रघुनाथ शिरोमणि

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रघुनाथ शिरोमणि (जन्म- 1477 ई. - मृत्यु- 1557 ई.) एक मौलिक चिन्तक और प्रसिद्ध दार्शनिक थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी। उनकी रचनाएं मुख्यत: टीकाओं और निबन्धों के रूप में हैं। गंगेशोपाध्याय के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'तत्वचिंतामणि' पर उनकी 'दीघिति' नामक टीका सर्वाधिक महत्त्व की मानी जाती है, जिसमें उन्होंने गंगेश के सिद्धान्तों की आलोचनात्मक व्याख्या की है। उनका दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ है 'पदार्थतत्वनिरूपणम्' जो वैशेषिक दर्शन से संबंधित है। इस ग्रन्थ में उन्होंने वैशेषिक पदार्थ व्याख्या पर गहरा प्रहार किया है और उसमें व्यापक परिवर्तन के सुझाव दिये हैं। उपर्युक्त दो ग्रन्थों के अलावा रघुनाथ शिरोमणि ने प्राचीन एवं नवीन न्याय के अनेक ग्रन्थों पर समीक्षात्मक टीकाएं लिखी हैं, जिनका न्याय की परम्परा में विशिष्ट स्थान है।

जीवन परिचय

रघुनाथ का जन्म बंगाल के नदिया (नवदीप) नामक ग्राम में 1477 ईसवी में हुआ था। विद्याभूषण के अनुसार इनका समय 1477-1557 ई. है। इनके पूर्वज मिथिला से आसाम में गये थे। इनके पिता का नाम गोविन्द चक्रवर्ती और माता का नाम सीता देवी था। गोविन्द चक्रवर्ती की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाने के कारण इनकी माता ने बड़े कष्ट के साथ इनका पालन किया। यात्रियों के एक दल के साथ वह गंगास्नान करने के लिए नवद्वीप पहुँची। संयोगवश उसने वासुदेव सार्वभौम के घर पर आश्रय प्राप्त किया। वासुदेव से ही रघुनाथ को विद्या प्राप्त हुई। बाद में रघुनाथ ने मिथिला पहुँच कर पक्षधर मिश्र से न्याय का अध्ययन किया। रघुनाथ सभी विद्यास्थानों में दक्ष थे। उन्होंने अपनी शास्त्रार्थधौरेयता के संबन्ध में जो कथन किये, वे आज भी विद्ववर्ग में चर्चा के विषय बने रहते हैं। रघुनाथ ने अनेक ग्रन्थों की रचना की:-

  1. पदार्थ तत्त्व निरूपणम -वैशेषिक दर्शन पर रचित
  2. उदयन के आत्मतत्त्वविवेक और न्यायकुसुमांजलि पर टीका
  3. गंगेश की तत्त्वचिन्तामणि पर -दीघिति नामक टीका की।

रघुनाथ शिरोमणि के गुरु

नव्यन्याय की परम्परा में गंगेशोपाध्याय के बाद रघुनाथ शिरोमणि का ही स्थान माना जाता है। गंगेय यदि नव्यन्याय के जनक थे तो रघुनाथ उनके श्रेष्ठतम व्याख्याता एवं आलोचक थे। वासुदेव सार्वभौम के मार्गदर्शन में रघुनाथ ने न्यायशास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ किया। उस समय नव्यन्यास के अध्ययन के लिए मिथिला की पाठशालाओं की देशभर में प्रसिद्धि थी। विशेषकर गंगेशोपाध्याय की 'तत्वचिंतामणि' का अध्ययन मिथिला के अलावा अन्यत्र असंभव था। इसलिए नदिया में अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद अपने गुरु से अनुमति लेकर रघुनाथ मिथिला गए और वहाँ पर तत्कालीन नव्यन्याय के मूर्धन्य विद्वान् पक्षधर मिश्र की पाठशाला में प्रवेश प्राप्त किया। मिथिला में अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद रघुनाथ नदिया लौट गए और वहाँ पर उन्होंने न्यायशास्त्र की शिक्षा के लिए एक नवीन पाठशाला की स्थापना की, जो आगे चलकर भारत भर में प्रसिद्ध हुई।

दार्शनिक सिद्धान्त

रघुनाथ शिरोमणि ने अपने दार्शनिक चिन्तन में गंगेश द्वारा प्रणीत प्रणाली तंत्र का प्रयोग किया। अन्य बातों के अलावा उन्होंने दो सिद्धान्तों पर विशेष बल दिया। प्रथम सिद्धान्त था कि दार्शनिक चिन्तन को सामान्य अनुभव पर आधारित होना चाहिए। आलौकिक अथवा व्यक्तिगत सिद्धान्तों को सार्वलौकिक अनुभव के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। दूसरा सिद्धांत था कि तत्वमीमांसा में विभिन्न तत्वों को मान्यता देते समय लाघव के नियम का ध्यान रखना चाहिए। अनावश्यक रूप से तत्वों को मान्यता देकर उनकी संख्या बढ़ाना तार्किक दृष्टि से असमर्थनीय है। इस सिद्धान्त के द्वारा रघुनाथ का लक्ष्य तत्वदर्शन में पदार्थों की संख्या को सीमित रखना है।

तत्व-चिन्तन

रघुनाथ शिरोमणि मुख्यत: तर्कशास्त्री थे। गंगेश की 'तत्वचिंतामणि' पर अपनी 'दीघिति' नामक टीका में उन्होंने न्याय की प्रमाण-मीमांसा का सूक्ष्म विचार किया है और गंगेश के सिद्धांतों को परिष्कृत एवं परिवर्धित किया है। यहाँ पर हम रघुनाथ के तत्व-चिन्तन का ही संक्षेप में निरूपण करेंगे, जो हमें उनके सर्वाधिक मौलिक ग्रन्थ 'पदार्थतत्वनिरूपणम्' से प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ में उन्होंने वैशेषिक तत्व-दर्शन पर गहरा प्रहार किया है और अनेक परिवर्तनों के सुझाव दिये हैं। वैशेषिक में सात पदार्थ स्वीकार किये गए हैं। जिनमें विश्व के समस्त वस्तुओं का अंतर्भाव माना गयया है। ये पदार्थ हैं- द्रव्य, गुण, कर्म (क्रिया) सामान्य, विशेष, क्रमवाय एवं अभाव। रघुनाथ के समय तक यह पदार्थ- व्यवस्था न्याय-वैशेषिक परम्परा में बिना कोई प्रश्न उठाये स्वीकार की गई थी। इतना ही नहीं अन्य दर्शनों की आपत्तियों के विरुद्ध इस व्यवस्था की रक्षा भी की गई थी। रघुनाथ ने ही सर्वप्रथम न्याय-वैशेषिक परम्परा के अंदर से इस पदार्थ व्यवस्था की आलोचना की तथा अनेक परिवर्तनों के सुझाव दिए। यहाँ पर हम उनके द्वारा दिए गए कुछ सुझावों का संक्षेप में निरूपण करेंगे।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार तत्व

वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य पदार्थों के अंतर्गत नौ तत्वों का समावेश होता है। ये तत्व हैं- पृथ्वी, अप (जल), तेजस् (अग्नि), वायु, आकाश, काल, दिक् (देश), आत्मा एवं मनस्। इनमें से प्रथम चार या तो अदृश्य परमाणु रूप हैं या उनके संयोग से बने हुए स्थूल पदार्थ हैं। आकाश, काल, दिक् एवं आत्मा विभु (सर्वव्यापी) माने जाते हैं। आत्मतत्व के अंतर्गत जीवात्मा एवं परमात्मा (ईश्वर) दोनों का ही समावेश किया गया है। मनस् अंतरिन्द्रिय है, जिसके द्वारा जीवात्मा की सुख-दुखादि आंतरिक अवस्थाओं का ज्ञान होता है। इस सम्बन्ध में रघुनाथ यह प्रतिपादित करते हैं कि आकाश, काल एवं दिक् को ईश्वर से भिन्न तत्व मानना आवश्यक नहीं है। वे अदृश्य परमाणुओं की सत्ता को भी अस्वीकार कर देते हैं। क्योंकि उनका अस्तित्व अनुभव द्वारा सिद्ध नहीं है।

वैशेषिक मत

वैशेषिक मत के अनुसार काल एक ही है, परन्तु विभिन्न उपाधियों से अवच्छिन्न (सीमित) होकर वह विभिन्न काल खंडों में व्यवहृत होता है। उदाहरणार्थ 'घट इस काल में है', इस वाक्य में एक ही सर्वव्यापी काल घट रूपी उपाधि से अवछिन्न होकर खंडकाल (वर्तमान काल) के रूप में व्यवहृत होता है। उसी प्रकार 'घट यहाँ पर है', इस वाक्य में एक ही सर्वव्यापी देश घट से अवछिन्न होकर प्रदेश विशेष के रूप में व्यवहृत होता है। स्पष्ट है कि वैशेषिक मतानुसार देश एवं काल के खंडों की वास्तविकता सत्ता नहीं है। इस सम्बन्ध में रघुनाथ शिरोमणि तर्क करते हैं कि यदि विभिन्न उपाधियों से अवच्छिन्न होकर एक ही तत्व विभक्त रूप में व्यवहृत हो सकता है तो खंड-काल एवं खंड देश के व्यवहार के आधार के रूप में काल एवं देश रूपी दो भिन्न विभु तत्वों को मानने की क्या आवश्यकता है। एक ही विभु तत्व दोनों प्रकार के व्यवहार का आधार बन सकता है। अत: देश तथा काल को दो भिन्न तत्व मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं है। इसी तर्क को एक क़दम और आगे बढ़ाकर रघुनाथ शिरोमणि प्रतिपादित करते हैं कि देश तथा काल ईश्वर से अभिन्न है। हमारे देश एवं काल सम्बन्धी व्यवहार एक ही सर्वव्यापी ईश्वर-तत्व के विभिन्न उपाधियों द्वारा अवच्छिन्न होने के कारण सम्भव होते हैं। रघुनाथ के तर्क का सार यह है कि यदि एक ही ईश्वर तत्व को मानने से देशकाल सम्बन्धी हमारे समस्त व्यवहार सम्भव हो सकते हैं और जगत् के निमित्तकारण के रूप में ईश्वर को मानना आवश्यक है, तो देश तथा काल रूपी दो अतिरिक्त विभुतत्वों को मानने के लिए कोई तार्किक आधार नहीं है। उसी प्रकार वैशेषिकों द्वारा शब्द के आश्रय के रूप में एक अतिरिक्त विभुतत्व आकाश को मानना भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि ईश्वर जो कि शब्द सहित सभी कार्यों का सामान्य रूप से निमित्त कारण माना जाता है शब्द का आश्रय भी माना जा सकता है। स्पष्ट है कि ईश्वर से अतिरिक्त देश, काल तथा आकाश रूपी विभु द्रव्यों को आश्रय करने में रघुनाथ लाघव के नियम का प्रयोग करते हैं।

रघुनाथ वैशेषिकों के परमाणुवाद को अमान्य कर देते हैं। वैशेषिक मतानुसार स्थूल भौतिक पदार्थों के मूल अवयव परमाणु हैं, जो अविभाज्य एवं अतीन्द्रिय हैं। इस सिद्धान्त के मूल में यह मान्यता है कि सूक्ष्म से सूक्ष्म इन्द्रिय-गोचर भौतिक पदार्थ विभाज्य है और इस कारण वह विभाज्य है और इस कारण वह भौतिक जगत् का मूल अवयव नहीं हो सकता। रघुनाथ इस मान्यता को अस्वीकार कर देते हैं, क्योंकि इसके लिए कोई तार्किक आधार नहीं है। अतीन्द्रिय परमाणु वैशेषिकों की कल्पना मात्र है। उनके अस्तित्व के लिए सामान्य अनुभव में कोई आधार नहीं है। रघुनाथ के अनुसार सब से सूक्ष्म इन्द्रिय-गोचर अणु ही भौतिक जगत् के मूल अविभाज्य अवयव हैं। इस प्रकार रघुनाथ अणुओं को तो स्वीकार करते हैं पर वैशेषिकों के अतीन्द्रिय परमाणुओं को अमान्य कर देते हैं। यहाँ पर रघुनाथ ने सामान्य अनुभव की कसौटी का प्रयोग किया है।

वैशेषिक पदार्थ

वैशेषिक पदार्थ-व्यवस्था में 'विशेष' को अतिरिक्त पदार्थ माना गया है और इसी कारण इस दर्शन का नाम 'वैशेषिक' पड़ा है। इस पदार्थ के पक्ष में दिया गया तर्क यह है कि बिना इसके नित्य-द्रव्यों (परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा) का परस्पर भेद स्थापित नहीं हो सकता। प्रत्येक महाभूत के परमाणु अनन्त हैं। उसी प्रकार जीवात्मा भी अनन्त है। एक परमाणु का दूसरे परमाणु से, एक जीवात्मा का दूसरे जीवात्मा से भेद का प्रयोजक कोई धर्म होना चाहिए। देश, काल, आका, इत्यादि विभुद्रव्यों का भेद भी बिना किसी आधार के सिद्ध नहीं हो सकता। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए वैशेषिक 'विशेष' पदार्थ को मान्यता देते हैं। नित्य-द्रव्य अनन्त हैं, इसलिए 'विशेष' भी अनन्त है। विशेष नित्य द्रव्यों के परस्पर भेद हेतु हैं, परन्तु विशेषों के परस्पर भेद के हेतु कोई अन्य नहीं वे स्वयं हैं। ऐसा न मानने पर विशेषों की अनन्त परम्परा (अनवस्था) माननी होगी, जो एक तार्किक दोष है। रघुनाथ उपर्युक्त सिद्धान्त को अमान्य कर देते हैं। उनका तर्क है कि यदि 'विशेषों' का परस्पर भेद उनके स्वरूप में ही निहित माना जा सकता है तो नित्य द्रव्यों का परस्पर भेद भी उनके स्वभाव का ही अंग माना जा सकता है। प्रत्येक नित्य द्रव्य स्वरूपत: दूसरे से भिन्न है। इस भेद की सिद्धि के लिए 'विशेष' रूपी अतिरिक्त पदार्थ मानना आवश्यक है। यहाँ पर रघुनाथ लाघव के नियम का प्रयोग करते हैं।

कतिपय सिद्धान्त

वैशेषिकों के कतिपय सिद्धान्तों की रघुनाथ द्वारा की गयी आलोचना का संक्षेप में निरूपण किया। इनके अतिरिक्त और भी अनेक परम्परागत वैशेषिक सिद्धान्तों का उन्होंने खण्डन किया है, जिनमें 'सत्ता के सामान्यतत्व', 'समवाय संबंध के एकत्व' तथा 'अभावाभाव के भावत्व' के सिद्धान्त उल्लेखनीय है। वैशेषिक पदार्थ-व्याख्या तथा तत्संबंधी सिद्धान्तों में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता प्रतिपादित करने के साथ ही रघुनाथ ने आठ नवीन पदार्थों को मान्यता देने का प्रस्ताव किया है। वे पदार्थ हैं- क्षण, स्वत्व, शक्ति, कारणत्व, कार्यत्व, संख्या, वैशिष्ट्य एवं विषयता। इन सभी पदार्थों के संबंध में रघुनाथ का मत है कि इनका अंतर्भाव वैशेषिकों द्वारा मान्य पदार्थों में नहीं किया जा सकता। सामान्यत: क्षण को काल का सूक्ष्मतम भाग माना जाता है। परन्तु वैशेषिक मतानुसार काल एक एवं अविभाज्य होने के कारण क्षण को काल का भाग नहीं माना जा सकता। इस कारण वे क्षण को क्रिया की अवस्था के रूप में परिभाषित करते हैं। किसी भी वस्तु के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया से चार अवस्थाओं का भेद किया जा सकता है।

  • वह अवस्था जब क्रिया प्रारम्भ होने ही वाली है
  • पूर्वस्थान से वियोग की अवस्था
  • दूसरे स्थान से संयोग के पूर्व की अवस्था
  • दूसरे स्थान से संयोग की अवस्था। वैशेषिकों के अनुसार ये चारों अवस्थाएं क्षण हैं, जो काल के विभाजन में उपाधि का कार्य करते हैं। रघुनाथ इस सिद्धान्त को अमान्य कर देते हैं। उनका मुख्य तर्क है कि क्रिया की उपर्युक्त अवस्थाओं में क्रियात्व है पर 'क्षणत्व' नहीं है और इस कारण उनके द्वारा क्षण की अवधानणा उत्पन्न नहीं हो सकती। क्षण की अवधारणा क्षणत्व-सामान्य पर इसी प्रकार निर्भर है, जिस प्रकार गौ की अवधारणा गोत्व-सामान्य पर निर्भर है। क्षणत्व क्षण में ही उपलब्ध हो सकता है क्रिया में नहीं। अत: क्रिया अथवा अन्य किसी पदार्थ में क्षण का अंतर्भाव नहीं किया जा सकता। उसको अतिरिक्त पदार्थ मानना आवश्यक है।

वैशेषिक दर्शन की एक प्रमुख मान्यता है कि भिन्न जाति के कारणों से उत्पन्न कार्य परस्पर भिन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, अग्नि विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती है-

  • सूखे तृण तथा वायु के संयोग से
  • लकड़ियों के परस्पर घर्षण से
  • मणि के माध्यम से केन्द्रिय सूर्य की किरणों से।

उपर्युक्त तीनों कारण भिन्न जाति के हैं। अत: उपर्युक्त मान्यतानुसार उनसे उत्पन्न अग्नि भी परस्पर भिन्न है। रघुनाथ की दृष्टि में यह सिद्धान्त अनुभव विरुद्ध ही नहीं बोझिल भी है। विभिन्न कारणों से उत्पन्न अग्नि में कोई भेद उत्पन्न नहीं होता। अत: यह आवश्यक नहीं कि भिन्न जाति के कारणों से उत्पन्न कार्य भिन्न ही हों। उनके मत में विभिन्न कारणों में एक ही शक्ति होती है, जिस कारण वे समर्थ होते हैं। यह शक्ति अतिरिक्त पदार्थ है क्योंकि इसका अंतर्भाव किसी अन्य पदार्थ में नहीं किया जा सकता। इसको मान लेने पर अनावश्यक रूप से कारण भेद के आधार पर कार्यभेद नहीं मानना पड़ेगा। रघुनाथ यहाँ पर लाघव के नियम का प्रयोग करते हैं।

रघुनाथ समवाय संबंध के समान वैशिष्ट्य-संबंध को भी अतिरिक्त पदार्थ मानने पर बल देते हैं। वैशेषिक दर्शन में समवाय संबंध का विशिष्ट स्थान है। यह पृथक् न हो सकने वाले दो वस्तुओं के बीच का विशिष्ट संबंध है, जिनमें एक आधार तथा दूसरा आधेय के रूप में गृहीत होता है। उदाहरणार्थ पुष्प सुगंधित है, गाय चलती है, मोर एक पक्षी है, इन प्रतीतियों में पुष्प एवं सुगंध, गाय एवं चलने की क्रिया तथा मोर एवं पक्षीत्व-जाति एक दूसरे से पृथक् नहीं किए जा सकते और इनमें से प्रत्येक में प्रथम आधार तथा दूसरा आधेय के रूप में गृहीत होता है। इन प्रतीतियों के आधार के रूप में वास्वतिक समवाय संबंध को मानना आवश्यक है। रघुनाथ का तर्क है कि जिस प्रकार उपर्युक्त प्रकार की प्रतीतियों के आधार के रूप में वास्तविक समवाय संबंध को माना जाता है, उसी प्रकार अभाव से विशिष्ट वस्तु की प्रतीति के हेतु के रूप में वैशिष्ट्य संबंध को भी मानना आवश्यक है। 'भूतल पर जल नहीं है', इस प्रतीति में घटाभाव से विशिष्ट भितल का ग्रहण होता है इसमें घटाभाव विशेषण है, भूसल विशेष्य है तथा इन दोनों के बीच का संबंध वशिष्ट्य इग्र् यथार्थ प्रतीति में गृहीत इस सम्बन्ध को यदि वस्तुत: नहीं माना जाता तो समवाय सम्बन्ध को वरतुसत् मानने के लिए भी कोई आधार न रह जायेगा। वैशेषिक दर्शन में 'वैशिष्ट्य' को स्वरूप सम्बन्ध माना गया है, अर्थात् वह सम्बन्धियों के स्वरूप का ही है, उनमें अतिरिक्त नहीं जबकि समवाय को वस्तुत: माना गया है। रघुनाथ इस प्रकार भेद करने का कोई कारण नहीं देखते और समवाय के समान ही अंतर्भाव अन्य किसी पदार्थ में न हो सकने के कारण उसको अतिरिक्त पदार्थ मानना आवश्यक है।

आलोचना

रघुनाथ शिरोमणि द्वारा की गई वैशेषिक पदार्थ व्यवस्था की आलोचना तथा उनके द्वारा प्रतिपादित कुछ नवीन पदार्थों का संक्षिप्त निरूपण ऊपर किया गया। वैशेषिक पदार्थ व्यवस्था में उनके द्वारा किए गए संशोधनों तथा उनके द्वारा प्रतिपादित नवीन पदार्थों को न्याय-वैशेषिक परम्परा में विशेष मान्यता प्राप्त नहीं हुई। प्राचीन पदार्थ व्यवस्था की, जिसको गंगेशोपाध्याय ने भी स्वीकार किया था, मान्यता बनी रही। इस बात की आशंका स्वयं रघुनाथ को भी थी। इसलिए 'पदार्थ-तत्व निरूपण' के अन्त में रघुनाथ कहते हैं कि उनके द्वारा यत्नपूर्वक प्रतिपादित अनेक पदार्थ एवं सिद्धान्त ऐसे हैं, जो अन्य मतों से मेल नहीं खाते। परन्तु केवल इसी कारण उनकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। उनका आग्रह है कि सुविज्ञ पाठकोंको उन पर सावधानी से विचार करना चाहिए। भले ही एक तत्व चिन्तक के रूप में भारतीय दर्शन की परम्परा में रघुनाथ का विशेष समादर न हुआ हो, परन्तु एक मूर्धन्य तर्कशास्त्री के रूप में उनका स्थान न्याय की परम्परा में अक्षुण्ण बना रहेगा।


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