महाश्वेता देवी

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महाश्वेता देवी
महाश्वेता देवी
जन्म 14 जनवरी, 1926
जन्म भूमि ढाका, ब्रिटिश भारत
मृत्यु 28 जुलाई, 2016
मृत्यु स्थान कोलकाता, भारत
अभिभावक पिता- मनीष घटक, माता- धारीत्री देवी
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र साहित्यकार, उपन्यासकार, निबन्धकार
मुख्य रचनाएँ 'अग्निगर्भ', 'जंगल के दावेदार', '1084 की माँ', 'माहेश्वर', 'ग्राम बांग्ला', 'झाँसी की रानी', 'मातृछवि' और 'जकड़न' आदि।
भाषा हिन्दी, बांग्ला
विद्यालय 'विश्वभारती विश्वविद्यालय', शांतिनिकेतन; कलकत्ता विश्वविद्यालय
शिक्षा बी.ए., एम.ए., अंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर डिग्री
पुरस्कार-उपाधि 'मेग्सेसे पुरस्कार' (1977), 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' (1979), 'पद्मश्री' (1986), 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' (1996), 'पद्म विभूषण' (2006)
प्रसिद्धि सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी महाश्वेता देवी की कृतियों पर कई फ़िल्मों का निर्माण भी हुआ, जैसे- 1968 में 'संघर्ष', 1993 में 'रूदाली', 1998 में 'हजार चौरासी की माँ' तथा 2006 में 'माटी माई' आदि।
अद्यतन‎ 12:30, 30 जुलाई, 2016 (IST)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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महाश्वेता देवी (अंग्रेज़ी: Mahasweta Devi, जन्म- 14 जनवरी, 1926, ढाका; मृत्यु- 28 जुलाई, 2016, कोलकाता) भारत की प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। उन्होंने बांग्ला भाषा में बेहद संवेदनशील तथा वैचारिक लेखन के माध्यम से उपन्यास तथा कहानियों से साहित्य को समृद्धशाली बनाया। अपने लेखन के कार्य के साथ-साथ महाश्वेता देवी ने समाज सेवा में भी सदैव सक्रियता से भाग लिया और इसमें पूरे मन से लगी रहीं। स्त्री अधिकारों, दलितों तथा आदिवासियों के हितों के लिए उन्होंने जूझते हुए व्यवस्था से संघर्ष किया तथा इनके लिए सुविधा तथा न्याय का रास्ता बनाती रहीं। 1996 में उन्हें 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। महाश्वेता जी ने कम उम्र में ही लेखन कार्य शुरु कर दिया था और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

परिचय

14 जनवरी, 1926 को महाश्वेता देवी का जन्म अविभाजित भारत के ढाका में जिंदाबहार लेन में हुआ था। इनके जन्म के समय माँ धरित्री देवी मायके में थीं। माँ की उम्र तब 18 वर्ष और पिता मनीष घटक की 25 वर्ष थी। पिता मनीष घटक ख्याति प्राप्त कवि और साहित्यकार थे। माँ धरित्री देवी भी साहित्य की गंभीर अध्येता थीं। वे समाज सेवा में भी संलग्न रहती थीं। महाश्वेता ने जब बचपन में साफ-साफ बोलना शुरू किया तो उन्हें जो जिस नाम से पुकारता, वे भी उसी नाम से उसे पुकारतीं। पिता इन्हें 'तुतुल' कहते थे तो ये भी पिता को तुतुल ही कहतीं। आजीवन पिता उनके लिए तुतुल ही रहे।[1] भारत के विभाजन के समय किशोर अवस्था में ही उनका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर रहने लगा था। इसके उपरांत उन्होंने 'विश्वभारती विश्वविद्यालय', शांतिनिकेतन से बी.ए. अंग्रेज़ी विषय के साथ किया। फिर 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से एम.ए. भी अंग्रेज़ी में किया। महाश्वेता देवी ने अंग्रेज़ी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त की थी। इसके बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में उन्होंने अपना जीवन प्रारम्भ किया। इसके तुरंत बाद ही कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी व्याख्याता के रूप में आपने नौकरी प्राप्त कर ली। सन 1984 में इन्होंने सेवानिवृत्ति ले ली।

प्रारम्भिक शिक्षा तथा नटखट स्वभाव

बचपन से ही महाश्वेता मातृभक्त रहीं। थोड़ी बड़ी हुईं तो ढाका के 'इंडेन मांटेसरी स्कूल' में भर्ती कराया गया। चार वर्ष की उम्र में ही बांग्ला लिखना-पढ़ना सीख गई थीं। पिता को नौकरी मिल गई थी। कई बार बदली हुई। तबादले पर उन्हें ढाका, मनमनसिंह, जलपाईगुड़ी, दिनाजपुर और फरीदपुर जाना पड़ा। ढाका के जिंदाबहार लेन में महाश्वेता का ननिहाल था और नतून भोरेंगा में पिता का गाँव। ननिहाल आना-जाना लगा रहता था। दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ तो ननिहाल में ही कटतीं। बचपन में महाश्वेता नटखट थीं। इतनी कि एक बार ननिहाल में रहते हुए भोरंगा की दुर्गा पूजा देखने गई थीं। चार भाई-बहनों के साथ। भाई बहनों को लेकर वे एक स्नान घाट से उतरीं। स्नान करने और तैरने का मजा काफूर हो गया, जब चारों बच्चे डूबने से बचे। उस दिन सप्तमी की पूजा थी। घर आईं तो खूब डाँट पड़ी थी।

शांतिनिकेतन में शिक्षा

1935 में महाश्वेता जी के पिता का तबादला मेदिनीपुर हुआ तो महाश्वेता का वहाँ के मिशन स्कूल में दाखिला कराया गया, लेकिन उसके अगले वर्ष ही मेदिनीपुर से नाता टूट गया; क्योंकि उन्हें शांतिनिकेतन भेजने का फैसला किया गया। तब वे दस वर्ष की थीं। शांतिनिकेतन के नियमानुसार लाल रंग के किनारे वाली साड़ी, बिस्तर, लोटा, गिलास वगैरह खरीदा गया। शांतिनिकेतन में मिली नई जगह, सुंदर भवन, लाइब्रेरी आदि में महाश्वेता को उन्मुक्त प्रकृति मिली। नई सहेलियाँ मिलीं। आश्रम की दिनचर्या ऐसी थी कि सभी छात्र सुबह से देर रात तक व्यस्त रहते। शिक्षा का माध्यम बांग्ला होने के बावजूद अंग्रेज़ी अनिवार्य थी। शांतिनिकेतन में महाश्वेता का जल्दी ही मन लग गया। वहाँ उन्हें श्रेष्ठ शिक्षक मिले। बकौल महाश्वेता, ‘आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी पढ़ाते थे। सभी आश्रमवासी उन्हें छोटा पंडित जी कहते थे। 1937 में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी बांग्ला की कक्षा ली थी। तब सातवीं कक्षा की छात्रा महाश्वेता के लिए यह अविस्मरणीय घटना थी। गुरुदेव ने पाठ परिचय से बलाई पढ़ाया था। इसके पहले 1936 में बंकिम शतवार्षिकी समारोह में रवींद्रनाथ का भाषण सुना था महाश्वेता ने।[1]

कलकत्ता आगमन

महाश्वेता शांतिनिकेतन में तीन साल ही रह सकीं, क्योंकि 1939 में उन्हें कलकत्ता बुला लिया गया। शांतिनिकेतन जाने पर वे जितना रोई थीं, उससे ज्यादा उसके छूटने पर रोई थीं। 1939 में शांतिनिकेतन से लौटने के बाद कलकत्ता के 'बेलतला बालिका विद्यालय' में आठवीं कक्षा में महाश्वेता का दाखिला हुआ। उसी साल उनके काका ऋत्विक घटक भी घर आकर रहने लगे। वे 1941 तक यहाँ रहे। 1939 में बेलतला स्कूल में महाश्वेता की शिक्षिका थीं अपर्णा सेन। उनके बड़े भाई खेगेंद्रनाथ सेन ‘रंगमशाल’ निकालते थे। उन्होंने एक दिन रवींद्रनाथ की पुस्तक ‘छेलेबेला’ देते हुए महाश्वेता से उस पर कुछ लिखकर देने को कहा। महाश्वेता ने लिखा और वह ‘रंगमशाल’ में छपा भी। यह महाश्वेता की पहली रचना थी। स्कूली जीवन में ही महाश्वेता ने राजलक्ष्मी और धीरेश भट्टाचार्य के साथ मिलकर एक अल्पायु स्वहस्तलिखित पत्रिका निकाली – ‘छन्नछाड़ा।’

नानी, दादी व माँ ने महाश्वेता को अच्छे साहित्य पढ़ने के संस्कार दिए। कोई किताब पढ़ने के बाद कोई प्रसंग दादी माँ पूछ भी लेती थीं। बचपन में दादी की लाइब्रेरी से ही लेकर महाश्वेता ने ‘टम काकार कुटीर’ पढ़ा था। घर का पूरा माहौल ही शिक्षा और संस्कृतमय था। इसलिए लिखने-पढ़ने का एक नियमित अभ्यास छुटपन में ही हो गया। हेम-बंधु-बंकिम-नवीन-रंगलाल को उन्होंने 12 वर्ष की उम्र में ही पढ़ लिया। माँ देश प्रेम और इतिहास की पुस्तकें पढ़ने को देतीं और कहतीं- "अभी इन पुस्तकों को पढ़ना जरूरी है। बाद में अपनी इच्छा से पढ़ना।" पिता की भी बड़ी समृद्ध लाइब्रेरी थी। तब के 'नोबेल पुरस्कार' प्राप्त कई लेखकों की रचनाएँ महाश्वेता ने पिता की लाइब्रेरी से ही लेकर पढ़ी थीं। 1939-1944 के दौरान महाश्वेता के पिता ने कलकत्ता में सात बार घर बदले। 1942 में घर के सारे कामकाज करते हुए महाश्वेता ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उस वर्ष (1942) 'भारत छोड़ो आंदोलन' ने महाश्वेता के किशोर मन को बहुत उद्वेलित किया। 1943 में अकाल पड़ा। तब महिला आत्मरक्षा समिति के नेतृत्व में उन्होंने राहत और सेवा कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। अकाल के बाद महाश्वेता ने कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स वार’ और ‘जनयुद्ध’ की बिक्री भी की थी। पर पार्टी की सदस्य वे कभी नहीं हुईं।[1]

व्यावसायिक शुरुआत

किशोरवय में ही कंधे पर आ चुके पारिवारिक दायित्व को निभाने के प्रति भी महाश्वेता सदा सजग रहतीं। माँ के जीवन के आखिरी वर्षों में महाश्वेता ने पुरानी सिलाई मशीन चलाकर कपड़ों की सिलाई की। 1944 में महाश्वेता ने कलकत्ता के आशुतोष कॉलेज से इंटरमीडिएट किया। पारिवारिक दायित्व से कुछ मुक्ति मिली यानी वह भार छोटी बहन मितुल ने सँभाला तो महाश्वेता फिर शांतिनिकेतन गईं कॉलेज की पढ़ाई करने। वहाँ ‘देश’ के संपादक सागरमय घोष आते-जाते थे। उन्होंने महाश्वेता से ‘देश’ में लिखने को कहा। तब महाश्वेता बी.ए. तृतीय वर्ष में थीं। उस दौरान उनकी तीन कहानियाँ ‘देश’ में छपीं। हर कहानी पर दस रुपये का पारिश्रमिक मिला था। तभी उन्हें बोध हुआ कि लिख-पढ़कर भी गुजारा संभव है। उन्होंने शांतिनिकेतन से 1946 में अंग्रेज़ी में ऑनर्स के साथ स्नातक किया। उसके साल भर बाद 1947 में प्रख्यात रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य से उनका विवाह हुआ। 1948 में पदमपुकुर इंस्टीट्यूशन में अध्यापन कर महाश्वेता ने घर का खर्चा चलाया। उसी वर्ष पुत्र नवारुण भट्टाचार्य का जन्म हुआ। 1949 में महाश्वेता को केंद्र सरकार के डिप्टी एकाउंटेट जनरल, पोस्ट एंड टेलीग्राफ ऑफिस में अपर डिवीजन क्लर्क की नौकरी मिली। लेकिन एक वर्ष के भीतर ही, चूँकि पति कम्युनिस्ट थे, सो उनकी नौकरी चली गई। महाश्वेता अतुल गुप्त के पास गईं। उनकी नोटिस के दबाव में महाश्वेता की फिर बहाली हुई लेकिन इस बार महाश्वेता की दराज में मार्क्स और लेनिन की किताबें रखकर कम्युनिस्ट होने का आरोप लगाकर और अस्थायी होने के चलते दुबारा नौकरी से उन्हें हटा दिया गया। नौकरी जाने के बाद जीवन-संग्राम ज्यादा कठिन हो गया। महाश्वेता ने कपड़ा साफ करने के साबुन की बिक्री से लेकर ट्यूशन करके घर का खर्चा चलाया। यह क्रम 1957 में रमेश मित्र बालिका विद्यालय में मास्टरी मिलने तक चला। विजन भट्टाचार्य से विवाह होने से ही महाश्वेता जीवन संग्राम का यह पक्ष महसूस कर सकीं और एक सुशिक्षित, सुसंस्कृत परिवार की लड़की होने के बावजूद स्वेच्छा से संग्रामी जीवन का रास्ता चुन सकीं।

'झाँसीर रानी' की रचना

संघर्ष के इन दिनों ने ही लेखिका महाश्वेता को भी तैयार किया। उस दौरान उन्होंने खूब रचनाएँ पढ़ीं। विश्व के मशहूर लेखकों-चिंतकों की रचनाएँ, इलिया एरेनबर्ग, अलेक्सी टालस्टाय, गोर्की, चेखव, सोल्झेनित्सिन, मायकोवस्की और रूस के कई अन्य लेखकों की पुस्तकें पढ़ीं। उसी समय विजन भट्टाचार्य को एक हिंदी फिल्म की कहानी लिखने के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा। उनके साथ महाश्वेता भी गईं। मुंबई में महाश्वेता के बड़े मामा सचिन चौधरी थे। मामा के यहाँ ही महाश्वेता ने पढ़ा – वी.डी. सावरकर, 1857। उससे इतनी प्रभावित हुईं कि उनके मन में भी इसी तरह का कुछ लिखने का विचार आया। तय किया कि झाँसी की रानी पर वे किताब लिखेंगी। उन पर जितनी किताबें थीं, सब जुटाकर पढ़ा। मुंबई से आने के बाद ट्यूशन वगैरह तो चल ही रहा था, लेखन को भी जीविका का साधन बनाने का विचार दृढ़ होता गया।

महाश्वेता ने प्रतुल गुप्त को अपने मन की बात बताई कि वे झाँसी की रानी पर लिखना चाहती हैं। महाश्वेता ने झाँसी की रानी के भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्र व्यवहार शुरू किया। सामग्री जुटाने और पढ़ने के साथ-साथ उत्साहित होकर महाश्वेता ने लिखना भी शुरू कर दिया। फटाफट चार सौ पेज लिख डाले। पर इतना लिखने के बाद उनके मन ने कहा – यह तो कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने उसे फाड़कर फेंक दिया। झाँसी की रानी के बारे में और जानना पड़ेगा। तो इसके लिए छह वर्ष के बेटे नवारुण भट्टाचार्य और पति को कलकत्ता में छोड़कर अंततः झाँसी ही चली गईं। तब न पति के पास नौकरी थी न उनके पास। जैसे-तैसे शुभचिंतकों से पैसे लेकर वे 1954 में झाँसी की यात्रा पर निकलीं। अकेले उन्होंने बुंदेलखंड के चप्पे-चप्पे को अपने कदमों से नापा। वहाँ के लोकगीतों को कलमबद्ध किया। तब झाँसी की रानी की जीवनी लिखने वाले वृन्दावनलाल वर्मा झाँसी कंटोनमेंट में रहते थे। उनसे भी वे मिलीं। उनके परामर्श के मुताबिक झाँसी की रानी से जुड़े कई स्थानों का दौरा किया। बुंदेलखंड से लौटकर महाश्वेता ने नए सिरे से ‘झाँसीर रानी’ लिखी और ‘देश’ में यह रचना धारावाहिक छपने लगी। न्यू एज ने इसे पुस्तक के रूप में छापने के लिए महाश्वेता को पाँच सौ रुपये दिए। इस तरह महाश्वेता की पहली किताब 1956 में आई।[1]

लेखन कार्य

महाश्वेता जी ने कम उम्र में ही लेखन का कार्य शुरु कर दिया था, और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं आदि का योगदान दिया। इनका प्रथम उपन्यास 'नाती' 1957 में प्रकाशित किया गया था। 'झाँसी की रानी' महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है, जो 1956 में प्रकाशित हुई। उन्होंने स्वयं ही अपने शब्दों में कहा था कि- "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कोलकाता में बैठकर नहीं, बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर और ललितपुर के जंगलों; साथ ही झाँसी, ग्वालियर और कालपी में घटित तमाम घटनाएँ यानी 1857-1858 में इतिहास के मंच पर जो कुछ भी हुआ, सबको साथ लेकर लिखा। अपनी नायिका के अलावा लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज़ अफ़सर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है। महाश्वेता जी कहती थीं- "पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास हैं।" उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ', 'जंगल के दावेदार' और '1084 की माँ', 'माहेश्वर' और 'ग्राम बांग्ला' आदि हैं। पिछले चालीस वर्षों में इनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के क़रीब प्रकाशित हो चुके हैं।[2]

रचनाएँ

एक पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और आंदोलनधर्मी के रूप में महाश्वेता देवी ने अपार ख्याति प्राप्त की। ‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है, जो 1956 में प्रकाशित हुई। उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां', माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। पिछले चालीस वर्षों में उनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस संग्रह प्रकाशित किये जा चुके हैं और सौ उपन्यासों के क़रीब (सभी बंगला भाषा में) प्रकाशित हो चुकी है। महाश्वेता देवी की कृतियों पर फिल्में भी बनीं। 1968 में 'संघर्ष', 1993 में 'रूदाली', 1998 में 'हजार चौरासी की माँ', 2006 में 'माटी माई'।[3] महाश्वेता देवी की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

लघुकथाएँ - मीलू के लिए, मास्टर साब
कहानियाँ - स्वाहा, रिपोर्टर, वान्टेड
उपन्यास - नटी, अग्निगर्भ, झाँसी की रानी, मर्डरर की माँ, 1084 की माँ, मातृछवि, जली थी अग्निशिखा, जकड़न
आत्मकथा उम्रकैद, अक्लांत कौरव
आलेख - कृष्ण द्वादशी, अमृत संचय, घहराती घटाएँ, भारत में बंधुआ मज़दूर, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, ग्राम बांग्ला, जंगल के दावेदार, आदिवासी कथा
यात्रा संस्मरण - श्री श्री गणेश महिमा, ईंट के ऊपर ईंट
नाटक - टेरोडैक्टिल, दौलति[2]

समाज सेवा

बिहार, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके महाश्वेता देवी के कार्यक्षेत्र रहे। वहाँ इनका ध्यान लोढ़ा तथा शबरा आदिवासियों की दीन दशा की ओर अधिक रहा। इसी तरह बिहार के पलामू क्षेत्र के आदिवासी भी इनके सरोकार का विषय बने। इनमें स्त्रियों की दशा और भी दयनीय थी। महाश्वेता देवी ने इस स्थिति में सुधार करने का संकल्प लिया। 1970 से महाश्वेता देवी ने अपने उद्देश्य के हित में व्यवस्था से सीधा हस्तक्षेप शुरू किया। उन्होंने पश्चिम बंगाल की औद्योगिक नीतियों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन छेड़ा तथा विकास के प्रचलित कार्य को चुनौती दी।

पुरस्कार व सम्मान

1977 में महाश्वेता देवी को 'मेग्सेसे पुरस्कार' प्रदान किया गया। 1979 में उन्हें 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' मिला। 1996 में 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से वह सम्मानित की गईं। 1986 में 'पद्मश्री' तथा फिर 2006 में उन्हें 'पद्मविभूषण' सम्मान प्रदान किया गया।

निधन

महाश्वेता देवी का निधन 28 जुलाई, 2016 को कोलकाता में हुआ। उन्हें कोलकाता के 22 मई को बेल व्यू नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था। उनके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। दिल का दौरा पड़ने के बाद उनका निधन हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाश्वेता देवी का जीवन और साहित्य (हिन्दी) literaturepoint.com। अभिगमन तिथि: 30 जुलाई, 2016।
  2. 2.0 2.1 महाश्वेता देवी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 सितम्बर, 2012।
  3. महाश्वेता देवी (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 6 जनवरी, 2014।

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