींटी का भी पड़ जाना।
पर कभी ठीक जँचता है।
लाखों का लहू बहाना॥7॥

जी बहुत दुखी होता है।
अवलोक और का दुखड़ा।
हैं कभी फेर लेते मुँह।
देखे दुखियों का मुखड़ा॥8॥

थोड़ा भी सितम किसी का।
है कहाँ कौन सह पाता।
पर दबकर कड़े पड़े का।
है तलवा चाटा जाता॥9॥

सब कुछ है समय कराता।
यह बात गयी है मानी।
है भरी दाँव-पेचों से।
भव कर्म-अकर्म-कहानी॥10॥

(2)

उत्ताकल तरंगित वारिधिक।
यदि रत्नराजि देता है।
तो द्वीपपुंज को भी वह।
हो क्षुब्धा निगल लेता है॥1॥

चल परम प्रचंड प्रभंजन।
यदि है विशुध्दि कर पाता।
तो दुर्गति कर तरुओं की।
भव में रज है भर जाता॥2॥

यदि बरस-बरसकर वारिद।
बनता है जीवनदाता।
तो मार-मारकर पत्थर।
भू पर है वज्र गिराता॥3॥

यदि आ दिनमणि की किरणें।
जग में हैं ज्योति जगाती।
तो करके नाश निशा का।
तम को हैं तमक दिखाती॥4॥

यदि बहु भलाइयाँ भू की।
पावक द्वारा हैं होती।
तो जगी ज्वाल-मालाएँ।
हैं आग धारा में बोती॥5॥

हैं देवधुनी के धाता।
गिरि हैं भूधार कहलाते।
पर वे पाषाण-हृदय हैं।
पविता उनमें हैं पाते॥6॥

सरिताएँ हैं रस देती।
कल कल रव कर हैं गाती।
पर टेढ़ी चालें चल-चल।
हैं बहु विचलित कर पाती॥7॥

उनमें है सुधा गरल है।
हैं विविध विनोद व्यथाएँ।
हैं भरी जटिलताओं से।
भव कर्म-अकर्म-कथाएँ॥8॥

(3)

वह गूढ़ ग्रंथि है ऐसी।
जो खुली न मति-नख द्वारा।
वह है वह जटिल समस्या।
जिससे समस्त जग हारा॥1॥

है अविज्ञात गति जिसकी।
मिलता है नहीं किनारा।
वह है अन्त:सलिला की।
वह अन्तर्वत्तअधिकतरी धारा॥2॥

पच्ची होता रहता है।
जिसके निमित्त जग माथा।
अविदित रहस्य-परिपूरित।
वह है वह अद्भुत गाथा॥3॥

खोले जिसका अवगुंठन।
खुलता न कभी दिखलाया।
वह है वह प्रकृति-वधूटी।
जिसकी है मोहक माया॥4॥

जैसी कि लोक-अभिरुचि है।
वह नहीं उठ सकी वैसी।
भव-रंगमंच की वह है।
अवरोधा-यवनिका ऐसी॥5॥

कैसे खुलता वह ताला।
जिसने बाधा है डाली।
जो किसी को न मिल पाई।
वह है विचित्र वह ताली॥6॥

जिस जगह अगति के द्वारा।
जाती है मति-गति डाँटी।
है जहाँ प्रगति न दृगों की।
वह है वह दुर्गम घाटी॥7॥

मन मनन नहीं कर पाता।
मतिमान मंद है बनता।
कब बोध-सुफल कहलाई।
भव कर्म-अकर्म-गहनता॥8॥

(4)

जो पूज्यपाद कहलाता।
गुरुदेव गया जो माना।
अपने शिष्यों को जिसने।
सुत के समान ही जाना॥1॥

जिसके प्रसाद से कितने।
दिव्यास्त्रा हाथ थे आये।
जिसकी गौरव-गाथाएँ।
थे अयुत-मुखों ने गाये॥2॥

वह वृध्द निरस्त्रा तपस्वी।
संतान-शोक से कातर।
हत हुआ कपट-कौशल से।
हो गया अलग धाड़ से सर॥3॥

जो सत्यसंधा था जिसका।
व्रत धर्म-धुरंधरता था।
उसके असत्य के बल से।
गुरुपत्नी हुई अनाथा॥4॥

'ए सारी बातें' जो हैं।
वह आहव-नीति-प्रकाशी।
संकेत से हुई जिनके।
वे थे भूभार-विनाशी॥5॥

बहु रक्षित राजसभा में।
जो थी महती कहलाती।
रजवती एक कुलबाला।
है पकड़ मँगाई जाती॥6॥

चिढ़ एक महाबलशाली।
था उसको बहुत सताता।
उस निरपराधा महिला का।
कच खींचा-नोचा जाता॥7॥

वह रोती-चिल्लाती थी।
पर कौन मदद को आता।
उस भरी सभा में उसको।
था नग्न बनाया जाता॥8॥

थे वहाँ महज्जन कितने।
पर दिखा सके न महत्ता।
अबला शरीर पर विजयी।
हो गयी आसुरी सत्ता॥9॥

थी अर्ध्दनिशा, छाया था।
सब ओर घना अंधियाला
लग गया चेतना पर था।
निद्रा-देवी का ताला॥10॥

सब जगत पड़ा सोता था।
पर कुछ वीरताभिमानी।
जगते थे इस असमय में।
रचने को क्रान्ति-कहानी॥11॥

कर प्रबल प्रमुख को आगे।
घुस-घुस शिविरों में कितने।
उनका वधा किया उन्होंने।
निद्र्राभिभूत थे जितने॥12॥

जो निरापराधा बालक थे।
जिनकी थीं करुण पुकारें।
जो थे निरीह उन पर भी।
गिर गईं उठी तलवारें॥13॥

जो इस प्रसिध्द नाटक का।
है सूत्रधार कहलाता।
भारत-वसुधा द्वारा वह।
चिरजीवी पद है पाता॥14॥

कर्तव्य-विमूढ कगी।
क्यों नहीं विचित्र अवस्था।
है भरी विषमताओं से।
भव कर्म-अकर्म-व्यवस्था॥15॥

(5) कर्म का मर्म

(1)

फूल काँटों को करता है।
संग को मोम बनाता है।
बालुकामयी मरुधारा में।
सुरसरी-सलिल बहाता है॥1॥

जहाँ पड़ जाता है सूखा।
वहाँ पानी बरसाता है।
धूल-मिट्टी में कितने ही।
अनूठे फल उपजाता है॥2॥

दूर करके पेचीलापन।
झमेलों से बच जाता है।
गुत्थियाँ खोल-खोलकर वह।
उलझनों को सुलझाता है॥3॥

बखेडे पास नहीं आते।
बला का गला दबाता है।
दहल सिर पर सवार होकर।
उसे नीचा दिखलाता है॥4॥

भूल की भूल-भुलैयों में।
पड़ गये तुरत सँभलता है।
राह में रोड़े हों तो हों।
पाँव उसका कब टलता है॥5॥

चाहता है जो कुछ करना।
उसे वह कर दिखलाता है।
सामने हो पहाड़ तो क्या।
धूल में उसे मिलाता है॥6॥

सामने आ रुकावटें सब।
उसे हैं रोक नहीं पाती।
देख उसको चालें चलते।
आप वे हैं चकरा जाती॥7॥

बहुत ही साहस है उसमें।
क्या नहीं वह कर पाता है।
फन पकड़ता है साँपों का।
सिंह को डाँट बताता है॥8॥

बड़ी करतूतों वाला है।
सदा सब कुछ कर लेता है।
परस पारस से लोहे को।
'कर्म' सोना कर देता है॥9॥

(2)

चारु चिन्तामणि जैसा है।
क्यों नहीं चिन्तित हित करता।
मिले नर-रत्न गृहों को वह।
रुचिर रत्नों से है भरता॥1॥

उसी का अनुपम रस पाकर।
रसा कहलाई सरसा है।
सब सुखों का वह साधन है।
कामप्रद कामधेनु-सा है॥2॥

देखकर उसकी तत्परता।
भवानी भव कर जाती है।
दान कर उसको वर विद्या।
गिरा गौरवित बनाती है॥3॥

देखकर उसका सत्याग्रह।
लोक-पालक घबराते हैं।
झूलते विधिक हैं विधिक अपनी।
रुद्र शंकर बन जाते हैं॥4॥

परम आदर कर जलधारा।
सदा उसका पग है धोती।
दामिनी दीप दिखा, उस पर।
बरसता है बादल मोती॥5॥

दिवा दमकाता है, रजनी।
उसे रंजित कर छिकती है।
देख विधु हँसता है, उसपर।
चाँदनी सुधा छिड़कती है॥6॥

दिव उसे दिव्य बनाता है।
तारकाएँ दम भरती हैं।
देखकर उसकी कृतियों को।
दिशाएँ बिहँसा करती हैं॥7॥

रमा के कर से लालित हो।
क्या नहीं ललके लेता है।
कल्पतरु-जैसा कामद बन।
'कर्म' वांछित फल देता है॥8॥

(3)

बबूलों को बोकर किसने।
आम के अनुपम फल पाये।
लगे तब कंज मंजु कैसे।
फूल जब सेमल के भाये॥1॥

डरे तब जल जाने से क्यों।
आग से जब कोई खेले।
बाल बिनने से क्यों काँपे।
जब बलाएँ सिर पर ले ले॥2॥

गात चन्दन से चर्चित हो।
चाँदनी का सुख पाता है।
क्यों न वह छाया में बैठे।
धूप में जो उकताता है॥3॥

प्यारे ही से बन सकते हैं।
पराये भी अपने प्यारे।
बचाना है अपने को तो।
और को पत्थर क्यों मा॥4॥

सँभाले, मुँह, करते रहकर।
जीभ की पूरी रखवाली।
जब बुरी गाली लगती है।
तब न दें औरों को गाली॥5॥

जगत में कौन पराया है।
कौन याँ नहीं हमारा है।
मान तो हम सबको देवें।
मान जो हमको प्यारा है॥6॥

क्यों किसी को कोई दुख दे।
क्यों किसी को कोई ताने।
क्यों न अपने जी जैसा ही।
दूसरों के जी को जाने॥7॥

कौन किसको सुख देता है।
किसी को कौन सताता है।
किये का ही फल मिलता है।
कर्म ही सुख-दुख-दाता है॥8॥

(4)

प्रति दिवस उदयाचल पर आ।
भव-दृगों से हो अवलोकित।
कीत्तिक दिनमणि-कर पाता है।
लोक को करके आलोकित॥1॥

सुधा को लिये सिंधु को मथ।
सुधाकर नभ पर आता है।
रात-भर बिहँस-बिहँस उसको।
धारातल पर बरसाता है॥2॥

तारकावलि तैयारी कर।
तिमिर से भिड़ती रहती है।
ज्योति देकर जगतीतल को।
प्रगति-धारा में बहती है॥3॥

वात है मंद-मंद चलता।
महँक से भरता रहता है।
पास आ कलिका कानों में।
विकचता बातें कहता है॥4॥

वारि से भर-भरकर वारिद।
सरस हो-हो रस देता है।
मुग्धता दिखा दिग्वधू की।
बलाएँ बहुधा लेता है॥5॥

व्योमतल में नभ-यान विहर।
विविध कौतुक दिखलाते हैं।
कीत्तिक विज्ञान-विधानों की।
विपुल कंठों से गाते हैं॥6॥

हिमाचल अचल कहाकर भी।
द्रवित हो रचता सोता है।
निर्झरों से झंकृत रहकर।
ध्वनित सरिध्वनि से होता है॥7॥

गगनचुम्बी मंदिर के कलश।
उच्च प्रासाद-पताकाएँ।
प्रचारित करती रहती हैं।
कला-कौशल गुण-गरिमाएँ॥8॥

महँकते हैं रस देते हैं।
हँस लुभाते ही रहते हैं।
फूल सब अपना मुँह खोले।
कौन-सी बातें कहते हैं॥9॥

काम में रत रह गाने गा।
खोजते फिरते हैं चारा।
कौन-सा भेद बताते हैं।
विहग-कुल निज कलरव द्वारा॥10॥

भ्रमर-गुंजन तितली-नर्त्तन।
हो रहा है किस तंत्री पर।
मत्त होती है मधुमक्खी।
कौन-सा मधुप्याला पीकर॥11॥

विपुल वन-उपवन के पादप।
ह परिधानों को पहने।
सजाये किसके सजते हैं।
फूल-फल के पाकर गहने॥12॥

महा उत्ताकल तरंगों पर।
विजय पोतों से पाता है।
मिल गये किसका बल गोपद।
सिंधु को मनुज बनाता है॥13॥

सत्यता से सब दिन किसकी।
सिध्दि के साथ निबहती है।
सफलता-ताला की कुद्बजी
हाथ में किसके रहती है॥14॥

सुशोभित है दिव की दिवता।
दिव्यतम उसकी सत्ता से।
विलसता है वसुंधरातल।
कर्म की कान्त महत्ता से॥15॥

(6) कर्म का त्याग

(1)

यह सुखद पावन भूति-निकेत।
सुरसरी का है सरस प्रवाह।
वह मलिन रोग-भरित अपुनीत।
कर्मनाशा का है अवगाह॥1॥

यह हिमाचल का है वह अंक।
विबुध करते हैं जहाँ विहार।
जहाँ पर प्रकृति-वधूटी बैठ।
गूँधाती है मंजुल मणिहार॥2॥

वह मरुस्थल का है वह भाग।
जहाँ है खर-रवि-कर उत्ताकप।
बढ़ाती है बालुका-उपेत।
जहाँ की भूमि विविध संताप॥3॥

यह प्रकृति देश-काल-अनुकूल।
विधाता का है वह सुविधन।
समुन्नति-आनन परम प्रफुल्ल।
नहीं जिससे बन पाता म्लान॥4॥

वर परम कुटिल काल-संकेत।
इस सरणि का है जो है हीन।
बनाता रहता है जो सतत।
प्राणियों को बहु दीन मलीन॥5॥

यह नियति-कर-विरचित कमनीय।
उच्चतम है वह सत्सोपान।
चढ़े जिस पर संयम के साथ।
सकल भव करता है सम्मान॥6॥

वह महा अज्ञ विवेक-विहीन
कर-रचित है वह गत्ता गँभीर।
गि जिसमें होता है नष्ट।
विभव-गौरव का सबल शरीर॥7॥

एक है सुधा, दूसरा गरल।
प्रथम है धर्म, द्वितीय अधर्म।
उभय की हैं वृत्तिकयाँ विभिन्न।
कर्म है जीवन, मरण अकर्म॥8॥

(2)

शक्ति रहते न सकेंगे रोक।
विलोचन अवलोकन का काम।
नासिका ग्रहण कगी गंधा।
बनेगा श्रवण शब्द का धाम॥1॥

तुरत जायेगी रसना जान।
कौन-से रस का क्या है स्वाद।
न चूकेगा अवसर अवलोक।
कगा आनन वाद-विवाद॥2॥

त्वचा को बिना किये कुछ यत्न।
स्पर्श का हो जाता है ज्ञान।
किया करता है मन सब काल।
बहुत-सी बातों का अनुमान॥3॥

सलिल में तरल तरंग समान।
उठा करते हैं नाना भाव।
वहन करता रहता है चित्त।
निज विषय के चिन्तन का चाव॥4॥

चलेगी क्या न निराली चाल।
आत्मगौरव स्वाभाविक चाह।
निकालेगी न सुअवसर देख।
क्या सुमति अपनी अनुपम राह॥5॥

क्या कगी न मान की आन।
सदा निज विभुता का विस्तार।
क्या न डालेगी लिप्सा ललक।
समादर-कंठ में प्रमुद-हार॥6॥

विदित करने को विश्व-विभूति।
दिखाने को अद्भुत व्यापार।
लगा जो उर से शिर पर्यन्त।
टूट जायेगा क्या वह तार॥7॥

जिस समय तक है सुख-दुख-ज्ञान।
आत्मसत्ता में है अनुराग।
कर्ममय है जबतक संसार।
कर्म का कैसे होगा त्याग॥8॥

(3)

विलोचन अवलोकें छविपुंज।
मुग्ध हों भव-सौन्दर्य विलोक।
किन्तु हो दृष्टि नितान्त पुनीत।
सामने हो अनुभव-आलोक॥1॥

दिखाई पड़े कुवस्तु सुवस्तु।
विदूरित हों तम-तोम-विकार।
सुमति मानवता मुख अवलोक।
बने सद्भाव गले का हार॥2॥

हस्तगत हो वह आत्मिक शक्ति।
छिड़े वह अन्तस्तल का तार।
लोकहितमय हो जिसकी भीड़।
प्रेम-परिपूरित हो झंकार॥3॥

पाठ कर विश्व-बंधुता-मंत्र।
बने मानस कमनीय अतीव।
समझकर सर्वभूतहित मर्म।
सगे बन जायँ जगत के जीव॥4॥

चित्त इतना हो जाय दयार्द्र।
दु:ख औरों का देख सके न।
अगम भवहित का पंथ विलोक।
पाँव पौरुष का कभी थके न॥5॥

न ममता छले न मोहे मोह।
असंयम सके हृदय को छू न।
मिले परमार्थ-शंभु का शीश।
स्वार्थ बन जाय पवित्रा प्रसून॥6॥

सफल होता है मानव-जन्म।
हाथ आ जाता है अपवर्ग
धर्म पर जब परमार्थ-निमित्त।
स्वार्थ हो जाता है उत्सर्ग॥7॥

स्वार्थ-परमार्थ-रहस्य विलोक।
विश्वहित से रख बहु अनुराग।
सदा जो किया जाय सविवेक।
है वही 'कृत्य' कर्म का त्याग॥8॥

(4)

अंधा नयनों में भर दे ज्योति।
बने अज्ञान-तिमिर आलोक।
भरित हो जहाँ मलिनता भूरि।
क उसको उज्ज्वलतम ओक॥1॥

तमोगुण से हो-हो अभिभूत।
तामसी रजनी का व्यापार।
जहाँ हो व्याप्त वहाँ बन भानु।
क निज प्रबल प्रभा-विस्तार॥2॥

जहाँ पर कूटनीति का जाल।
फैल करता हो अत्याचार।
वहाँ बन स्वयं न्याय की मूर्ति।
क उत्पीड़ित का उपकार॥3॥

कृपा-कर सदा पोंछता रहे।
व्यथित पीड़ित जन-लोचन-वारि।
क्लेश विकराल उरग के लिए।
सर्वदा बने सबल उरगारि॥4॥

दौड़कर पकड़े उनका हाथ।
बहाये जिनको संकट-स्रोत।
आपदा-वारिधिक-वारि-निमग्न।
भग्नउर के निमित्त हो पोत॥5॥

दीन का बंधु दुखी-अवलंब।
रंक का धन अनाथ का नाथ।
जाय बन निराधार-आधार।
पतित की गति प्यारे का पाथ॥6॥

किन्तु जो क, क सविवेक।
स्वार्थ तज धारण करके धर्म
जान कर्तव्य दिव्य रख दृष्टि।
समझकर मानवता का मर्म॥7॥

क क्यों कर्म-त्याग का गर्व।
दिखाकर नाना विषय-विराग।
कर्म का त्याग कर सका कौन।
त्याग है कर्र्म-फलों का त्याग॥8॥

(7) कर्म-भोग

(1)

एक भ्रम है अज्ञान-प्रसूत।
बनाता रहता है जो भ्रान्त।
हुआ कर्तव्य-विमूढ़ सदैव।
लोक जिससे हो-हो आक्रान्त॥1॥

मनुज-उत्साह-कुरंग-निमित्त।
है परम जटिल वह महाजाल।
नहीं पाता विमुक्ति-पथ खोज।

बध्द जिसमें रह जो चिरकाल॥2॥
वह समुन्नति-सरि प्रबल प्रवाह।
निरोधाक है मरुधारा समान।
जहाँ होता है उसके सरस।
मनोहर जीवन का अवसान॥3॥

ओज-गिरि-शिखरों पर सब काल।
किया करता है वह पवि-पात।
श्रम-सदन पर गोलों के सदृश।
सदा पहुँचाता है आघात॥4॥

गि जिसमें प्रयत्न-मातंग।
विवश है बनता, है वह गत्ता।
पड़े जिसमें जन-साहस-पोत।
सदा डूबे, है वह आर्वत॥5॥

लोप होती है, उसमें देख।
वायु-सी दीपक-दीप्ति विरक्ति।
मनुज-जीवन-प्रदीप की ज्योति।
अलौकिक कार्यकारिणी शक्ति॥6॥

उस प्रभंजन का है वह वेग।
भरी जिसने विपत्तिक की गोद।
हुआ जिससे सर्वदा विपन्न।
सकल उद्योग-समूह पयोद॥7॥

पा सके पता नहीं बुधवृन्द।
बुध्दि की दूरबीन से देख।
थक गयी दृष्टि दिव्य से दिव्य।
न दिखलाया लिलार का लेख॥8॥

(2)

भाग्य-लिपि मानना बड़ी है भ्रान्ति।
वह पतन गूढ़ गत्ता की है राह।
वह नदी है भयंकरी दुर्लङ्घ्य।
आज तक मिल सकी न जिसकी थाह॥1॥

क्यों न उसको मरीचिका लें मान।
है दिखाती सरस सलिल-आवास।
पर सकी मिल न एक बूँद कदापि।
बुझ न पाई कभी किसी की प्यासे॥2॥

है किसी बाँझ बालिका की बात।
जिसका केवल सुना गया है नाम।
पर किसी को मिला नहीं अस्तित्व।
है कहाँ पर धारा कहाँ धन धाम॥3॥

है कहीं पर नहीं दिखाती नींव।
है कहीं भी जमा न उसका पाँव।
क्यों बतायें उसे न सिकता-भित्तिक।
जब कि है भाव का सदैव अभाव॥4॥

है अमा की तिमिर-भरी वह रात।
कालिमा हो सकी न जिसकी दूर।
और भी हो गयी विपत्तिक-उपेत।
क्या हुआ जो मिलित हुए शशि सूर॥5॥

उस गहनता समान है वह गूढ़।
है बनाता जिसे विपिन बहु घोर।
है जहाँ दृष्टि को न मिलता पंथ।
है जहाँ पर विभीषिका सब ओर॥6॥

वह किसी नट कुवंशिका के तुल्य।
है जगाती अनेक सोये नाग।
बेसुरा बोल फोड़ती है कान।
है भरी छिद्र से घिरी खटराग॥7॥

है किसी ज्ञान-हीन लोक-निमित्त।
व्योम का पुष्प, मरुमही का नीर।
फेर में पड़ न, क्यों न मुँह लें फेर।
वारि की लीक है लिलार-लकीर॥8॥

(3)

भाग्य हैं अज्ञों का अवलंब।
आलसी का है परमाधार।
गले में पड़े भ्रान्ति का फंद।
लुट गया मणिमुक्ता का हार॥1॥

दूसरों का आनन अवलोक।
बढ़ गये कर्महीनता प्यारे।
मिला मिट्टी में साँसत भोग।
सुखों का सोने का संसार॥2॥

सो रहे हैं ऑंखों को मूँद।
समय पर सके नहीं जो जाग।
डालकर हाथ-पाँव वे लोग।
भाग में लगा रहे हैं आग॥3॥

अचाद्बचक हो जाये पविपात।
या बरस जाये सिर पर फूल।
भीरुता का है यह उपभोग।
सदा है भाग्य-भरोसा भूल॥4॥

लोक को काम-चोर की उक्ति।
किया करती है अधिक प्रसन्न।
उसे फल-दल-देते हैं पेड़।
धारा से वह पाता है अन्न॥5॥

बनाता कैसे उसे न मूढ़।
अभावों से कर-कर अभिभूत।
किसी सिर पर जब हुआ सवार।
भाग्यजीवी अभाग्य का भूत॥6॥

जब हमारा अति कुत्सित कर्म।
चलायेगा हम पर करवाल।
उस समय सुन्दर सरस प्रसून।
बरस पायेगा नहीं कपाल॥7॥

है गढ़ी हुई भाग्य-लिपि बात।
कथा उसकी है परम अलीक।
कहाँ पर मिला भाल का अंक।
कल्पिता है लिलार की लीक॥8॥

(4)

भाग्य का रोना रो-रोकर।
वृथा ही नर घबराता है।
भागता है श्रम से, तब क्यों।
भाग्य को कोसा जाता है॥1॥

साँसतें सहता है कोई।
तो किये का फल पाता है।
किया उस बेचा ने क्या।
भाल क्यों ठोंका जाता है॥2॥

उसी के अपने कर्मों से।
मनुज-कष्टों का नाता है।
क्यों पटकते हैं सिर को वह।
किसलिए पीटा जाता है॥3॥

खोलकर नर कानों को जब।
नहीं हित-बातें सुनता है।
बुरी धुन जब जी को भाई।
किसलिए सिर तब धुनता है॥4॥

चलें सारी चालें उलटी।
भली बातों से मुँह मोड़े।
किसलिए माथा तो ठनके।
किसलिए तो सिर को तोड़े॥5॥

काम के काम न कर पायें।
न तो हित की बातें सोचें।
क्यों न तो ठोकर खायेंगे।
चौंककर सिर को क्यों नोचें॥6॥

कर्म का मर्म बिना समझे।
सदा जो बने रहे पोंगा।
तो न होगा कुछ सिर पकड़े।
हित नहीं सिर कूटे होगा॥7॥

किसी का कर्म-भोग क्या है?
कर्म को कर्म बनाता है।
क्यों पड़े भाग्य फेर में नर।
कर्म ही भाग्य-विधाता है॥8॥

(5)

पिता-वीर्य माता-रज द्वारा है प्राणी बन पाता।
उनके वैभव का प्रभाव उस पर है प्रचुर दिखाता।
प्रकृति कान्त-कर कौशल से है सकल क्रियाएँ करता।
भव के नव-नव चित्रों में है 'रंग' ढंग से भरता॥1॥

गर्भाधन-समय से ही है सृजन-कार्य छिड़ जाता।
गर्भकाल में भी कमाल कम नहीं दिखाता धाता।
बालक जन्म-लाभ कर ज्यों-ज्यों है जगती का बनता।
त्यों-त्यों उसका हृदय-भाव है विविध रसों में सनता॥2॥

विविधिक परिस्थितियाँ उसकी संस्कृति को हैं रच देती।
उसकी मति उन्नत हो-हो बहु शिक्षाएँ है लेती।
बड़े मनोहर दिव्य दृश्य ऋतु की कमनीय छटाएँ।
पंच भूत की बहु विभूतियाँ उमड़ी श्याम घटाएँ॥3॥

द्युमणिदेव की परम दिव्यता, विधु का रस बरसाना।
तारक-चय का चमक-चमककर चमत्कार दिखलाना।
बार-बार घटती घटनाएँ कार्य-कलाप-विपुलता।
देश-काल-व्यापार-विशदता लोक-विधन-बहुलता॥4॥

प्राणिपुंज की प्रवंचनाएँ अद्भुत आपाधापी।
समय-प्रवृत्तिक सामयिकता के परिवर्त्तन बहुव्यापी।
इन सबका प्रभाव अनुभव संसर्ग निसर्गज बातें।
कितने उज्ज्वलतम दिन, कितनी बहु तमसावृत रातें॥5॥

रह निर्माण-निरत प्राणी को अनुप्राणित करती हैं।
नाना भाव विभिन्न प्रकृति में यथाकाल भरती हैं।
यह प्रक्रिया-समष्टि लोक-जीवन की है निर्माता।
शारीरिक संपूर्ण शक्तियों की है यही विधाता॥6॥

यह अदृष्ट है, इसीलिए है सदा अदृष्ट कहाती।
माननीय विधिक की महिमामय विधिक है मानी जाती।
वह ललाट पर नहीं लिखित है, है न कर्म की खा।
किसी काल में उसे किसी ने कहीं नहीं है देखा॥7॥

किन्तु वह बहुत बड़ी शक्ति है, है महानतम सत्ता।
उसमें भरी हुई है जन-जीवन की भूरि महत्ता।
सदुपयोग यदि उसका हो, यदि जाना मर्मस्थल हो।
क कर्म के लिए कर्म तो क्यों न कर्म का फल हो॥8॥

(8) कर्मवीर

(1)

हाथ-पाँवों के होते कब।
बन सका वह लँगड़ा-लूला।
भाग्य की भूल-भुलैयाँ में।
करतबी कभी नहीं भूला॥1॥

उसी की गति कुछ है ऐसी।
जो नहीं जाती है कूती।
एक करतूती है ऐसा।
बोलती है जिसकी तूती॥2॥

भले ही गोले चलते हों।
कब सका है जी हिल उनका।
वीर कब घबरा जाते हैं।
दलकता है कब दिल उनका॥3॥

थकाहट थका नहीं सकती।
रुकावट रोक नहीं पाती।
काम करनेवाले की धुन।
तोड़ नभ-ता है लाती॥4॥

जो बड़ी जीवट वाले हैं।
न डिगना है उनकी थाती।
कलेजा कभी नहीं हिलता।
सिल बनी रहती है छाती॥5॥

साहसी का साहस देखे।
सिड़ें हैं अपना सिर देती।
बिदअतें बिदअत सहती हैं।
साँसतें साँस नहीं लेतीं॥6॥

सूख जाये समुद्र जो तो।
उसे दम भर में भरते हैं।
काम है कौन नहीं जिसको।
कलेजेवाले करते हैं॥7॥

पैठते हैं पातालों में।
आसमाँ पर उड़ जाते हैं।
काम जिनको प्यारा है वे।
काम कर नाम कमाते हैं॥8॥

(2)

देख उत्ताकल तरंगों को।
कार्यरत कब घबराता है।
शक्ति कुंभज-सी धारण कर।
पयोनिधिक को पी जाता है॥1॥

कार्य-पथ का बाधक देखे।
वीर पौरुष से भरता है।
पर्वतों को पवि बन-बनकर।
धूल में परिणत करता है॥2॥

विलोक मूर्ति केशरी की।
गरजती शोणित की प्यारेसी।
शक्ति वीरों की बनती है।
सर्वदा सिंहवाहना-सी॥3॥

पुरन्दर के हाथों से भी।
बात कहते वह है छिनता।
वीरवर भ वीरता में।
वज्र को वज्र नहीं गिनता॥4॥

सत्य पथ पर चोटें खाये।
नहीं वह करता है 'सी' भी।
कब हुई वीरों को परवा।
त्रिकशूली के त्रिकशूल की भी॥5॥

देखकर उनकी बलवत्ताक।
सबल का बल भी है टलता।
अलौकिक वीर-चरित्रों पर।
चक्रधार-चक्र नहीं चलता॥6॥

खलों की खलता का सहना।
वीर को है बहुधा खलता।
किसी पत्थर-सी छाती पर।
वही है सदा मूँग दलता॥7॥

कर्मरत वीरों का कौशल।
चमकता है रत्नों को जन।
फूल के गुच्छे बनते हैं।
हाथ में पड़ साँपों के फन॥8॥

(3)

वज्र को तृण कर देने में।
फड़कती है उसकी नस-नस।
सिन्धु को गोपद करता है।
साहसी का सच्चा साहस॥1॥

राह में अड़ी अड़चनों को।
चींटियों-सदृश मसलता है।
वीर जब बढ़ता है आगे।
काम करके ही टलता है॥2॥

काम जब कसकर करती है।
बिगड़ पाता तब कैसे रस।
सिध्दि कृति की मूँठी में है।
हाथ में उसके है पारस॥3॥

विघ्न हैं विघ्न नहीं करते।
नहीं बाधा बाधा देती।
साहसी का देखे साहस।
आपदा साँस नहीं लेती॥4॥

यत्न कर लोग रत्न कितने।
कीचड़ों में से पाते हैं।
फल लगा उकठे काठों में।
धूल में फूल खिलाते हैं॥5॥

बुध्दि के बल से वश में रह।
विविध ढंगों में ढलती है।
बालकर दीपक-मालाएँ।
दामिनी पंखा झलती है॥6॥

क्या नहीं करता है उद्यम।
कर सके क्या न यत्न न्या।
ऑंख के ता बन पाये।
करोड़ों कोसों के ता॥7॥

खुले ताला के जाती है।
निजी पूँजी देखीभाली
किन्तु है कर्म करों में ही।
सब सफलताओं की ताली॥8॥

(4)

विश्व के थाल में भरा व्यंजन।
बस उसी के लिए परोसा है।
जो खड़ा है स्वपाँव पर होता।
बाहुबल का जिसे भरोसा है॥1॥

है भरा वित्ता जाँघ में जिनकी।
मुँह नहीं ताकते किसी का वे।
कर कमाई कुबेर बन घर में।
बालते हैं प्रदीप घी का वे॥2॥

यह भरा है उमंग से होता।
इंच-भर वह नहीं उभरता है।
करतबी काम कर कमाता है।
आलसी दैव-दैव करता है॥3॥

कौन पड़ भाग्य-फेर में पनपा।
आत्मबल है विभूति का दाता।
एक दो बेर को तरसता है।
दूसरा है कुबेर बन जाता॥4॥

नाम हैं कर्म-भोग का लेते।
पर बने हैं बहुत बड़े भोगी।
भाग्य की भूल में पड़े हैं जब।
तब भलाई न दैव से होगी॥5॥

चौंक भूले हुए हरिण की-सी।
किसलिए नर छलाँग भरता है।
कर रहा है सदैव मनमानी।
तो वृथा दैव-दैव करता है॥6॥

जो नहीं ऑंख खोलकर चलते।
देखकर देख जो नहीं पाते।
दैव पर भूल जो करें भूलें।
किसलिए वे न ठोकरें खाते॥7॥

हाथ में विश्वशक्ति है उसके।
वह विबुध-वृन्द-नेत्र-तारा है।
अन्य बलवान कौन है ऐसा।
आत्मबल का जिसे सहारा है॥8॥

(5)

नर नभग के सदृश कैसे।
नभ में उड़ते दिखलाते।
सुरपुर-विमान जैसे ही।
क्यों विविध विमान बनाते॥1॥

क्यों ल तार बन पाते।
क्यों घड़ियाँ घर-घर चलतीं।
क्यों विपुल दीप-मालाएँ।
विद्युत-विभूति से बलतीं॥2॥

बातें सहस्र कोसों की।
क्यों घर-बैठे सुन पाते।
बहु अन्य-देश-गायक क्यों।
आ पास स्वगाने गाते॥3॥

क्यों विविध कलें बन-बनकर।
दिखलातीं दिव्य कलाएँ।
वह बल क्यों मिलता जिससे।
टलती हैं विपुल बलाएँ॥4॥

लाखों कोसों की दूरी।
क्यों परम अल्प हो जाती।
बहु-दूर-स्थित द्वीपावलि।
क्यों घर-ऑंगन बन जाती॥5॥

कैसे भावुक को मिलती।
बहु भव-विधायिनी बातें।
वर ज्योति-विमंडित बनती।
कैसे तमसावृत रातें॥6॥

बन-बन विचित्र यंत्रों में।
अद्भुत क्रीड़ा-शालाएँ।
क्यों हार गले का बनतीं।
मोहक तारक-मालाएँ॥7॥

जो कर्म-कुशलता दिखला।
जागतीं न विज्ञ जमाते।
कैसे अवगत हो पातीं।
विज्ञान की विविध बातें॥8॥

(9) कर्मयोग

छप्पै

नयन मनुज के सदा सफलता-मुख अवलोकें।
दोनों कर बन परम कान्त सुरतरु-फल लोकें।
उसको बहती मिले मरु-अवनि में रस-धारा।
वह पाता ही रहे अमरपुर-सा सुख न्यारा।
कैसे किस साधन के किये? तो उत्तार होगा यही।
सब दिनों कर्मरत जो रहा सिध्दि पा सका है वही॥1॥

उषा राग को लसित कर्म अनुराग बनाता।
कर्मसूत्र में बँधा दिवाकर है दिखलाता।
रजनी-रंजन कर्म कान्त बन है छबि पाता।
अवनीतल पर सरस सुधारस है बरसाता।
है करती रहती विश्व को विदित कर्म की माधुरी।
हो तारकावली से कलित प्रति दिन रजनी सुन्दरी॥2॥

परम पवि-हृदय-मेरु-प्रवाहित निर्झर द्वारा।
प्रस्तर-संकुल अवनि-मध्य-गत सरिता-धारा।
फल से विलसे विटप रंग लाती लतिकाएँ।
सौरभ-भ प्रसून विकच बनतीं कलिकाएँ।
देती है भव को, कर्म की अनुपमता की सूचना।
है कर्म परम पावन सरस सुन्दर भावों में सना॥3॥

कैसे मिलते रत्न क्यों उदधिक-मंथन होता।
कैसे कार्य-कलाप बीज कल कृति के बोता।
कैसे जड़ता मध्य जीवनी-धारा बहती।
कैसे वांछित 'सिध्दि' साधना-कर में रहती।
कैसे तो वारिद-वृन्द वर वारि बरस पाते कहीं।
जो कर्म न होता तो रसा सरसा हो सकती नहीं॥4॥

कर्महीनता मरण, कर्म-कौशल है जीवन।
सौरभ-रहित सुमन-समान है कर्महीन जन।
तिमिर-भरित अपुनीत इन्द्रियों का वर रवि है।
कर्म परम पाषाण-भूत मानस का पवि है।
है कर्म-त्याग की रगों में परिपूरित निर्जीवता।
है कर्मयोग के सूत्र में बँधी समस्त सजीवता॥5॥

(10) शार्दूल-विक्रीडित

क्या है कर्म अकर्म धर्म किसको हैं मानते दिव्य-धी।
क्या है पुण्य-विवेक, पाप किसको विद्वज्जनों ने कहा।
मीमांसा इसकी हुई कम नहीं, है आज भी हो रही।
होता है न रहस्य-भेद फिर भी 'धर्मस्य सूक्ष्मा गति'॥1॥

नाना तर्क-वितर्क हैं विषय हैं वे जो द्विधाग्रस्त हैं।
ऐसे हैं फिर भी विचार कितने जो सत्य-सर्वस्व हैं।
सा मानवधर्मग्रंथ जिनको हैं तत्तवत: मानते।
तो भी क्या वसुधा समस्त जन के वे सर्वथा मान्य हैं॥2॥

प्राणी हैं परिणाम भूत-चय का, है वृत्तिक भी भौतिकी।
पाते हैं उसमें अत: अधिकता भूतोद्भवा भूति की।
होती है पशुता-प्रवृत्तिक प्रबला कर्मेन्द्रियासक्ति से।
देती है उसको बना अधामता की मूर्ति स्वार्थान्धाता॥3॥

हो सावेश नहीं मनुष्य करता है कौन-सी क्रूरता।
हो क्रोधान्धा महा अनर्थ करते होता नहीं त्रास्त है।
क्या है बर्बरता महा अधामता क्या दानवी कृत्य है।
प्राणी है यह सोच ही न सकता विक्षिप्त हो वैर से॥4॥

चेष्टाएँ कितनी हुईं, तम टले, पापांधाता दूर हो।
अत्याचार निरस्त हो, दनुजता हो वज्रपातांकिता।
तो भी क्या पशुता टली, अधामता क्या हो सकी धवंसिता।
क्या धीरे त्रास्त हुई सुने नरक की हृत्कम्पकारी कथा॥5॥

तो क्या है यमयातनातिपरुषा क्या है महा भर्त्सना।
तो क्या हैं विकरार्लमूर्ति यम के उद्दंड दूताग्रणी।
जो हो शंकित अल्प भी न उनसे पापीयसी वृत्तिक तो।
क्या है वैतरणी विभीषण क्रिया क्या नारकीयाग्नि है॥6॥

जो होते कुछ भी संशक, मति तो होती नहीं तामसी।
तो पाती तमसावृता न दृग की ज्योतिर्मयी दृष्टि भी।
तो व्यापी रहती नहीं हृदय में दुर्वृत्तिक की कालिमा।
हैं जो लोग मदांध वे न डरते हैं अंधतामिस्र से॥7॥

पाई है उसमें प्रभूत पशुता दुर्वृत्ताता दानवी।
हिंसा हिंसक जन्तु-सी कुटिलता सर्पाधिकराजोपमा।
उत्पात-प्रियता प्रभंजन समा दुर्दग्धाता वद्रि-सी।
कुंभीपाक विपाक बात सुन क्यों काँपें महापातकी॥8॥

देता है अलि-डंक-सा दुख उसे जो पंक-निक्षेप हो।
होती है अहि-दंशतुल्य परुषा पीड़ा अवज्ञा हुए।
देखे कीत्तिक-कलाप-लोप उसको होता महाताप है।
पाता रौरव-वास दीर्घ दुख है खो गौरवों को सुधी॥9॥

होते हैं उसके विचार-तरु के पत्तो छुरा-धार से।
देते हैं कर जो विपन्न बहुधा रक्ताक्त उद्बोधा को।
जो होके विकलांग भाव उसके होते व्यथाग्रस्त हैं।
तो क्या है असिपत्रा-से नरक का वासी नहीं भ्रष्ट-धी॥10॥

है दुर्गन्धा-निकेतना कलुषिता निन्द्या जुगुप्सा-भरी।
हैं उन्मादमयी सनी रुधिकर से हैं लोक-हिंसारता।
होती है खर गृधारदृष्टि उनकी मांसाशिनी निम्नगा।
भू में ही कितनी कराल कृतियाँ है कालसूत्रोपमा॥11॥

जोंकें हों उसमें प्रकम्पितकरी दुर्दशनों से भरी।
होवें भूरि विषाक्त व्याल उसके फूत्कार से फूँकते।
हो कालानन-सा कराल वह या हो आस्य नागेन्द्र का।
थोड़ी भी कब अंधाकूप परवा पापांधाता को हुई॥12॥

लोहे से विरची विभावसु बनी आलिंगिता कामिनी।
दे अत्यंत व्यथा, नुचें नरक में सर्वांग की बोटियाँ।
सा सुन्दर गात में कुलिश-से काँटे सहस्रों गड़ें।
क्यों कामी सुन वज्रकंटक-कथा कामांधाता से बचे॥13॥

जो खाते पर-मांस हैं न उनका क्यों मांस खाते वही।
जैसा है नर पाप-कर्म, मिलता है दण्ड वैसा वहाँ।
चाहे हो अथवा न हो नरक, क्या आदर्श भी है नहीं।
तो है शोक, विलोक शाल्मलिक्रिया जो हो न शालीनता॥14॥

देखा जो दृग खोल के अवनि तो है वंचितों से भरी।
हैं रोते मिलते अनेक कितने पाते नहीं रोटियाँ।
लाखों का भर पेट अन्न मिलना है स्वप्न के दृश्य-सा।
लाखों की कृमि-भोजनादि नरकों-सी नारकी वृत्तिक है॥15॥

हो-हो लोलुपता-प्रपंच-पतिता हो लोभ से लालिता।
ला, ला, के पड़ फेर में, ललकती, हो लालसा से भरी।
पाती हैं पति यातना निरय की हो लीन दुर्नीति में।
लालाभक्षनिकेतना अललिता लालायिता वृत्तिकयाँ॥16॥

चक्की में पिसते नहीं विवश हो, होते व्यथाग्रस्त क्यों।
कैसे शूकर से कदर्य्य, मुख बा-बा लीलना चाहते।
जो होते न कुकर्म में निरत तो जाता न ता गला।
कैसे शूकर-आननादि नरकों-सी यंत्रणा भोगते॥17॥

देखे दुर्गति पाप में निरत की, कामांधा की दुर्दशा।
नाना शूल-समूह से हृदय को पाके विधा प्रायश:।
बारंबार विलोक मत्त मति को मोहादि से मर्दिता।
होती हैं सुख ज्ञात संडसन की सारी सुनी साँसतें॥18॥

होती है सुखिता पिये रुधिकर के, है नोचती बोटियाँ।
प्यारा है उसको निपात वह है उत्पात-उत्पादिका।
लेती है प्रिय प्राण प्राणिचय का, है त्राकण देती कहाँ।
क्रूरों की कटुतामयी कुटिलता है गृधारभक्षोपमा॥19॥

पक्षी को पशुवृन्द को पटक के हैं पीटती प्रायश:।
बाणों से कर विध्द गृधार बन हैं देती बड़ी यंत्रणा।
हैं कोंचा करती सदैव, बढ़के हैं गोलियाँ मारती।
हैं विश्वासन-सी निकृष्ट, नर की मांसाशिनी वृत्तिकयाँ॥20॥

जो होवें बहु गृधार क्षीण खग को चोंचे चला चोंथते।
जो हो निर्बल को विदीर्ण करते हो क्रुध्द क्रूराग्रणी।
जो निर्जीव शरीर को लिपट हों कुत्तो कई नोचते।
तो श्वानोदन-दृश्य दृष्टिगत क्यों होगा न भू में किसे॥21॥

क्या हैं प्राणिसमूह को न डसते नानामुखी सर्प हो।
होती है उनकी कशा कलुषिता क्या विज्जुतुल्या नहीं।
क्या वे ले शित शेल हैं न कितने हृत्पिंड को बेधाते।
शूल-प्रोत-समान क्या न महि में है शूलदाताग्रणी॥22॥

हैं दुर्गंधामयी महाकलुषिता बीभत्सता से भरी।
नाना मूर्तिमती करालवदना क्रोधान्विता सर्पिणी।
है उच्छृंखलता-रता बहुमुखी आतंक-आपूरिता।
पापी की पतिता प्रवृत्तिक-सदृशा वैश्वासिनी प्रक्रिया॥23॥

है डाला करती विपन्न मुख में सीसा गला प्रायश:।
भोगे भी यह भोग प्राण कढ़ते हैं पातकी के नहीं।
खाता मुद्गर है, प्रहार सहता है, छूटता जी नहीं।
कैसी है यह क्षार कर्दमकृता दु:खान्त दृश्यावली॥24॥

रोता है पिटके कठोर कर से है यंत्रणा भोगता।
बोटी है कटती, समस्त तन को है नोचती दानवी।
है दुर्भाग्य, महा विपत्तिक यह है, है मर्मवेधी व्यथा।
जो रक्षोगण-भोजनावधिक अघी है छूट पाता नहीं॥25॥

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