पारिजात पंचम सर्ग

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पारिजात पंचम सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली मुक्तक काव्य
सर्ग पंचम सर्ग
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पारिजात -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल पंद्रह (15) सर्ग
पारिजात प्रथम सर्ग
पारिजात द्वितीय सर्ग
पारिजात तृतीय सर्ग
पारिजात चतुर्थ सर्ग
पारिजात पंचम सर्ग
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पारिजात सप्तम सर्ग
पारिजात अष्टम सर्ग
पारिजात नवम सर्ग
पारिजात दशम सर्ग
पारिजात एकादश सर्ग
पारिजात द्वादश सर्ग
पारिजात त्रयोदश सर्ग
पारिजात चतुर्दश सर्ग
पारिजात पंचदश सर्ग

दृश्य जगत्

समुद्र

रोला (1)

वर विभूतिमय बनी विलसते विभव दिखाये।
रसा नाम पा सकी रसा किसका रस पाये।
अंगारक-सा तप्तभूत शीतल कहलाया।
किसके बल से सकल धारातल बहु सरसाया॥1॥

शस्यश्यामला बनी हरितवसना दिखलाई।
ललित लता-तृण मिले परम अनुपम छवि पाई।
विकसित-वदना रही पहन कुसुमावलि-माला।
किसको पाकर धारा हो सकी दिव की बाला॥2॥

ह-भ फल-भार नये नव दल से विलसे।
खड़े विविध तरु-निचय खेलते मृदुल अनिल से।
मिले सरसता-हीन अवनि को किसके द्वारा।
मरु को किसने सदय-हृदय बन दी जल-धारा॥3॥

बीज दाघ का जब निदाघ भव में बोता है।
तपन-ताप से तप्त धारातल जब होता है।
दु:ख-वाष्प तब किसके उर में भर जाता है।
ऊपर उठकर नील नीरधार बन पाता है॥4॥

कौन नीर-धार? वह, जो है जग-जीवन-दाता।
एक-एक रजकरण को जो है सिक्त बनाता।
जिससे गिरि, तर, परम सरस तरुवर बनता है।
अति कमनीय वितान गगन में जो तनता है॥5॥

जब सुन्द्र ने परम कुपित हो वज्र उठाया।
काट-काटकर पक्ष पर्वतों को कलपाया।
परम द्रवित उस काल हृदय किसका हो पाया।
किसने बहुतों को स्वअंक में छिपा बचाया॥6॥

किसने अपनी सुता को बना हरि की दारा।
अयुत-वदन अहि-विष से महि को सदा उबारा।
निम्न-गामिनी नदियों को किसने अपनाया।
सुर-समूह ने सुधा सुधाकर किससे पाया॥7॥

गरल-कंठ बन सके गरल के यदि अनुरागी।
तो हो दग्धा नहीं दयालुता निधिक ने त्यागी।
जलते बड़वानल ने किससे जीवन पाया।
कौन सुधानिधिक-सा वसुधा में सरस दिखाया॥8॥

समुद्र की सामयिक मूर्ति

(2)

जलनिधिक प्रभात होते ही।
है बहुत दिव्य दिखलाता।
अवलोक दिवस को आता।
है फूला नहीं समाता॥1॥

स्वागत-निमित्त दिन-पति के।
है पट पाँवड़े बिछाता।
या रागमयी ऊषा की।
रंगत में है रँग जाता॥2॥

या प्रकृति-सुन्दरी हँसती।
सिन्दूर-भरी है आती।
अपना अनुराग उदधिक के।
अंतर में है भर जाती॥3॥

या रमा समा अभिरामा।
रमणी है रंग दिखाती।
जग निज ललामता-लाली।
आलय में है फैलाती॥4॥

कुछ काल बाद वारिधिक में।
है कनक-कान्ति भर जाती।
उर मध्य लालिमा लसती।
है विभामयी बन पाती॥5॥

दिनमणि सहस्र कर से क्या।
निधिक को है कान्त बनाता।
अनुराग-रँगा अन्तर या।
है दिव्य ज्योति पा जाता॥6॥

इस काल कूल का तरुवर।
है प्रभा-पुंज से भरता।
रवि-किरणों पर मुक्तावलि।
है निखर निछावर करता॥7॥

बालुका विलसकर हँसकर।
है बहुत जगमगा जाती।
मिल किरणावलि से लहरें।
हैं मंद-मंद मुसकाती॥8॥

चट्टानें चमक-चमककर।
चमकीली हैं दिखलाती।
अवलोक वदन दिनमणि का।
हैं अन्तर-ज्योति जगाती॥9॥

इतने में दूर कहीं पर।
कुहरा उठता दिखलाता।
फिर नीले नभ में फिरता।
सित जलद-खंड आ जाता॥10॥

थी जगी अयुत-मुख अहि की।
प्रश्वास-प्रक्रिया सोई।
या किसी जलधिक के रिस का।
यह पूर्व रूप था कोई॥11॥

फिर नील-कलेवर होकर
उसने नीलाम्बर पहना।
बन गया वारिनिधिक-तन का।
दिव-ज्योति-पुंज वर गहना॥12॥

इस काल मध्य नभ में आ।
रवि था चौगुना चमकता।
उठती तरंग-माला में।
था बन बहु दिव्य दमकता॥13॥

दिन ढले अचानक नभ में।
है घन-समूह घिर आता।
है वायुवेग से बहती।
भय भू में है भर जाता॥14॥

हैं विटप विधूनित होते।
है छिपता पुलिन दिखाता।
पत्तों पर बूँद पतन का।
है टपटप नाद सुनाता॥15॥

इस समय कँपाता उर है।
गंभीर सिंधु का गर्जन।
अमितावदात अंतस्तल।
उत्ताकल-तरंगाकुल तन॥16॥

विकराल रूप धारण कर।
उत्पातों से लड़ता है।
या प्रबल प्रभंजन पर वह।
बन प्रबल टूट पड़ता है॥17॥

दिवसान्त देखकर फिर वह।
बनता है कान्त कलेवर।
कर लाभ नीलिमा नभ-सी।
बन रवि-कर से बहु सुन्दर॥18॥

शारद सुनील नभतल ज्यों।
पा ज्योति जगमगाता है।
दामिनी-दमक से जैसे
श्यामल घन छवि पाता है॥19॥

कमनीय कान्ति से त्यों ही।
कुछ काल अलंकृत होकर।
निधिक धामिल है बन जाता।
बहु धाम-पुंज से भर-भर॥20॥

दिव-मण्डन दिनमणि को खो।
क्या वह आहें भरता है।
कर वाष्प-समूह-विसर्जन।
या हृदय-व्यथा हरता है॥21॥

दुख-सुख हैं मिले दिखाते।
महि परिवर्तन-शीला है।
है कौन द्वंद्व से छूटा।
भव की विचित्र लीला है॥22॥

रवि छिपे निशामुख-कर ने।
भव-ग्रंथ-पृष्ठ को उलटा।
संकेत समय का पाकर।
पट प्रकृति-नटी ने पलटा॥23॥

रत्नाकर की रत्नाकरता

(3)

वह कमल कहाँ पर मिलता।
जो धाता का है धाता।
पाता वह वास कहाँ पर।
जो सब जग का है पाता॥1॥

भव-विजयी रव-परिपूरित।
प्रिय कंबु कहाँ पा जाते।
रमणी रमणीय रमापति।
कौस्तुभ-मणि किससे पाते॥2॥

जिससे शिव-शक्ति-महत्ता।
बुध भव को हैं बतलाते।
वह गरल भयंकर किससे।
कैसे अभयंकर पाते॥3॥

जिसकी अनुपम सितता से।
सित घन विलसित बन जाते।
वृन्दारक-वन्दित किससे।
ऐरावत-सा गज पाते॥4॥

है अरुण अरुणता-द्वारा।
जिसकी कनकाभा साजी।
दिनपति कैसे पा सकते।
वह अप्रतिहत-गति वाजी॥5॥

जिसके कर वसुधा पर भी।
हैं सदा सुधा बरसाते।
शिव-सहित सर्व सुर किससे।
उस सुधा-सदन को पाते॥6॥

है सदा छलकता रहता।
किसके यौवन का प्यारेला।
सब सुर कैसे पा सकते।
रंभा-सी सुरपुर-बाला॥7॥

प्रति-दिन किसमें मिल पाता।
पुरहूत-चाप छविवाला।
पावस - तन - रत्न - विभूषण।
घन-कंठ मंजु मणि-माला॥8॥

भव - सदाचार - सुमनावलि।
जिसको पाकर है खिलती।
जो सुर को सुर है करती।
वह सुरा कहाँ पर मिलती॥9॥

कामना सदा रहती है।
जिसके प्रिय पय की प्यारेसी।
उस कामधेनु को पाते।
क्यों अमरावती-निवासी॥10॥

मन-वांछित फल पाते हैं।
सुर-वृन्द सर्वदा जिससे।
नन्दन-कानन को मिलता।
वह कलित कल्पतरु किससे॥11॥

सुर-असुर-निकर को कैसे।
मोहनी मूर्ति दिखलाती।
सब अमर-वृन्द को किससे।
अभिलषित सुधा मिल पाती॥12॥

होता निदान रोगों का।
क्यों भोगों के मुख खिलते।
किसके सुअंक से भव को।
धान्वन्तरि-से सुत मिलते॥13॥

क्यों महि का पानी रहता।
कैसे बहता रस-सोता।
तो जीवन जीव न पाते।
जो जग में जलधिक न होता॥14॥

समुद्र का संताप

(4)

क्यों धारती पर पड़े हुए तुम।
सदा तड़पते रहते हो।
क्यों रह-रहकर चिल्लाते हो।
क्यों आकुल बन बहते हो॥1॥

बतला दो क्यों चल दलदल-सा।
हृदय तुम्हारा हिलता है।
बार-बार कँपने से क्यों।
छुटकारा तुम्हें न मिलता है॥2॥

डूब-डूब करके ऑंसू में।
क्यों तुम कलपा करते हो।
वाष्प-समूह-विमोचन कर
क्यों प्रति-दिन आहें भरते हो॥3॥

कौन-सी जलन है वह जिससे।
जलते सदा दिखाते हो।
बहुत क्षुभित होते हो तुम।
क्यों परम कुपित बन पाते हो॥4॥

छिने चतुर्दश रत्न इसी से।
विपुल व्यथा क्या होती है।
उसकी सुधिक वेदनामयी बन।
बिलख-बिलख क्या रोती है॥5॥

हो मर्यादाशील; किन्तु है।
प्रलयंकरी प्रबल धारा।
कलित ललित लीलामय हो; पर
सलिल तुम्हारा है खारा॥6॥

कला-कान्त है परम प्रिय सुअन।
किन्तु नितान्त कलंकित है।
क्षय-रुज-ग्रसित प्रचंड राहु से।
त्रासित प्रवंचित शंकित है॥7॥

सकल-लोकपति-अंक-शायिनी।
रमा-समा दुहिता प्यारी।
है चंचला उलूक-वाहना।
विपुल विलासमयी नारी॥8॥

जिस घन के तुम पूज्य पिता हो।
जिसने सरस हृदय पाया।
जिससे सलिल मिले रहती है।
हरी-भरी महि की काया॥9॥

एक-एक रजकण तक जिससे।
सतत सिक्त हो पाता है।
वह बहुधा कर पवि-प्रहार।
तुम पर ओले बरसाता है॥10॥

क्या ये सारी मर्म-वेधिकनी।
बातें व्यथित बनाती हैं।
विविध रूप धारकर तुमको।
दुख देतीं, बहुत सताती हैं॥11॥

सदा तुम्हा अन्तस्तल में।
हैं विपत्तिक-भंजन रहते।
नहीं समझ में आता कैसे।
तब विपत्तिक वे हैं सहते॥12॥

लाखों बरस कमल-दल पर।
तुमने कमलासन को पाला।
अहह उन्होंने तुमको कैसे।
ऐसे संकट में डाला॥13॥

नहीं सोच सकता कुछ कोई।
क्यों न विबुध हो कैसा ही।
यह संसार रहा रहस्यमय।
सदा रहेगा ऐसा ही॥14॥

सागर की सागरता

(5)

फूल पत्तो जिससे पाये।
मिली जिससे मंजुल छाया।
मधुरता से विमुग्ध हो-हो।
मधुरतम फल जिसका खाया॥1॥

जो सहज अनुरंजनता से।
नयन-रंजन करता आया।
काट उस ह-भ तरु को।
जन-दृगों में कब जल आया॥2॥

धारातल-अंक में विलसती।
लता कल कोमल दलवाली।
कलित कुसुमावलि से जिसकी।
सुछवि मुख की रहती लाली॥3॥

वहन करके सौरभ जिसका।
सौरभित था मारुत होता।
कुचलकर उसे राह चलते।
क्या कभी जन-मन है रोता॥4॥

किसी सुन्दर तरु पर बैठी।
निरखता निखरी हरियाली।
छटा अवलोक प्रसूनों की।
मत्तता कर की सुन ताली॥5॥

मुग्ध हो परम मधुर स्वर से।
गीत जो अपने गाता है।
वेधाकर उस निरीह खग को।
मनुज-मन क्या बिंधा पाता है॥6॥

'सहज अलबेलापन' छवि लख।
जाल में जिसकी फँसता है।
बड़ा ही अनुपम भोलापन।
ऑंख में जिसकी बसता है॥7॥

घास खा, वन में रह, जो मृग।
बिताता है अपना जीवन।
बेधाकर उसको बाणों से।
क्या कलपता है मानव-मन॥8॥

फूल-जैसे लाखों बालक।
पाँव से उसने मसले हैं।
लुट गयी अगणित ललनाएँ।
कभी जो तेवर बदले हैं॥9॥

लोभ की लहरों में उसकी।
करोड़ों कलप-कलप डूबे।
न बेड़ा पार हुआ उनका।
भले थे जिनके मनसूबे॥10॥

लहू की प्यासे न बुझ पाई।
बीतती जाती हैं सदियाँ।
उतरते ही जाते हैं सिर।
रुधिकर की बहती हैं नदियाँ॥11॥

आज तक सके न उतने बस।
उजाडे ग़ये सदन जितने।
सकेगा समय भी न बतला।
उता गये गले कितने॥12॥

पिसे उसके कर से सुरपति।
लुट गया धनपति का सब धन।
नगर सुरपुर-जैसे उजड़े।
मरु बने लाखों नन्दन-वन॥13॥

पर नहीं मनु-सुत के सिर पर।
पड़ सकी सुरतरु की छाया।
सदा उर बना रहा पवि-सा।
कलेजा मुँह को कब आया॥14॥

देख निर्ममता मानव की।
प्रकृति कब नहीं बहुत रोई।
जमा है यह उसका ऑंसू।
नहीं है यह सागर कोई॥15॥

शार्दूल-विक्रीडित

(6)

कैसे तो अवलोकता निज छटा तारों-भरी रात में।
कैसे नर्त्तन देखता सलिल में लाखों निशानाथ का।
होती वारिधिक-मध्य दृष्टिगत क्यों ज्योतिर्मयी भूतियाँ।
आईना मिलता न जो गगन को दिव्याभ अंभोधिक-सा॥1॥

संध्याकाल हुए व्यतीत भव में आये-अमा यामिनी।
सन्नाटा सब ओर पूरित हुए, छाये महा कालिमा।
नीचे-ऊपर अंक में उदधिक के सर्वत्र भू में भ।
तो देखें तमपुंज को प्रलय का जो दृश्य हो देखना॥2॥

क्या धान्वन्तरि के समान सुकृति, क्या दिव्य मुक्तावली।
क्या आरंजित मंजु इन्द्रधानु, क्या रंभा-समा सुन्दरी।
सा रत्न-समूह भव्य भव के अंभोधिक-संभूत हैं।
क्या कल्पद्रुम, क्या सुधा, सुरगवी, क्या इन्दु, क्या इन्दिरा॥3॥

होता है सित दिव्यक्षीर निधिक-सा राका सिता से लसे।
पाता है बहते हिमोपल भ कल्लोल से भव्यता।
जाता है बन कान्त मत्स्य-कुल की आलोक-माला मिले।
देखी है किसने कहाँ उदधिक-सी स्वर्गीय दृश्यावली॥4॥

आभा से भर के सतोगुण हुआ सर्वांग में व्याप्त है।
या सारा जल हो गया सित बने क्षीराब्धिक के दुग्धा-सा।
या भू में, नभ में, समुद्र-तन में है कीत्तिक श्री की भरी।
या राका-रजनी-विभूति-बल से वारीश है राजता॥5॥

है उत्ताकल तरंग में विलसती उद्दीप्त शृंगावली।
किंवा हैं जल-केलि-लग्न जल में ज्योतिष्क आकाश के।
किंवा हीरक-मालिका उदधिक में हैं अर्बुदों शोभिता।
किंवा हैं हिम के समूह बहुश: पाथोधिक में तैरते॥6॥

जैसे हैं तमपुंज भूरि भरते पाथोधिक के अंक में।
वैसे ही बहु दिव्य मीन विधिक ने अंभोधिक को हैं दिये।
आये मूर्तिमती मसी सम निशा घोरांधाकारावृता।
विद्युद्दीप-समान है दमकती वारीश-मत्स्यावली॥7॥

ऊषा-से अनुराग-राग-लसिता शोभा मनोरंजिनी।
स्वर्णाभा रवि के सहस्र कर से राका निशा से सिता।
भू से भूरि विभूति पूत विधु से सच्ची सुधा-सिक्ता।
पाता है रस-धाम वारि-धार से वारीश-मुक्तावली॥8॥

आये घोर विभावरी उदधिक में तेजस्विता है भरी।
या आलोक-निकेत मीन-कुल हैं कल्लोल में डोलते।
किंवा मंथन से पयोधिक-पय के विद्युद्विभा है जगी।
या व्यापी वडवाग्नि-दीप्ति-बल से दीपावली है बली॥9॥

नीले व्योम-समान है विलसता, है मोहता कान्त हो।
है आर्वत-समूह से थिरकता, है नाचता मत्त हो।
है पाता रवि से अलौकिक विभा, राकेश से दिव्यता।
है शोभामय सिंधु की सलिलता लावण्यलीलामयी॥10॥

होती है गुरु गर्जनाति-विकटा विद्युन्निपाताधिकका।
देखे तुंग तरंग-भंग भरती है भीति सर्वांग में।
होते हैं बहु पोत भग्न पल में आर्वत गर्त में।
भू में भूरि विभीषिका भरित है अंभोधिक अंभोधिक-सा॥11॥

है सर्वाधिकक वारि-लाभ करता पाथोधिक पर्जन्य से।
सारा तोय-समूह सर्व नदियाँ देतीं उसे सर्वदा।
तो भी है वह अल्प भी न बढ़ता, सीमा नहीं त्यागता।
पाते हैं किसमें रसाधिकपति-सी गंभीरता धीरेरता॥12॥

पानी है रखता, गँभीर रहता, है धीरेरता से भरा।
जाती पास नहीं कदापि कटुता अस्निग्धता क्षुद्रता।
देखी नीरसता कभी न उसमें, पाई नहीं शुष्कता।
है मर्यादित कौन नीरनिधिक-सा संसार में दूसरा॥13॥


पाई श्री हरि ने, तुरंग रवि ने, मातंग देवेन्द्र ने।
सा उत्ताम रत्न कल्पतरु से वृन्दारकों ने लिये।
देखो मन्थन में अगाधा निधिक के क्या दानवों को मिला।
होती है वर बुध्दि ही जगत में सर्वार्थ की साधिकका॥14॥

टाली भीति नृलोक की, गरलता पाथोधिक की दूर की।
थोड़ा लेकर वक्र अंश शशि का राकेशता दी उसे।
क्या पाया शिव ने सिवा गरल के दे दी सुरों को सुधा।
होते हैं महनीय कीत्तिक महि में माहात्म्य की मूर्तियाँ॥15॥

नाना क्रूर प्रचंड जन्तु कुल के उत्पीडनोत्पात से।
आता है बहु झाग सिंधु-मुख से क्या क्षुब्धाता के बढे।
किंवा सात्तिवक भाव क्रुध्द उर से उत्क्षिप्त है हो रहा।
होता फेनिल है समुद्र बहुधा या शेष फूत्कार से॥16॥

बारंबार सुना विकम्पिकरी अत्युत्कटा गर्जना।
नाना दृश्य दिखा-दिखा प्रलय के आर्वत-माला मिले।
होती है विकराल मूर्ति निधिक की अत्यन्त त्राकसप्रसू।
हो आन्दोलित चंड वायुबल से, कल्लोल से लोल हो॥17॥

छोटे हैं बनते विशाल, लघुता पाते महाद्वीप हैं।
डूबे देश कई, बनी मरु मही भू शस्य से श्यामला।
कैसी है यह नीति सिंधु! तुममें क्या है महत्ता नहीं।
होते हैं जल-मग्न वे नगर जो थे स्वर्र्ग-जैसे लसे॥18॥

खाते हैं लघु को बड़े रिपु बने हैं निर्बलों के बली।
नाना आश्रित व्यर्थ कष्ट कितने हैं भोगते सर्वदा।
हो ऐसे ममता-विहीन निधिक क्यों हो के महाविक्रमी।
सा जंतु-समूह मत्स्य-कुल के हो जन्मदाता तुम्हीं॥19॥

तो क्या हैं गिरि-तुल्य तुंग लहरें क्या है महागर्जना।
है रत्नाकरतातितुच्छ विभुता है व्यर्थ आर्वत की।
तो है हेय अगाधाता सरसता गंभीरता सिंधु की।
कष्टों से बहु आत्ता मत्स्य-कुल जो है त्राकण पाता नहीं॥20॥

पोतों को कर मग्न भग्न कब है होती समुद्विग्नता।
लाखों का कर प्राण-नाश उसको रोमांच होता नहीं।
लाती है अवसन्नता न उसमें संहार-दृश्यावली।
जैसा निर्दयता-निकेत निधिक है, है वज्र वैसा कहाँ॥21॥

हो सम्मानित भव्य भाव प्रतिभू हो भूतियों से भरा।
पापों का फल पा सका सब सदा दुर्वृत्तिकयाँ हैं बुरी।
सा रत्न छिने, विलोड़ित हुआ, है दग्धा होता महा।
पी डाला मुनि ने, तिरस्कृत बना, पाथोधिक बाँधा गया॥22॥

कैसे मान सकें तुझे सरस, तू संताप-सन्देह है।
जो तू है पवि-सा, तुझे तरलता-सर्वस्व कैसे कहे।
हों ऊँची उठती, परन्तु निधिक! हैं तेरी तरंगें बुरी।
होते हैं बहु पोत भग्न जिनसे, है मग्न होती तरी॥23॥

हैं नाना विकराल जन्तु उसमें, आपत्तिकयाँ हैं भरी।
है संहारक, मूर्तिमन्त यम है, आतंक का केन्द्र है।
तो भी है यह बात सत्य भव का कोई यशस्वी सुधीरे।
पारावार अपार दिव्य गुण का है पार पाता नहीं॥24॥

होती है विभुता-विभूति विदिता सद्रत्न-माला मिले।
देती है बतला सदैव गुरुता गंभीरता गर्जना।
गाती है गुण-मालिका सरव हो सारी तरंगावली।
राका रम्य निशा सिता जलधिक को र्सत्कीत्तिक की मूर्ति है॥25॥

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