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जब लॉर्ड मिण्टो भारत का गवर्नर बना, तब उस समय समूचा भारत राजनीतिक अशान्ति की तरफ़ धीरे-धीरे बढ़ रहा था। लॉर्ड मिण्टो ने इस अशान्ति के बारे में स्वयं लिखा था कि "ऊपर से शांत दिखने वाली सतह के नीचे राजनीतिक अशान्ति का गुबार छिपा था और उनमें से बहुत कुछ नितांत न्यायोचित था।"  
 
जब लॉर्ड मिण्टो भारत का गवर्नर बना, तब उस समय समूचा भारत राजनीतिक अशान्ति की तरफ़ धीरे-धीरे बढ़ रहा था। लॉर्ड मिण्टो ने इस अशान्ति के बारे में स्वयं लिखा था कि "ऊपर से शांत दिखने वाली सतह के नीचे राजनीतिक अशान्ति का गुबार छिपा था और उनमें से बहुत कुछ नितांत न्यायोचित था।"  
  
तत्कालीन भारत सचिव जॉन मार्ले एवं [[वायसराय]] लॉर्ड मिण्टो ने सुधारों का 'भारतीय परिषद एक्ट, 1909' पारित किया, जिसे 'मार्ले मिण्टो सुधार' कहा गया। [[25 मई]] को विधेयक पारित हुआ तथा [[15 नवम्बर]], 1909 को राजकीय अनुमोदन के बाद लागू हो गया। इस एक्ट के अन्तर्गत केंद्रीय तथा प्रन्तीय विधानमण्डलो के आकार एवं उनकी शक्ति में वृद्धि की गई। लेकिन अधिसंख्य प्रतिनिधियों का चुनाव अब भी अप्रत्यक्ष रूप से होना था। [[गवर्नर-जनरल]] की एक्जीक्यूटिव काउंसिल में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति का भी प्रावधान था। इस एक्ट के अन्तर्गत सदस्यों को प्रस्ताव रखने और प्रश्न पूछने का अधिकार भी दिया गया। बजट प्रस्तावों पर मतदान का भी अधिकार था। इन सबके बावजूद काउंसिलों को व्यवहारिक रूप से कोई अधिकार नहीं था। मार्ले मिण्टो सुधारों का मूल उद्देश्य राष्ट्रवादी खेंमें में फूट डालना था। मुस्लिमों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र एवं मताधिकार की व्यवस्था की गई। अंग्रेज़ों की यही नीति कालान्तर में [[भारत]] के विभाजन का कारण बनी। [[कांग्रेस]] ने इन सुधारों का पुरज़ोर विरोध किया, जबकि कट्टरपंथी मुस्लिमों ने इसका समर्थन किया। वायसराय मिण्टो ने लिखा था कि "याद रखना कि पृथक निर्वाचन क्षेत्र बना कर हम ऐसे घातक विष बो रहे हैं, जिसकी फ़सल बहुत कड़वी होगी।"
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तत्कालीन भारत सचिव जॉन मार्ले एवं [[वायसराय]] लॉर्ड मिण्टो ने सुधारों का 'भारतीय परिषद एक्ट, 1909' पारित किया, जिसे 'मार्ले मिण्टो सुधार' कहा गया। [[25 मई]] को विधेयक पारित हुआ तथा [[15 नवम्बर]], 1909 को राजकीय अनुमोदन के बाद लागू हो गया। इस एक्ट के अन्तर्गत केंद्रीय तथा प्रन्तीय विधानमण्डलो के आकार एवं उनकी शक्ति में वृद्धि की गई। लेकिन अधिसंख्य प्रतिनिधियों का चुनाव अब भी अप्रत्यक्ष रूप से होना था। [[गवर्नर-जनरल]] की एक्जीक्यूटिव काउंसिल में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति का भी प्रावधान था। इस एक्ट के अन्तर्गत सदस्यों को प्रस्ताव रखने और प्रश्न पूछने का अधिकार भी दिया गया। बजट प्रस्तावों पर मतदान का भी अधिकार था। इन सबके बावजूद काउंसिलों को व्यावहारिक रूप से कोई अधिकार नहीं था। मार्ले मिण्टो सुधारों का मूल उद्देश्य राष्ट्रवादी खेंमें में फूट डालना था। मुस्लिमों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र एवं मताधिकार की व्यवस्था की गई। अंग्रेज़ों की यही नीति कालान्तर में [[भारत]] के विभाजन का कारण बनी। [[कांग्रेस]] ने इन सुधारों का पुरज़ोर विरोध किया, जबकि कट्टरपंथी मुस्लिमों ने इसका समर्थन किया। वायसराय मिण्टो ने लिखा था कि "याद रखना कि पृथक निर्वाचन क्षेत्र बना कर हम ऐसे घातक विष बो रहे हैं, जिसकी फ़सल बहुत कड़वी होगी।"
 
==सुधार कार्य==
 
==सुधार कार्य==
 
सबसे पहले सभी जातियों को समान अवसर के [[महारानी विक्टोरिया]] के वादे को, जो [[1858]] ई. से भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए ब्रिटिश पाखण्ड का प्रतीक बना हुआ था, लागू करने के लिए कार्य किया। व्हाइट हॉल में परिषद में दो भारतीयों को नियुक्त किया गया, एक [[मुसलमान]], [[सैयद हुसैन बिलग्रामी]], जिन्होंने [[मुस्लिम लीग]] की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई; दूसरे [[हिन्दू]], इण्डियन सिविल सर्विस ([[भारतीय प्रशासनिक सेवा]]) में वरिष्ठ अफ़सर [[कृष्ण जी. गुप्ता]]। मॉर्ले ने 1909 में अनिच्छुक लॉर्ड मिण्टो को वायसराय की कार्यकारी परिषद में प्रथम भारतीय सदस्य सत्येन्द्र पी. सिन्हा ([[1864]]-[[1928]]) को नियुक्त करने के लिए राज़ी किया। सिन्हा (बाद में लॉर्ड सिन्हा) को [[1886]] में 'बार एट लिंकन्स इन' में प्रवेश दिया गया और वायसराय के विधि सदस्य नियुक्त होने से पहले वह [[बंगाल]] के [[महाधिवक्ता]] (एडवोकेट जनरल) रहे। [[1910]] में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। वह [[1915]] में [[कांग्रेस]] के अध्यक्ष चुने गए और [[1919]] में [[भारत]] के लिए संसदीय उप-राज्य सचिव और [[1920]] में [[बिहार]] एवं [[उड़ीसा]] के गवर्नर बने।
 
सबसे पहले सभी जातियों को समान अवसर के [[महारानी विक्टोरिया]] के वादे को, जो [[1858]] ई. से भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए ब्रिटिश पाखण्ड का प्रतीक बना हुआ था, लागू करने के लिए कार्य किया। व्हाइट हॉल में परिषद में दो भारतीयों को नियुक्त किया गया, एक [[मुसलमान]], [[सैयद हुसैन बिलग्रामी]], जिन्होंने [[मुस्लिम लीग]] की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई; दूसरे [[हिन्दू]], इण्डियन सिविल सर्विस ([[भारतीय प्रशासनिक सेवा]]) में वरिष्ठ अफ़सर [[कृष्ण जी. गुप्ता]]। मॉर्ले ने 1909 में अनिच्छुक लॉर्ड मिण्टो को वायसराय की कार्यकारी परिषद में प्रथम भारतीय सदस्य सत्येन्द्र पी. सिन्हा ([[1864]]-[[1928]]) को नियुक्त करने के लिए राज़ी किया। सिन्हा (बाद में लॉर्ड सिन्हा) को [[1886]] में 'बार एट लिंकन्स इन' में प्रवेश दिया गया और वायसराय के विधि सदस्य नियुक्त होने से पहले वह [[बंगाल]] के [[महाधिवक्ता]] (एडवोकेट जनरल) रहे। [[1910]] में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। वह [[1915]] में [[कांग्रेस]] के अध्यक्ष चुने गए और [[1919]] में [[भारत]] के लिए संसदीय उप-राज्य सचिव और [[1920]] में [[बिहार]] एवं [[उड़ीसा]] के गवर्नर बने।

13:58, 6 जुलाई 2017 का अवतरण

मॉर्ले मिण्टो सुधार को 1909 ई. का 'भारतीय परिषद अधिनियम' भी कहा जाता है। ब्रिटेन में 1906 ई. में लिबरल पार्टी की चुनावी जीत के साथ ही भारत के लिए सुधारों का एक नया युग शुरू हुआ। वाइसराय के कार्यभार से बंधे होने के कारण लॉर्ड मिण्टो और भारत का राज्य सचिव जॉन मार्ले ब्रिटिश भारत सरकार के वैधानिक एवं प्रशासनिक तंत्र में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने में सफल रहे।

तत्कालीन भारतीय स्थिति

जब लॉर्ड मिण्टो भारत का गवर्नर बना, तब उस समय समूचा भारत राजनीतिक अशान्ति की तरफ़ धीरे-धीरे बढ़ रहा था। लॉर्ड मिण्टो ने इस अशान्ति के बारे में स्वयं लिखा था कि "ऊपर से शांत दिखने वाली सतह के नीचे राजनीतिक अशान्ति का गुबार छिपा था और उनमें से बहुत कुछ नितांत न्यायोचित था।"

तत्कालीन भारत सचिव जॉन मार्ले एवं वायसराय लॉर्ड मिण्टो ने सुधारों का 'भारतीय परिषद एक्ट, 1909' पारित किया, जिसे 'मार्ले मिण्टो सुधार' कहा गया। 25 मई को विधेयक पारित हुआ तथा 15 नवम्बर, 1909 को राजकीय अनुमोदन के बाद लागू हो गया। इस एक्ट के अन्तर्गत केंद्रीय तथा प्रन्तीय विधानमण्डलो के आकार एवं उनकी शक्ति में वृद्धि की गई। लेकिन अधिसंख्य प्रतिनिधियों का चुनाव अब भी अप्रत्यक्ष रूप से होना था। गवर्नर-जनरल की एक्जीक्यूटिव काउंसिल में एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति का भी प्रावधान था। इस एक्ट के अन्तर्गत सदस्यों को प्रस्ताव रखने और प्रश्न पूछने का अधिकार भी दिया गया। बजट प्रस्तावों पर मतदान का भी अधिकार था। इन सबके बावजूद काउंसिलों को व्यावहारिक रूप से कोई अधिकार नहीं था। मार्ले मिण्टो सुधारों का मूल उद्देश्य राष्ट्रवादी खेंमें में फूट डालना था। मुस्लिमों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र एवं मताधिकार की व्यवस्था की गई। अंग्रेज़ों की यही नीति कालान्तर में भारत के विभाजन का कारण बनी। कांग्रेस ने इन सुधारों का पुरज़ोर विरोध किया, जबकि कट्टरपंथी मुस्लिमों ने इसका समर्थन किया। वायसराय मिण्टो ने लिखा था कि "याद रखना कि पृथक निर्वाचन क्षेत्र बना कर हम ऐसे घातक विष बो रहे हैं, जिसकी फ़सल बहुत कड़वी होगी।"

सुधार कार्य

सबसे पहले सभी जातियों को समान अवसर के महारानी विक्टोरिया के वादे को, जो 1858 ई. से भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए ब्रिटिश पाखण्ड का प्रतीक बना हुआ था, लागू करने के लिए कार्य किया। व्हाइट हॉल में परिषद में दो भारतीयों को नियुक्त किया गया, एक मुसलमान, सैयद हुसैन बिलग्रामी, जिन्होंने मुस्लिम लीग की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई; दूसरे हिन्दू, इण्डियन सिविल सर्विस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) में वरिष्ठ अफ़सर कृष्ण जी. गुप्ता। मॉर्ले ने 1909 में अनिच्छुक लॉर्ड मिण्टो को वायसराय की कार्यकारी परिषद में प्रथम भारतीय सदस्य सत्येन्द्र पी. सिन्हा (1864-1928) को नियुक्त करने के लिए राज़ी किया। सिन्हा (बाद में लॉर्ड सिन्हा) को 1886 में 'बार एट लिंकन्स इन' में प्रवेश दिया गया और वायसराय के विधि सदस्य नियुक्त होने से पहले वह बंगाल के महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) रहे। 1910 में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। वह 1915 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और 1919 में भारत के लिए संसदीय उप-राज्य सचिव और 1920 में बिहार एवं उड़ीसा के गवर्नर बने।

निर्वाचक सिद्धान्त

मॉर्ले की प्रमुख सुधार योजना, 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम (आमतौर पर मॉर्ले-मिण्टो सुधार के रूप में ज्ञात) ने तत्काल भारतीय परिषद सदस्यता के लिए निर्वाचक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। शुरू में बहुत कम भारतीय मतदाता थे, जिन्हें सम्पत्ति एवं शिक्षा के आधार पर मताधिकार दिया गया था, लेकिन 1910 में पूरे ब्रिटिश भारत की विधान परिषदों के लिए 135 भारतीय सदस्य चुने गए। 1909 के अधिनियम ने सर्वोच्च परिषद की अधिकतम अतिरिक्त सदस्यता 16 (1892 के परिषद अधिनियम द्वारा बढ़ाइर गई) से बढ़ाकर 60 कर दी। बम्बई (वर्तमान मुम्बई), बंगाल और मद्रास (वर्तमान चेन्नई) की प्रान्तीय परिषदों में, जिन्हें 1861 में गठित किया गया था, 1892 के अधिनियम द्वारा कुल सदस्य संख्या बढ़ाकर 20 कर दी गई थी और 1909 में इसे 50 कर दिया गया। जिनमें अधिकतर सीटें ग़ैर-सरकारी सदस्यों के लिए थीं। अन्य प्रान्तों में भी परिषद के सदस्यों की संख्या इसी तरह से बढ़ाई गई।

मॉर्ले प्रान्तीय विधायिकाओं में सरकारी बहुमत को समाप्त करके गोपाल कृष्ण गोखले तथा रोमेश चन्द्र दत्त (1848-1909) जैसे उदारवादी कांग्रेस नेताओं की सलाह का पालन कर रहे थे और न केवल आई.सी.एस., बल्कि अपने वायसराय एवं परिषद के कटु विरोध की भी अवहेलना कर रहे थे। कई ब्रिटिश उदारवादी राजनीतिज्ञों की तरह मॉर्ले को विश्वास था कि भारत में ब्रिटिश शासन का औचित्य भारत सरकार को ब्रिटेन के महान राजनीतिक संस्थान, संसदीय सरकार प्रणाली सौंपने में है। कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) तथा शिमला में मिण्टो व उनके अधिकारी इस सुधारों के क्रियान्वयन के कड़े नियमन की सिफ़ारिश करके सुधारों को कमज़ोर करने में सफल रहे। फिर भी नई परिषदों के निर्वाचित सदस्यों को स्वत: पूरक प्रश्न पूछने और सालाना बजट के बारे में कार्यकारी से औपचारिक चर्चा करने के अधिकार की शक्ति थी। सदस्यों को अपने नए वैधानिक प्रस्ताव पेश करने की भी अनुमति थी।

शिक्षा का प्रस्ताव

गोपाल कृष्ण गोखले ने पूरे ब्रिटिश भारत में निशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के लिए प्रस्ताव पेश करके इन नई महत्त्वपूर्ण संसदीय प्रक्रियाओं का तुरन्त लाभ उठाया। यह प्रस्ताव गिर गया, लेकिन गोखले ने इसे बार-बार पेश किया। उन्होंने राष्ट्रवादी माँगों के लिए सरकार की सर्वोच्च परिषद का मंच के रूप में सदुपयोग किया। 1909 के अधिनियम से पहले, जैसा कि गोखले ने उस साल मद्रास में कांग्रेस के साथी सदस्यों को बताया, भारतीय राष्ट्रवादी 'बाहर से' आन्दोलन करते थे, लेकिन उन्होंने कहा कि अब से 'वह ऐसा काम करेंगे, जिसे प्रशासन के साथ ज़िम्मेदार सहयोग कहा जा सकता है।'


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