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'''फ़िराक़ गोरखपुरी''' (वास्तविक नाम- 'रघुपति सहाय') (जन्म- [[28 अगस्त]], [[1896]], [[गोरखपुर]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- [[3 मार्च]], [[1982]], [[दिल्ली]]) [[भारत]] के प्रसिद्धि प्राप्त और [[उर्दू]] के माने हुए शायर थे। उन्हें उर्दू कविता को बोलियों से जोड़ कर उसमें नई लोच और रंगत पैदा करने का श्रेय दिया जाता है। फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने साहित्यिक जीवन का आरंभ [[ग़ज़ल]] से किया था। [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[हिन्दी]], [[ब्रजभाषा]] और [[भारतीय संस्कृति]] की गहरी समझ होने के कारण उनकी शायरी में [[भारत]] की मूल पहचान रच-बस गई है। उन्हें '[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]]', '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' और 'सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड' से भी सम्मानित किया गया था। वर्ष [[1970]] में उन्हें 'साहित्य अकादमी' का सदस्य भी मनोनीत किया गया था।
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'''फ़िराक़ गोरखपुरी''' (वास्तविक नाम- 'रघुपति सहाय') (जन्म- [[28 अगस्त]], [[1896]], [[गोरखपुर]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- [[3 मार्च]], [[1982]], [[दिल्ली]]) [[भारत]] के प्रसिद्धि प्राप्त और [[उर्दू]] के माने हुए शायर थे। 'फिराक' उनका तख़ल्लुस था। उन्हें उर्दू कविता को बोलियों से जोड़ कर उसमें नई लोच और रंगत पैदा करने का श्रेय दिया जाता है। फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने साहित्यिक जीवन का आरंभ [[ग़ज़ल]] से किया था। [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[हिन्दी]], [[ब्रजभाषा]] और [[भारतीय संस्कृति]] की गहरी समझ होने के कारण उनकी शायरी में [[भारत]] की मूल पहचान रच-बस गई है। उन्हें '[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]]', '[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]]' और 'सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड' से भी सम्मानित किया गया था। वर्ष [[1970]] में उन्हें 'साहित्य अकादमी' का सदस्य भी मनोनीत किया गया था।
 
==जन्म तथा शिक्षा==  
 
==जन्म तथा शिक्षा==  
उर्दू के मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म वर्ष 1896 ई. में गोरखपुर, [[उत्तर प्रदेश]] में हुआ था। फ़िराक़ का पूरा नाम 'रघुपति सहाय फ़िराक़' था, किंतु अपनी शायरी में वे अपना उपनाम 'फ़िराक़' लिखते थे। उनके पिता का नाम मुंशी गोरख प्रसाद था, जो पेशे से वकील थे। मुंशी गोरख प्रसाद भले ही वकील थे, किंतु शायरी में भी उनका बहुत नाम था। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि शायरी फ़िराक़ साहब को विरासत में मिली थी। फ़िराक़ जी का [[विवाह]] [[29 जून]], [[1914]] को प्रसिद्ध जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। फ़िराक़ गोरखपुरी ने '[[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]]' में शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने बी. ए. में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद वे डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुए।
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उर्दू के मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, वर्ष 1896 ई. में गोरखपुर, [[उत्तर प्रदेश]] में हुआ था। फ़िराक़ का पूरा नाम 'रघुपति सहाय फ़िराक़' था, किंतु अपनी शायरी में वे अपना उपनाम 'फ़िराक़' लिखते थे। उनके पिता का नाम मुंशी गोरख प्रसाद था, जो पेशे से वकील थे। मुंशी गोरख प्रसाद भले ही वकील थे, किंतु शायरी में भी उनका बहुत नाम था। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि शायरी फ़िराक़ साहब को विरासत में मिली थी। फ़िराक़ जी का [[विवाह]] [[29 जून]], [[1914]] को प्रसिद्ध जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। फ़िराक़ गोरखपुरी ने '[[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]]' में शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने बी. ए. में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद वे डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुए।
 
====आन्दोलन में भागेदारी====
 
====आन्दोलन में भागेदारी====
 
इसी बीच देश की आज़ादी के लिए संघर्षरत राष्ट्रपिता [[महात्मा गाँधी]] ने '[[असहयोग आन्दोलन]]' छेड़ा तो फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी नौकरी त्याग दी और आन्दोलन में कूद पड़े। उन्हें गिरफ्तार किया गया और डेढ़ साल की सज़ा भी हुई। जेल से छूटने के बाद [[पंडित जवाहरलाल नेहरू]] ने 'अखिल भारतीय कांग्रेस' के दफ्तर में 'अण्डर सेक्रेटरी' की जगह पर उन्हें रखवा दिया। बाद में नेहरू जी के [[यूरोप]] चले जाने के बाद उन्होंने [[कांग्रेस]] का 'अण्डर सेक्रेटरी' का पद छोड़ दिया। इसके बाद 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' में वर्ष [[1930]] से लेकर [[1959]] तक [[अंग्रेज़ी]] के अध्यापक रहे।
 
इसी बीच देश की आज़ादी के लिए संघर्षरत राष्ट्रपिता [[महात्मा गाँधी]] ने '[[असहयोग आन्दोलन]]' छेड़ा तो फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी नौकरी त्याग दी और आन्दोलन में कूद पड़े। उन्हें गिरफ्तार किया गया और डेढ़ साल की सज़ा भी हुई। जेल से छूटने के बाद [[पंडित जवाहरलाल नेहरू]] ने 'अखिल भारतीय कांग्रेस' के दफ्तर में 'अण्डर सेक्रेटरी' की जगह पर उन्हें रखवा दिया। बाद में नेहरू जी के [[यूरोप]] चले जाने के बाद उन्होंने [[कांग्रेस]] का 'अण्डर सेक्रेटरी' का पद छोड़ दिया। इसके बाद 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' में वर्ष [[1930]] से लेकर [[1959]] तक [[अंग्रेज़ी]] के अध्यापक रहे।
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<blockquote><poem>बाबुल मोर नइहर छुटल जाए
 
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ऊ डयोढी तो परबत भई, आंगन भयो बिदेस</poem></blockquote>
 
ऊ डयोढी तो परबत भई, आंगन भयो बिदेस</poem></blockquote>
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==गजल, नज़्म और रुबाई==
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*फिराक़ ने उर्दू जगत को [[गजल|गजलों]], [[नज़्म|नज़्मों]] और [[रुबाई|रुबाइयों]] की एक बड़ी सौगात दी है।-
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तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते है"
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बेखुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो"
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हमारे दरमियां-ऐ-दोस्त लाखों ख़्वाब हायल है"
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*फिराक़ साहब एक सौन्दर्यप्रिय व्यक्ति थे। बदसूरती उन्हें किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं थी शायद यही कारण था जिसने उनके पारिवारिक जीवन को तहस-नहस कर दिया था। फिराक़ के एक वक्तव्य के अनुसार, "उनका एक ऐसी बदसूरती से पाला पड़ा जिसने उनके खून में ज़हर घोल दिया"। शायद यही वजह है कि फिराक़ ने जिस बीवी को ठुकरा दिया था, उसकी तलाश "रूप" की रुबाइयों में करते रहे। उनकी रुबाई की झलक देखिये-
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आइन ए नील गूं से फूटी है किरन
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आकाश पे अधखिले कंवल का जोबन
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यूँ उदी फ़ज़ा में लहलहाती है शफ़क
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==दबंग शख्सियत==
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फिराक़ एक बेहद मुँहफट और दबंग शख्सियत थे। एक बार वे एक मुशायरे में शिरकत कर रहे थे, काफी देर बाद उन्हें मंच पर आमंत्रित किया गया। फिराक़ ने माइक संभालते ही चुटकी ली और बोले, 'हजरात! अभी आप [[कव्वाली]] सुन रहे थे अब कुछ शेर सुनिए'। इसी तरह [[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]] के लोग हमेशा फिराक़ और उनके सहपाठी अमरनाथ झा को लड़ा देने की कोशिश करते रहते थे। एक महफिल में फिराक़ और झा दोनों ही थे एक साहब दर्शकों को संबोधित करते हुए बोले,'फिराक़ साहब हर बात में झा साहब से कमतर हैं" इस पर फिराक़ तुरंत उठे और बोले, "भाई अमरनाथ मेरे गहरे दोस्त हैं और उनमें एक ख़ास खूबी है कि वो अपनी झूठी तारीफ बिलकुल पसंद नहीं करते"। फिराक़ की हाज़िर-जवाबी ने उन हज़रत का मिजाज़ दुरुस्त कर दिया।<ref>{{cite web |url=http://baithak.hindyugm.com/2010/03/almast-shayar-firaq-gorakhpuri.html |title=अलमस्त शायर फ़िराक़ गोरखपुरी |accessmonthday=4 मार्च |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
 
==सम्मान और पुरस्कार==
 
==सम्मान और पुरस्कार==
 
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#'[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]]' - [[1960]] में 'गुल-ए-नगमा' के लिए।
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#[[1968]] में फ़िराक़ गोरखपुरी को [[साहित्य]] एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा '[[पद्म भूषण]]' से भी सम्मानित किया गया।
 
#[[1968]] में फ़िराक़ गोरखपुरी को [[साहित्य]] एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा '[[पद्म भूषण]]' से भी सम्मानित किया गया।
 
==निधन==
 
==निधन==
[[3 मार्च]], [[1892]] में फ़िराक़ गोरखपुरी का देहांत हो गया।  
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अपने अंतिम दिनों में जब शारीरिक अस्वस्थता निरंतर उन्हें घेर रही थी वो काफी अकेले हो गए थे। अपने अकेलेपन को उन्होंने कुछ इस तरह बयां किया-
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'अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूँ ही कभूं लब खोले हैं,
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पहले फिराक़ को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं'।
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[[3 मार्च]], [[1892]] में फ़िराक़ गोरखपुरी का देहांत हो गया। फिराक़ गोरखपुरी उर्दू नक्षत्र का वो जगमगाता सितारा हैं जिसकी रौशनी आज भी शायरी को एक नया  मक़ा दे रही है। इस अलमस्त शायर की शायरी की गूँज हमारे दिलों में हमेशा जिंदा रहेगी। बकौल फिराक़ 'ऐ मौत आके ख़ामोश कर गई तू, सदियों दिलों के अन्दर हम गूंजते रहेंगे'।
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06:43, 4 मार्च 2013 का अवतरण

फ़िराक़ गोरखपुरी
फ़िराक़ गोरखपुरी
पूरा नाम रघुपति सहाय 'फ़िराक़ गोरखपुरी'
जन्म 28 अगस्त, 1896
जन्म भूमि गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 3 मार्च, 1982
मृत्यु स्थान दिल्ली
पति/पत्नी किशोरी देवी
कर्म-क्षेत्र साहित्य
मुख्य रचनाएँ गुले-नग़मा, बज्में ज़िन्दगी रंगे-शायरी, सरगम आदि
भाषा उर्दू, फ़ारसी, हिंदी, ब्रजभाषा
विद्यालय इलाहाबाद विश्वविद्यालय
शिक्षा कला स्नातक
पुरस्कार-उपाधि साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्म भूषण
प्रसिद्धि उर्दू शायर, शिक्षक
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी गांधी जी के साथ असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हुए और जेल भी गये। कुछ दिनों आनन्द भवन, इलाहाबाद में पंडित नेहरू के सहायक के रूप में कांग्रेस का कामकाज भी देखा।
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इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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फ़िराक़ गोरखपुरी (वास्तविक नाम- 'रघुपति सहाय') (जन्म- 28 अगस्त, 1896, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 3 मार्च, 1982, दिल्ली) भारत के प्रसिद्धि प्राप्त और उर्दू के माने हुए शायर थे। 'फिराक' उनका तख़ल्लुस था। उन्हें उर्दू कविता को बोलियों से जोड़ कर उसमें नई लोच और रंगत पैदा करने का श्रेय दिया जाता है। फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने साहित्यिक जीवन का आरंभ ग़ज़ल से किया था। फ़ारसी, हिन्दी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ होने के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है। उन्हें 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' और 'सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड' से भी सम्मानित किया गया था। वर्ष 1970 में उन्हें 'साहित्य अकादमी' का सदस्य भी मनोनीत किया गया था।

जन्म तथा शिक्षा

उर्दू के मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, वर्ष 1896 ई. में गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। फ़िराक़ का पूरा नाम 'रघुपति सहाय फ़िराक़' था, किंतु अपनी शायरी में वे अपना उपनाम 'फ़िराक़' लिखते थे। उनके पिता का नाम मुंशी गोरख प्रसाद था, जो पेशे से वकील थे। मुंशी गोरख प्रसाद भले ही वकील थे, किंतु शायरी में भी उनका बहुत नाम था। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि शायरी फ़िराक़ साहब को विरासत में मिली थी। फ़िराक़ जी का विवाह 29 जून, 1914 को प्रसिद्ध जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। फ़िराक़ गोरखपुरी ने 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' में शिक्षा प्राप्त की थी। उन्होंने बी. ए. में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद वे डिप्टी कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुए।

आन्दोलन में भागेदारी

इसी बीच देश की आज़ादी के लिए संघर्षरत राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'असहयोग आन्दोलन' छेड़ा तो फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपनी नौकरी त्याग दी और आन्दोलन में कूद पड़े। उन्हें गिरफ्तार किया गया और डेढ़ साल की सज़ा भी हुई। जेल से छूटने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 'अखिल भारतीय कांग्रेस' के दफ्तर में 'अण्डर सेक्रेटरी' की जगह पर उन्हें रखवा दिया। बाद में नेहरू जी के यूरोप चले जाने के बाद उन्होंने कांग्रेस का 'अण्डर सेक्रेटरी' का पद छोड़ दिया। इसके बाद 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' में वर्ष 1930 से लेकर 1959 तक अंग्रेज़ी के अध्यापक रहे।

साहित्यिक जीवन

फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने साहित्यिक जीवन का आरंभ ग़ज़ल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन के आरंभिक समय में 6 दिसंबर, 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बनाए गए थे। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बँधा रहा है, जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। फ़िराक़ जी ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फ़िराक़ जी ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फ़ारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है।

कृतियाँ

फ़िराक़ गोरखपुरी ने बड़ी मात्रा में रचनाएँ की थीं। उनकी शायरी बड़ी उच्चकोटि की मानी जाती हैं। वे बड़े निर्भीक शायर थे। उनके कविता संग्रह 'गुलेनग्मा' पर 1960 में उन्हें 'साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला और इसी रचना पर वे 1969 में भारत के एक और प्रतिष्ठित सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किये गये थे। उन्होंने एक उपन्यास 'साधु और कुटिया' और कई कहानियाँ भी लिखी थीं। उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा में उनकी दस गद्य कृतियाँ भी प्रकाशित हुई हैं। फ़िराक़ गोरखपुरी की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

फ़िराक़ की प्रमुख शायरी, नज़्में और रुबाइयाँ
क्र. स. रचना क्र. स. रचना
1. गुल-ए-नगमा 2. मशअल
3. रूहे-कायनात 4. नग्म-ए-साज
5. गजालिस्तान 6. शेरिस्तान
7. शबनमिस्तान 8. रूप
9. धरती की करवट 10. रम्ज व कायनात
11. चिरागां 12. शोअला व साज
13. हज़ार दास्तान 14. बज्मे जिन्दगी
15. गुलबाग़ 16. जुगनू
17. नकूश 18. आधीरात
19. परछाइयाँ 20. तरान-ए-इश्क
फ़िराक़ साहब के सम्मान में डाक टिकट

शैली

फ़िराक़ गोरखपुरी ने ग़ज़ल, नज़्म और रुबाई तीनों विधाओं में काफ़ी कहा है। रुबाई, नज़्म की ही एक विधा है, लेकिन आसानी के लिए इसे नज़्म से अलग कर लिया गया। उनके कलाम का सबसे बडा और अहम हिस्सा ग़ज़ल है और यही फ़िराक़ की पहचान है। वह सौंदर्यबोध के शायर हैं और यह भाव ग़ज़ल और रुबाई दोनों में बराबर व्यक्त हुआ है। फ़िराक़ साहब ने ग़ज़ल और रुबाई को नया लहजा और नई आवाज़ अदा की। इस आवाज़ में अतीत की गूंज भी है, वर्तमान की बेचैनी भी। फ़ारसी, हिन्दी, ब्रजभाषा और हिन्दू धर्म की संस्कृति की गहरी जानकारी की वजह से उनकी शायरी में हिन्दुस्तान की मिट्टी रच-बस गई है। यह तथ्य भी विचार करने योग्य है कि उनकी शायरी में आशिक और महबूब परंपरा से बिल्कुल अलग अपना स्वतंत्र संसार बसाये हुए हैं-

शाम भी थी धुआँ-धुआँ, हुस्न भी था उदास-उदास।
दिल को कई कहानियां याद सी आ के रह गई॥

फ़िराक़ साहब की रुबाइयों में टूटकर मोहब्बत करने वाली हिंदुस्तानी औरत की ऐसी खूबसूरत तस्वीरें मिलती हैं, जिनकी मिसाल मुश्किल से मिलेगी-

निर्मल जल से नहा के रस से निकली पुतली,

बालों में अगरचे की खुशबू लिपटी।
सतरंग धनुष की तरह हाथों को उठाये,

फैलाती है अलगनी पर गीली साडी॥[1]

'रूप' की रुबाइयाँ

फ़िराक़ गोरखपुरी का कहना था कि 'रूप' की रुबाईयों में नि:स्संदेह ही एक भारतीय हिन्दू स्त्री का चेहरा है, चाहे रुबाईयाँ उर्दू में ही क्यों न लिखी गई हों। 'रूप' की भूमिका में वे लिखते हैं- "मुस्लिम कल्चर बहुत ऊँची चीज है, और पवित्र चीज है, मगर उसमें प्रकृति, बाल जीवन, नारीत्व का वह चित्रण या घरेलू जीवन की वह बू–बास नहीं मिलती, वे जादू भरे भेद नहीं मिलते, जो हिन्दू कल्चर में मिलते हैं। कल्चर की यही धारणा हिन्दू घरानों के बर्तनों में, यहाँ तक कि मिट्टी के बर्तनों में, दीपकों में, खिलौनों में, यहाँ तक कि चूल्हे-चक्की में, छोटी-छोटी रस्मों में और हिन्दू की साँस में इसी की ध्वनियाँ, हिन्दू लोकगीतों को अत्यन्त मानवीय संगीत और स्वार्गिक संगीत बना देती है।"[2]

बाबुल मोर नइहर छुटल जाए
ऊ डयोढी तो परबत भई, आंगन भयो बिदेस

गजल, नज़्म और रुबाई

"बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं,
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते है"

  • या फिर ...

"शामे-ग़म कुछ उस निगाहे-नाज़ की बातें करो,
बेखुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो"

  • या फिर ...

"न हैरत कर तेरे आगे जो हम कुछ चुप से रहते हैं
हमारे दरमियां-ऐ-दोस्त लाखों ख़्वाब हायल है"

  • फिराक़ साहब एक सौन्दर्यप्रिय व्यक्ति थे। बदसूरती उन्हें किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं थी शायद यही कारण था जिसने उनके पारिवारिक जीवन को तहस-नहस कर दिया था। फिराक़ के एक वक्तव्य के अनुसार, "उनका एक ऐसी बदसूरती से पाला पड़ा जिसने उनके खून में ज़हर घोल दिया"। शायद यही वजह है कि फिराक़ ने जिस बीवी को ठुकरा दिया था, उसकी तलाश "रूप" की रुबाइयों में करते रहे। उनकी रुबाई की झलक देखिये-

आइन ए नील गूं से फूटी है किरन
आकाश पे अधखिले कंवल का जोबन
यूँ उदी फ़ज़ा में लहलहाती है शफ़क
जिस तरह खिले तेरे तबस्सुम का चमन।

दबंग शख्सियत

फिराक़ एक बेहद मुँहफट और दबंग शख्सियत थे। एक बार वे एक मुशायरे में शिरकत कर रहे थे, काफी देर बाद उन्हें मंच पर आमंत्रित किया गया। फिराक़ ने माइक संभालते ही चुटकी ली और बोले, 'हजरात! अभी आप कव्वाली सुन रहे थे अब कुछ शेर सुनिए'। इसी तरह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लोग हमेशा फिराक़ और उनके सहपाठी अमरनाथ झा को लड़ा देने की कोशिश करते रहते थे। एक महफिल में फिराक़ और झा दोनों ही थे एक साहब दर्शकों को संबोधित करते हुए बोले,'फिराक़ साहब हर बात में झा साहब से कमतर हैं" इस पर फिराक़ तुरंत उठे और बोले, "भाई अमरनाथ मेरे गहरे दोस्त हैं और उनमें एक ख़ास खूबी है कि वो अपनी झूठी तारीफ बिलकुल पसंद नहीं करते"। फिराक़ की हाज़िर-जवाबी ने उन हज़रत का मिजाज़ दुरुस्त कर दिया।[3]

सम्मान और पुरस्कार

  1. 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' - 1960 में 'गुल-ए-नगमा' के लिए।
  2. 'सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड' - 1968
  3. 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' - 1969 में 'गुल-ए-नगमा' के लिये ।
  4. 1968 में फ़िराक़ गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा 'पद्म भूषण' से भी सम्मानित किया गया।

निधन

अपने अंतिम दिनों में जब शारीरिक अस्वस्थता निरंतर उन्हें घेर रही थी वो काफी अकेले हो गए थे। अपने अकेलेपन को उन्होंने कुछ इस तरह बयां किया-

'अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं, यूँ ही कभूं लब खोले हैं,
पहले फिराक़ को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं'।

3 मार्च, 1892 में फ़िराक़ गोरखपुरी का देहांत हो गया। फिराक़ गोरखपुरी उर्दू नक्षत्र का वो जगमगाता सितारा हैं जिसकी रौशनी आज भी शायरी को एक नया मक़ा दे रही है। इस अलमस्त शायर की शायरी की गूँज हमारे दिलों में हमेशा जिंदा रहेगी। बकौल फिराक़ 'ऐ मौत आके ख़ामोश कर गई तू, सदियों दिलों के अन्दर हम गूंजते रहेंगे'।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गंगा-जमुनी तहजीब के शायर फ़िराक़ गोरखपुरी (हिन्दी) याहू जागरण डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 3 मार्च, 2012।
  2. भारतीय सौन्दर्य और प्रेम का जादू (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 2 मार्च, 2013।
  3. अलमस्त शायर फ़िराक़ गोरखपुरी (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 4 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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