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मौर्ययुगीन पुरातात्विक संस्कृति में उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांडों की जिस संस्कृति का प्रादुर्भाव महात्मा [[बुद्ध]] के काल में हुआ था, वह मौर्य युग में अपनी चरम सीमा पर दृष्टिगोचर होती है। इस संस्कृति का विवरण उत्तर, उत्तर पश्चिम, पूर्व एवं दक्कन के विहंगम क्षेत्र में इसका प्रसार हो चुका था। उत्तर पश्चिम में [[कंधार]], [[तक्षशिला]], [[उदेग्राम]] आदि स्थलों से लेकर पूर्व में चंद्रकेतुगढ़ तक, उत्तर में [[रोपड़]], [[हस्तिनापुर]], तिलौराकोट एवं [[श्रावस्ती]] से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुरी, छब्रोली आदि तक इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। [[पालि भाषा|पालि]] एवं [[संस्कृत]] ग्रंथों में [[कौशांबी]], श्रावस्ती, [[अयोध्या]], [[कपिलवस्तु]], [[वाराणसी]], [[वैशाली]], [[राजगीर]], [[पाटलिपुत्र]] आदि जिन नगरों का उल्लेख मिलता है, वे सभी मौर्य युग में पर्याप्त पल्लवित अवस्था में थे। अनेक शहर तो प्रशासन के केन्द्र थे। किन्तु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे अनेक नगर थे, जो प्रसिद्ध व्यापार मार्गों पर स्थित थे। भारतीय इतिहास में शहरीकरण का जो दूसरा चरण बुद्ध युग से आरम्भ हुआ, उसके पल्लवीकरण में मौर्ययुगीन व्यापारियों एवं शिल्पियों ने विशेष योगदान दिया। यद्यपि उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांडों की संस्कृति से सम्बन्धित बहुत से ग्रामीण स्थलों का उत्खनन नहीं हो पाया है, किन्तु मध्य गंगा घाटी में विभिन्न शिल्प विधाओं, व्यापार एवं शहरीकरण एक सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना अकल्पनीय है।  
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'''मौर्ययुगीन पुरातात्विक संस्कृति''' में उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांडों की जिस [[संस्कृति]] का प्रादुर्भाव महात्मा [[बुद्ध]] के काल में हुआ था, वह [[मौर्य काल|मौर्य युग]] में अपनी चरम सीमा पर दृष्टिगोचर होती है। इस संस्कृति का प्रसार उत्तर, उत्तर-पश्चिम, पूर्व एवं दक्कन के विहंगम क्षेत्र में हो चुका था। उत्तर-पश्चिम में [[कंधार]], [[तक्षशिला]], उदेग्राम आदि स्थलों से लेकर पूर्व में चंद्रकेतुगढ़ तक, उत्तर में [[रोपड़]], [[हस्तिनापुर]], [[तिलौराकोट]] एवं [[श्रावस्ती]] से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुरी, छब्रोली आदि तक इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं।
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==शहरीकरण का युग==
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[[पालि भाषा|पालि]] एवं [[संस्कृत]] ग्रंथों में [[कौशांबी]], [[श्रावस्ती]], [[अयोध्या]], [[कपिलवस्तु]], [[वाराणसी]], [[वैशाली]], [[राजगीर]], [[पाटलिपुत्र]] आदि जिन नगरों का उल्लेख मिलता है, वे सभी मौर्य युग में पर्याप्त पल्लवित अवस्था में थे। अनेक शहर तो प्रशासन के केन्द्र थे। किन्तु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे अनेक नगर थे, जो प्रसिद्ध व्यापार मार्गों पर स्थित थे। [[भारतीय इतिहास]] में शहरीकरण का जो दूसरा चरण बुद्ध युग से आरम्भ हुआ, उसके पल्लवीकरण में मौर्ययुगीन व्यापारियों एवं शिल्पियों ने विशेष योगदान दिया। यद्यपि उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांडों की संस्कृति से सम्बन्धित बहुत से ग्रामीण स्थलों का [[उत्खनन]] नहीं हो पाया है, किन्तु मध्य [[गंगा]] की घाटी में विभिन्न शिल्प विधाओं, व्यापार एवं शहरीकरण एक सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना अकल्पनीय है।
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==लोहे का प्रयोग==
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पुरातात्विक संस्कृति का एक अन्य अभिन्न अंग लोहे का निरन्तर बढ़ता हुआ प्रयोग है। इस संस्कृति के सभी महत्त्वपूर्ण स्थलों से इसके प्रमाण मिले हैं। इसी काल की सतहों से छेददार कुल्हाड़ियाँ, दरातियाँ और सम्भवतः हल की फ़ालें भारी संख्या में प्राप्त हुई हैं। यद्यपि [[अस्त्र शस्त्र]] के क्षेत्र में [[मौर्य]] राज्य का एकाधिकार था, किन्तु लोहे के अन्य औज़ारों का प्रयोग किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं था। [[कौटिल्य]] ने मुद्रा प्रणाली के विस्तृत प्रचलन का जो विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया है, उसकी पुष्टि आहत मुद्राओं के अखिल भारतीय वितरण से होती है। ऐतिहासिक काल में पक्की ईटों और मंडल कूपों का प्रयोग भी सबसे पहले इसी सांस्कृतिक चरण में दृष्टिगोचर होता है। इन दो विशेषताओं के कारण मकान आदि का निर्माण ने केवल अधिक स्थायी रूप से सम्भव हुआ, अपितु नदी तट पर ही बस्तियों की स्थापना की प्राचीन में भी परिवर्तन सम्भव हो सका। मंडल कूपों के फलस्वरूप जलप्रदाय की समस्या को सुलझाने में काफ़ी सहायता मिली। तंग बस्तियों में वे सोख्तों या शोषगर्तों का काम करते थे।
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==संस्कृति के तत्त्व==
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मध्य गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति के उपर्युक्त तत्त्व उत्तरी [[बंगाल]], [[कलिंग]], [[आंध्र प्रदेश|आंध्र]] एवं [[कर्नाटक]] तक पहुँच गए। [[बंगला देश]] के बोगरा ज़िले के [[महास्थान]] स्थल से मौर्ययुगीन [[ब्राह्मी लिपि]] का एक [[अभिलेख]] मिला था, और इसी प्रदेश में 'दीनाजपुर ज़िले' में 'बानगढ़' से उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। [[उड़ीसा]] में [[शिशुपालगढ़]] के उत्खनन भी इसी दृष्टिकोण से उल्लेखनीय हैं। यह स्थल [[भारत]] के पूर्वी तट के सहारे-सहारे प्राचीन राजमार्ग पर स्थित '[[धौली]]' एवं '[[जौगड़]]' नामक [[अशोक के अभिलेख]] स्थलों के पास ही है।
  
पुरातात्विक संस्कृति का एक अन्य अभिन्न अंग लोहे का निरन्तर बढ़ता हुआ प्रयोग है। इस संस्कृति के सभी महत्त्वपूर्ण स्थलों से इसके प्रमाण मिले हैं। इसी काल की सतहों से छेददार कुल्हाड़ियाँ, दरातियाँ और सम्भवतः हल की फ़ालें भारी संख्या में प्राप्त हुई हैं। यद्यपि अस्त्र शस्त्र के क्षेत्र में मौर्य राज्य का एकाधिकार था किन्तु लोहे के अन्य औज़ारों का प्रयोग किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं था। कौटिल्य ने मुद्रा प्रणाली के विस्तृत प्रचलन का जो विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया है। उसकी पुष्टि आहत मुद्राओं के अखिल भारतीय वितरण से होती है। ऐतिहासिक काल में पक्की ईटों और मंडल कूपों (Ring Wells) का प्रयोग भी सबसे पहले इसी सांस्कृतिक चरण में दृष्टिगोचर होता है। इन दो विशेषताओं के कारण मकान आदि का निर्माण ने केवल अधिक स्थायी रूप से सम्भव हुआ, अपितु नदी तट पर ही बस्तियों की स्थापना की प्राचीन में भी परिवर्तन सम्भव हो सका। मंडल कूपों के फलस्वरूप जलप्रदाय की समस्या को सुलझाने में काफ़ी सहायता मिली। तंग बस्तियों में वे सोख्तों या शोषगर्तों (Soakage pits) का काम करते थे।
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इन क्षेत्रों में उपर्युक्त भौतिक संस्कृति के तत्वों का प्रस्फुटीककरण मौर्ययुगीन [[मगध]] के सम्पर्क के कारण ही हुआ होगा। यद्यपि आंध्र एवं कर्नाटक क्षेत्रों में मौर्य युग में लोहे के हथियार एवं उपकरण मिलते हैं, किन्तु वहाँ पर लोहे के आगमन का श्रेय महापाषाण संस्कृति के निर्माताओं को है। फिर भी इन क्षेत्रों में कुछ स्थलों से न केवल [[अशोक]] के अभिलेख मिले हैं, अपितु ई. पू. तृतीय शताब्दी में उत्तरी क्षेत्र में काली पॉलिश वाले मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वी तट के बाद उपर्युक्त सांस्कृतिक तत्त्व मौर्य सम्पर्क के कारण दक्कनी पठार तक पहुँच गए।
  
मध्य गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति के उपर्युक्त तत्व उत्तरी बंगाल, [[कलिंग]], [[आंध्र प्रदेश|आंध्र]] एवं [[कर्नाटक]] तक पहुँच गए। बाँगला देश के बोगरा ज़िले के महास्थान स्थल से मौर्ययुगीन [[ब्राह्मी लिपि]] का एक अभिलेख मिला था और इसी प्रदेश में 'दीनाजपुर ज़िले' में 'बानगढ़' से उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। [[उड़ीसा]] में शिशुपालगढ़ के उत्खनन भी इसी दृष्टिकोण से उल्लेखनीय हैं। यह स्थल भारत के पूर्वी तट के सहारे सहारे प्राचीन राजमार्ग पर स्थित 'धौलि' एवं 'जौगड़' नामक अशोक अभिलेख स्थलों के पास ही है। इन क्षेत्रों में उपर्युक्त भौतिक संस्कृति के तत्वों का प्रस्फुटीककरण मौर्ययुगीन [[मगध]] के सम्पर्क के कारण ही हुआ होगा। यद्यपि आंध्र एवं कर्नाटक क्षेत्रों में मौर्ययुग में हम लोहे के हथियार एवं उपकरण पाते हैं किन्तु वहाँ पर लोहे के आगमन का श्रेय महापाषाण संस्कृति के निर्माताओं को है। फिर भी इन क्षेत्रों में कुछ स्थलों से न केवल अशोक के अभिलेख मिले हैं, अपितु ई0 पू0 तृतीय शताब्दी में उत्तरी क्षेत्र में काली पॉलिश वाले मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वी तट के बाद उपर्युक्त सांस्कृतिक तत्व मौर्य सम्पर्क के कारण दक्कनी पठार तक पहुँच गए।
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11:45, 16 मई 2012 के समय का अवतरण

मौर्ययुगीन पुरातात्विक संस्कृति में उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांडों की जिस संस्कृति का प्रादुर्भाव महात्मा बुद्ध के काल में हुआ था, वह मौर्य युग में अपनी चरम सीमा पर दृष्टिगोचर होती है। इस संस्कृति का प्रसार उत्तर, उत्तर-पश्चिम, पूर्व एवं दक्कन के विहंगम क्षेत्र में हो चुका था। उत्तर-पश्चिम में कंधार, तक्षशिला, उदेग्राम आदि स्थलों से लेकर पूर्व में चंद्रकेतुगढ़ तक, उत्तर में रोपड़, हस्तिनापुर, तिलौराकोट एवं श्रावस्ती से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुरी, छब्रोली आदि तक इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं।

शहरीकरण का युग

पालि एवं संस्कृत ग्रंथों में कौशांबी, श्रावस्ती, अयोध्या, कपिलवस्तु, वाराणसी, वैशाली, राजगीर, पाटलिपुत्र आदि जिन नगरों का उल्लेख मिलता है, वे सभी मौर्य युग में पर्याप्त पल्लवित अवस्था में थे। अनेक शहर तो प्रशासन के केन्द्र थे। किन्तु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे अनेक नगर थे, जो प्रसिद्ध व्यापार मार्गों पर स्थित थे। भारतीय इतिहास में शहरीकरण का जो दूसरा चरण बुद्ध युग से आरम्भ हुआ, उसके पल्लवीकरण में मौर्ययुगीन व्यापारियों एवं शिल्पियों ने विशेष योगदान दिया। यद्यपि उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांडों की संस्कृति से सम्बन्धित बहुत से ग्रामीण स्थलों का उत्खनन नहीं हो पाया है, किन्तु मध्य गंगा की घाटी में विभिन्न शिल्प विधाओं, व्यापार एवं शहरीकरण एक सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना अकल्पनीय है।

लोहे का प्रयोग

पुरातात्विक संस्कृति का एक अन्य अभिन्न अंग लोहे का निरन्तर बढ़ता हुआ प्रयोग है। इस संस्कृति के सभी महत्त्वपूर्ण स्थलों से इसके प्रमाण मिले हैं। इसी काल की सतहों से छेददार कुल्हाड़ियाँ, दरातियाँ और सम्भवतः हल की फ़ालें भारी संख्या में प्राप्त हुई हैं। यद्यपि अस्त्र शस्त्र के क्षेत्र में मौर्य राज्य का एकाधिकार था, किन्तु लोहे के अन्य औज़ारों का प्रयोग किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं था। कौटिल्य ने मुद्रा प्रणाली के विस्तृत प्रचलन का जो विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया है, उसकी पुष्टि आहत मुद्राओं के अखिल भारतीय वितरण से होती है। ऐतिहासिक काल में पक्की ईटों और मंडल कूपों का प्रयोग भी सबसे पहले इसी सांस्कृतिक चरण में दृष्टिगोचर होता है। इन दो विशेषताओं के कारण मकान आदि का निर्माण ने केवल अधिक स्थायी रूप से सम्भव हुआ, अपितु नदी तट पर ही बस्तियों की स्थापना की प्राचीन में भी परिवर्तन सम्भव हो सका। मंडल कूपों के फलस्वरूप जलप्रदाय की समस्या को सुलझाने में काफ़ी सहायता मिली। तंग बस्तियों में वे सोख्तों या शोषगर्तों का काम करते थे।

संस्कृति के तत्त्व

मध्य गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति के उपर्युक्त तत्त्व उत्तरी बंगाल, कलिंग, आंध्र एवं कर्नाटक तक पहुँच गए। बंगला देश के बोगरा ज़िले के महास्थान स्थल से मौर्ययुगीन ब्राह्मी लिपि का एक अभिलेख मिला था, और इसी प्रदेश में 'दीनाजपुर ज़िले' में 'बानगढ़' से उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। उड़ीसा में शिशुपालगढ़ के उत्खनन भी इसी दृष्टिकोण से उल्लेखनीय हैं। यह स्थल भारत के पूर्वी तट के सहारे-सहारे प्राचीन राजमार्ग पर स्थित 'धौली' एवं 'जौगड़' नामक अशोक के अभिलेख स्थलों के पास ही है।

इन क्षेत्रों में उपर्युक्त भौतिक संस्कृति के तत्वों का प्रस्फुटीककरण मौर्ययुगीन मगध के सम्पर्क के कारण ही हुआ होगा। यद्यपि आंध्र एवं कर्नाटक क्षेत्रों में मौर्य युग में लोहे के हथियार एवं उपकरण मिलते हैं, किन्तु वहाँ पर लोहे के आगमन का श्रेय महापाषाण संस्कृति के निर्माताओं को है। फिर भी इन क्षेत्रों में कुछ स्थलों से न केवल अशोक के अभिलेख मिले हैं, अपितु ई. पू. तृतीय शताब्दी में उत्तरी क्षेत्र में काली पॉलिश वाले मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वी तट के बाद उपर्युक्त सांस्कृतिक तत्त्व मौर्य सम्पर्क के कारण दक्कनी पठार तक पहुँच गए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

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