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*सूर्यसिद्धान्त में 24 घण्टों की चर्चा है, किन्तु वह ग्रन्थ पश्चात्कालीन है और उस पर बाह्य प्रभाव हो सकता है, किन्तु उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में दिन-विभाजन परिपाटी (अर्थात् दिन को घटियों एवं नाड़ियों में बाँटना) अति प्राचीन है और उस पर बाह्य प्रभाव की बात ही नहीं उठती। स्वयं पंतजलि ने नाड़ी एवं घटी के प्रयोग को पुराना माना है। अतः ई0 पू0 दूसरी शती से बहुत पहले नाड़ी एवं घटि का प्रचलन सिद्ध है। पूर्ण रूप से सप्ताह-दिनों पर भी बाह्य प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। बेबिलोनी एवं सीरियाई प्रचलन के प्रभाव की बात उठायी जाती है, किन्तु इसे समानता मात्र से सिद्ध नहीं किया जा सकता। केवल पाश्चात्य हठवादिता प्रमाण नहीं हो सकती।  <ref>कर्निघम (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द 14, पृ0 1</ref>) जहाँ यूरोपियन एवं भारतीय सप्ताह-विभाजन की तालिकाएँ एवं रेखाचित्र दिए हए हैं।  
 
*सूर्यसिद्धान्त में 24 घण्टों की चर्चा है, किन्तु वह ग्रन्थ पश्चात्कालीन है और उस पर बाह्य प्रभाव हो सकता है, किन्तु उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में दिन-विभाजन परिपाटी (अर्थात् दिन को घटियों एवं नाड़ियों में बाँटना) अति प्राचीन है और उस पर बाह्य प्रभाव की बात ही नहीं उठती। स्वयं पंतजलि ने नाड़ी एवं घटी के प्रयोग को पुराना माना है। अतः ई0 पू0 दूसरी शती से बहुत पहले नाड़ी एवं घटि का प्रचलन सिद्ध है। पूर्ण रूप से सप्ताह-दिनों पर भी बाह्य प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। बेबिलोनी एवं सीरियाई प्रचलन के प्रभाव की बात उठायी जाती है, किन्तु इसे समानता मात्र से सिद्ध नहीं किया जा सकता। केवल पाश्चात्य हठवादिता प्रमाण नहीं हो सकती।  <ref>कर्निघम (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द 14, पृ0 1</ref>) जहाँ यूरोपियन एवं भारतीय सप्ताह-विभाजन की तालिकाएँ एवं रेखाचित्र दिए हए हैं।  
 
*अल्बरूनी <ref>अल्बरूनी सचौ, जिल्द 1, अध्याय 19, पृ0 214-215</ref>) ने लिखा है कि भारतीय लोग ग्रहों एवं सप्ताह-दिनों के विषय में अपनी परिपाटी रखते हैं और दूसरे लोगों की परिपाटी को, भले ही वह अधिक ठीक हो, मानने को सन्नद्ध नहीं हैं।
 
*अल्बरूनी <ref>अल्बरूनी सचौ, जिल्द 1, अध्याय 19, पृ0 214-215</ref>) ने लिखा है कि भारतीय लोग ग्रहों एवं सप्ताह-दिनों के विषय में अपनी परिपाटी रखते हैं और दूसरे लोगों की परिपाटी को, भले ही वह अधिक ठीक हो, मानने को सन्नद्ध नहीं हैं।
<math>x + y</math>
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==सम्बंधित लिंक== 
 
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01:28, 25 जुलाई 2010 का अवतरण

(पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास) पेज नं0 313

 

पंचांग (पंजी), संवतों, वर्षों, मासों आदि की गणनाएँ

व्रतों एवं उत्सवों के सम्पादन के सम्यक कालों तथा यज्ञ, उपनयन, विवाह आदि धार्मिक कृत्यों के लिए उचित कालों के परिज्ञानार्थ हमें पंजी या पंचांग की आवश्यकता पड़ती है।

अर्थ

लोक-जीवन के प्रयोग के लिए धार्मिक उत्सवों एवं ज्योतिषीय बातों की जानकारी के हेतु बहुत पहले से ही दिनों, मासों एवं वर्ष के सम्बन्ध में जो ग्रन्थ या विधिक संग्रह बनता है उसे पंचांग या पंजिका या पंजी कहते हैं।

पंचांग के प्रकार

भारत में ईसाइयों, पारसियों, मुसलमानों एवं हिन्दुओं द्वारा लगभग तीस पंचांग व्यवहार में लाए जाते हैं। वर्तमान काल में हिन्दुओं द्वारा नाना प्रकार के पंचागों का प्रयोग होता है। इनमें कुछ तो सूर्य सिद्धान्त पर, कुछ आर्य सिद्धान्त पर, कुछ अपेक्षाकृत पाश्चात्कालीन ग्रन्थों, यथा ग्रह लाघव आदि पर आधारित हैं। कुछ पंचाग चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से, कुछ कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ किए जाते हैं तथा कुछ ऐसे स्थान हैं, यथा हलार प्रान्त , जहाँ पर वर्ष का आरम्भ आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से होता है। गुजरात एवं उत्तरी भारत (बंगाल को छोड़कर) में विक्रम संवत, दक्षिण भारत में शक संवत तथा कश्मीर में लौकिक संवत का व्यवहार होता है। उत्तरी भारत एवं तेलंगाना में मास पूर्णिमान्त अर्थात पूर्णिमा से अन्त होने वाले होते हैं, अन्यत्र बंगाल, महाराष्ट्र एवं दक्षिण भारत में अमान्त अर्थात अमावास्या से अन्त होने वाले होते हैं। इसका परिणाम यह है कि कुछ उपवास एवं उत्सव, जो भारत में सार्वभौम रूप में प्रचलित हैं, यथा एकादशी एवं शिवरात्रि के उपवास एवं श्री कृष्ण जन्म सम्बन्धी उत्सव विभिन्न भागों में विभिन्न सम्प्रदायों के द्वारा दो विभिन्न दिनों में होते हैं तथा कुछ कृत्यों के दिनों में तो एक मास का अन्तर पड़ जाता है। यथा पूर्णिमान्त गणना से कोई उत्सव आश्विन कृष्ण पक्ष में हो सकता है तो वही मास भाद्रपद कृष्ण पक्ष, अमान्त गणना के अनुसार कहला सकता है और वही उत्सव एक मास उपरान्त मनाया जा सकता है। आजकल तो यह विभ्रमता और बढ़ गयी है, जब कि कुछ पंचांग, यथा दृक् या दृकप्रत्यय, जो नाविक पंचांग पर आधारित है, इस प्रकार व्यवस्थित है कि ग्रहण जैसी घटनाएँ उसी प्रकार घटें जैसा कि लोग अपनी आँखों से देख लेते हैं। दक्षिण भारत में बहुत-सी पंजिकाएँ हैं।

  • तमिलनाडु में दो प्रकार हैं-
  1. एक दृक्-गणित पर आधारित और
  2. दूसरा वाक्य-विधि (आर्यभट्ट, पर आधारित मध्यकाल की गणनाएँ, जो अपेक्षाकृत कम ठीक फल प्रकट करती हैं) पर आधारित। *पुदुकोट्टाई पंचांग (वाक्य विधि वाले) उसी नाम वाले राजाओं द्वारा प्रकाशित होते हैं।
  • श्रीरंगम् पंचांग (वाक्य प्रकार) रामानुजीय वैष्णवों द्वारा व्यवहृत होते हैं, किन्तु माध्वों (वैष्णवों के एक सम्प्रदाय के लोगों) के लिए एक अन्य पंचांग है।
  • स्मार्तों द्वारा कञ्जनूर पंचांग व्यवहृत होते है जो अत्यन्त प्रचलित है और वाक्य पंचांग है। स्मार्त लोग शंकराचार्य के अधिकार से प्रकाशित दृक-पंचांग को व्यवहार में नहीं लाते।
  • तेलुगु लोग गणेश दैवज्ञ के ग्रहलाघव (सन 1520 में प्रणीत) पर आधारित सिद्धान्त-चन्द्र पंचांग का प्रयोग करते हैं।
  • मलावार में लोग दृक्-पंचांग का प्रयोग करते हैं किन्तु वह परहित नाम वाली मलावार-पद्धति पर आधारित है न कि तमिलों द्वारा प्रयुक्त दृक्-पंचांग पर।
  • तेलुगु लोग चन्द्र गणना स्वीकार करते हैं और चैत्र शुक्ल से युगादि नामक वर्ष का आरम्भ मानते हैं, किन्तु तमिल सौर गणना के पक्षपाती हैं और अपने चैत्र का आरम्भ मेष विषुव से करते हैं, किन्तु उनके व्रत एवं धार्मिक कृत्य, जो तिथियों पर आधारित हैं, चन्द्रभान के अनुसार सम्पादित होते हैं।
  • बंगाली लोग सौर मास एवं चन्द्र दिनों का प्रयोग करते हैं, जो मलमास के मिलाने से त्रिवर्षीय अनुकूलन का परिचायक है।

पंचांग के सिद्धांत

पंचांग केतीन सिद्धान्त प्रयोग में आते हैं, यथा-

  1. सूर्य सिद्धान्त - अपनी विशुद्धता के कारण सारे भारत में प्रयुक्त है),
  2. आर्य सिद्धान्त - त्रावणकोर, मलावार, कर्नाटक में माध्वों द्वारा, मद्रास के तमिल जनपदों में प्रयुक्त एवं
  3. ब्राह्मसिद्धान्त - गुजरात एवं राजस्थान में प्रयुक्त।

अन्तिम सिद्धान्त अब प्रथम सिद्धान्त के पक्ष में समाप्त होता जा रहा है। सिद्धान्तों में महायुग से आरम्भ कर गणनाएँ की जाती हैं, जो इतनी भारी भरकम हैं कि उनके आधार पर सीधे ढंग से पंचांग बनाना कठिनसाध्य है। अतः सिद्धान्तों पर आधारित 'करण' नामक ग्रन्थों के आधार पर पंचांग निर्मित होते हैं, यथा- बंगाल में मकरन्द, गणेश का ग्रहलाघव। ग्रहलाघव की तालिकाएँ दक्षिण, मध्य भारत तथा भारत के कुछ भागों में प्रयुक्त होती है।

  • सिद्धान्तों में आपसी अन्तर के दो महत्वपूर्ण तत्व हैं -
  1. वर्ष विस्तार के विषय में। वर्षमान का अन्तर केवल कुछ विपलों का है, और
  2. कल्प या महायुग या युग में चन्द्र एवं ग्रहों की चक्र-गतियों की संख्या के विषय में।

यह बात केवल भारत में ही पायी गयी है। आजकल का यूरोपीय पंचांग भी असन्तोषजनक है।

पंचांग का इतिहास

  • प्रारम्भिक रूप में ई. पू. 46 में जुलियस सीज़र ने एक संशोधित पंचांग निर्मित किया और प्रति चौथे वर्ष 'लीप' वर्ष की व्यवस्था की। किन्तु उसकी गणनाएँ ठीक नहीं उतरीं, क्योंकि सन 1582 में वासन्तिक विषुव 21 मार्च को न होकर 10 मार्च को हुआ।
  • पोप ग्रेगोरी 13वें ने घोषित किया कि 4 अक्टूबर के उपरान्त 15 अक्टूबर होना चाहिए (दस दिन समाप्त कर दिए गए)। उसने आगे कहा कि जब तक 400 से भाग न लग जाए तब तक शती वर्षों में 'लीप' वर्ष नहीं होना चाहिए। इस प्रकार 1700, 1800, 1900 ईस्वियों में अतिरिक्त दिन नहीं होगा, केवल 2000 ई. में होगा। तब भी त्रुटि रह ही गयी, किन्तु 33 शतियों से अधिक वर्षों के उपरान्त ही एक दिन घटाया जाएगा।
  • आधुनिक ज्योतिष शास्त्र की गणना से ग्रेगोरी वर्ष 26 सेकेण्ड अधिक है। सुधारवादी प्रोटेस्टेण्ट इंग्लैण्ड ने सन 1740 ई. तक पोप ग्रेगोरी का सुधार नहीं माना, जबकि क़ानून बना कि 2 सितम्बर को 3 सितम्बर न मान कर 14 सितम्बर माना जाए और 11 दिन छोड़ दिए जाएँ। तब भी यूरोपीय पंचांग में दोष रह ही गया। इसमें मास में 28 से 31 दिन होते हैं, एक वर्ष के बाद में 90 से 92 दिन होते हैं; वर्ष के दोनों अर्धांशों, जनवरी से जून एवं जुलाई से दिसम्बर में क्रम से 181 (या 182) एवं 184 दिन होते हैं; मास में कर्म दिन 24 से 27 होते हैं तथा वर्ष एवं मास विभिन्न सप्ताह-दिनों से आरम्भ होते है।
  • व्रतों का राजा ईस्टर सन 1751 के उपरान्त 35 विभिन्न सप्ताह दिनों में अर्थात 22 मार्च से 25 अप्रैल तक पड़ा, क्योंकि ईस्टर 21 मार्च पर या उसके उपरान्त पड़ने वाली पूर्णिमा का प्रथम रविवार है।

संदर्भ पुस्तकें

  • जो लोग भारतीय ज्योतिषशास्त्र (ऐस्ट्रानोमी) के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं वे निम्न ग्रन्थों एवं लेखों को पढ़ सकते हैं—
  1. वारेन का काल संकलित; सूर्यसिद्धान्त (ह्विटनी द्वारा अनूदित);
  2. वराहमिहिर की पञ्जसिद्धान्तिका (थिबो एवं सुधाकर द्विवेदी द्वारा अनुदित);
  3. जे0 बी0 जविस कृत 'इण्डिएन मेट्रालोजी';
  4. शंकर बालकृष्ण दीक्षित का इण्डिएन कैलेण्डर (1896 ई.);
  5. सेवेल कृत 'इण्डिएन कोनोग्राफी' (1912 ई0);
  6. सेवेल कृत 'सिद्धान्ताज़ एण्ड इण्डिएन कैलेण्डर;
  7. लोकमान्य तिलक कृत 'वेदिक क्रोनोजोजी एण्ड वेदांगज्योतिष' (1925);
  8. दीवान बहादुर स्वामकिन्नू पिल्लई कृत 'इण्डिएन एफिमेरिस' (सात जिल्दों में);
  9. वी0 बी0 केतकर कृत 'ज्यातिर्गणितम्, केतकी, वैजयन्ती, ग्रहगणित, एवं एण्डिएन एण्ड फारेन क्रोनोलोज़ी;
  10. जैकोवी के लेख (एपिग्रैफ़िया इण्डिका, जिल्द 1, पृ0 403-460; जिल्द 2, पृ0 487-498; जिल्द 12, पृ0 47, वही, पृ0 158);
  11. सेवेल के लेख (ए0 इ0, जिल्द 14, पृ0 1, 24; जिल्द 15, पृ0 159; जिल्द 16, पृ0 100-221; जिल्द 17, पृ0 17, 173, 205;
  12. इण्डिएन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, जिल्द 4, पृ0 483-511, जिल्द 10, पृ0 332-336);
  13. नाटिकल एल्मैनेक (1935);
  14. प्रो0 सेनगुप्त कृत 'ऐंश्येण्ट इण्डियन क्रोनोलॉजी' 1947, कलकत्ता विश्वविद्यालय;
  15. डॉ0 के एल0 दफ्तरी कृत 'करण-कल्पलता', संस्कृत में;
  16. 'भारतीय ज्योषि-शास्त्र निरीक्षण', मराठी में;
  17. डॉ0 मेघनाथ साहा का लेख 'रिफार्म ऑफ दि इण्डियन कैलेण्डर', साइंस एण्ड कल्चर, कलकत्ता, 1952, पृ0 57-68, 109-123);
  18. रिपोर्ट ऑफ द कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित, 1955, यह बहुत लाभदायक ग्रन्थ है।

काल की अवधियाँ

सभी देशों में काल की मौलिक अवधियाँ एक-सी हैं, यथा दिन, मास, वर्ष, जिसमें ऋतुएँ भी हैं। वर्ष युगों अथवा कालों के अंश या भाग होते हैं जो काल-क्रमों एवं इतिहास के लिए बड़े महत्व के हैं। यद्यपि काल की अवधियाँ, समान हैं तथापि मासों एवं वर्षों की व्यवस्था में दिनों के क्रम में अन्तर पाया जाता है। दिनों की अवधियाँ (उपविभागों), दिन के आरम्भ-काल, ऋतुओं एवं मासों में वर्षों का विभाजन, प्रत्येक मास एवं वर्ष में दिनों की संख्या तथा विभिन्न प्रकार के मासों में अन्तर पाया जाता है। काल के बड़े मापक हैं सूर्य एवं चन्द्र। धुरी पर पृथ्वी के घूमने से दिन बनते हैं। मास प्रमुखतः चन्द्र अवस्थिति है तथा वर्ष सूर्य की प्रत्यक्ष गति है किन्तु वास्तव में यह सूर्य के चतुर्दिक पृथ्वी का भ्रमण है। अयनवृत्तीय वर्ष सूर्य के वासन्तिक विषुव से अग्रिम विषुव तक का काल है। अयनवृत्तीय (ट्रापिकल) वर्ष नक्षत्रीय वर्ष (एक ही अचल तारे पर सूर्य की दो लगातार अर्थात एक के उपरान्त एक पहुँच के बीच का काल) अर्थात साइडरीयल वर्ष से अपेक्षाकृत छोटा है और यह कमी 20 मिनटों की है, क्योंकि वासन्तिक विषुव का बिन्दु प्रति वर्ष 50 सेकेण्ड के रूप में पश्चिम ओर घूम जाता है।[1]

आधुनिक पंचांग

आधुनिक पंचांग में संवत का वर्ष, मास, मास-दिन तथा अन्य धार्मिक एवं सामाजिक रुचियों की बातें पायी जाती हैं। मनुष्य को युग, वर्ष, मास के विस्तारों का ज्ञान बहुत बाद में प्राप्त हुआ। चन्द्र मास 29½ दिन से कुछ अधिक तथा अयनवृत्तीय वर्ष 365¼ दिनों से कुछ कम होता है। ये विषम अवधियाँ हैं। साधारण जीवन एवं पंचांगों के लिए पूर्ण, सम विभक्त दिनों की आवश्यकता होती है। इतना ही नहीं, वर्ष एवं मास का आरम्भ भली-भाँति व्याख्यायित होना चाहिए, और उनमें ऋतुओं एवं किसी संवत का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है। ये ही पंचांग की आवश्यकताएँ हैं। उपर्युक्त दो ज्योतिःशास्त्रीय अवधियों की अतुल्यता ही पंचांगों की जटिलता की द्योतक है।

अन्य पंचांग

  • मुसलमानों ने अयनवृत्तीय वर्ष के विस्तार पर ध्यान न देकर तथा चन्द्र को काल का मापक मानकर इस जटिलता का समाधान कर लिया। उनका वर्ष विशुद्ध चन्द्र वर्ष है। इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमानी वर्ष केवल 354 दिनों का हो गया और लगभग 33 वर्षों में उनके सभी उत्सव वर्ष के सभी मासों में घूम जाते हैं।
  • दूसरी और प्राचीन मिस्र वालों ने चन्द्र को काल के मापक रूप में नहीं माना और उनके वर्ष में 365 दिन थे, 30 दिनों के 12 मास एवं 5 अतिरिक्त दिन। उनके पुरोहित-गण 3000 वर्षों तक यही विधि मानते रहे; उनके यहाँ अतिरिक्त वर्ष या मलमास नहीं थे।
  • ऋग्वेद [2] में भी अतिरिक्त मास का उल्लेख है, किन्तु यह किस प्रकार व्यवस्थित था, यह हमें ज्ञात नहीं। हमें विदित है कि वेदांगज्योतिष ने पाँच वर्षों में दो मास जोड़ दिए हैं। प्राचीन कालों में मासों की गणना चन्द्र से एवं वर्षों की सूर्य से होती थी। लोग पहले से सही जान लेना चाहते थे कि व्रत एवं उत्सवों के लिए पूर्णिमा या परिवा (प्रतिपदा) कब पड़ेगी, कब वर्षा होगी, शरद कब आयेगी और कब बीज डालें जाएँ और अन्न के पौधे काटे जाएँगे। यज्ञों का सम्पादन वसन्त ऋतु में या अन्य ऋतुओं में, प्रथम तिथि या पूर्णिमा को होता था।
  • चन्द्र वर्ष के 354 दिन सौर वर्ष के दिनों से 11 कम पड़ते थे। अतः यदि केवल चन्द्र वर्ष की अभियोजना हो तो ऋतुओं को पीछे हटाना पड़ जाएगा। इसीलिए कई देशों में अधिक मास की अभियोजना निश्चित हुई।
  • यूनानियों में ऑक्टाएटेरिस (आठ वर्षों के वृत्त) की योजना थी, जिसमें 99 मास थे, जिनमें तीसरा, पाँचवाँ एवं आठवाँ मलमास थे। इसके उपरान्त 19 वर्षों का मेटानिक वृत्त बना, जिसमें 7 अधिक मास (19×12+7=235) निर्धारित हुए।
  • ओल्मस्टीड [3] का कथन है कि बेबिलोन में मलमास-वृत्त आठ वर्षों का था, जिसे यूनानियों ने अपनाया।
  • फादिरंघम [4] का कहना है कि बेबिलोनी मलमास – पद्धति ई0 पू0 528 तक असंयमित थी तथा यूनान में ई0 पू0 पाँचवीं एवं चौथी शतियों में अव्यवस्थित थी। [5]

भारत में संवत का प्रयोग

भारत में जन्म-पत्रिकाओं के उपयोग के लिए संवतो का प्रयोग लगभग 2000 वर्षों से अधिक प्राचीन नहीं है। संवत का लगातार प्रयोग हिन्दू-सिथियनों द्वारा, जिन्होंने आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत में लगभग ई0 पू0 100 एवं 100 ई0 के बीच शासन किया, उनके वृत्तान्तों में हुआ। यह बात केवल भारत में ही नहीं पायी गयी, प्रत्युत मिस्र, बेबिलोन, यूनान एवं रोम में संवत का लगातार प्रयोग बहुत आगे चलकर शुरू हुआ।

  • ज्योतिर्विदाभरण में [6] कलियुग के 6 व्यक्तियों के नाम आए हैं, जिन्होंने संवत चलाये थे, यथा-
  1. युधिष्ठर,
  2. विक्रम,
  3. शालिवाहन,
  4. विजयाभिनन्दन,
  5. नागार्जुन एवं
  6. कल्की, जो क्रम से 3044, 135, 18000, 10000, 400000 एवं 821 वर्षों तक चलते रहे। प्रचीन देशों में संवत का लगातार प्रयोग नहीं था, केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त होते थे।

  1. अशोक के आदेश लेखनों में केवल शासन-वर्ष ही प्रयुक्त है।
  2. कौटिल्य [7] ने मालगुज़ारी संग्रह करने वाले के कार्य की व्यवस्था करने के सिलसिले में कालों की ओर भी, संकेत किया है, जिनसे मालगुज़ारी एकत्र करने वाले सम्बन्धित थे, यथा राजवर्ष, मास, पक्ष, दिन आदि।[8]
  3. फ्लीट, शामशास्त्री आदि ने वचन को कई ढंग से अनूदित किया है। विभिन्न अर्थों का कारण है 'व्युष्ट शब्द का प्रयोग, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'प्रातःकाल या प्रकाश' और यहाँ तात्पर्य है 'वर्ष का प्रथम दिन, जो शुभ माना जाता है।' [9] प्रस्तुत लेखक इस कथन का अनुवाद यों करता है, "राजवर्ष, मास, पक्ष, दिन, शुभ (वर्ष का प्रथम दिन), तीन ऋतुओं, यथा वर्षा, हेमन्त, ग्रीष्म के तीसरे एवं सातवें पक्ष में एक दिन (30 में) कम है, अन्य पक्ष पूर्ण हैं (मास में पूर्ण 30 दिन हैं), मलमास (अधिक मास) पृथक (कालावधि) है। ये सभी वे काल हैं, जिन्हें मालगुज़ारी संग्रह करने वाला ध्यान में रखेगा।[10]
  4. यही गणना व्यवहार रूप से कुषाणों एवं सातवाहनों के कालों तक चलती गयी, अर्थात शासन-वर्ष ही प्रयुक्त होते रहे। सैकड़ों वर्षों तक भारत में विभिन्न प्रकार के संवत प्रयोग में आते रहे, इससे काल निर्णय एवं इतिहास में बड़े-बड़े भ्रम उपस्थित हो गए हैं।[11]

संवत के प्रकार

  1. श्रीहर्ष,
  2. विक्रमादित्य,
  3. शक,
  4. वल्लभ एवं
  5. गुप्त संवत।
  • प्राचीन काल में भी कलियुग के आरम्भ के विषय में विभिन्न मत रहे हैं। आधुनिक मत है कि कलियुग ई0 पू0 3102 में आरम्भ हुआ। इस विषय में चार प्रमुख दृष्टिकोण हैं-
  1. युधिष्ठर ने जब राज्य सिंहासनारोहण किया;
  2. यह 36 वर्ष उपरान्त आरम्भ हुआ जब कि युधिष्ठर ने अर्जुन के पौत्र परीक्षित को राजा बनाया;
  3. पुराणों के अनुसार कृष्ण के देहावसान के उपरान्त यह आरम्भ हुआ।[13];
  4. वराहमिहिर के मत से युधिष्ठरसंवत का आरम्भ शक-संवत के 2426 वर्ष पहले हुआ, अर्थात दूसरे मत के अनुसार, कलियुग के 653 वर्षों के उपरान्त।
  • ऐहोल शिलालेख ने सम्भवतः दूसरे मत का अनुसरण किया है; क्योंकि उसमें शक-संवत 556 से पूर्व 3735 कलियुग संवत माना गया है।[14]
  • पश्चात्कालीन ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुसार कलियुग संवत के 3719 वर्षों के उपरान्त शक संवत का आरम्भ हुआ। [15]
  • कलियुग संवत के विषय में सबसे प्राचीन संकेत आर्यभट्ट द्वारा दिया गया है। उन्होंने कहा है कि जब वे 23 वर्ष के थे तब कलियुग के 3600 वर्ष व्यतीत हो चुके थे अर्थात वे 473 ई. में उत्पन्न हुए।
  • एक चोल वृत्तान्तालेखन कलियुग संवत 4044 (943 ई0) का है। [16], जहाँ बहुत-से शिलालेखों में उल्लिखित कलियुग संवत का विवेचन किया गया है।
  • मध्यकाल के भारतीय ज्योतिषियों ने माना है कि कलियुग एवं कल्के प्रारम्भ में सभी ग्रह (सूर्य एवं चन्द्र समेत) चैत्र शुक्ल-प्रतिपदा को रविवार के सूर्योदय के समय एक साथ एकत्र थे।[17]
  • बर्गेस एवं डा0 साहा जैसे आधुनिक लेखक इस कथन को केवल कल्पनात्मक मानते हैं। किन्तु प्राचीन सिद्धान्त लेखकों के इस कथन को केवल कल्पना मान लेना ठीक नहीं है। यह सम्भव है कि सिद्धान्त लेखकों के समक्ष कोई अति प्राचीन परम्परा रही हो।[18]
  • प्रत्येक धार्मिक कृत्य के संकल्प में कृत्यकर्ता को काल के बड़े भागों एवं विभागों को श्वेतावाराह कल्प के आरम्भ से कहना पड़ता है, यथा वैवस्वत मन्वन्तर, कलियुग का प्रथम चरण, भारत में कृत्य करने की भौगोलिक स्थिति, सूर्य, बृहस्पति एवं अन्य ग्रहों वाली राशियों के नाम, वर्ष का नाम, मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र, योग एवं करण के नाम।
  • देवल का कथन है कि यदि कृत्यकर्ता मास, पक्ष, तिथि, (कृत्य के) अवसर का उल्लेख नहीं करता तो वह कृत्य का फल नहीं प्राप्त करेगा [19]। यह है भारतीयों के धार्मिक जीवन में संवतों, वर्षों एवं इनके भागों एवं विभागों की महत्ता। अतः प्रत्येक भारतीय (हिन्दू) के लिए पंचांग अनिवार्य है।

विक्रम संवत

  • विक्रम संवत के उद्भव एवं प्रयोग के विषय में कुछ कहना कठिन है। यही बात शक-संवत के विषय में भी है। किसी विक्रमादित्य राजा के विषय में, जो ई0 पू0 57 में था, सन्देह प्रकट किए गए हैं। इस संव्त का आरम्भ गुजरात में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से (नवम्बर, ई0 पू0 58) है और उत्तरी भारत में चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (अप्रैल, ई0 पू0 58) से। बीता हुआ विक्रम वर्ष बराबर है ईस्वी सन्+57। कुछ आरम्भिक शिलालेखों में ये वर्ष कृत के नाम से आये हैं [20]
  • विद्वानों ने सामान्यतः कृत संवत को विक्रम संवत का पूर्ववर्ती माना है। किन्तु 'कृत' शब्द के प्रयोग की व्याख्या सन्तोषजनक नहीं हो सकी है। कुछ शिलालेखों में मावलगढ़ का संवत उल्लिखित है, यथा नरवर्मा का मन्दसौर शिलालेख। कृत एवं मालव संवत एक ही कहे गए हैं, क्योंकि दोनों पूर्वी राजस्थान एवं पश्चिमी मालवा में व्यवहृत हुए हैं। यह द्रष्टव्य है कि कृत के 282 एवं 295 वर्ष तो मिलते हैं किन्तु मालव संवत के इतने प्राचीन शिलालेख नहीं मिलते। यह सम्भव है कि कृत नाम पुराना है और जब मालवों ने उसे अपना लिया तो वह 'मालव-गणाम्नात' या 'मालव-गण-स्थिति' के नाम से पुकारा जाने लगा। किन्तु यह कहा जा सकता है कि यदि कृत एवं मालव दोनों बाद में आने वाले विक्रम संवत की ओर ही संकेत करते हैं, तो दोनों एक साथ ही लगभग एक सौ वर्षों तक प्रयोग में आते रहे, जैसे कि हमें 480 कृत वर्ष एवं 461 मालव वर्ष प्राप्त होते हैं। यह मानना कठिन है कि कृत संवत का प्रयोग कृतयुग के आरम्भ से हुआ। यह सम्भव है कि 'कृत' का वही अर्थ है जो 'सिद्ध' का है (यथा 'कृतान्त' का अर्थ है 'सिद्धान्त') और यह संकेत करता है कि यह कुछ लोगों की सहमति से प्रतिष्ठापित हुआ है। 8वीं एवं 9वीं शती से भिन्नता प्रदर्शित करने के हेतु सामान्यतः केवल संवत नाम से उल्लिखित है। चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ के वेडरावे शिलालेख से पता चलता है कि राजा ने शक संवत के स्थान पर चालुक्य विक्रम संवत चलाया, जिसका प्रथम वर्ष था 1076-77 ई0।

शक संवत

लगभग 500 ई. के उपरान्त संस्कृत में लिखित सभी ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थ शक संवत का प्रयोग करते पाए गए हैं। इस संवत का यह नाम क्यों पड़ा, इस विषय में कई एक मत हैं। इसे कुषाण राजा कनिष्क ने चलाया या किसी अन्य ने, अभी तक कुछ भी अन्तिम रूप से नहीं कहा जा सका है। यह एक ऐसी समस्या है जो भारतीय इतिहास एवं काल निर्णय की अत्यन्त कठिन समस्याओं में परिगणित होती है। वराहमिहिर ने इसे शक-काल [21] तथा शकेन्द्रकाल या शक-भूपकाल [22] कहा है। उत्पल (लगभग 966 ई0) ने बृहत्संहिता[23] की व्याख्या में कहा है कि जब विक्रमादित्य द्वारा शक राजा मारा गया तो यह संवत चला। इसके वर्ष चन्द्र-सौर-गणना के लिए चैत्र से एवं सौर गणना के लिए मेष से आरम्भ होते थे। इसके वर्ष सामान्यतः बीते हुए हैं और सन 78 ई0 के वासन्तिक विषुव से यह आरम्भ किया गया है। सबसे प्राचीन शिलालेख, जिसमें स्पष्ट रूप से शक संवत का उल्लेख है, चालुक्य वल्लभेश्वर का है, जिसकी तिथि 465 शक संवत अर्थात 543 ई0 है। क्षत्रप राजाओं के शिलालेखों में वर्षों की संख्या व्यक्त है, किन्तु संवत का नाम नहीं है, किन्तु वे संख्याएँ शक काल की द्योतक हैं, जैसा कि सामान्यतः लोगों का मत है। कुछ लोगों ने कुषाण राजा कनिष्क को शक संवत का प्रतिष्ठापक माना है। पश्चात्कालीन, मध्यवर्ती एवं वर्तमान कालों में, ज्योतिर्विदाभरण में भी यही बात है, शक संवत का नाम शालिवाहन है। किन्तु संवत के रूप में शालिवाहन रूप 13वीं या 14वीं शती के शिलालेखों में आया है। यह सम्भव है कि सातवाहन नाम [24] शालवाहन बना और पुनः शालिवाहन के रूप में आ गया। [25] कश्मीर में प्रयुक्त सप्तर्षि संवत एक अन्य संवत है, जो लौकिक संवत के नाम से भी प्रसिद्ध है। राजतरंगिणी [26] के अनुसार लौकिक वर्ष 24 गत शक संवत 1070 के बराबर है। इस संवत के उपयोग में सामान्यतः शताब्दियाँ नहीं दी हुई हैं। यह चन्द्र-सौर संवत है और चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा को ई0 पू0 अप्रैल 3076 में आरम्भ हुआ।

  • बृहत्संहिता [27] ने एक परम्परा का उल्लेख किया है कि सप्तर्षि एक नक्षत्र में सौ वर्षों तक रहते हैं और जब युधिष्ठर राज्य कर रहे थे तो वे मेष राशि में थे। सम्भवतः यही सौ वर्षों वाले वृत्तों का उद्गम है।
  • बहुत-से अन्य संवत् भी थे, यथा वर्धमान, बुद्ध-निर्वाण, गुप्त, चेदि, हर्ष, लक्ष्मणसेन (बंगाल में), कोल्लम या परशुराम (मलावार में), जो किसी समय (कम से कम लौकिक जीवन में) बहुत प्रचलित थे।

काल या युग

  • नारदसंहिता [28] में ऐसा आया है कि काल के नौ प्रकार के मान थे, -
  1. ब्राह्म - ब्रह्मा का,
  2. दैव - देवों का,
  3. मानुष - मानव,
  4. पित्र्य -पितरों का,
  5. सौर,
  6. सावन,
  7. चन्द्र,
  8. नक्षत्र एवं
  9. बृहस्पत्य, किन्तु सामान्य भौतिक कार्यों में इनमें केवल पाँच ही प्रयुक्त होते हैं।[29]
  • वेदांग-ज्योतिष ने चार प्रकार दिए हैं, क्योंकि उसमें आया है कि एक युग (पाँच वर्षों के) में 61 सावन मास, 62 चान्द्र मास, 67 नाक्षत्र मास होते हैं।
  • हेमाद्रि [30] ने केवल तीन वर्ष-मान बताये हैं, यथा चन्द्र, सौर एवं सावन।
  • माधव [31] ने दो और लिखे हैं, यथा नक्षत्र एवं बृहस्पत्य।
  • विष्णुधर्मोत्तर ने चार का उल्लेख किया है । हेमाद्रि द्वारा वर्णित तीन अधिकतर धार्मिक एवं लौकिक कार्यों में प्रयुक्त होते रहे हैं।

चन्द्रमास

एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक की अवधि को चन्द्र मास कहते हैं, और ऐसे 12 मासों से 354 दिनों वाला एक चन्द्रवर्ष बनता है। इसे एक चन्द्रोदय से दूसरे चन्द्रोदय तक की अवधि 'ल्यूनेशन' भी कहते हैं। चन्द्र मास की लम्बाई (अवधि या विस्तार) 29.246 से 29.817 दिनों तक की होती है, क्योंकि चन्द्रकक्षा के थोड़े झुकाव (विपथगामिता) एवं अन्य कारणों से कुछ-न-कुछ अन्तर पड़ जाता है, किन्तु मध्यम लम्बाई है 29.53059 दिन।

सौर मास

सौर मास उस अवधि का सूचक है जो सूर्य द्वारा एक राशि को पार करने से बनती है। इस प्रकार के 12 मासों से सौर वर्ष बनता है तथा सौर वर्ष का प्रथम दिन सौर मास का प्रथम दिन मेष होता है। यदि सूर्य का राशि में प्रवेश दिन में होता है तो वह दिन मास का प्रथम दिन होता है। यदि प्रवेश रात्रि में होता है तो दूसरा दिन मास का प्रथम दिन होता है। किसी राशि में सूर्य के प्रवेश का काल विभिन्न पंचांगों में विभिन्न होता है, किसी पंचांग में सूर्यास्त के पूर्व और किसी में सूर्यास्त के उपरान्त होता है। अतः मास के प्रथम दिन के विषय में एक दिन का अन्तर हो सकता है। विभिन्न अयनाशों एवं वर्ष की लम्बाई के अन्तर के प्रयोग से दृक्, वाक्य एवं सिद्धान्त पंचांगों में अन्तर पड़ सकता है और पर्व-उत्सवों के विषय में वर्ष के प्रथम दिन में भिन्नता पाई जा सकती है।

नक्षत्र मास

नक्षत्र मास वह है जिसमें 27 नक्षत्रों में चन्द्र के गमन की अवधि पूरी होती है।

सावन वर्ष

सावन वर्ष 30 दिनों के 12 मासों का होता है और दिन की गणना एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक होती है।

बार्हस्पत्य वर्ष

बार्हस्पत्य वर्ष वह है जो एक राशि में बृहस्पति के भ्रमण से बनता है (लगभग 361 दिन का वर्ष)। आजकल की गणना के अनुसार बृहस्पति सूर्य के चारों ओर 11.83 वर्षों में चक्कर लगा लेता है। ये चार या पाँच काल-विभाग प्रारम्भिक ग्रन्थों में नहीं वर्णित हैं। यहाँ तक की पश्चात्कालीन गणना में चार विभागों का उपयोग नहीं हुआ है, यद्यपि ज्योतिःशास्त्रीय ग्रन्थों में उनका उल्लेख अवश्य हुआ है।

मास की गणना

कौटिल्य [32] ने व्याख्या दी है कि श्रमिकों का मास 30 अहोरात्र (दिन-रात्र) का होता है, सौर मास 1 दिन बड़ा होता है (एक मास में 30½ दिन), चन्द्र मास में 1 दिन कम (29½ दिन), नक्षत्र मास में 27 दिन, मलमास में 32 दिन (या 32वें मास में यह घटित होता है)। जो लोग घोड़ों को चराते हैं (या रखवाली करते हैं) उनके मास में (पारिश्रमिक के लिए) 35 दिन तथा हस्तिवाहकों (पीलवानों) के मास में (पारिश्रमिक के लिए) 40 दिन होते हैं।[33]

  • ब्राह्मस्फटसिद्धान्त [34] में आया है कि सौर गणना से युग, वर्ष, विषुव, अयन, ऋतुओं, दिन एवं रात्रि की वृद्धि का ज्ञान होता है, चन्द्र गणना से तिथियों, करणों, मलमास, मास या क्षयमास, रात्रि के कृत्यों का ज्ञान होता है। सावन गणना से यज्ञों, सवनों (तीन सोम यज्ञों), ग्रह-गतियों, उपवासों, जनन-मरण-आशौचों, चिकित्सा, प्रायश्चित्तों तथा अन्य धार्मिक कृत्यों का परिचय मिलता है। [35]
  • आधुनिक काल में वर्ष का आरम्भ भारत के विभिन्न भागों में कार्तिक या चैत्र मास में होता है। प्राचीन कालों में विभिन्न देशों में विभिन्न उपयोगों के लिए विभिन्न मासों में वर्ष का आरम्भ होता था। कुछ वैदिक वचनों से प्रकट होता है कि गणना पूर्णिमान्त थी और वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा के उपरान्त आरम्भ होता था और वसन्त वर्ष की प्रथम ऋतु था [36]
  • कालनिर्णय [37] में माधन ने कहा है कि वेद पूर्णिमान्त मास पर आरूढ़ हैं।
  • स्मृतिचन्द्रिका [38] का कथन है कि दक्षिणापथ में अमान्त एवं उत्तरापथ (उत्तर भारत) में पूर्णिमान्त गणना होती है।
  • वेदांगज्योतिष [39] के मत से युग (पाँच वर्ष) का प्रथम वर्ष माघ शुक्ल (मकर सक्रांन्ति या उत्तरायण) से आरम्भ होता है।
  • अल्बरूनी [40] का उल्लेख है कि चैत्र, भाद्रपद, कार्तिक, मार्गशीर्ष के आय-व्यय-निरीक्षण-कार्यालय में कर्मसंवत्सर चन्द्र था जो आषाढ़ की पूर्णिमा को समाप्त होता था।
  • महाभारत, वनपर्व [41] में वर्ष के चैत्रारम्भ का उल्लेख है। यह सम्भव हे कि वर्ष मार्गशीर्ष से आरम्भ होता था, क्योंकि अनुशासन, [42] ने मार्गशीर्ष से कार्तिक तक के एकभक्त व्रत के फलों का वर्णन किया है।
  • कृत्यरत्नाकर [43] ने ब्रह्म पुराण को उद्धृत कर लिखा है कि कृतयुग में मार्गशीर्ष की प्रतिपदा से वर्ष आरम्भ होता था। कृतयुग में मार्गशीर्ष की प्रतिपदा से वर्ष आरम्भ होता था।
  • विष्णुधर्मोत्तर (1|82|8) का कथन है कि षष्ट्यब्द का प्रभव नामक प्रथम वर्ष माघ शुक्ल से आरम्भ हुआ, जब सूर्य एवं चन्द्र धनिष्ठा नक्षत्र में थे और बृहस्पति से उनका योग था।
  • बृहस्पति संहिता [44] में षष्ट्यब्द के विभव से 60 वें क्षय तक के फलों का उल्लेख है। [45]। षष्ट्यब्द के प्रत्येक वर्ष के साथ 'संवत्सर' शब्द जुड़ा हुआ है। दक्षिण में प्रत्येक वर्ष के आरम्भ में बार्हस्पत्य नाम सदा परिवर्तित रहा है; किन्तु उत्तर भारत में 'प्रभव' के स्थान पर 'विजय' शब्द रहा है। बार्हस्पत्य वर्ष का विस्तार 361 9267 दिनों का है और यह नाक्षत्र वर्ष से 4.23 दिन कम हैं। इसका परिणाम यह है कि 85 नाक्षत्र वर्षों में 86 बार्हस्पत्य वर्ष है और 85 वर्षों के उपरान्त एक वर्ष का क्षय हो जाता है।

मास

मासों का विषय अत्यन्त जटिल है। भारतीयों ने आदि काल से ही चन्द्र सौर पंचांग का प्रयोग किया है और यही बात बेबिलोन, चाल्डिया के लोगों, यहूदियों एवं चीनियों के बीच पायी गयी है। अतः सभी ने मलमास का सहारा लिया है। किन्तु भारतीयों में क्षय मास बहुत विरल था, जिसका अन्य देशों में अभाव था। यह अन्तर सूर्य एवं चन्द्र की गतियों एवं स्थानों की गणना के विभिन्न ढंगों के कारण उपस्थित हुआ। अधिक मास की अनिवार्यता पर कुछ शब्द यहाँ पर दिए जाते हैं। सौर वर्ष चन्द्र वर्ष से 11 दिनों से थोड़ा अधिक बड़ा होता है। यह अधिकता लगभग 32 मासों में से एक चन्द्र मास की होती है। बेबिलोनियों के 19 वर्षों के एक वृत्त 7 मलमास अर्थात् सब मिलाकर 235 चन्द्र मास थे। इसी वृत्त को यूनान में अथेनियानिवासी मेटान के नाम पर मेटानिक साइकिल (वृत्त) कहा गया। इसी के आधार पर यहूदी एवं ईसाई पंचांग बने, विशेषतः ईस्टर से सम्बन्धित। वेदांग-ज्योतिष से प्रकट है कि एक युग (पाँच वर्षों के वृत्त) में दो मलमास होते थे, एक था ढाई सौ वर्षों के उपरान्त, दूसरा आषाढ़ और दूसरा युग के अन्त में दूसर पौष। यही बात कौटिल्य में है। पुराणों में मलमास की विविध अवधियों का उल्लेख है। एक अपेक्षाकृत अधिक निश्चित नियम यह है कि वह चन्द्र मास, जिसमें संक्रान्ति नहीं होती, अधिक कहलाता है और आगे के मास के नाम से, जो शुद्ध या निज या प्राकृत कहलाता है, द्योतित होता है। यदि एक सौर मास में दो अमावस्या पड़ती हो तब मलमास होता है। चन्द्र मास में जब दो संक्रान्तियाँ होती हैं तो दो मास हो जाते हैं, जिनमें प्रथम स्वीकृत होता है और दूसरा छोड़ दिया जाता है। यह दूसरा क्षयमास कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब एक मास में दो संक्रान्तियाँ होती हैं तो क्षयमास होता है। वह चन्द्र मास जिसमें सूर्य मेष राशि में प्रविष्ट होता है, चैत्र तथा जिसमें वह वृषभ राशि में प्रवेश करता है वह वैशाख कहलाता है।

  • अधिक एवं क्षय मासों के विषय में कुछ और कहना आवश्यक है। फाल्गुन से आश्विन तक के सात मास केवल अधिक हो सकते हैं, क्षय नहीं।
  • कार्तिक एवं मार्गशीर्ष अधिक एवं क्षय दोनों हो सकते हैं, किन्तु ऐसा बहुत कम ही होता है। मास अधिक हो सकता है, किन्तु यह अधिक या क्षय कभी नहीं हुआ है। [46], किन्तु शुद्धिकौमुदी [47] में आया है कि शक संवत 1397 में माघ मास का क्षय हुआ था।
  • मलमासतत्त्व [48] में उद्धरण आया है कि माघ मलमास हो सकता है, किन्तु पौष नहीं।
  • केतकर [49] के मत से पौष के अधिक मास होने की सम्भावना नहीं है किन्तु वह मार्गशीर्ष की अपेक्षा क्षय मास होने की अधिक सम्भावना रखता है। क्षय मास सामान्यतः अधिक मास के पूर्व या उपरान्त (तुरन्त उपरान्त नहीं) होता है, अतः जब कुछ वर्षों में क्षय मास होता है तो दो अधिक मास पाये जाते हैं। [50]
  • महाभारत, शान्तिपर्व [51] ने संवत्सरों, मासों, पक्षों एवं दिवसों के क्षय का उल्लेख किया है। जब क्षयमास होता है तो इसके पूर्व का अधिक मास अन्य साधारण मासों के समान पवित्र रहता है, अर्थात उसमें धार्मिक कृत्य करना मना नहीं है, तथा वह अधिक मास जो क्षयमास के उपरान्त आता है, धार्मिक कृत्यों के लिए वर्जित घोषित किया गया है। उदाहरण - मान लीजिए चैत्र अमावस्या को मेष संक्रान्ति है, और अमावस्या से आगे की तिथि से दूसरी अमावास्या (जो वैशाख है) तक कोई संक्रान्ति नहीं है, और तब उसके उपरान्त प्रथम तिथि में वृषभ संक्रान्ति है, तो ऐसी स्थिति में वह मास जिसमें संक्रान्ति नहीं हैं अधिक वैशाख कहा जाएगा।, और वह मास जिसमें वृषभ संक्रान्ति पड़ती है शुद्ध वैशाख होगा। अब क्षयमास का उदाहरण लें - मान लीजिए भाद्रपद अमावस्या को कन्या संक्रान्ति है, उसके उपरान्त अधिक आश्विन के बाद शुद्ध आश्विन आता है, जिसकी प्रथम तिथि पर तुला संक्रान्ति है, इसके उपरान्त कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को वृश्चिक संक्रान्ति है, और मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को धनु संक्रान्ति है और उसी मास की अमावस्या को मकर संक्रान्ति पड़ती है। ऐसी स्थिति में दो संक्रान्तियों (धनु एवं मकर) वाला मास क्षयमास होगा और तब पौष (मार्गशीर्ष एवं पौष से बने) का एक मास होगा। जब माघ अमावस्या को कुम्भ संक्रान्ति है तो फाल्गुन अधिक मास होगा और शुद्ध फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा को मीन संक्रान्ति होगी। इस प्रकार उस वर्ष में, जिसमें क्षयमास होता है, अब भी 13 मास होते हैं और उसके दिन 390 से थोड़े कम होते हैं।
  • कृत्यरत्नाकर में आया है [52], धर्मशास्त्र में नाक्षत्र मास की आवश्यकता नहीं पड़ती, यह केवल ज्योतिष शास्त्र में ही चलता है। पंचांग सामान्यतः प्रत्येक वर्ष के लिए बनते हैं। उनमें 12 (या 13, जब मलमास होता है) के दो पक्षों के पृथक पृष्ठ होते हैं।
  • भारतीय पंचांग के पाँच महत्वपूर्ण भाग हैं -
  1. तिथि,
  2. सप्ताह,
  3. दिन,
  4. नक्षत्र,
  5. योग एवं
  6. करण।
  • मुहूर्तदर्शन [53] के मत से इसमें राशियों के समावेश से छः तथा ग्रहों की स्थितियों के उल्लेख से सात भाग होते हैं। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक एक बार (दिन) होता है।

बारह महीनों एवं उनके दो-दो गठित 6 ऋतुओं का उल्लेख बहुत प्राचीन है। [54]

  • मासों के वैदिक नाम हैं-
  1. मधु,
  2. शुक्र,
  3. शुचि,
  4. नभस्,
  5. नभस्य,
  6. इष,
  7. ऊर्ज,
  8. सहस्,
  9. तपस् एवं
  10. तपस्य।

ब्राह्मणों में नक्षत्रों से ज्ञापित चन्द्र मासों का उल्लेख है। इसी से कुछ लोग सौर एवं चन्द्र ऋतुओं का भी उल्लेख करते हैं। सौर मास तीन राशि या मेष राशि से आरम्भ होते हैं तथा चैत्र आदि (या शेष वाले) कहलाते हैं।

  • पाणिनी ने मासों की व्युत्पत्ति की है, यथा चित्रायुक्त पौर्णमासी से चैत्र, और स्पष्ट रूप से (4|2|22) आग्रहायणी, फाल्गुनी, श्रवण, कार्तिकी एवं चैत्री (4|2|23) के नाम दिए हैं। 'पौर्णमासी' पूर्णमास से व्युतपन्न है [55]। पुष्य नक्षत्र वाली पौर्णमासी तिथि 'पौषी' कही गई है [56]
  • इस प्रकार विकास के तीन स्तर है -
  1. 27 नक्षत्रों के रूप प्रकट हुए और उनके नाम वैदिक संहिताओं में ही प्रचलित हो गए;
  2. इसके उपरान्त पौर्णमासी चैत्री पौर्णमासी कही गई आदि, क्योंकि इस तिथि पर चन्द्र चित्रा नक्षत्र में था, आदि;
  3. इसके उपरान्त मासों के नाम यों पड़े - चैत्र, वैशाख आदि, क्योंकि उनमें चैत्री या वैशाखी पौर्णमासी थी। यह सब पाणिनि के बहुत पहले प्रचलित हुआ। आगे चलकर सौर मास मधु, माधव आदि चैत्र, वैशाख आदि चन्द्र मासों से द्योतित होने लगे और समानार्थी हो गए। यह कब हुआ, कहना कठिन है। किन्तु ईसा के बहुत पहले ऐसा हुआ। पौर्णमासी के दिन चन्द्र भले ही चित्रा या श्रवण नक्षत्र में या उसके पास न हो किन्तु मास तब भी चैत्र या श्रावण कहलाता है।
  • प्राचीन ब्राह्मण कालों में मास पूर्णिमान्त (पूर्णिमा से अन्त होने वाले) थे। यहाँ तक की कनिष्क एवं हुविष्क जैसे उत्तर भारत के विदेशी शासकों के वृत्तान्तों में पूर्णिमान्त मासों का प्रयोग पाया जाता है, किन्तु कहीं-कहीं मैसीडोनी नाम भी आए हैं।
  • ईसा पूर्व के शिलालेखों में मासों [57] के नाम बहुत कम आए हैं। प्रचलित ढंग था ऋतु, तदुपरान्त ऋतु में नामरहित मास तथा दिवस का उल्लेख। कहीं-कहीं केवल ऋतु, पक्षों की संख्या एवं दिन के नाम आए हैं। कभी-कभी मास का नाम आया है, किन्तु पक्ष या दिनों के नाम लगातार (1 से 30 तक) नहीं आए हैं। यह स्थिति, अर्थात पक्षों एवं दिनों का वर्णन रहितता, 9वीं शती तक चली गई। आजकल लोग सुदि, वदि या वद्य का प्रयोग करते हैं, उनमें प्रथम (अर्थात सुदि) शुक्ल दिन (या दिवस) या शुद्ध दिन का छोटा रूप है तथा दूसरा (वदि) बहुल दिन या दिवस (व या ब परिवर्तित होते रहते हैं) का छोटा रूप है। वद्य का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। यह नहीं समझ में आता कि ईसा के पूर्व एवं उपरान्त के बहुत-से शिलालेखों में 'पक्ष' शब्द का उल्लेख क्यों नहीं हुआ है, जबकि ब्राह्मणों एवं उपनिषदों जैसे प्राचीन ग्रन्थों में उसका उल्लेख हुआ है।
  • दक्षिण भारत में मासों के नाम राशियों पर आधारित हैं, यथा - मीन-मास, मेष-मास आदि। यही प्रयोग पाण्डय देश में भी प्रचलित था।

अधिक मास कई नामों से विख्यात है - अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास। इनकी व्याख्या आवश्यक है। यह द्रष्टव्य है कि बहुत प्राचीन काल से अधिक मास निन्द्य ठहराये गए हैं।

  • ऐतरेय ब्राह्मण [58] में आया हैः 'देवों ने सोम की लता 13वें मास में खरीदी, जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है, 13वाँ मास फलदायक नहीं होता'।
  • तैतरीय संहिता में 13वाँ मास 'संसर्प' एवं 'अंहस्पति' [59] कहा गया है।
  • ऋग्वेद में 'अंहस्' का तात्पर्य पाप से है। यह अतिरिक्त मास है, अतः अधिमास या अधिक मास नाम पड़ गया है। इसे मलमास इसलिए कहा जाता है कि मानों यह काल का मल है।
  • अथर्ववेद (8|6|2) में 'मलिम्लुच' आया है, किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है।
  • काठसंहिता [60] में भी इसका उल्लेख है।
  • पश्चात्कालीन साहित्य में 'मलिम्लुच' का अर्थ है 'चोर'। [61]
  • मलमासतत्व [62] में यह व्युत्पत्ति हैः 'मली सन् म्लोचति गच्छतीति मलिम्लुचः' अर्थात् 'मलिन (गंदा) होने पर यह आगे बढ़ जाता है'। 'संसर्प' एवं 'अंहसस्पति' शब्द वाजसनेयी संहिता [63] में तथा 'अंहसस्पतिय वाजसनेयी संहिता [64] में आए हैं। [65]
  • 'अंहसस्पति' का शाब्दिक अर्थ है 'पाप का स्वामी'। पश्चात्कालीन लेखकों ने 'संसर्प' एवं 'अंहसस्पति' में अन्तर व्यक्त किया है। जब एक वर्ष में दो अधिमास हों और एक क्षय मास हो तो दोनों अधिमासों में प्रथम 'संसर्प' कहा जाता है और यह विवाह को छोड़कर अन्य धार्मिक कृत्यों के लिए निन्द्य माना जाता है। अंहसस्पति क्षय मास तक सीमित है। कुछ पुराणों में[66] अधिमास पुरुषोत्तम मास (विष्णु को पुरुषोत्तम कहा जाता है) कहा गया है और सम्भव है, अधिमास की निन्द्यता को कम करने के लिए ऐसा नाम दिया गया है।
  • धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में अधिमास के विषय पर बहुत कुछ लिखा हुआ है-
  • अग्नि पुराण [67] में आया है - वैदिक अग्नियों को प्रज्वलित करना, मूर्ति-प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, संकल्प के साथ वेद-पाठ, साँड़ छोड़ना (वृषोत्सर्ग), चूड़ाकरण, उपनयन, नामकरण, अभिषेक अधिमास में नहीं करना चाहिए।
  • हेमाद्रि [68] ने वर्जित एवं मान्य कृत्यों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ दी हैं। [69]
  • सामान्य नियम यह है कि मलमास में नित्य कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों (कुछ विशिष्ट अवसरों पर किए जाने वाले कर्मों) को करते रहना ही चाहिए, यथा सन्ध्या, पूजा, पंचमहायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, वैश्वदेव आदि), अग्नि में हवि डालना (अग्निहोत्र के रूप में), ग्रहण-स्नान (यद्यपि यह नैमित्तिक है), अन्त्येष्टि कर्म (नैमित्तिक)। यदि शास्त्र कहता है कि यह कृत्य (यथा सोम यज्ञ) नहीं करना चाहिए तो उसे अधिमास में स्थगित कर देना चाहिए। यह भी सामान्य नियम है कि काम्य (नित्य नहीं, वह जिसे किसी फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है) कर्म नहीं करना चाहिए। कुछ अपवाद भी हैं, यथा कुछ कर्म, जो अधिमास के पूर्व ही आरम्भ हो गए हों (यथा 12 दिनों वाला प्राजापत्य प्रायश्चित, एक मास वाला चन्द्रायण व्रत), अधिमास तक भी चलाए जा सकते हैं। यदि दुभिक्ष हो, वर्षा न हो रही हो तो उसके लिए कारीरी इष्टि अधिमास में भी करना मना नहीं है, क्योंकि ऐसा न करने से हानि हो जाने की सम्भावना रहती है। ये बातें कालनिर्णय-कारिकाओं (21-24) में वर्णित हैं।[70]
  • कुछ बातें मलमास के लिए ही व्यवस्थित हैं, यथा प्रतिदिन या कम से कम एक दिन ब्राह्मणों को 33 अपूपों (पूओं) का दान करना चाहिए।
  • कुछ ऐसे कर्म हैं जो शुद्ध मासों में ही करणीय हैं, यथा वापी एवं तड़ाग (बावली एवं तलाब) खुदवाना, यज्ञ कर्म, महादान एवं व्रत।
  • कुछ ऐसे कर्म हैं जो अधिमास एवं शुद्ध मास, दोनों में किए जा सकते हैं, यथा गर्भ का कृत्य (पुंसवन जैसे संस्कार), ब्याज लेना, पारिश्रमिक देना, मास-श्राद्ध, चान्द्र एवं सौर ग्रहणों पर स्नान, नित्य एवं नैमित्तिक कृत्य [71]
  • जिस प्रकार हमारे यहाँ 13वें मास (मलमास) में धार्मिक कृत्य वर्जित हैं, पश्चिम देशों में 13वीं संख्या अभाग्यसूचक मानी जाती है, विशेषतः मेज पर 13 चीजों की संख्या।

भारतीय पंचांगों के पाँच अंगों में एक सप्ताह-दिन भी है। अतः दिनों एवं सप्ताह-दिनों पर संक्षेप में लिखना आवश्यक है।

सौर दिन

दोनों सूर्योदयों के बीच की कालावधि अत्यन्त महत्वपूर्ण अवधि मानी जाती है। यह सौर दिन है और लोक-दिन भी। किन्तु तिथि तो काल का चन्द्र विभाग है जिसका सौर दिन के विभिन्न दिग्-विभागों में अन्त होता है। 'दिन' शब्द के दो अर्थ है-

  1. सूर्योदय से सूर्यास्त तक,
  2. सूर्योदय से सूर्योदय तक।
  • ऋग्वेद [72] में 'अहः' शब्द का दिन के कृष्ण भाग (रात्रि) एवं अर्जुन (चमकदार या श्वेत) भाग की ओर संकेत है [73]। ऋग्वेद में रात्रि शब्द का प्रयोग उतना नहीं हुआ है जितना कि 'अहन्' का, किन्तु 'दिन' का सामासिक प्रयोग अधिक हुआ है, यथा - सुदिनत्व', 'सुदिन', मध्यन्दिन।'
  • 'अहोरात्र' (दिन-रात्रि) एक बार आया है [74]
  • पूर्वाह्ण (दिन का प्रथम भाग) ऋग्वेद [75] में आया है। दिन के तीन भागों (प्रातः, संगव एवं मध्यन्दिन) का उल्लेख है [76]। दिन के पाँच भागों में उपर्युक्त तीन के अतिरिक्त अन्य दो हैं अपराह्ण एवं अस्तम्य, अस्तगमन या सायाह्न। ये पाँचों भाग शतपथब्राह्मण [77] में उल्लिखित हैं। 'प्रातः' एवं 'सायम्' ऋग्वेद [78] में आए हैं।
  • कौटिल्य [79], दक्ष एवं कात्यायन ने दिन रात्रि को आठ भागों में बाँटा है। दिन एवं रात्रि के 15 मुहूर्तों का उल्लेख पहले ही हो चुका है।
  • दिन के आरम्भ के विषय में कई मत हैं। यहूदियों ने दिन का आरम्भ सायंकाल से माना है [80]। *मिस्रवासियों ने सूर्योदय से सूर्यास्त तक के दिन को 12 भागों में बाँटा; उनके घण्टे ऋतुओं पर निर्भर थे।
  • बेबिलोनियों ने दिन का आरम्भ सूर्योदय से माना है और दिन तथा रात्रि को 12 भागों में बाँटा है, जिसमें प्रत्येक भाग दो विषुवीय घण्टों का होता है।
  • एथेंस एवं यूनान में ऐतिहासिक कालों में दिन, सामान्यतः पंचांग के लिए सूर्यास्त से आरम्भ होता था।
  • रोम में दिन का आरम्भ आधी रात से होता था।
  • भारतीय लेखकों ने दिनारम्भ सूर्योदय से माना है [81], किन्तु वे दिन के विभिन्न आरम्भों से अनभिज्ञ नहीं थे।
  • पंचसिद्धान्तिका [82] में आया है कि आर्यभट्ट ने घोषित किया है कि लंका में दिन का आरम्भ अर्धरात्रि से होता है, किन्तु पुनः उन्होंने कहा है कि दिन का आरम्भ सूर्योदय से होता है और लंका का वह सूर्योदय सिद्धपुर से मिलता है, यमकोटि में मध्याह्न के तथा रोमक देश में अर्धरात्रि से मिलता है।[83]
  • आधुनिक काल में लोक-दिन का आरम्भ अर्द्धरात्रि से होता है।

सप्ताह

  • सप्ताह केवल मानव निर्मित व्यवस्था है। इसके पीछे कोई ज्योतिःशास्त्रीय या प्राकृतिक योजना नहीं है।
  • स्पेन आक्रमण के पूर्व मेक्सिको में पाँच दिनों की योजना थी।
  • सात दिनों की योजना यहूदियों, बेबिलोनियों एवं दक्षिण अमेरिका के इंका लोगों में थी।
  • लोकतान्त्रिक युग में रोमनों में आठ दिनों की व्यवस्था थी, मिस्रियों एवं प्राचीन अथेनियनों में दस दिनों की योजना थी।
  • ओल्ड टेस्टामेण्ट में आया है कि ईश्वर ने छः दिनों तक सृष्टि की और सातवें दिन विश्राम करके उसे आशीष देकर पवित्र बनाया। जेनेसिरा [84], एक्सोडस ([85] एवं डेउटेरोनामी [86] में ईश्वर ने यहूदियों को छः दिनों तक काम करने का आदेश दिया है और एक दिन (सातवें दिन) आराम करने को कहा है और उसे ईश्वर के सैब्बाथ (विश्रामवासर) के रूप में पवित्र मानने की आज्ञा दी है।
  • यहूदियों ने सैब्बाथ (जो कि सप्ताह का अन्तिम दिन है) को छोड़कर किसी दिन को नाम नहीं दिया है; उसे वे रविवार न कहकर शनिवार मानते हैं।
  • ओल्ड टेस्टामेण्ट में सप्ताह-दिनों के नाम (व्यक्तिवाचक) नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यू टेस्टामेण्ट में भी सप्ताह-दिन केवल संख्या से ही द्योतित हैं [87]। सप्ताह में कोई न कोई दिन कतिपय देशों एवं धार्मिक सम्प्रदायों द्वारा सैब्बाथ (विश्रामदिन) या पवित्र माना गया है, यथा - सोमवार यूनानी सैब्बाथ दिन, मंगल पारसियों का, बुध असीरियों का, बृहस्पति मिस्रियों का, शुक्र मुसलमानों का, शनिवार यहूदियों का एवं रविवार ईसाईयों का पवित्र विश्रामदिन है।
  • सात दिनों के वृत्त के उद्भव एवं विकास का वर्णन 'एफ॰ एच॰ कोल्सन' के ग्रन्थ 'दी वीक' [88] में उल्लिखित है।
  • डायोन कैसिअस (तीसरी शती के प्रथम चरण में) ने अपनी 37वीं पुस्तक में लिखा है कि 'पाम्पेयी ई0 पू0 83 में येरूसलेम पर अधिकार किया, उस दिन यहूदियों का विश्राम दिन था। उसमें आया है कि ग्रहीय सप्ताह (जिसमें दिनों के नाम ग्रहों के नाम पर आधारित हैं) का उद्भव मिस्र में हुआ।
  • डियो ने 'रोमन हिस्ट्री' [89] में यह स्पष्ट किया है कि सप्ताह का उद्गम यूनान में न होकर मिस्र में हुआ और वह भी प्राचीन नहीं है बल्कि हाल का है। इससे प्रकट है कि यूनान में सप्ताह का ज्ञान-प्रवेश ईसा की पहली शती में हुआ। पाम्पेयी के नगर में, जो सन 79 ई0 में लावा (ज्वालामुखी) में डूब गया था, एक दीवार पर सप्ताह के छः दिनों के नाम आलिखित हैं। इससे संकेत मिलता है कि सन 79ई0 के पूर्व ही इटली में सप्ताह-दिनों के नाम ज्ञात थे।
  • कोल्सन महोदय इस बात से भ्रमित हो गए हैं कि ट्यूटान देशों में 'वेंस्डे' एवं 'थस्टडे' जैसे नाम कैसे आए।
  • सार्टन ने 'हिस्ट्री ऑफ साइंस' में लिखा है कि 'यहूदी, मिस्री दिन-घण्टे एवं चाल्डिया के ज्योतिष ने वर्तमान सप्ताह की सृष्टि की है [90]। सार्टन का मत है कि ग्रहीय दिनों का आरम्भ मिस्र एवं बेबिलोन में हुआ, यूनान में इसका पूर्वज्ञान नहीं था। आधुनिक यूरोपीय घण्टे बेबिलोन घण्टों एवं मिस्री पंचांग की दिन-संख्या पर आधारित हैं।
  • ई0 पू0 दूसरी शती तक यूरोप में तथा मध्य एशिया में आज के सप्ताह-दिनों के नामों के आदि के विषय में कोई ज्ञान नहीं था।
  • टॉल्मी ने अपने 'टेट्राबिल्लास' में सप्ताह का ज्योतिषीय-प्रयोग नहीं दिया है। आज के दिनों के नाम ग्रहों पर आधारित हैं, जैसे-
  1. सूर्य,
  2. चन्द्र,
  3. मंगल,
  4. बुध,
  5. बृहस्पति,
  6. शुक्र एवं
  7. शनि नामक सात ग्रहों पर आधारित हैं। कई कारणों से रविवार सप्ताह का प्रथम दिन है; एक कारण यह है कि उसी दिन सृष्टि का आरम्भ हुआ। जिस प्रकार दिनों का क्रम है, उसमें ग्रहों की दूरी, उनके गुरुत्व, प्रकाश एवं महत्ता का कोई समावेश नहीं है।
  • याज्ञवल्क्य स्मृति [91] ने ग्रहों का क्रम इस प्रकार दिया है-
  1. सूर्य,
  2. चन्द्र,
  3. मंगल,
  4. बुध,
  5. बृहस्पति,
  6. शुक्र,
  7. शनि,
  8. राहु एवं
  9. केतु।
  • यही बात विष्णुपुराण [92] में भी है।

ऐसा तर्क दिया जाता है कि सप्ताह - दिनों का क्रम मिस्रियों के 24 घण्टों वाली विधि पर आधारित है, जहाँ प्रत्येक दिन - भाग क्रम से एक ग्रह से शासित है।

  • रविवार को प्रथम भाग पर सूर्य का,
  • 21वें भाग के उपरान्त 22वें भाग पर पुनः सूर्य का,
  • 23वें पर शुक्र का,
  • 24वें पर बुध का शासन माना जाता है तथा
  • दूसरे दिन 25वें भाग (या घण्टे) को सोमवार कहा जाता है। यदि यह व्यवस्था 24 घण्टों एवं घण्टा-शासकों पर आधारित है तो वही क्रम लम्बे ढंग से भी हो सकता है। 24 घण्टों के स्थान पर 60 भागों (घटिकाओं) में दिन को बाँटा जा सकता है। यदि हम चन्द्र से आरम्भ करें और एक घटी (या घटिका) एक ग्रह से समन्वित करें तो 57वीं घटी चन्द्र की होगी, 58वीं बुध की, 59वीं शुक्र की, 60वीं सूर्य की और सोमवार के उपरान्त दूसरा दिन होगा मंगलवार।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में किसी देश में (और आज भी ऐसा है) सप्ताह - दिनों में एक के उपरान्त एक दिनों में धार्मिक कृत्य नहीं होते थे। सप्ताह के दिनों के उद्भव एवं विकास के विषय पर मत-मतान्तर है। ऐसा कहा गया है कि भारतीय सप्ताह - दिन भारत के नहीं हैं, प्रच्युत वे चाल्डिया या यूनान के हैं। यहाँ हम यह देखेंगे साहित्यिक एवं शिलालेखीय प्रमाण हमें इस विषय में कितनी दूर ले जाते हैं। इस विषय में अत्यन्त प्राचीन शिलालेखीय प्रमाण है-
  • एरण का स्तम्भ-शिलालेख, जो बुधगुप्त (सन 484 ई0) का है, जिसमें आषाढ़ शुक्ल द्वादशी एवं बृहस्पति का उल्लेख है। मान लिया जाए कि सप्ताह की धारणा अभारतीय है, तो इसके पूर्व की वह सर्वसाधारण के जीवन में इस प्रकार समाहित हो जाए कि गुप्त सम्राट अपनी घोषणाओं में उसका प्रयोग करने लगें, तो यह मानना पड़ेगा कि ऐसा होने में कई शतियों की आवश्यकता पड़ेगी।
  • अब हम साहित्यिक प्रमाण लें। आर्यभट्ट कृत दशगीतिका, श्लोक 3 में गुरुदिवस (बृहस्पतिवाद) का उल्लेख है।[93]
  • बृहत्संहिता [94] में मंगल (क्षितितनय दिवस) का उल्लेख है।
  • पंचसिद्धान्तिका (1|8) में सोम दिवस (सोमवार) आया है।
  • बृहत्संहिता [95] ने रविवार से शनिवार तक के कर्मों का उल्लेख किया है।
  • इसी विषय में उत्पल ने गर्ग नामक प्राचीन ज्योतिर्विद् के 18 अनुष्टुप् श्लोकों का उद्धरण दिया है। कर्न ने गर्ग को ई0 पू0 पहली शती का माना है। इससे प्रकट है कि भारत में सप्ताह-दिनों का ज्ञान ई0 पू0 प्रथम शती में अवश्य था।
  • फिलास्ट्रेटस ने टायना के अपोल्लोनियस (जो सन् 18 ई0 में मरा) के जीवन चरित में लिखा है कि किस प्रकार भारत में यात्रा करते समय अपोल्लोनियस ने ब्राह्मणों के नेता इर्चुस से 7 अँगूठियाँ प्राप्त कीं, जिन पर 7 ग्रहों के नाम थे और जिन्हें उसे प्रतिदिन एक-एक करके पहनना था। इससे भी यही प्रकट होता है कि ग्रह - नाम प्रथम शती के बीच में भारत के लोग ग्रहीय दिनों से परिचित थे।
  • वैखानस-स्मार्त-सूत्र [96] एवं बौधायनधर्मसूत्र [97] में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु नामक ग्रहों के नाम आए हैं।
  • प्रथम ग्रन्थ (2|12) में बुधवार का भी उल्लेख है।
  • आथर्वण-वेदांग-ज्योतिष (वारप्रकरण, श्लोक 1 से 8) में रविवार से लेकर शनिवार तक के कर्मों का उल्लेख है।
  • गाथा-सप्तशती (हाल कृत प्राकृत काव्य संग्रह) में मंगल एवं विष्टि का उल्लेख है (3|61)।
  • याज्ञवल्क्य स्मृति [98] में आज की भाँति दिनों एवं राहु-केतु के साथ नवग्रहों की चर्चा है।
  • यही बात नारद पुराण [99] में है। [100]
  • पुराणों में सप्ताह-दिनों के विषय में बहुत-से वर्जित एवं मान्य कर्मों के उल्लेख हैं। बहुत-से पुराणों की तिथियों के विषय में मतभेद हैं, किन्तु इतना तो प्रमाणों से सिद्ध है कि ईसा की प्रथम दो शतियों में ग्रहों की पूजा एवं सप्ताह के दिनों के विषय में पूर्ण ज्ञान था।
  • महाभारत जैसे विशाल ग्रन्थ में, जहाँ पर धर्मशास्त्रीय उल्लेख अधिक संख्या में हुए हैं, सप्ताह-दिनों की चर्चा नहीं है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, यह सप्रमाण सिद्ध हो चुका है कि भारतीय लोग ई0 पू0 प्रथम शती एवं ई0 उपरान्त प्रथम शती के बीच ग्रहों की पूजा एवं ग्रहयुक्त दिनों के ज्ञान से भली-भाँति परिचित थे। एक अन्य द्रष्टव्य बात यह है कि दिनों के नाम पूर्णतया भारतीय हैं, उन पर यूनानी या अभारतीय प्रभाव नहीं है। किन्तु राशियों के नाम के विषय में ऐसी बात नहीं है, वहाँ 'क्रिय' एवं 'लेय' जैसे शब्द बाह्य रूप से आ गए हैं। टॉल्मी (सन 150 ई0) ने 24 घण्टों एवं 60 भागों का उल्लेख किया है। भारतीयों में 60 घटिकाओं का प्रयोग प्राचीन है। भारतीयों ने दोपहर या रात्रि से दिन की गणना नहीं कि, प्रत्युत प्रातः से ही की है। आश्वमेधिक पर्व [101] में स्पष्ट कथन है कि पहले दिन आता है तब रात्रि आती है।

भारत में सात दिनों वाले दिन-वृत्त के विषय में कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना सम्भव है। बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति एवं शनि पाँच ग्रहों के साथ प्राचीन बेबिलोनियों ने पाँच देवों की कल्पना की थी। ये देव आगे चलकर रोमक रूपों में परिवर्तित हो गए। प्रेम की देवी ईस्टर शुक्र के रूप में हो गई, मुर्दुक नामक बड़ा देव बृहस्पति हो गया.......आदि। ये पाँचों ग्रह सूर्य एवं चन्द्र के साथ स्वर्गिक रूप वाले हो गए। चाल्डिया के मन्दिरों में जो पूजा होती थी और जो सीरिया तक प्रचारित थी, उसमें विशिष्ट दिन पर प्रत्येक देव की प्रार्थनाएँ होती थीं। जो देव जिस दिन पूजित होता था वह उसी दिन के साथ समन्वित हो गया। जो दिन सूर्य एवं चन्द्र के लिए पवित्र थे वे रविवार एवं सोमवार हो गए। इंग्लैण्ड में कुछ दिन-नाम प्रयोग में आ गए, यथा वेड्नस डे (वोडेंसडे) एवं थर्सडे (थोर्स डे)। किन्तु सप्ताह के दिन यूरोप में बेबिलोन देवों के नाम से ही बने। भारत एवं बेबिलोन में आते प्राचीन काल से व्यापारिक तथा अन्य प्रकार के सम्पर्क स्थापित थे। भारत में सूर्य-पूजा प्राचीन है, यथा, कश्मीर में मार्तण्ड, उत्तरी गुजरात में मोढेरा, उड़ीसा में कोणार्क। आज भी कहीं-कहीं राहु एवं केतु के मन्दिर हैं, यथा अहमदनगर ज़िले में राहुरि स्थान पर। कौटिल्य ने काल के बहुत-से भागों का (त्रुटि से युग तक) उल्लेख किया है और कहा है कि दो नाड़िकाएँ एक मुहूर्त के तथा एक अहोरात्र (दिन-रात) 30 मुहूर्तों के बराबर हैं। इससे प्रकट है कि कौटिल्य को केवल 60 नाड़िकाओं वाला दिन ज्ञात था। एक नाड़ी बराबर थी एक घटी (या घटिका) के।

  • काल-गणना की अन्य विधियाँ भी प्रचलित थीं, यथा-6 बड़े अक्षरों के उच्चारण में जो समय लगता है उसे प्राण कहा जाता है; 6 प्राण मिलकर एक पल के बराबर होते हैं, 60 पल एक दण्ड, घटी या नाड़ी के बराबर (सूर्यसिद्धान्त 1|11; ज्योतिस्तत्त्व, पृ0 562)।
  • पाणिनि (3|2|30) ने 'नाडिन्घम' की व्युत्पत्ति 'नाड़ी' से की है। 'नाड़ी' एक अति प्राचीन शब्द है।[102]
  • यह ऋग्वेद (10|135|7) में आया है जिसका अर्थ है मुरली। लगता है, आगे चलकर यह कालावधि का द्योतक हो गया जो शंख या मुरली या तुरही जैसे बाजे के बजाने से प्रकट किया जाता था और जो 'नाड़ी' के रूप में (एक दिन के 60वें भाग में) घोषित हो गया, क्योंकि उन दिनों घड़ियाँ नहीं होती थीं। अतः 60 नाड़ियाँ एवं घटियाँ (दोनों शब्द पंतञ्जलि द्वारा, जो ई0 पू0 150 में विद्यमान थे, प्रयुक्त हुए हैं) का दिन-विभाजन बहुत प्राचीन है।
  • सूर्यसिद्धान्त में 24 घण्टों की चर्चा है, किन्तु वह ग्रन्थ पश्चात्कालीन है और उस पर बाह्य प्रभाव हो सकता है, किन्तु उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में दिन-विभाजन परिपाटी (अर्थात् दिन को घटियों एवं नाड़ियों में बाँटना) अति प्राचीन है और उस पर बाह्य प्रभाव की बात ही नहीं उठती। स्वयं पंतजलि ने नाड़ी एवं घटी के प्रयोग को पुराना माना है। अतः ई0 पू0 दूसरी शती से बहुत पहले नाड़ी एवं घटि का प्रचलन सिद्ध है। पूर्ण रूप से सप्ताह-दिनों पर भी बाह्य प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। बेबिलोनी एवं सीरियाई प्रचलन के प्रभाव की बात उठायी जाती है, किन्तु इसे समानता मात्र से सिद्ध नहीं किया जा सकता। केवल पाश्चात्य हठवादिता प्रमाण नहीं हो सकती। [103]) जहाँ यूरोपियन एवं भारतीय सप्ताह-विभाजन की तालिकाएँ एवं रेखाचित्र दिए हए हैं।
  • अल्बरूनी [104]) ने लिखा है कि भारतीय लोग ग्रहों एवं सप्ताह-दिनों के विषय में अपनी परिपाटी रखते हैं और दूसरे लोगों की परिपाटी को, भले ही वह अधिक ठीक हो, मानने को सन्नद्ध नहीं हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.पृथ्वी की दो गतियों (अपनी धुरी पर इसकी प्रतिदिन की गति या चक्कर एवं सूर्य के चतुर्दिक् इसके वार्षिक चक्कर) के अतिरिक्त एक तीसरी गति भी है जिसे लोग भली-भाँति नहीं जानते हैं। पृथ्वी पूर्णतः गोलक नहीं है, इसका निरक्षीय अर्थात भूमध्य रेखीय व्यास इसके ध्रुवीय व्यास से बड़ा है। इसका फल यह होता है कि भूमध्य रेखा (निरक्ष) पर पदार्थ-समूह उभरा हुआ है, जो उस स्थिति से अधिक है जब कि पृथ्वी पूर्णरूपेण गोल होती। पृथ्वी की धुरी पर एक हल्की सूच्याकार चक्कर में घूमने वाली गति है, जो लट्टू के समान है और वह 25,8000 वर्षों में एक चक्कर लगा पाती है। यह वार्षिक हटना 50".2 सेकेण्ड का है, जो सूर्य एवं चन्द्र के निरक्षीय उभार पर खिंचाव के कारण होता है। इसी से स्थिर तारे, यहाँ तक कि ध्रुव तारा, एक शती के उपरान्त दूसरी शती या दूसरे काल में अपने स्थानों से परिवर्तित दृष्टिगोचर होते हैं। - नॉर्मन लॉकर एवं हिक्की
  2. ऋग्वेद - 1।25।8
  3. अमेरिकन जर्नल ऑफ सेमेटिक लैंग्वेजेज़, जिल्द 55, 1938, पृ0 116
  4. जर्नल ऑफ हेलेनिस्टिक स्टडीज़, जिल्द 39, पृ0 179)
  5. कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी की रिपोर्ट, पृ0 175-176।
  6. यह पश्चात्कालीन रचना है, जिसमें यह आया है कि यह गतकलि 3068 अर्थात् ईसा संवत् से 33 वर्ष पूर्व में प्रणीत हुआ
  7. कौटिल्य अर्थशास्त्र, 2।6, पृ0 60
  8. राजवर्ष मासाः पक्षो दिवसश्च व्युष्टं वर्षाहेमन्तग्रीष्माणां तृतीयसप्तमा दिवसोनाः पक्षाः शेषा पूर्णाः पृथगधिमासक इति कालः। कौटिल्य अर्थशास्त्र (11।6, पृ0 60)।
  9. पाणिनि (5।1।96-97)-तत्र च दीयते कार्य भववत्। व्युष्टादिभ्योण्।
  10. प्राचीन कालों में वर्ष में 6 ऋतुएँ थीं, 12 मास थे और थे प्रत्येक मास में 30 दिन। अर्थशास्त्र का यहाँ कथन है कि छः पक्ष ऐसे हैं जिनमें प्रत्येक में 14 दिन हैं, अतः चन्द्र वर्ष (14×6+15×6+30×3=354) 354 दिनों का होगा। इसे सौर वर्ष के साथ चलाने के लिए अधिक मास का समावेश किया गया।
  11. संवतों की सूचियों के विषय में कनिंघम कृत 'इण्डियन एराज़'; स्वामिकन्नु पिल्लई कृत 'इण्डियन एफेमेरिस' (जिल्द 1, भाग 1, पृ0 53-55); बी0 बी0 केतकर कृत 'इण्डियन एण्ड फॉरेन क्रोनोलॉजी' (पृ0 171-172); पी0 सी0 सेनगुप्त कृत 'ऐश्येण्ट इण्डिएन एराज़' (पृ0 222-238); डा0 मेघनाथ साहा का लेख 'साइंस एण्ड कल्चर' (1952, कलकत्ता, पृ0 116) तथा कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी (1955)।
  12. (सचौ, जिल्द 2, पृ0 5)
  13. विष्णु पुराण 4।24।108-113
  14. त्रिंशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः।
    सप्ताब्दशतयुक्तेषु गतेष्वब्देषु पंञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च।
    समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम्।।

    एपिग्रैफिया इण्डिका (जिल्द 4, पृ0 7)। यहाँ पर स्पष्ट रूप से कलियुग का आरम्भ महाभारत युद्ध के उपरान्त माना गया है।
  15. 'याताः षण्मनवो युगानि भमितान्यन्यद्युगांध्रित्रयं नन्दाद्रीन्दुगुणास्तवा शकनृपस्यान्ते कलेर्वत्सराः।। सिद्धान्तशिरोमणि (1।28)। 'नन्दाद्रीन्दुगुणा' 3179 के बराबर है (नन्द=9, अद्रि=7, इन्दु=1, गुण=3)।
  16. जे0 आर0 ए0 एस0 (1911, पृ0 689-694)
  17. लंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारे प्रथमं बभूव।
    मधोः सितादेर्दिननमासवर्षयुगादिकानां युगपत् प्रवृत्तिः।।

    ग्रहगणित, मध्यमाधिकार, श्लोक 15, भास्कराचार्य का;

    चैत्रसितादेरुदयाद् भानोर्दिनमासवर्ष युगकल्पाः।
    सृष्ट्यादौ लंकायां समं प्रवत्ता दिनेऽर्कस्य।। ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (1।4)।

  18. एपिग्रैफिया इण्डिका (जिल्द 8, पृ0 261)। एपि0 इण्डिका (जिल्द 28, पृ0 36) में अर्केश्वर देव के कई पट्ट-लेख हैं जिनमें युगाब्द 4248 (कलियुग संवत) का उल्लेख है, जो 6 फरवरी 1148 ई0 का है और 'ऐनल्स ऑफ साइंस' (जिल्द 8, संख्या 3, 1952, पृ0 221-228) जहाँ प्रो0 नेउगेबाबर एवं डा0 ओ0 श्चिमड्ट का 'हिन्दू ऐस्ट्रानोमी एट न्यू र्मिस्टर इन 1428' नामक लेख है, जिसमें इंग्लैण्ड के न्यूर्मिस्टर के अक्षांश के लिए ज्योतिःशास्त्रीय गणनाएँ की गयी हैं। उस प्रबन्ध में आया है कि एल्फैंजो ने अवतार के 1302 वर्ष पूर्व 16 फरवरी को बाढ़ (फ्लड) के वर्ष का आरम्भ किया; यह तिथि स्पष्ट रूप से कलियुग संवत (जिसे भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने प्रयुक्त किया है) के आरम्भ से सर्वथा मिलती-जुलती है।
  19. शान्तिमयूख, पृ0 2
  20. नन्द-यूप शिलालेख में 282 कृत वर्ष; तीन यूपों के मौखरी शिलालेखों में 295 कृत वर्ष; विजयगढ़ स्तम्भ-अभिलेख में 428; मन्दसौर में 461 तथा गदाधर में 480
  21. पंचसिद्धान्तिका एवं बृहत्संहिता 13|3
  22. बृहत्संहिता 8|20-21)
  23. बृहत्संहिता 8|20)
  24. हर्षचरित में गाथा सप्तशती के प्रणेता के रूप में वर्णित
  25. कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी रिपोर्ट (पृ0 244-256)।
  26. (राजतरंगिणी 1|52)
  27. (बृहत्संहिता 13|3-4)
  28. (नारदसंहिता 3|1-2)
  29. ब्राह्मं दैवं मानुषं च पित्र्यं सौरं च सावनम्।
    चान्द्रमार्क्ष गुरोर्मानमिति मानानि वै नव।।
    एषां तु नवमानां व्यवहारोऽत्र पञ्चभिः।
    तेषां पृथक्-पृथक् कार्य वक्ष्यते व्यवहारतः।। नारद-संहिता (3|1-2)।
    कल्प ब्रह्मा का दिन है (सूर्यसिद्धान्त 1|20)!;
    एक मानव-वर्ष देवों के एक दिन के बराबर है (एकं वा एतद् देवानामहो यत्संवत्सरः। तैतरीय ब्राह्मण, 3|9|22|1);
    एक मानव-मास पितरों का अहोरात्र है (मनु 1|66)।
    मानुषमान (मानव मान) विमिश्र (मिश्रित) है क्योंकि लोग विभिन्न उपयोगों के लिए चार मान प्रयुक्त करते हैं, जैसा कि सि0 शि0 (1|30-31) में उल्लिखित है -
    ज्ञेयं विमिश्रं तु मनुष्यमानं मानैश्चर्भिर्व्यवहारवृत्तेः।।
    वर्षायनर्तुयुगपूर्वकमत्र सौरान् मासास्तथा च तिथयस्तुहिनांशुमानात्।
    यत्कृच्छ्रसूतक चिकित्सिवासराद्यं तत्सावनाच्च घटिकादकिमार्क्षमानात्।।) किन्तु उसने आगे कहा है (1|32) कि ग्रहों के मान मानव मान से किए जाते हैं (ग्रहास्तु साध्या मनुजैः स्वमानात्)

  30. (काल, पृ0 9)
  31. (कालनिर्णयकारिका 11-12)
  32. (अर्थशास्त्र, 2|120, पृ0 108)
  33. त्रिंशदहोरात्रः प्रकर्मभासः।
    सार्धसौरः (सार्धः सौरः)।
    अर्धन्यूनश्चान्द्रमासः।
    सप्तर्विशतिर्नक्षत्रमासः।
    द्वार्त्रिशद् मलमासः।
    पञ्चर्त्रिशदश्ववाहायाः।
    चत्वार्रिशद्धस्तिवाहायाः। अर्थशास्त्र (2|20, पृ0 108)।
    महाभाष्य (पाणिनि 4|2|21 के वार्तिक 2 पर) ले भृतकमास (वेतन वाली नौकरी के मास) का उल्लेख किया है जो प्रकर्ममास का परिचायक-सा है।

  34. (बृ0 सं0 2|4, पृ0 40 पर उत्पल द्वारा उदधृत)
  35. विष्णुधर्मोत्तर (1|72|26-27)।
  36. (तैतरीय ब्राह्मण 1|1|2|13; कौषीतकि ब्राह्मण 5|1; शांखायन ब्राह्मण 19|3; ताण्डय महाब्राह्मण 5|9|7-12 आदि)।
  37. कालनिर्णय पृ0 61
  38. (स्मृतिचन्द्रिका श्राद्ध, पृ0 377)
  39. (वेदांगज्योतिष 1|5)
  40. (सचौ 2, पृ0 8-9)
  41. महाभारत, वनपर्व130|14-16)
  42. (अनुशासन, 106|17-30)
  43. (कृत्यरत्नाकर पृ0 452)
  44. (बृहस्पति संहिता 4|27|-52)
  45. विष्णुधर्मोत्तर (1|82|9), अग्नि पुराण (अध्याय 139) एवं भविष्य पुराण (ज्योतिस्तत्त्व, पृ0 692-697 में उद्धृत)
  46. ( केतकर का ग्रन्थ, इण्डियन एण्ड फारेन क्रोनोलाजी, पृ0 40)
  47. (शुद्धिकौमुदी पृ0 272)
  48. (मलमासतत्त्व पृ0 774)
  49. (केतकर का ग्रन्थ, इण्डियन एण्ड फारेन क्रोनोलाजी पृ0 40)
  50. कैलेण्डर रिफॉर्म कमिटी रिपोर्ट, पृ0 246-252।
  51. (महाभारत, शान्तिपर्व 301|46-47)
  52. (कृत्यरत्नाकर पृ0 80)
  53. (मुहूर्तदर्शन 1|44)
  54. तैत्तिरीय संहिता (4|2|31), वाजसनेयी संहिता (13|25)
  55. (वार्तिक 2, पा0 4|3|35)
  56. (पाणिनी, अष्टाध्यायी 4|2|2 एवं 4|2|31)
  57. (ई0 पूर्व दूसरी शती के मेनेण्डर के खरोष्ठी अभिलेख में कार्तिक चतुर्दशी का उल्लेख है)
  58. (ऐतरेय ब्राह्मण 3|1)
  59. (तैतरीय संहिता 1|4|4|1 एवं 6|5|3|4)
  60. (काठसंहिता 38|14)
  61. ऋग्वेद (10|136|2), वाजसनेयी संहिता (22|30), शांखायन श्रौतसूत्र (6|12|15)
  62. (मलमासतत्व पृ0 768)
  63. (वाजसनेयी संहिता 22|30 एवं 31)
  64. (वाजसनेयी संहिता 7|31)
  65. तैतरीय संहिता (1|4|14|1 एवं 6|5|3|4)
  66. ( पद्म पुराण, 6|64)
  67. (अग्नि पुराण 175|29-30)
  68. (हेमाद्रि, काल, पृ0 36-63)
  69. निर्णयसिन्धु (पृ0 10-15) एवं धर्मसिन्धु (पृ0 5-7)
  70. काम्यारम्भं तत्समाप्तिं विवर्जयेत्।
    आरब्धं मलमासात् प्राक् कृच्छ्रं चान्द्रादिकं तु यत्।
    तत्समाप्यं सावनस्य मानस्यानतिलंघनात्।।
    आरम्भस्य समाप्तेश्च मध्ये स्याच्चेन्मलिम्लुचः।
    प्रवृत्तमखिलं काम्यं तदानुष्ठेयमेव तु।।
    कारीर्यादि तु यत्काम्यं तस्यारम्भसमापने कार्यकालविलम्बस्य प्रतीक्षाया असम्भवात्।।
    अनन्यगतिकं नित्यमग्निहोत्रादि न त्यजेत्।
    गत्यन्तरयुतं नित्यं सोमयागादि वर्जयेत्।। कालनिर्णय-कारिका (21-24)।

  71. (हेमाद्रि, काल, पृ0 52; समय प्रकाश, पृ0 145)
  72. (ऋग्वेद 6|9|1)
  73. (अहश्च कृष्णमहरर्जुनं च वि वर्तेते रजसी वेद्याभिः)
  74. (ऋग्वेद 10|190|2)
  75. (ऋग्वेद 10|34|11)
  76. (ऋग्वेद 5|17|3)
  77. (शतपथब्राह्मण 2|3|2|9)
  78. (ऋग्वेद 5|77|2, 8|2|20 एवं 10|146|3 एवं 40)
  79. (कौटिल्य 1|19)
  80. (जेनेसिस 1|5 एवं 1|13)
  81. (ब्राह्मस्फुट-सिद्धान्त 11|33)
  82. (पंचसिद्धान्तिका 15|20 एवं 23)
  83. लंकार्धरात्रसमये दिनप्रवृत्तिं जगाद चार्यभटः।
    भूयः स एव सूर्योदयात्प्रभृत्याह लंकायाम्।।
    उदयो यो लंकायां सोऽस्तमयाः सवितुरेव सिद्धपुरे।
    मध्याह्नो यमकोट्यां रोमकविषयेऽर्धरात्रः सः।। पंचसिद्धान्तिका 15, 20, 33।

  84. जेनेसिरा 2|1-3)
  85. एक्सोडस 20|8-11,23|12-14)
  86. (डेउटेरोनामी 5|12-15)
  87. (मैथ्यू, 28|1; मार्क, 16|9; ल्यूक, 24|1)
  88. (एफ॰ एच॰ कोल्सन के ग्रन्थ 'दी वीक' कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, 1926)
  89. रोमन हिस्ट्री जिल्द 3, पृ0 129, 131
  90. हिस्ट्री ऑफ साइंस पृ0 76-77
  91. याज्ञवल्क्य स्मृति 1|293
  92. विष्णुपुराण 1|12|92
  93. काहो ढ मनुयुग श्ख गतास्ते च मनुयुग छ्ना च। कल्पादेर्युगपादा ग च गुरुदिवसाच्च भारतात्पूर्वम्।। दशगीतिका, श्लोक 3।
    टीकाकार ने लिखा हैः 'राज्यं चरतां युघिष्ठिरादीनायन्त्यो गुरुदिवसो भारतगुरुदिवसः। द्वापरावसानगत इत्यर्थः।
    तस्मिन् दिवसे युधिष्ठिरादयो राज्यमुत्सृज्य महाप्रस्थानं गता इति प्रसिद्धः।
    तस्माट्गुरुदिवसात् पूर्वकल्पादेरारभ्य गता मन्वादय इहोक्ताः।

    इस श्लोक का अर्थ हैः 'ब्रह्मा के एक दिन में 14 मनु हैं तथा 72 युग एक मन्वन्तर बनाते हैं; इस कल्प में भारत युद्ध के बृहस्पतिवार तक 6 मनु, 27 युग, 3 युगपाद व्यतीत हो चुके हैं।' 'काह'-का अर्थ है कस्य ब्रह्मणः अहः दिवसः; आर्यभट्ट के अनुसार ढ 14; श्ख 72; ष् 70 एवं ख 2; छना 27 (छ 7 एवं न या ना 20); ग 3।
  94. बृहत्संहिता 1|4
  95. बृहत्संहिता 103|61-63
  96. वैखानस-स्मार्त-सूत्र 1|4
  97. बौधायन धर्मसूत्र 2|5|23
  98. याज्ञवल्क्य स्मृति 1|296
  99. नारद पुराण 1|5180
  100. और देखिए मत्स्य पुराण (93|7), विष्णुधर्मोत्तर पुराण (78|1-7) आदि।
  101. महाभारत आश्वमेधिक पर्व 44|2
  102. 11. 'नाड़ी' एवं 'नाड़िका' के कई अर्थ हैं-मुरली, नली, धमनी, एक आधा मुहूर्त। 'नाडिन्घम' का अर्थ स्वर्णकार है (क्योंकि वह एक नली से फूँककर आग धौंकता है)। काठकसंहिता (23|4 सैषा वनस्पतिषु वाग्वदति या नाड्या तूणवे) से प्रकट होता है कि नाड़ी एक ऐसा वाद्य था जिससे स्वर निकलते थे।
  103. कर्निघम (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द 14, पृ0 1
  104. अल्बरूनी सचौ, जिल्द 1, अध्याय 19, पृ0 214-215

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