मतंग

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मतंग रामायण कालीन एक ऋषि थे, जो शबरी के गुरु थे।[1] यह एक ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न एक नापित के पुत्र थे। ब्राह्मणी के पति ने इन्हें अपने पुत्र के समान ही पाला था। गर्दभी के साथ संवाद से जब इन्हें यह विदित हुआ कि मैं ब्राह्मण पुत्र नहीं हूँ, तब इन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए घोर तप किया। इन्द्र के वरदान से मतंग 'छन्दोदेव' के नाम से प्रसिद्ध हुए।[2] रामायण के अनुसार ऋष्यमूक पर्वत के निकट इनका आश्रम था, जहाँ श्रीराम गए थे।[3]

शबरी के आश्रयदाता

शबरी के पिता भीलों के राजा हुआ करते थे। पिता ने शबरी का विवाह एक भील जाति के लड़के से कराना चाहा। हज़ारों भैंसे और बकरे विवाह में बलि के लिए लाये गए। यह देखकर शबरी का मन बड़ा ही द्रवित हो उठा और वह आधी रात को भाग खड़ी हुई। भागते हुए एक दिन वह दण्डकारण्य में पम्पासर पहुँच गयी। वहाँ ऋषि मतंग अपने शिष्यों को ज्ञान दे रहे थे। शबरी का मन बहुत प्रभावित हुआ और उन्होंने उनके आश्रम से कुछ दूर अपनी छोटी-सी कुटिया बना ली। वह अछूत थी, इसलिए रात में छुप कर जिस रास्ते से ऋषि आते-जाते थे, उसे साफ़ करके गोबर से लीप देती और स्वच्छ बना देती। एक दिन मतंग के शिष्यों ने उन्हें देख लिया गया और मतंग ऋषि के सामने लाया गया। उन्होंने कहा कि भगवद भक्ति में जाति कोई बाधा नहीं हो सकती। शबरी पवित्र और शुद्ध है। उस पर लाखों ब्राह्मणों के धर्म कर्म न्योछावर हैं। सब लोग चकित रह गए। मतंग ऋषि ने कहा की एक दिन श्रीराम तुझे दर्शन देंगे। वो तेरी कुटिया में आयेंगे।

बालि को शाप

मतंग ऋषि के शाप के कारण ही वानरराज बालि ऋष्यमूक पर्वत पर आने से डरता था। इस बारे में कहा जाता है कि दुंदुभी नामक एक दैत्य को अपने बल पर बड़ा गर्व था, जिस कारण वह एक बार समुद्र के पास पहुँचा तथा उसे युद्ध के लिए ललकारा। समुद्र ने उससे लड़ने में असमर्थता व्यक्त की तथा कहा कि उसे हिमवान से युद्ध करना चाहिए। दुंदुभी ने हिमवान के पास पहुँचकर उसकी चट्टानों और शिखरों को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया। हिमवान ऋषियों का सहायक था तथा युद्ध आदि से दूर रहता था। उसने दुंदुभी को इंद्र के पुत्र बालि से युद्ध करने के लिए कहा। बालि से युद्ध होने पर बालि ने उसे मार डाला तथा रक्त से लथपथ उसके शव को एक योजन दूर उठा फेंका। मार्ग में उसके मुँह से निकली रक्त की बूंदें महर्षि मतंग के आश्रम पर जाकर गिरीं। महर्षि मतंग ने बालि को शाप दिया कि वह और उसके वानरों में से कोई भी यदि उनके आश्रम के पास एक योजन की दूरी तक जायेगा तो वह मर जायेगा। अत: बालि के समस्त वानरों को भी वह स्थान छोड़कर जाना पड़ा। मतंग का आश्रम ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित था, अत: बालि और उसके वानर वहाँ नहीं जा सकते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्मांडपुराण 4.31.90
  2. महाभारत, अनुशासनपर्व 27.8.24
  3. वायुपुराण 77. 98

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