रसखान की भाषा

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रसखान की भाषा
Raskhan-1.jpg
पूरा नाम सैय्यद इब्राहीम (रसखान)
जन्म सन् 1533 से 1558 बीच (लगभग)
जन्म भूमि पिहानी, हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश
कर्म भूमि महावन (मथुरा)
कर्म-क्षेत्र कृष्ण भक्ति काव्य
मुख्य रचनाएँ 'सुजान रसखान' और 'प्रेमवाटिका'
विषय सगुण कृष्णभक्ति
भाषा साधारण ब्रज भाषा
विशेष योगदान प्रकृति वर्णन, कृष्णभक्ति
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए" उनमें "रसखान" का नाम सर्वोपरि है।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
रसखान की रचनाएँ

हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। रसखान को 'रस की ख़ान' कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और प्रभु के सगुण और निर्गुण निराकार रूप के प्रति श्रद्धालु हैं।

रसखान की भाषा

सोलहवीं शताब्दी में ब्रजभाषा साहित्यिक आसन पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। भक्त-कवि सूरदास इसे सार्वदेशिक काव्य भाषा बना चुके थे किन्तु उनकी शक्ति भाषा सौष्ठव की अपेक्षा भाव द्योतन में अधिक रमी। इसीलिए बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ब्रजभाषा का व्याकरण बनाते समय रसखान, बिहारी लाल और घनानन्द के काव्याध्ययन को सूरदास से अधिक महत्त्व देते हैं। बिहारी की व्यवस्था कुछ कड़ी तथा भाषा परिमार्जित एवं साहित्यिक है। घनानन्द में भाषा-सौन्दर्य उनकी 'लक्षणा' के कारण माना जाता है। रसखान की भाषा की विशेषता उसकी स्वाभाविकता है। उन्होंने ब्रजभाषा के साथ खिलवाड़ न कर उसके मधुर, सहज एवं स्वाभाविक रूप को अपनाया। साथ ही बोलचाल के शब्दों को साहित्यिक शब्दावली के निकट लाने का सफल प्रयास किया।

शब्द-शक्ति-चमत्कार

प्रत्येक शब्द के अर्थ का बोध शब्द की शक्ति द्वारा होता है। वैयाकरणों ने 'शब्दार्थ-सम्बन्ध: शक्ति' कहकर इसी परिभाषा को सार्थक किया है। शब्द की शक्ति ही उसकी सार्थकता की द्योतक होती है। काव्य में अभीप्सित अर्थ की स्पष्ट अभिव्यक्ति के अतिरिक्त, यह भी आवश्यक है कि भाषा में शिष्टता, रमणीयता, चमत्कारिता और संवेदनशीलता हो। रसखान की भाषा की शक्ति इस लक्ष्य की पूर्ति में कहां तक सफल हो सकी है इसी का विवचेन प्रस्तुत शीर्षक के अन्तर्गत किया गया है।

  • शब्द शक्तियां तीन मानी गई हैं-
  1. अभिधा- अभिधा शक्ति वह शक्ति है जिससे सांकेतिक (प्रसिद्ध) अर्थ का अवबोध हुआ करता है। और इसीलिए उसे शब्द की प्रथम (मुख्य) शक्ति कहते हैं। [1]
  2. लक्षणा- लक्षणा शक्ति वह शक्ति है जो कहीं मुख्यार्थ के (अन्वयबोध के) बाधित अथवा अनुपपन्न हो जाने पर वहां एक ऐसे अर्थ का अवबोधन करवाया करती है जो कि मुख्यार्थ से (सर्वथा असंबद्ध नहीं अपितु) किसी न किसी रूप से संबद्ध तो अवश्य रहा करता है किन्तु मुख्यार्थ के स्वभाव से भिन्न स्वभाव का ही हुआ करता है और ऐसा होने के कारण रूढ़ि है या प्रयोजन-विवक्षा।[2]
  3. व्यंजना- व्यंजना शक्ति वह शक्ति है जो अभिधा आदि शक्तियों के शांत हो जाने पर (अपने-अपने कार्य कर चुकने के बाद क्षीण सामर्थ्य हो जाने पर) एक ऐसे अर्थ का अवबोधन कराया करती है जो बाध्य, लक्ष्यादि रूप अर्थों से सर्वथा एक विलक्षण प्रकार का अर्थ हुआ करता है।[3]

अभिधा शक्ति

रसखान के काव्य में भक्ति तथा प्रेम सम्बन्धी पद्यों में, वात्सल्य-वर्णन में, संयोग लीला तथा रूप-चित्रण के सामान्य इतिवृत्तात्मक अंशों में अभिधा शक्ति से द्योतित वाच्यार्थ की प्रधानता स्वभावत: है ही, विशेष भावपूर्ण स्थलों पर अभिधा में भी चमत्कार का निरूपण है—

  • बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सो सानी।[4]
  • सेष सुरेस दिनेस गनेस प्रजेस धनेस महेस मनावौ।[5]
  • देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगो।[6]
  • वेई ब्रह्म ब्रह्मा जाहि सेवत हैं रैन-दिन, सदासिव सदा ही धरत ध्यान गाढ़े हैं।[7]
  • सुनिये सब की कहिये न कछू रहिये इमि या मन-बागर में।[8]
  • गावैं गुनी गनिका गंधरब्बा औ सरद सबै गुन गावत।[9] उपर्युक्त पंक्तियों में रसखान ने अभिधा शक्ति द्वारा अपने मन की अभिलाषा को बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है। भक्तिपूर्ण मनोभिलाषा की इस हृदयहारिणी अभिव्यक्ति में चमत्कार का वैशेष्ट्य है।
  • रसखान ने कृष्ण के बाल-रूप का चित्रण अभिधा के द्वारा किया है-

आजु गई हुती भोर ही हौं रसखानि रई वहि नंद के भौनहिं।
वाकौ जियौ जुग लाख करोर जसोमति को सुख जात कह्यौ नहिं।
तेल लगाइ लगाइ कै अंजन भौंह बनाइ बनाइ डिठौनहिं।
डालि हमेलनि हार निहारत वारत ज्यौ चुचकारत छौनहिं॥[10]

धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरें अंगना पग पैजनी बाजति पीरी कछौटी।[11]

  • लक्षणा और व्यंजना की निबंधना न होने पर भी कृष्ण के बाल सौंदर्य की अभिव्यक्ति निस्संदेह शक्तिमती है-

मैया की सौं सोच कटू मटकी उतारे को न
गोरस के ढारे को न चीर चीरि डारे को।
यहै दु:ख भारी गहै डगर हमारी माँझ,
नगर हमारे ग्वाल बगर हमारे को।[12]

गौरज बिराजै भाल लहलही बनमाल,
आगे गैयाँ ग्वाल गावैं मृदु बानि री।
तैसी धुनि बाँसुरी की मधुर मधुर जैसी,
बंक चितवनि मंद मंद मुसकानि री।

कदम विटप के निकट तटनी के तट,
अटा चढ़ि चाहि पीत पटा फहरानि री।
रस बरसावै तनतपति बुझावै नैन,
प्राननि रिझावै वह आवै रसखानि री।[13]

रसखान ने पद्यों में अभिधा शक्ति का प्रयोग किया है। अंतिम पद्य अभिधा का सुन्दर उदाहरण है। रसखान के भक्ति प्रेम तथा बाललीला संबंधी पद्यों में अभिधाशक्ति के चमत्कारपूर्ण दर्शन होते हैं। उनकी प्राय: सभी रचनाएं रसपूर्ण या भावपूर्ण हैं। अतएव उनके काव्य में अभिधा का एकांत प्रयोग अधिक नहीं है। जहां रस या भाव की व्यंजना होती है वहां व्यंजना-शक्ति का अस्तित्व स्वयं सिद्ध है।

लक्षणा-शक्ति

लक्षणा शब्द शक्ति वह शब्द शक्ति है जो कहीं मुख्यार्थ के (अन्वयबोध) बाधित हो जाने पर वहां एक ऐसे अर्थ का अवबोधन करवाया करती है, जो मुख्यार्थ से किसी न किसी रूप में संबंध तो अवश्य रहा करता है, किन्तु मुख्यार्थ के स्वभाव से भिन्न स्वभाव का ही हुआ करता है और ऐसा होने का कारण या तो रूढ़ि है या प्रयोजन-विवक्षा।[14] लक्षणा शक्ति के अनेक भेदोपभेद हैं। हम केवल प्रमुख भेदों के आधार पर रसखान के काव्य में प्रयुक्त लक्षणा शक्ति का विवेचन करेंगे।

रूढ़ि-लक्षणा

रूढ़ि-लक्षणा वह है जिसमें रूढ़ि के कारण मुख्यार्थ को छोड़कर उससे संबंध रखने वाला अन्य अर्थ ग्रहण किया जाय।[15] रसखान के काव्य में रूढ़ि-लक्षणा यत्र-तत्र मिल जाती है। रूढ़ि-लक्षणा का सफल प्रयोग कवि के भाषाधिकार का परिचायक है—

कुंजगली में अली निकसी तहाँ सांकरे ढोटा कियौ भटभेरी।
माइ री वा मुख की मुसकान गयौ मन बूड़ि फिरै नहिं फेरो।
डोरि लियौ दृग चोरी लियो चित डारयौ है प्रेम को फंद घनेरो।
कैसी करौं अब क्यौं निकसौं रसखानि परयौ तन रूप को घेरो॥[16]

  • 'मन बूड़ने' में रूढ़ि-लक्षणा है। मन वास्तव में डूबा नहीं। इसका लक्ष्यार्थ यह है कि मन कृष्ण के सौंदर्य के वशीभूत हो गया।
  • 'रूप के घेरो' का लक्ष्यार्थ यह है कि एक बार देखने के बाद गोपी का हृदय कृष्ण के स्वरूप से प्रभावित हो गया है।
  • बार ही गौरस बेंचि री आज तूं माई के मूड़ चढ़ै कत मौडी।[17] मूड़ चढ़ने में रूढ़ि लक्षण है।

काल्हि परयौ मुरली-धुनि मैं रसखानि जू कानन नाम हमारो।
ता दिन ते नहिं धीर रह्यौ जग जानि लयौ अति कीनो पँवारो।
गाँवन गाँवन मैं अब तौ बदनाम भई सब सौ कै किनारो।
तौ सजनी फिरि कहौं पिय मेरो वही जग ठोंकि नगारो।[18]

इस पद में रसखान ने तीन बार रूढ़ि-लक्षणा का सफल प्रयोग किया है। वास्तव में नगाड़ा ठोंका नहीं गया। कहने का तात्पर्य यह है कि बात सब में प्रसिद्ध हो गई है।

  • कहाँ लौं सयानी चंदा हाथन छिपाइबो।[19] चंद्रमा को हाथ से छिपाया नहीं जा सकता। चंदा को छिपाने में लक्ष्यार्थ बात छिपाने से है। इस पंक्ति में रूढ़ि लक्षणा को चमत्कारिक ढंग से व्यक्त किया गया है।
  • आँख से आँख लड़ी जबहीं तब सौं ये रहैं अँसुवा रंग भीनी।[20] यहाँ आंख लड़ने का लक्ष्यार्थ दर्शन होने से है। रसखान के काव्य में रूढ़ि लक्षणा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। ये प्रयोग भाव एवं भाषा सुन्दर बनाने में सहायक हुए हैं।

प्रयोजनवती लक्षणा

  • प्रयोजनवती लक्षणा वह है जिसमें किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए लक्षणा की जाय।[21]
  • रसखान के काव्य में प्रयोजनवती लक्षणा के प्राय: सभी भेदों के दर्शन होते हैं।
  • वा छबि रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।[22] कृष्ण-रूप के सामने करोड़ों कामदेवों और चंद्रमा के सौंदर्य वारने से प्रयोजन कृष्ण को अधिक रूपवान सिद्ध करना है।
  • मैं तबही निकसी घर तें तकि नैन बिसाल को चोट चलाई।[23] चोट चलाने से प्रयोजन प्रहार करने से है। नयनों की कटाक्ष-प्रभाव का यहाँ वर्णन है।

आजु ही बारक 'लेहू दही' कहि कै कछु नैनन में बिहँसी है।
बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि कै प्रान बसी है।[24]

  • 'नैनन में विहंसने' में शरारत के लक्ष्यार्थ द्वारा प्रयोजनवती लक्षणा है।
  • बैरिनि में मुसकान के दुखदायी होने की व्यंजना है।
  • मुस्कान वेदना का कारण बन गई।

हार हियैं भरि भावन सौं पट दीने लला वचनामृत बौरी।[25]
बचनामृत का प्रयोजन प्रेम भरे वचनों से है।
मेरी सुनौ मति आइ अली उहाँ जौनी गली हरि गावत है।
हरि लैहै बिलोकत प्रानन कों पुनि गाढ़ परें घर आवत है।
उन तान की तान तनी ब्रज मैं रसखानि सयान सिखावत है।
तकि पाय धरौ रपटाय नहीं वह चारो सौं डारि फंदावत है।[26]

  • द्वितीय पंक्ति में प्रयोजनवती गौणी लक्षणा है और चतुर्थ पंक्ति में चेतावनी द्वारा कि तुम मुरली की ध्वनि सुनकर फिसल न जाओ, संभल कर चलो में प्रयोजनवती शुद्धा लक्षणा है।

उपादान लक्षणा

जहां वाक्यार्थ की संगति के लिए अन्य अर्थ के लक्षित किये जाने पर भी अपना अर्थ न छूटे वहां उपादान लक्षणा होती है।[27] रसखान के काव्य में उपादान लक्षणा के सफल प्रयोग के दर्शन होते हैं।

अन्त ते न आयौ याही गाँवरे को जायौ
माई बापरे जिवायौ प्याइ दूध बारे बारे को।
सोई रसखानि पहिवानि कानि छाँडि चाहै,
लोचन नचावत नचैया द्वारे द्वारे को।
मैया की सौं सोच कछू मटकी उतारे को न
गोरस के ढारे को न चीर चीरि डारे को।
यहै दु:ख भारी गहै डगर हमारी माँझ,
नगर हमारे ग्वाल बगर हमारे को।[28]

तीसरी पंक्ति में उपादान लक्षणा है। द्वार-द्वार नाचने वाला आज हमारे सामने आँखें नचा रहा है। उपादान लक्षणा से विदित हो रहा है कि वह हमारे साथ छल कर रहा है।

लक्षणलक्षणा

  • जहां वाच्यार्थ की सिद्धि के लिए वाक्यार्थ अपने को छोड़ कर केवल लक्ष्यार्थ को सूचित करे, यहाँ लक्षणलक्षणा होती है।[29]
  • पै रसखानि वही मेरो साधन, और त्रिलोक रहौ कि नसावौ।[30] यहाँ त्रिलोक से लक्ष्य शेष जो कुछ भी है उस ऐश्वर्य की मुझे कामना नहीं। यहाँ कार्यकारक सम्बन्ध से लक्षणलक्षणा है।
  • माँगत दान मैं आन लियो सु कियौ निलजी रस जोबन खायौ।[31] 'रस जोबन' खाने की वस्तु नहीं है। इसका लक्ष्यार्थ रति क्रीड़ा से है। काम रति के आनन्द की व्यंजना की गई है। वाच्यार्थ के त्याग से यहाँ लक्षणलक्षणा है।

जहदजहल्लक्षणा

जहां पर किसी शब्द का वाच्यार्थ अंशत: स्वीकृत किया जाता है और अंशत: बाधित होता है वहां जहदजहल्लक्षणा होती है। इसी विशेषता के कारण इसे भाग त्यागलक्षणा भी कहते हैं। रसखान के काव्य में जहदजहल्लक्षणा के भी उदाहरण मिलते हैं-

अरी अनोखी बाम, तूँ आई गौने नई।
बाहर धरसि न पाम, है छलिया तुव ताक मैं।[32]

'तुव ताक में' देख रहा है, इस वाच्यार्थ के होते हुए भी लक्ष्यार्थ यह निकल रहा है कि वह तुम्हें पकड़ना चाहता है। ध्वनि यह है कि तुम सावधान हो जाओ।

नीकें निहारि कै देखे न आँखिन, हौं कबहूँ भरि नैन न जागी।
मो पछितावो यहै जु सखी कि कलंक लग्यौ पर अंक न लागी।[33]

जहदजहल्लक्षणा के द्वारा यह चरितार्थ हो रहा है कि मैं बदनाम भी हुई किन्तु कृष्ण के आलिंगन का आनन्द भी नहीं प्राप्त हुआ। रसखान के काव्य में लक्षणा शक्ति के अनेक सफल उदाहरण मिलते हैं।

व्यंजना-शक्ति

व्यंजना-शक्ति शब्द और अर्थ आदि की वह शक्ति है जो अभिधा आदि शक्तियों के शान्त हो जाने पर (अपने-अपने कार्य कर चुकने के बाद क्षीण सामर्थ्य हो जाने पर) एक ऐसे अर्थ का अवबोधन कराया करती है जो वाध्य, लक्ष्यादिरूप अर्थों से सर्वथा एक विलक्षण प्रकार का अर्थ हुआ करता है।[34] रसखान की भाषा पारदर्शी है। शब्दों में निबद्ध भाव अनुभूति को मूर्तता प्रदान करते हैं। नेत्रों के सामने एक सजीव चित्र खिंच जाता है। इसके लिए रसखान ने व्यंजना शक्ति का आश्रय लिया। शक्तिभाव से भरे हुए पदों में भी व्यंजना द्वारा अपने भावों का सुन्दर निरूपण किया है-

कहा रसखानि सुखसंपति सुमार कहा
कहा तन जोगी ह्वै लगाए अंग छार को।[35]

यहाँ यह व्यंजित हो रहा है कि समस्त ऐश्वर्य और बाहरी नियम, व्रत आदि व्यर्थ हैं। अर्थात उनका सेवन नहीं करना चाहिए।

ऐसे ही भए तौ नर कहा रसखानि जौ पै,
चित दै न कोनी प्रीति पीत पटवारे सों॥[36]

व्यंजना द्वारा ध्वनित हो रहा है कि कृष्ण-प्रेम के बिना सब चीज़ें व्यर्थ हैं।

काहे को सोच करै रसखानि कहा करि है रबि नंद बिचारो।
ता खन जा खन राखियै माखन चाखनहारौ सो राखनहारो॥[37]

यहाँ विवक्षितान्य पर वाच्य ध्वनित है। प्रश्नात्मक वाक्य से नकारात्मक ध्वनि यह निकल रही है कि रसखान को सोच करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।

काग के भाग बड़े सजनी हरि-हाथ् सौं लै गयौ माखन-रोटी।[38] यह व्यंग्य ध्वनित हो रहा है कि कौवे जैसे छोटे से पक्षी का इतना बड़ा भाग्य है कि वह कृष्ण के हाथ से माखन-रोटी ले गया। मुझे यह सौभाग्य भी प्राप्त नहीं।

कोऊ न काहू की कानि करै कछु चेटक सो जु कियौ जदुरैया।[39] 'प्रभाव चेटक सौं' मैं है। वास्तव में जादू नहीं किया गया है। अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य द्वारा 'सो' में चमत्कार है।

गौरस के मिस जो रस चाहत सो रस कान्हजू नेकु न पैहौ।[40] उपर्युक्त पंक्तियों में अभिधामूला व्यंजना है। गोरस और जो रस में ऐन्द्रिय सुख भोग, कामरति के आनन्द की व्यंजना है।

हाँसी मैं हार हरयौ रसखानि जू जौ कहूँ नेकु तगा टुटि जैहैं।
एकहि मोती के मोल लला सिगरे ब्रज हाटहि हाट बिकैहैं॥[41]

वाक्य ध्वनि यह है कि यदि हमारा हार टूट गया तो तुम्हारा बड़ा अपमान होगा। नायिका के मन में विद्यमान कृष्ण विषयक प्रेम की भी व्यंजना हो रही है।

करियै उपाय बाँस डारियै कटाय
नाहिं उपजैगो बाँस नाहिं बाजै फेरि बाँसुरी।[42]

यहाँ लोकोक्ति के आधार पर मुरली को समूल नष्ट करने की व्यंजना है।

मोहन के मन भाइ गयौ इक भाइ सौं ग्वालिनैं गोधन गायौ।
ताकों लग्यौ चट, चौहट सौं दुरि औचक गात सों गात छुवायौ।
रसखानि लही इनि चातुरता चुपचाप रही जब लौं घर आयौ।
नैन नचाइ चितै मुसकाइ सु ओट ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।[43]

इस पद में गोपी की बुद्धिमानी की व्यंजना हो रही है। यह कृष्ण की सब चेष्टाओं पर चुप रही, किन्तु घर आने पर उसने नयन नचाकर मुस्करा कर अंगूठा दिखा दिया। यहाँ पर व्यंजना है कि अब कृष्ण इसका कुछ नहीं कर सकते। साथ ही गोपी की शरारत और चातुर्य भी ध्वनित हो रहे हैं।

नवरंग अनंग भरी छबि सौं वह मूरति आँखि गड़ी ही रहै।
बतियाँ मन की मन ही मैं रहै घतिया उर बीच अड़ी ही रहै।
तबहूँ रसखानि सुजान अली नलिनीदल बूँद पड़ी ही रहै।
जिय की नहिं जानत हों सजनी रजनी अँसुवान लड़ी ही रहै।[44]

नवरंग में अतिशय सौन्दर्य की जो नित्य नए रूप में दिखाई देता है, व्यंजना हो रही है। 'आंखि ही गड़ी रहै' अर्थात आंख में ऐसी बसी है कि हिलती ही नहीं है। आंख में कोई चीज़ पड़ने से पीड़ा होती है। यहाँ कृष्ण प्रेम के कारण कसक हो रही है। रजनी में एकान्त हो जाने पर सब के सो जाने के उपरान्त अश्रुओं में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़ती। यहाँ नायिका के रोदन के साथ-साथ प्रेम की अतिशयता की व्यंजना है।

  • कोउ रही पुतरी सी खरी कोउ घाट डरी कोउ बाट परी जू।[45] यहाँ गोपियों के किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाने की व्यंजना है।
  • पै कहा करौ वा रसखानि बिलौकि हियौ हुलसै हुलसै हुलसै।[46] नायिका के प्रेमावशीभूत होने की व्यंजना है।
  • लखि नैन की कोर कटाछ चलाइ कै लाज की गांठन खोलत है।[47] यहाँ लज्जा के बंधनों को तोड़ देने की व्यंजना है। उसके कटाक्ष के प्रभाव से लज्जा के बंधन टूट गए हैं। लज्जा की पराकाष्ठा की हृदयस्पर्शी अभिव्यंजना हैं।

भटू सुन्दर स्याम सिरोमनि मोहन जोहन में चित चोरत है।
अवलोकन बंक बिलोकन मैं ब्रजबालन के दृग जोरत है।[48]

यहाँ प्रेम के वशीभूत होने की व्यंजना है।

मोहनी मोहन सौं रसखानि अचानक भेंट भई बन माहीं।
जेठ की घाम भई सुखधाम अनन्द ही अंग ही अंग समाहीं।
जीवन को फल पायौ भटू रसबातन केलि सौं तोरत नाहीं।
कान्ह को हाथ कंघा पर है मुख ऊपर मोरकिरीट की छाहीं॥[49]

प्रिय की निकटता के कारण कष्टदायक वस्तुओं के सुखद प्रतीत होने की व्यंजना द्वितीय पंक्ति में है। जेठ की धूप इसलिए सुखद प्रतीत हो रही है कि गर्मी में कोई वन में नहीं घूमता। इससे नायक-नायिका को एकान्त में मिलने की सुविधा प्राप्त है। 'अंग ही अंग समाही' में प्रगाढ़ आलिंगन से उत्पन्न अतिशय सुख की अभिव्यक्ति है। रूपक और श्लेष अलंकार के द्वारा रति के अतिशय आनन्द को किसी भी प्रकार बाधित नहीं करना चाहतीं। सुख की पराकाष्ठा पर पहुंची हुई प्रेयसी के रति आनन्दातिरेक की व्यंजना हो रही है।

पिचका चलाई और जुवती भिजाइ नेह,
लोचन नचाइ मेरे अंगहि नचाइ गौ।
सामहिं नचाइ भौरी नन्दहि नचाइ खोरी
बैरिन सचाइ गौरी मोहि सकुचाइ गौ।[50]

चंचल नेत्रों का प्रभाव इतना अधिक था कि सात्विक भावों का उदय होने लगा। 'बैरिन सचाइ' में पिछले बैर का बदला निकालने की व्यंजना है। पहले कभी गोपी ने कृष्ण-प्रेम की अवहेलना की होगी। 'सकुचाने' में यह व्यंजना है कि लोग देखकर भांप गए कि उसके मन में प्रेम है। रसखान के काव्य का अवलोकन करने पर यह भली-भांति विदित हो जाता है कि रसखान ने व्यंजना शब्दशक्ति के आश्रय से उत्तम कोटि के ध्वनि काव्य की रचना की। रसखान द्वारा 'व्यंजना' के बहुधा प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। रसखान प्रसूत लाक्षणिक प्रयोगों और ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना शैली की सम्यक प्रतीति न होने के कारण ही हिन्दी के एक आलोचक ने उनके काव्य को अभिधाकाव्य माना है।[51] उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्टतया सिद्ध है कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है।

रसखान के काव्य में प्रयुक्त शब्द शक्तियों के उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि उन्होंने स्थान-स्थान पर काव्य चमत्कार को उत्कर्ष प्रदान करने वाली लक्षणा और व्यंजना का उपयुक्त प्रयोग किया है। उनकी भाषा के धारावाहिक और प्रसाद-गुण पूर्ण बाह्य रूप के कारण अनेक आलोचकों को यह भ्रांति हो गई है कि वे अविधा के कवि हैं। तत्वत: अभिधा और प्रसाद में कोई विरोध नहीं है। जटिलता न होते हुए भी रसखान की रचनाओं में उपर्युक्त शब्द-शक्तियों का चमत्कार असंदिग्ध है।

रसखान की भाषा में मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग

मुहावरों के प्रयोग से भाषा सशक्त एवं सजीव हो जाती है। जनता के सम्पर्क में रहने वाले लेखक की भाषा में मुहावरे स्वभावत: अधिक होते हैं। मुहावरे भाषा की स्वाभाविकता के परिचायक हैं। जिस लेखक या कवि की भाषा में जितने अधिक मुहावरे होंगे उतना ही उसका भाषा पर अधिकार माना जाएगा। रसखान की भाषा में मुहावरे बहुत मिलते हैं। उन्होंने अपनी भाषा में मुहावरों का बहुत ही सहज रूप में प्रयोग किया है, जिससे उनका लोक-प्रचलित भाषा पर विशेषाधिकार सूचित होता है। सजीव और प्रचलित मुहावरों से अलंकृत भाषा विशेष शक्तिमती हो गयी है। रसखान के काव्य में मुहावरों के सफल प्रयोग की निबंधना मिलती है। कहीं भी ऐसी प्रतीत नहीं होता कि कवि ने सप्रयास उनको अपने काव्य में ठूंसने का प्रयत्न किया है। मुहावरों द्वारा रसखान ने अपनी बात की पुष्टि बड़े सुन्दर ढंग से की है। कहीं-कहीं एक ही पंक्ति में एक से अधिक मुहावरे प्रयुक्त किए हैं जिससे उनकी भाषा में मार्मिक प्रभावशीलता आ गई है। मुहावरे रूपी नगीनों को रसखान ने इतने सुन्दर ढंग से जड़ा है कि एक भी नगीना निकालने पर पद रूपी आभूषण की कांति क्षीण हो जाती है।

अत: संक्षेप में कहा जा सकता है कि रसखान की भाषा में मुहावरे सहज रीति से प्रयुक्त हुए हैं जिससे अर्थ व्यंजना के साथ-साथ भाषा-सौंदर्य की स्वाभाविक अभिवृद्धि हुई है। रसखान ने मुहावरों के रूप बिगाड़ने का प्रयत्न नहीं किया। इसका सुपरिणाम यह हुआ है कि उनकी भाषा की सुबोधता और स्वच्छता सर्वत्र ही बनी रहती है।

उक्ति-वैचित्र्य और वक्रोक्ति-विधान

वास्तव में उक्ति वैचित्र्य और वक्रोक्ति का सम्बन्ध कवि की चमत्कारिक अभिव्यक्ति से है। आचार्य कुन्तक ने इसी से वक्रोक्ति को सब कुछ मानकर उसे काव्य के प्राण के रूप में स्वीकार किया है। अन्य आचार्यों ने वक्रोक्ति को अलंकार के अन्तर्गत रखा है।[52] रसखान के कथन में वक्रता कम मिलती है, क्योंकि उनकी काव्य शक्ति कथन प्रणाली के चमत्कार उत्पादन में व्यय न होकर भावाभिव्यंजना में लगी है। स्वभावत: कुछ वक्रोक्तियों की निबन्धना हो गई है—

  • गोरस के मिस जो रस चाहत सो रस कान्हजू नेकु न पैहौ।[53] यहाँ गोपी के कथन की वक्रता दर्शनीय है। *कृष्ण के दधि मांगने के बहाने गोपियों से छेड़-छाड़ करने पर गोपी कहती है-'जैहै जो भूषन काहू तिया को तौ मोल छला के लला न बिकैहौ'।[54]
  • भ्रमरगीत-प्रसंग के अन्तर्गत गोपियां वक्रोक्ति के द्वारा उद्धव से कहती हैं—'कारे बिसारे कौ चाहैं उतारयौ अरे विष बावरे राख लगाई कै'।[55] वक्रोक्ति द्वारा गोपियों के शब्दों से यह ध्वनित हो रहा है कि तुम कितने भी उपाय कर लो किन्तु कृष्ण के प्रभाव एवं प्रेम को हमसे अलग नहीं कर सकते। सूरदास की गोपियां वाग्वैदग्ध्य के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी उक्तियां उद्धव को नत मस्तक कर देती हैं। वे पूछ बैठती हैं, 'उद्धव तुम कौन देश के वासी' तथा 'मधुवन तुम कित रहत हरे'। रसखान की गोपियां भी उक्ति वैचित्र्य में किसी से कम नहीं हैं। सम्भवत: रसखान के काव्य में उक्ति वैचित्र्य की मार्मिकता को देखकर ही 'डॉ. सावित्री सिन्हा' जी ने कहा है- रसखानि के वैदग्ध्य में ध्वनि की अपेक्षा उक्ति वैचित्र्य अधिक है।[56] गोपियां कृष्ण के सलोने रूप और बांकी अदा से प्रभावित हैं। कृष्ण का सौन्दर्य न देखते बनता है न कहते। लोक लाज की चिन्ता न करके कृष्ण को समर्पण करना चाहती है किन्तु लज्जा आ जाने से काम ख़राब हो जाता है यहाँ उसी का पश्चात्ताप हो रहा है-

आजु री नन्दलला निकस्यौ तुलसीबन तें बनकें मुसकातो।
देखें बनै न बनै कहते अब सो सुख जो मुख में न समातो।
हौं रसखानि बिलोकिबे कौं कुलकानि के काज कियौ हिय हातो।
आई गई अलबेली अलानक ए भटू लाज को काज कहा तो॥[57]

  • किशोरावस्था की ओर बढ़ती हुई बालिका की भावनाओं में वय:सन्धि स्थिति की अल्हड़ता और चंचलता की ध्वनि इस पद में मिलती है—

बैरिनि तूँ बरजी न रहै अबहीं घर बाहिर बैरु बढ़ेगौ।
टोना सु नन्द ढुटोना पढ़ै सजनी तुहि देखि विसेषि पढ़ैगौ।
हसि है सखि गोकुल गाँव सबैं रसखानि तबै यह लोक रढ़ैगौ।
बैस चढ़े घरहीं रहि बैठि अटा न चढ़े बदनाम चढ़ैगौ॥[58]

  • सपत्नी ज्वाला से अपने आप में ही जलती हुई अबला की विवश भावनाओं की उक्ति वैचित्र्य के द्वारा सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है—

सौतिन भाग बढ्यौ ब्रज में जिन लूटत हैं निसि रंग घनेरी।
मो रसखानि लिखी बिधना मन मारि कै आपु बनी हौं अहेरी।[59]

यहाँ उक्ति की वक्रता अनुपम है, इसमें गूढ़ व्यंग्य छिपा हुआ है। रसखान के काव्य में हमें सुन्दर उक्तियों का निरूपण मिलता है। निम्नांकित पंक्तियों में सखी की वक्रोक्ति मुहावरे के प्रयोग से और प्रभावोत्पाक हो गई है—

अरी अनोखी वाम तू आई गौने नई।
बाहर धरसि न पाम है छलिया तुब ताक में॥[60]

स्वाभाविकता एवं चित्रात्मकता

रसखान की भाषा की बड़ी विशेषता उसकी स्वाभाविकता है। उन्होंने शब्दों को तोड़-मरोड़कर दुरूह बनाने का प्रयास नहीं किया। उनकी भाषा सुकुमार तथा सरल है, साथ ही भावाभिव्यक्ति में सहायक है। पाठक को दूर की कौड़ी नहीं लानी पड़ती—

वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नयौं निधि को सुख नन्द की गाय चराइ बिसारौं।
ए रसखानि जबै इन नैनन ते ब्रज के बन बाग़ निहारौं।
कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं।[61]

स्वाभाविक शब्दावली के प्रयोग से रसखान की भाषा गतिमयी हो गई है। गोपियों की समस्त उक्तियां स्वाभाविक भाषा में मिलती हैं। प्रेम के गम्भीर तत्त्वों के निरूपण में भी रसखान स्वाभाविकता का दामन नहीं छोड़ते। कहीं ऐसा प्रतीत नहीं होता कि रसखान सप्रयास रचना कर रहे हैं। उनका एक-एक पद्य उनके अन्त:स्थल की अनुभूति की साकार प्रतिमा होता है निम्न पद्य में कृष्ण की रसीली मुसकान कटीली चितवन, बंक विलोकन, अमीनिध बैन, बांसुरी की मधुर ध्वनि द्वारा प्रभावित, गोपी की दशा की मार्मिक अभिव्यक्ति स्वाभाविक भाषा में हुई है।

बांकी बिलोकनि रंग भरी रसखानि खरी मुसकानि सुहाई।
बोलत बोल अमीनिधि चैन महारस-ऐन सुनें सुखदाई।
सजनी पुर-बीथिन में पिय-गोहन लागी फिरैं जित ही तित धाई।
बाँसुरी टेरि सुनाइ अली अपनाइ लई ब्रज राज कन्हाई।[62]

अन्तिम पंक्ति की स्वाभाविकता दर्शनीय है। रसखान के काव्य में कठोर शब्दों का अभाव है। कोमन एवं सरल शब्दों के प्रयोग ने उनकी भाषा को और भी स्वाभाविक बना दिया है। कहीं-कहीं 'टवर्ग' का भी प्रयोग मिलता है किन्तु वह भी भावाभिव्यक्ति में सहायक हुआ है।

वह घेरनि धेनु अबेर सबेरनि फेरनि लाला लकुट्टनि की।
वह तीछन चच्छु कटाबन की छबि मोरनि भौंह भृकुट्टनि की।
वह लाल की चाल चुभी चित में रसखानि संगीत उघट्टनि की।
वह पीत पटक्कनि की चटकानि लटक्कानि मोर मुकुट्टनि की॥[63]

संक्षेप में कहा जा सकता है कि रसखान की भाषा भावानुकूल सरस, स्वाभाविक एवं सरल है। अर्थ को समझाने को दूर की कौड़ी नहीं लानी पड़ती न ही मस्तिष्क एवं बुद्धि को व्यायाम की आवश्यकता प्रतीत होती है। कवि सहज ढंग से मन में उठे विभिन्न भावों की अभिव्यक्ति सरस एवं स्वाभाविक भाषा के माध्यम से करता है। रसखान ने अपनी भाषा में कर्कश शब्दों का प्रयोग न करके उसे दुरूह होने से बचा लिया। उसमें ब्रजभाषा की साहित्यिक शब्दावली के साथ-साथ लोक भाषा या ब्रज बोली की स्वाभाविक शब्दावली के भी दर्शन होते हैं। रसखान की भाषा की विशेषता उसकी चित्रात्मकता है। शब्दों को इस प्रकार संजोया है कि हमारे सामने एक दृश्य उपस्थित कर देते हैं। रसखान ने आलम्बन की चेष्टाओं का निरूपण करते हुए स्वतन्त्र शब्द चित्रों का निर्माण अधिक किया है। अलंकारिक चित्र उनके काव्य में कम मिलते हैं।

  • कृष्ण के वन से गाय चरा कर वापिस आते समय का चित्रण देखिए—

गोरज बिराजै भाल लहलही बनमाल,
आगे गैयाँ पाछे ग्वाल गावै मृदु बानि री।
तैसी धुनि बाँसुरी की मधुर, जैसी
बंक चितवनि मन्द मन्द मुसकानि री।
कदम बिटप के निकट तटनी के तट
अटा चढ़ि चाहि पीत पट फहरानि री।
रस बरसावै तप-तपति बुझावै नैन
प्राननि रिझावै वह आवै रसखानि री॥[64]

  • प्राकृतिक उपादानों की सहायता से राधा के रूप का वर्णन रसखान ने चित्रात्मक ढंग से किया है—

अति लाल गुलाल दुकूल ते फूल, अली अलि कुन्तल राजत है।
मखतूल समान के गुंज छरानि में किंसुक की छबि छाजत है।
मुकता के कदंब ते अंब के मोर, सुने सुर कोकिल लाजत है।
यह आवनि प्यारी जु रसखानि बसंत-सी आज बिराजत है।[65]

  • रसखान ने रासलीला का वर्णन भी बड़ी चित्रात्मक भाषा में किया है, इन चित्रों में भावों की प्रधानता है। सजीवता और प्राणवत्ता की दृष्टि से उसकी तुलना अन्य कवियों के रास-चित्रण से नहीं की जा सकती। परन्तु उसमें निहित सरल स्निग्धता में स्वाभाविक आकर्षण है; जैसे—

आज भटू मुरलीबट के तट नंद के साँवरे रास रच्यौ री।
नैननि सैननि बैननि सों नहिं कोऊ मनोहर भाव बच्यौ री।
जद्यपि राखन कौं कुलकानि सबै ब्रजबालन प्रान पच्यौ री।
तद्यपि वा रसखानि के हाथ बिकानि कौं अन्त लच्यौ पै लच्यौ री।[66]

इस प्रकार रसखान की भाषा में चित्रात्मक शब्दावली की योजना मिलती है जो भाव की सफल तथा सहज अभिव्यक्ति में सहायक है।

धारावाहिकता

  • रसखान की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता उसकी धारावाहिकता है। अर्थ पर ध्यान दिये बिना भी इनके सवैयों को पढ़ने से एक प्रकार का आनन्द मिलता है। इस आनन्द का कारण प्रसन्न पदावली भाषा है। उन्होंने शब्दों को कुशलता से संजोया है कि उनमें अनवरुद्ध स्पंदन एवं गति है। 'लाल लसैं पग पाँवरिया[67] 'दे गयो भाक्तो भाँवरिया' में 'पौरी', 'भौंरी' के स्थान पर 'पाँवरिया' , 'भाँवरिया' होने से भाषा में स्वाभाविक प्रवाह आ गया है।

गुंज गरें सिर मौर पखा अरु चाल गयन्द की मो मन भावै।
साँवरो नन्द कुमार सबै ब्रजमण्डली में ब्रजराज कहावै।
साज समाज सब सिरताज औ छाज की बात नहीं कहि आवै।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥[68]

  • रसखान प्रवाहमयी भाषा के प्रयोग में सफल हुए हैं। उनकी भाषा का प्रवाह और गतिमयता कुशल कला की परिचायक है। एक के बाद दूसरा शब्द धारावाहिकता के साथ संजोया हुआ प्रतीत होता है। निम्नलिखित पद में रसखान की भाषा की प्रवाहमयी गति देखने योग्य है—

नव रंग अनंग भरि छबि सौं वह मूरति आँखि गड़ी ही रहै।
बतिया मन की मन ही में रहै, छतिया उर बीच अड़ी ही रहै।
तबहूँ रसखानि सुजान अली नलिनी दल बूंद पड़ी ही रहै।
जिय की नहिं जानत हौं सजनी रजनी अँसुवान लड़ी ही रहै॥[69]

उपर्युक्त पंक्तियों में मधुर प्रवाह-लालित्य है। साथ ही शब्द योजना भी सर्वथा उपयुक्त और अनूठी है। अनुप्रास भी भाषा-प्रवाह में सहायक हुआ हैं किन्तु ऐसा कहीं प्रतीत नहीं होता कि रसखान अनुप्रास के आग्रह से लिख रहे हैं। मनोनुकूल स्थलो और प्रसंगों के चित्रण में रसखान ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह प्रवाहमयी है—

आली पगे रंगे जे रंग साँवरे मौपै न आवत लालची नैना।
धावत है उतही जित मोहन रोके रुकै नहिं घूँघट ऐना।
काननि कौं कल नाहिं परै सखी प्रेम सों भीजै सुने बिन बैना।
रसखानि भई मधु की मखियाँ अब नेह को बँधन क्यौ हूँ छुटैना॥[70]

  • रसखान की भाषा का महत्त्वपूर्ण गुण उसका सहज स्वाभाविक प्रवाह है। रसखान की भाषा में यह प्रवाह किसी उद्दाम पर्वतीय नदी के समान दिखाई पड़ता है जिसके मार्ग में कहीं भी अटक, अवरोध या बाधा नहीं।

नादात्मकता

छंदों की गेयता प्रभावोत्पादन में निस्सन्देह वृद्धि करती है। उत्तम छन्द वही माना जाता है जिसमें उपयुक्त शब्द योजना और संगीत तत्त्व हो। रसखान की भाषा में नादात्मकता के दर्शन होते हैं। संगीत तत्त्व ने भावानुभूति के लिए एक सजीव और मनोरम वातावरण उत्पन्न कर दिया है। रसखान के काव्य में एक मधुर आकार की अनुभूति होती है। रसखान के सुन्दर शब्दों एवं वर्णों के चयन से उनके कवित्तों औ सवैयों में बरबस संगीतात्मकता आ जाती है। उनके समाप्त हो जाने के बाद भी संगीतात्मकता की झंकृति कर्ण-कुहरों में प्रतिध्वनित होती रहती है।[71]

  • अनुप्रास के विभिन्न रूपों के संयुक्त प्रयोग द्वारा निर्मित इस सवैये का संगीत सुनने योग्य है—

बिहरै पिय प्यारी सनेह सने छहरै चुनरी के झवा झहरैं।
सिहरैं नवजोवन रंग अनंग सुभंग अपांगनि की गहरैं।
बहरैं रसखानि नदी रस की घहरैं बनिता कुल हू भहरैं।
कहरैं बिरही जन आतप सौं लहरैं लली लाल लिए पहरैं॥[72]

इस पद में नादात्मकता की सफल स्वाभाविक निबन्धना हुई है। झंकार की-सी प्रतिध्वनि हो रही है। रसखान की भाषा प्रवाहमयी और संगीतपूर्ण है। कवि की लेखनी से निकला हुआ एक-एक शब्द लय सृजन में योग दे रहा है। रसखान की भाषा का सबसे बड़ा गुण यह है कि प्रत्येक शब्द छन्द के उतार-चढ़ाव के अनुरूप लय के अनुसार बोलता है। वर्ण-संगीत के द्वारा निर्मित आंतरिक संगीत रसखान के काव्य-माधुर्य का प्रधान तत्त्व है। होली के प्रसंगों में संगीत की ध्वनि सुनाई पड़ती है—

खेलत फाग सुहाग भरी अनुरागहिं लालन कौं धरि कै।
मारत कुंकम केसरि के, पिचकारिन में रंग कौं भरि कै।
गेरत लाला गुलाल लली मन मोहिनि मौज मिटा करि कै।
जात चली रसखानि अली मदमत्त मनौ मन कौं हरि कै॥[73]

  • शिव-स्तुति प्रसंग में भी उनकी शब्दावली इसी संगीतमयी गति से प्रवाहित है—

यह देखि धतूरे के पात चबात औ गात सों धूलि लगावत हैं।
चहुँ ओर जटा अँटकै लटकै फनिसो कफ़नी फहरावत हैं।
रसखानि जेई चितवै चित दै तिनके दुखदुन्द भजावत हैं।
गजखाल कपाल की माल बिसाल सौ गाल बजावत आवत है।[74]

  • रसखान ने शब्दों को उस प्रकार संजोया है कि उनमें नाद सौन्दर्य झलक रहा है— 'पाले परी मैं अकेली लली लला लाज लियौ सुकियो मन भायौ।[75]'
  • वास्तविकता यह है कि रसखान द्वारा संयोजित वर्ण-संगीत के उदाहरण में उनका पूरा काव्य रखा जा सकता है।

गावैं गुनी गनिका गंधरब्बब औ सारद सेष सबै गुन गावत।
नाम अनन्त गनन्त गनेस ज्यौं ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावत।
जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरन्तर जाहिं समाधि लगावत।
ताहि अहीर को छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावत॥[76]

अंतिम पंक्ति की ध्वन्यर्थ व्यंजना विशेष ध्यान देने योग्य है। वर्ण और शब्द योजना द्वारा आंतरिक संगीत की निबंधना रसखान की भाषा की विशेषता है।

  • प्राय: पद्य में शब्द ध्वनित होते दिखाई पड़ते हैं— 'या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौगी।[77]'
  • त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सौ है रसखानि।[78]
  • रसखान ने समान वर्ण वाले शब्दों की आवृत्ति द्वारा भाषा में प्रवाह और लय का निर्माण किया है-

तें न लख्यौ जब कुंजन तें बनि के निकस्यौ भटक्यौ मटक्यौ री।
सौहत कैसो हरा टटक्यौ अरु कैसो किरीट लसै लटक्यौ री।
कौ रसखानि फिरै भटक्यौ हटक्यौ ब्रज लोग फिरै भटक्यौ री।
रूप सबै हरि वा नट को हियरें अटक्यो अटक्यो अटक्यौ री॥[79]

रसखान की भाषा में नादात्मकता भावव्यंजना के अनुकूल है। इन्होंने केशव आदि रीतिकालीन कवियों की भांति शब्दों से खिलवाड़ नहीं की। इनकी भाषा में शब्दाग्रह नहीं। भाषा की नादात्मकता श्रुतिपेशल तथा प्रतिपाद्य के अनुकूल है। उसमें स्वाभाविक सौन्दर्य एवं संगीत की कमनीयता अवलोकनीय है।

गुणोचित शब्द-योजना (गुण, वृत्ति)

गुण

काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित रस अनुभूतिस्वरूप है, वह आस्वाद ही है। चित्त की जिस अवस्था में भावक को स्वानुभूति होती है उसे 'गुण' कहते हैं। गुण वस्तुत: रस के धर्म हैं। रस के साथ उनका अविनाभाव सम्बन्ध है। अर्थात् रस के अस्तित्व के साथ गुण का अस्तित्व अनिवार्य है और गुण के साथ रस का अस्तित्व। जिस प्रकार शौर्य आदि शरीर के धर्म न होकर आत्मा के धर्म हैं, उसी प्रकार माधुर्य आदि गुणी शब्दार्थ के धर्म न होकर रस के ही धर्म हैं। जिस प्रकार आत्मा के धर्म-शौर्य आदि आदि को लोक-व्यवहार में शरीर का धर्म कह दिया जाता है, उसी प्रकार इसके धर्म-माधुर्य आदि को भी काव्य के शब्दार्थ रूप शरीर का धर्म समझ लिया जाता है। संस्कृत के काव्यशास्त्र में विभिन्न आचार्यों द्वारा गुणों की विभिन्न संख्याएं बतलाई गई हैं। आगे चलकर आचार्य मम्मट ने तीन गुणों की प्रतिष्ठा की। परवर्ती काव्य शास्त्र में इन्हीं को आप्त मान लिया गया। वे तीन गुण हैं- माधुर्य, ओज और प्रसाद।

वृत्ति

वर्णविन्यास के क्रम को 'वृत्ति' कहते हैं।

  • आचार्य वामन ने 'विशिष्टा पद रचना' को 'रीति' कहा है। उनका रीति-सिद्धान्त बहुत ही व्यापक है। उसके अन्तर्गत अलंकारों की योजना, दोषों का परिहार, गुण आदि बहुत कुछ है।
  • मम्मट ने पद रचना या वर्णविन्यास के लिए 'वृत्ति' शब्द का समीचीन व्यवहार किया। ध्वनिवादियों और रसवादियों ने काव्य के प्रत्येक अंग (रस, अलंकार, वृत्ति आदि) का सापेक्ष महत्त्व निर्धारित कर दिया। उनका यह अभिमत संस्कृत काव्य शास्त्र का मानदण्ड बन गया। वैदर्भी आदि रीतियों का जो प्रतिपादन संस्कृत के काव्य शास्त्र में किया गया है उसे हिन्दी कविता पर लागू करना न्याय-संगत नहीं है। अतएव रसखान के काव्य विवेचन में विभिन्न रीतियों के बदले त्रिविद्ध वृत्तियों की विचार-चर्चा ही संगत है, जो इस प्रकार हैं- मधुरा वृत्ति, कोमला वृत्ति और परुषा वृत्ति।

माधुर्य गुण मधुरा वृत्ति

माधुर्य गुण चित्त की वह द्रुत दशा है जिसमें रस या भाव की अनुभूति होती है। लक्षणा के द्वारा हम इस प्रकार की रसानुभूति कराने वाले काव्य में माधुर्य गुण की चर्चा करते हैं। कन्हैयालाल पोद्दार के शब्दों में - 'जिस काव्य रचना से अन्त:करण आनन्द से द्रवीभूत हो जाता है, उस रचना में माधुर्य गुण होता है।[80]' माधुर्य गुण श्रृंगार रस के साथ-साथ शान्त रस में भी मिलता है। सरस, मार्मिक और मनोहर प्रसंगों के लिए मधुरा वृत्ति के अनुरूप ही शब्दों का विशेष ध्यान रखा जाता है। रसखान प्रेमोमंग के कवि थे। श्रृंगार उनका प्रिय रस था। इसलिए उनकी भाषा में स्वभावत: ही माधुर्य गुण पाया जाता है। श्रीकृष्ण की किशोरावस्था की प्रेम लीलाओं के वर्णन में कोमलावृत्ति से पगी हुई भाषा के दर्शन होते हैं। कृष्ण के रूप-सौन्दर्य निरूपण में माधुर्य भरा हुआ है। यथा—

मैन-मनोहर बैन बजै सु सजे तन सोहत पीत पटा है।
यौं दमकै चमकै झमकै दुति दामिनी की मनो स्याम घटा है।
ए सजनी ब्रज राजकुमार अटा चढ़ि फेरत लाला पटा है।
रसखानि महा मधुरी मुख की मुसकानि करै कुल कानि कटा है।[81]

  • ट,ठ,ड,ढ को छोड़कर 'क' से 'म' तक के वर्ण ङ,ण,न,म से युक्त ह्रस्व र और ण समास का अभाव या अल्प समास के पद और कोमल, मधुर रचना जो माधुर्य गुण के मूल हैं, रसखान के काव्य में पाए जाते हैं। कोमलकान्त-पदावलीयुक्त माधुर्य गुण का अन्य स्वरूप देखिए—

कैसो मनोहर बानक मोहन सोहन सुन्दर काम ते आली।
जाहि बिलोकत लाज तजि कुल छूटौ है नैननि की चल चाली।
अधरा मुसकान तरंग लसै रसखानि सुहाई महा छबि छाली।
कुंजगली मधि मोहन सोहन देख्यौ सखी वह रूप रसाली।[82]

कर्कशता से दूर मधुरा वृत्ति-संयुक्त माधुर्य गुण युक्त ललित पद-योजना दर्शनीय है।

ओज गुण, परुषा वृत्ति

ओज गुण चित्त की वह दीप्त दशा है जिसमें रस या भाव की अनुभूति होती है। लक्षणा के द्वारा हम इस प्रकार की रसानुभूति कराने वाले काव्य में ओज गुण की चर्चा करते हैं। कन्हैयालाल पोद्दार के शब्दों में- 'जिस काव्य रचना के श्रवण से मन में तेज़ उत्पन्न होता है, उस रचना में ओज गुण होता है।[83]' ओजगुण वीर रस, वीभत्स और रौद्र रस में प्रधानत: स्थित रहता है। रसखान के कृष्ण महाभारत के योद्धा नहीं, गोकुल के किशोर थे। रसखान ने उनके सौन्दर्य और प्रेम लीलाओं की ही चर्चा की है। कुवलयावध में उन्होंने कृष्ण की वीरता को दिखाया है किन्तु वहां वीर रस का पूर्ण परिपाक न होने से ओज गुण के दर्शन नहीं होते।

कंस के क्रोध की फैलि रही सिगरे ब्रज मंडल माँझ पुकार सी।
आइ गए कछिनी कछि के तबहीं नट-नागर नन्दकुमार सी।
द्वरद को रद खैंचि लियो रसखानि हिये महि लाइ बिचार सी।
लीनी कुठौर लगी लखि तोरि कलंक तमाल ते कीरति डार सी॥[84]

वहां ऐसा प्रतीत होता है कि कोई बालक यूं ही खेल-खेल में अपने शौर्य का प्रदर्शन कर रहा है। जहां द्वित्व वर्णों, संयुक्त वर्णों र के संयोग और ट,ठ,ड,ढ की अधिकता हो समासाधिक्य हो और कठोर वर्णों की रचना हो वहां परुषावृत्ति तथा ओज गुण होता है। रसखान के काव्य में कहीं परुषावृत्ति पूर्ण शब्दावली झलकने से ओज गुण ध्वनित होता है-

वेई ब्रह्म ब्रह्मा जाहि सेवत हैं रैन दिन,
सदा सिव सदा ही धरत ध्यान गाढ़े हैं।
वेई विष्नु जाके काज मानी मूढ़ राजा रंक,
जोगी जाती ह्वै कै सीत सह्यौ अंग डाढ़े है।
वेई ब्रजनन्द रसखानि प्रान प्रानन के,
जाके अभिलाष लाख-लाक्ष भाँति बाढ़े हैं।
जसुधा के आगे बसुधा के मान-मोचन ये,
तामरस-लोचन खरोचन कौं ठाढ़े हैं।[85]

  • रसखान के काव्य में ओज गुण प्रधान ट-वर्ग भी माधुर्य गुण का सहायक बनकर आया है—

तै न लख्यौ जब कुंजन तें बनि कै निकस्यौ भटक्यौ मटक्यौ री।
सोहत कैसो हरा टटक्यौ अरु कैसो किरीट लसे लटक्यौ री।
को रसखानि फिरै झटक्यौ हटक्यौ ब्रज लोग फिरै भटक्यौ री।
रूप सबै हरि वा नट को हियरैं, अटक्यौ अटक्यौ अटक्यौ री।[86]

प्रसाद गुण, कोमल वृत्ति

  • प्रसाद गुण चित्त की वह प्रसन्न दशा है जिसमें रस या भाव की अनुभूति होती है। हम इस प्रकार की रसनुभूति कराने वाले काव्य में प्रसाद-गुण की चर्चा करते हैं। माधुर्य चित्त की द्रुत दशा है और ओज दीप्ति दशा। अतएव दोनों एक साथ असंभव हैं। प्रसाद गुण माधुर्य के साथ भी हो सकता है और ओज के साथ भी। उसका वैशिष्ट्य केवल इस बात से है कि यदि काव्य की भावना से तत्काल ही उसके मर्म का साक्षात्कार हो जाय और भावक को रसानुभूति होने लगे तो हम वहां प्रसाद गुण मानेंगे। जिस रचना में व्यक्त विचार वाग्जाल से रहित होने के कारण पूर्णत: स्पष्ट होते हैं वहां कोमलावृत्ति होती है। रसखान के काव्य में इस वृत्ति से युक्त भाषा की प्रधानता है। उनके भक्ति सम्बन्धी पद और कृष्ण लीलाएं प्रसाद गुण युक्त हैं-

मानुष हों तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हों तो कहा बस मेरो चरों नित नन्द की धेनु मँझारन।
पाहन हों तो वही गिरि को जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर धारन।
जौ खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल कदंब की डारन॥[87]

  • निम्नलिखित पद में सरस और कोमल शब्दों के प्रयोग के कारण अभिव्यक्ति में सौन्दर्य और कोमलता के दर्शन होते हैं—

धूरि भरे अति सोभित स्यामजू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरैं अँगना पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखानि बिलोकत वारत काम कला निज कोटी।
काग के भाग बड़े-सजनी हरि हाथ सों लै गयौ माखन रोटी॥[88]

  • कोमलावृत्ति के प्रयोग के कारण रसखान की भाषा प्रवाहमयी है। अर्थ के लिए मस्तिष्क को व्यायाम की आवश्यकता नहीं पड़ती। सारांश यह है कि रसखान का काव्य माधुर्य और प्रसाद गुण प्रधान है। उसमें स्वाभाविक मधुरता और कोमलकांत पदावली के साथ-साथ दर्शन होते हैं। रसखान की भाषा पर साहित्यिक दृष्टि से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि रसखान की भाषा शुद्ध ब्रज है। उन्होंने शब्दों को विकृत करने या अधिक व्याकरणानुमोदित करने का प्रयास न करके उसके सहज रूप को स्वीकार किया। मार्मिक उद्गारों को स्वाभाविकता एवं स्पष्टता के साथ अभिव्यक्ति करने में रसखान की भाषा जितनी समर्थ है, उतनी ही प्राणवान और श्रेष्ठ भी है।

भाषाओं के शब्द

रसखान की भाषा में अनेक देशी बोलियों के शब्द भी मिलते हैं। अपभ्रंश शब्दावली को भी कहीं-कहीं रसखान ने अपनाया है। गंगाजी में न्हाइ मुक्ताहलहू लुटाय[89] में 'मुक्ताहल' शब्द अपभ्रंश का है। आज महूं दधि बेचत जाता ही[90] शब्द अपभ्रंश का है जिसका अर्थ है थी। बेनु बजावत गोधन गावत ग्वालन के संग गोमधि आयो।[91] अपभ्रंश में सप्तमी का चिह्न 'इ' है और वह इ यहाँ ध में लग गई जिसका अर्थ हुआ गायों के मध्य में।

  • राजस्थानी के भी एक-दो शब्द रसखान की भाषा में मिल जाते हैं तू गरबाइ कहा झगरै रसखानि तेरे बस बावरी 'हौसै'।[92] यहाँ होसै शब्द राजस्थानी शब्द 'होसी' का रूप है जिसका अर्थ है होगा।
  • रसखान की भाषा में कुछ अवधी भाषा के शब्द पाये जाते हैं। ता छिन ते परि बैरी बिसासिनी झांकन देति नहीं है दुआरो[93], होत चवाव बचावों सु क्यों अलि भेटियै प्रान पियारो[94] यहाँ 'दुबारो' तथा 'पियारो' अवधी 'पियार' तथा 'दुवार' पर आधारित हैं। ब्रजभाषा में ये 'द्वारौ' और 'प्यारो' होंगे।[95]

यहाँ रसखान की भाषा पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। उनकी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह बहुत सहज, व्याकरण-सम्मत, भावाभिव्यंजक तथा प्रभावशाली है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. साहित्यदर्पण, पृ0 40;
  2. साहित्यदर्पण ,पृ0 48
  3. साहित्य दर्पण, पृ0 75
  4. सुजान रसखान, 4
  5. सुजान रसखान, 5
  6. सुजान रसखान, 7
  7. सुजान रसखान, 10
  8. सुजान रसखान,8
  9. सुजान रसखान,12
  10. सुजान रसखान, 20
  11. सुजान रसखान, 21
  12. सुजान रसखान, 46
  13. सुजान रसखान, 183
  14. मुख्यार्थ बाधे तद्युक्तो ययान्योऽर्थ: प्रतीयते। रूढे: प्रयोजनाद्वाऽसौ लक्षणा शक्तिरर्पिता॥ साहित्यदर्पण, पृ0 48
  15. काव्य-दर्पण, पृ0 22
  16. सुजान रसखान, 28
  17. सुजान रसखान, 41
  18. सुजान रसखान, 55
  19. सुजान रसखान, 100
  20. सुजान रसखान, 181
  21. काव्य-दर्पण, पृ0 23
  22. सुजान रसखान, 21
  23. सुजान रसखान,30
  24. सुजान रसखान, 38
  25. सुजान रसखान, 27
  26. सुजान रसखान, 60
  27. काव्य-दर्पण, पृ0 24
  28. सुजान रसखान, 46
  29. काव्य दर्पण, पृ0 25
  30. सुजान रसखान, 5
  31. सुजान रसखान, 43
  32. सुजान रसखान, 98
  33. सुजान रसखान, 138
  34. विरतास्वभिधाद्यासु ययाऽर्थों बोध्यते पर: सा वृत्तिव्यंजना नाम शब्दस्यार्थादिकस्य च॥ साहित्यदर्पण, पृ0 75
  35. सुजान रसखान,9
  36. सुजान रसखान
  37. सुजान रसखान, 18
  38. सुजान रसखान, 21
  39. सुजान रसखान, 24
  40. सुजान रसखान, 42
  41. सुजान रसखान, 45
  42. सुजान रसखान, 54
  43. सुजान रसखान,101
  44. सुजान रसखान,127
  45. सुजान रसखान, 142
  46. सुजान रसखान, 143
  47. सुजान रसखान, 157
  48. सुजान रसखान, 171
  49. सुजान रसखान, 185
  50. सुजान रसखान, 194
  51. 'रसखान का काव्य अभिधा का काव्य है'।
  52. साहित्य दर्पण, पृ0 674
  53. सुजान रसखान, 42
  54. सुजान रसखान, 44
  55. सुजान रसखान, 204
  56. ब्रजभाषा के कृष्ण भक्ति काव्य में अभिव्यंजनावाद, पृ0 185
  57. सुजान रसखान, 144
  58. सुजान रसखान, 82
  59. सुजान रसखान, 106
  60. सुजान रसखान, 98
  61. सुजान रसखान, 3
  62. सुजान रसखान, 66
  63. सुजान रसखान, 165
  64. सुजान रसखान, 183
  65. सुजान रसखान, 49
  66. सुजान रसखान, 35
  67. सुजान रसखान, 141
  68. सुजान रसखान, 15
  69. सुजान रसखान, 127
  70. सुजान रसखान, 126
  71. रसखान (जीवन और कृतित्व), पृ. 185
  72. सुजान रसखान, 189
  73. सुजान रसखान, 191
  74. सुजान रसखान, 211
  75. सुजान रसखान, 43
  76. सुजान रसखान, 12
  77. सुजान रसखान, 86
  78. सुजान रसखान, 4
  79. सुजान रसखान, 167
  80. काव्यकल्पद्रुम, भाग 1, पृ0 339
  81. सुजान रसखान, 172
  82. सुजान रसखान, 158
  83. काव्य कल्पद्रुम, पृ0 640
  84. सुजान रसखान, 202
  85. सुजान रसखान, 10
  86. सुजान रसखान, 167
  87. सुजान रसखान, 1
  88. सुजान रसखान, 21
  89. सुजान रसखान, 11
  90. सुजान रसखान, 43
  91. सुजान रसखान, 58
  92. सुजान रसखान, 107
  93. सुजान रसखान, 99
  94. सभा काशी
  95. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने रसखानि (ग्रंथावली) में दोनों को ब्रज भाषा का रूप देकर प्रयुक्त किया है। सुजान रसखान, पद 99

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