भक्तमाल

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नाभादास का 'भक्तमाल' बहुत प्रसिद्ध हिन्दी ग्रंथ है। नाभादास का प्रसिद्ध ग्रंथ 'भक्तमाल' संवत् 1642 के बाद बना और संवत् 1769 में 'प्रियादास' जी ने उसकी टीका लिखी। इस ग्रंथ में 200 भक्तों के चमत्कारपूर्ण चरित्र 316 छप्पयों में लिखे गए हैं। इन चरित्रों में पूर्ण जीवनवृत्त नहीं है, केवल भक्ति की महिमासूचक बातें दी गई हैं। इनका उद्देश्य भक्तों के प्रति जनता में पूज्यबुद्धि का प्रचार जान पड़ता है। यह उद्देश्य बहुत अंशों में सिद्ध भी हुआ। आज उत्तरी भारत के गाँव गाँव में साधुवेषधारी पुरुषों को शास्त्रज्ञ विद्वानों और पंडितों से कहीं बढ़कर जो सम्मान और पूजा प्राप्त है, वह बहुत कुछ भक्तों की करामातों और चमत्कारपूर्ण वृत्तांतों के सम्यक् प्रचार से।[1]

भक्तमाल का प्रकाशन

भक्तमाल का प्रकाशन श्रीरामकृपालदास 'चित्रकूटी' द्वारा किया गया है। नाभादास की भक्तमाल एक ऐसी रचना है, जो मध्यकालीन संत-भक्तों के जीवन के संबंध में आधारभूत सामग्री उपलब्ध करवाती है। सत्रहवीं शताब्दी के छठे और सातवें दशक में वर्तमान के एक प्रसिद्ध वैष्णव भक्त (नाभादास) जो जाति के डोम थे। उन्होंने अपने गुरु अग्रदास की आज्ञा से ‘भक्तमाल’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा था। नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि सखी-सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपसना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखी-भाव से कहता है। सखी-सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है।

कवियों के संबंध में

  • 'भक्तमाल' की टीका के अनुसार रहीम ने ऐसी ही परिस्थिति में व्यंग्यपूर्ण दोहे रचे थे। अनुमानत: गोस्वामी जी ने यही बात रसखान के संबंध में भी कह डाली।
  • नंददास 16 वीं शती के अंतिम चरण के कवि थे। इनके विषय में ‘भक्तमाल’ में लिखा है-

‘चन्द्रहास-अग्रज सुहृद परम प्रेम में पगे’

  • राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध भक्त चतुर्भुजदास का वर्णन नाभा जी ने अपने 'भक्तमाल' में किया है।
  • भक्तमाल के अनुसार राघवानन्द ही रामानन्द के गुरु थे। अपनी उदार विचारधारा के कारण रामानन्द ने स्वतन्त्र सम्प्रदाय स्थापित किया। उनका केन्द्र मठ काशी के पंच गंगाघाट पर था, फिर भी उन्होंने भारत के प्रमुख तीर्थों की यात्राएँ की थीं और अपने मत का प्रचार किया था।

सूरदास के संबंध में

'भक्तमाल' में सूरदास के संबंध में केवल एक यही छप्पय मिलता है:-

उक्ति चोज अनुप्रास बरन अस्थिति अति भारी।
बचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तुक धारी
प्रतिबिंबित दिवि दिष्टि, हृदय हरिलीला भासी।
जनम करम गुन रूप सबै रसना परकासी
बिमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन श्रवननि धारै।
सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै[2]

इस छप्पय में सूर के अंधे होने भर का संकेत है जो परंपरा से प्रसिद्ध चला आता है। जीवन का कोई विशेष प्रामाणिक वृत्त न पाकर इधर कुछ लोगों ने सूर के समय के आसपास के किसी ऐतिहासिक लेख में जहाँ कहीं सूरदास नाम मिला है वहीं का वृत्त प्रसिद्ध सूरदास पर घटाने का प्रयत्न किया है।

कबीर के संबंध में

नाभादास ने अपने भक्तमाल में दो छप्पयों में कबीर के विषय में कुछ सूचनाएँ दी हैं। प्रथम छप्पय में कबीरदास की वाणी की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। जैसे उनके द्वारा स्थापित भक्ति की विशिष्टता, योग, यज्ञ, व्रत और दान की तुच्छता। हिन्दू और तुर्क दोनों के प्रमाण हेतु रमैनी, सबदी और साखी की रचना, वर्णाश्रम धर्म की उपेक्षा आदि। साथ ही रामानन्द के शिष्यों में कबीर की भी परिगणना की गई है। दूसरे छप्पय की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगतरन कियो।।
अनन्तानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्यावति नरहरि।
पीपा वामानन्द रैदास धना सेन सुरसरि की धरहरि।।
औरो शिष्य प्रशिष्य एकते एक उजागर।
विश्व मंगल आधार सर्वानन्द दशधा के आगर।।
बहुत काल बपु धारि कै प्रनत जनत को पार दियौ।
श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेतु जगरतन कियौ।।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 4”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 108।
  2. कृष्णभक्ति शाखा (1) - हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) हिन्दीकुंज। अभिगमन तिथि: 20 अक्टूबर, 2010
  3. कबीर का जीवन-वृत्त (हिन्दी) पुस्तक डॉट ओ अर जी। अभिगमन तिथि: 20 अक्टूबर, 2010

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