राजाराम

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

भज्जासिंह का पुत्र राजाराम सिनसिनवार जाटों का सरदार बनाया गया। वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था, उसने आगरा के निकट सिकन्दरा में अकबर के मक़बरे को लूटा था। वह एक साहसी सैनिक और विलक्षण राजनीतिज्ञ था। उसने जाटों के दो प्रमुख क़बीलों-सिनसिनवारों और सोघरियों (सोघरवालों) को आपस में मिलाया। सोघर गाँव सिनसिनी के दक्षिण-पश्चिम में था। रामचहर सोघरिया क़बीले का मुखिया था। राजाराम और रामचहर सोघरिया शीघ्र ही अपनी उपस्थिति कराने लगे।


सिनसिनी से उत्तर की ओर, आऊ नामक एक समृद्ध गाँव था। यहाँ एक सैन्य दल नियुक्त था, जो लगभग 2,00,000 रुपये सालाना मालगुज़ारी वाले इस क्षेत्र में व्यवस्था बनाने के लिए नियुक्त था। इस चौकी अधिकारी का नाम लालबेग था जो अत्यधिक नीच प्रवृत्ति का था। एक दिन एक अहीर अपनी पत्नी के साथ गाँव के कुएँ पर विश्राम के लिए रुका। लालबेग का एक कर्मचारी उधर से निकला और उसने अहीर युवती की अतुलनीय सुन्दरता को देखा और तुरन्त लालबेग को ख़बर की। लालबेग ने कुछ सिपाही भेजकर अहीर पति-पत्नी को बुला भेजा। पति को छोड़ दिया गया, और पत्नी को लालबेग के निवास में भेज दिया गया। यह ख़बर तेज़ से फैली और राजाराम ने योजना बनाई। कुछ ही दूरी पर गोवर्धन में वार्षिक मेला होने वाला था। बहुत-से लोग इस मेले में आते थे। ज़्यादातर लोग बैलगाड़ियों पर, ऊँटों पर और घोड़ों पर आते थे और इन पशुओं को चारे की जरुरत होती थी। लालबेग को घास ले जाने वाली गाड़ियों को मेले के मैदान में जाने की अनुमति देनी पड़ी। इन घास की गाड़ियों के अन्दर राजाराम और उसके वीर सैनिक छिपे हुए थे। चौकी को पार करते ही उन्होंने गाड़ियों में आग लगा दी और उसके बाद भयंकर युद्ध हुआ और उसमें लालबेग मारा गया और इस तरह राजाराम ने अपनी वीरता प्रमाणित की। इस युद्ध के बाद राजाराम ने अपने क़बीले को सुव्यवस्थित सेना बनाना प्रारम्भ कर दिया, जो रेजिमेंट के रूप में संगठित थी, अस्त्र-शस्त्रों से युक्त यह सेना अपने नायकों की आज्ञा मानने को प्रशिक्षित थी। सुरक्षित जाट-प्रदेश के जंगलों में छोटी-छोटी क़िले नुमा गढ़ियाँ बनवायीं गईं। इन पर गारे की (मिट्टी की) परतें चढ़ाकर मज़बूत बनाया गया। इन पर तोप-गोलों का असर भी ना के बराबर होता था।


राजाराम ने मुग़ल शासन से विद्रोह कर युद्ध के लिए ललकारा। जाट-क़बीलों ने राजाराम का साथ दिया। मुख्य लक्ष्य आगरा था और राजाराम, जो गोकुला के वध का प्रतिशोध ले रहा था, उसने अपना कर लगाया, धौलपुर से आगरा तक की यात्रा के लिए प्रति व्यक्ति 200 रुपये लिये जाते थे। इस एकत्रित धन को राजाराम ने आगरा की इमारतों को नष्ट करने में प्रयोग किया। राजाराम के भय से आगरा के सूबेदार सफ़ी ख़ाँ ने बाहर निकलना बन्द कर दिया था। पहली कोशिश नाकाम रही और सिकन्दरा के फ़ौजदार मीर अबुलफ़ज़ल ने बड़ी मुश्किल से मक़बरे को बचाया। सिनसिनी की ओर लौटते हुए राजाराम ने कई मुग़ल गाँवो को लूटा। उसे पैसे की ज़रूरत थी , वह स्वच्छन्द उपायों से धन प्राप्त करता था। धीरे-धीरे राजाराम दबंग होता गया। सन् 1686 में सेनाध्यक्ष आग़ा ख़ाँ क़ाबुल से बीजापुर सम्राट के पास जा रहा था। जब वह धौलपुर पहुँचा, राजाराम के छापामार दल ने आग़ा ख़ाँ के असावधान सैनिकों पर हमला किया। शाही काफ़िलों पर किसी की हमला करने की हिम्मत नहीं थी। आग़ा ख़ाँ काफ़ी समय से क़ाबुल में था, उसने आक्रमणकारियों का पीछा किया। जब वह उनके पास पहुँचा तो राजाराम ने उसे और उसके अस्सी सैनिकों को मार ड़ाला।


दक्षिण में औरंगज़ेब ने जब यह सुना तो उसने तुरन्त कार्रवाई की। उसने जाट- विद्रोह से निपटने के लिए अपने चाचा, ज़फ़रजंग को भेजा। वह नाकाम रहा। उसके बाद औरंगजेब ने युद्ध के लिए अपने बेटे शाहज़ादा आज़म को भेजा। शहज़ादा बुरहानपुर तक ही आया था कि औरंगजेब ने उसे गोलकुण्डा जाने को कहा। औरंगजेब ने राजाराम के ख़िलाफ़ मुग़ल सेनाओं के नेतृत्व के लिए आज़म के पुत्र बीदरबख़्त को भेजा। बीदरबख़्त सत्रह साल का था। वह उम्र में कम पर बहुत साहसी था। ज़फ़रजंग को प्रधान सलाहकार बनाया गया। बार-बार के बदलावों से शाही फ़ौज में षड्यन्त्र होने लगे। राजाराम ने मौके का फ़ायदा उठाया। मुग़लों की सेना में उसके गुप्तचर थे। जिससे उसे मुग़ल सेना की गतिविधियों का पता रहता था।

सत्रहवीं शताब्दी में मुग़ल सैनिक पूरे लश्कर के साथ यात्रा करते थे। बीदरबख़्त के आगरा आने से पहले ही राजाराम मुग़लों पर एक और हमला कर चुका था। पहले उसने आगरा में मीर इब्राहीम हैदराबादी पर हमला किया। मीर पंजाब की सूबेदारी सँभालने जा रहा था।


सन् 1688, मार्च में राजाराम ने आक्रमण किया। राजाराम ने अकबर के मक़बरे को लगभग तोड़ ही दिया था। यह निश्चय मुग़लों की प्रभुता का प्रतीक था। मनूची का कथन है कि जाटों ने लूटपाट "काँसे के उन विशाल फाटकों को तोड़कर शुरू की, जो इसमें लगे थे; उन्होंने बहुमूल्य रत्नों और सोने-चाँदी के पत्थरों को उखाड़ लिया और जो कुछ वे ले जा नहीं सकते थे, उसे उन्होंने नष्ट कर दिया।"[1] इस प्रकार राजाराम ने गोकुला का बदला लिया। राजाराम जीत तो गया, पर बहुत समय तक जाटों पर लुटेरा और बर्बर होने का कलंक लगा रहा। राजाराम का काम माफी के योग्य नहीं पर इस युद्ध के बीज औरंगज़ेब के अत्याचारों ने बोए थे। हिन्दू मन्दिरों के विनाश और मन्दिरों की जगह पर मस्जिदों का निर्माण करने से बदले की भावना पनपी। सिकन्दरा युद्ध के बाद चौहान और शेख़ावत राजपूतों ने राजाराम से सहायता माँगी, वह तुरन्त तैयार हो गया। वह 4 जुलाई, 1688 को बैजल नाम के छोटे-से और अप्रसिद्ध गाँव में एक मुग़ल की गोली से मारा गया। उसी दिन यही दशा सोघरिया सरदार की भी हुई।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एन.मनूची, 'स्तोरिया दो मोगोर,' खंड दो पृ. 230

संबंधित लेख

संबंधित लेख