लक्ष्मी

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लक्ष्मी
Lakshmi

देवी की जितनी भी शक्तियाँ मानी गयी हैं, उन सब की मूल भगवती लक्ष्मी ही हैं। ये ही सर्वोत्कृष्ट पराशक्ति हैं। श्री लक्ष्मी जी की अभिव्यक्ति दो रूपों में देखी जाती है-

  • श्रीरूप में और
  • लक्ष्मी रूप में।

ये दो होकर भी एक हैं और एक होकर भी दो हैं। दोनों ही रूपों में ये भगवान विष्णु की पत्नी हैं। इनकी थोड़ी-सी कृपा प्राप्त करके व्यक्ति वैभववान हो जाता है। भगवती लक्ष्मी कमलवन में निवास करती हैं, कमल पर बैठती हैं और हाथ में कमल ही धारण करती हैं। समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठात्री श्रीदेवी शुद्ध सत्त्वमयी हैं। विकार और दोषों का वहाँ प्रवेश भी नहीं है। भगवान जब-जब अवतार लेते हैं, तब-तब भगवती महालक्ष्मी भी अवतीर्ण होकर उनकी प्रत्येक लीला में सहयोग देती हैं। इन्हें धन की देवी माना जाता है और नित्य लक्ष्मी जी का भजन पूजन और लक्ष्मी जी की आरती करते है। इनके आविर्भाव की कथा इस प्रकार है—

कथा

महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति के गर्भ से एक त्रिलोक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई। वह समस्त शुभ लक्षणों से सुशोभित थी। इसलिये उसका नाम लक्ष्मी रखा गया। धीरे-धीरे बड़ी होने पर लक्ष्मी ने भगवान नारायण के गुण-प्रभाव का वर्णन सुना। इससे उनका हृदय भगवान में अनुरक्त हो गया। वे भगवान नारायण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये समुद्र तट पर घोर तपस्या करने लगीं। उन्हें तपस्या करते-करते एक हज़ार वर्ष बीत गये। उनकी परीक्षा लेने के लिये देवराज इन्द्र भगवान विष्णु का रूप धारण करके लक्ष्मी देवी के पास आये और उनसे वर माँगने के लिये कहा- लक्ष्मी जी ने उनसे विश्वरूप का दर्शन कराने के लिये कहा। इन्द्र वहाँ से लज्जित होकर लौट गये। अन्त में भगवती लक्ष्मी को कृतार्थ करने के लिये स्वयं भगवान विष्णु पधारे। भगवान ने देवी से वर माँगने के लिये कहा। उनकी प्रार्थना पर भगवान ने उन्हें विश्वरूप का दर्शन कराया। तदनन्तर लक्ष्मी जी की इच्छानुसार भगवान विष्णु ने उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया।

दूसरी कथा

लक्ष्मी जी के प्रकट होने का दूसरी कथा इस प्रकार है- एक बार महर्षि दुर्वासा घूमते-घूमते एक मनोहर वन में गये। वहाँ एक विद्याधरी सुन्दरी ने उन्हें दिव्य पुष्पों की एक माला भेंट की। माला लेकर उन्मत्त वेशधारी मुनि ने उसे अपने मस्तक पर डाल लिया और पुन: पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे। इसी समय दुर्वासा जी को देवराज इन्द्र दिखायी दिये। वे ऐरावत पर चढ़कर आ रहे थे। उनके साथ अन्य देवता भी थे। महर्षि दुर्वासा ने वह माला इन्द्र को दे दी। देवराज इन्द्र ने उसे लेकर ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने माला की तीव्र गन्ध से आकर्षित होकर उसे सूँड़ से उतार लिया और अपने पैरों तले रौंद डाला। माला की दुर्दशा देखकर महर्षि दुर्वासा क्रोध से जल उठे और उन्होंने इन्द्र को श्री भ्रष्ट होने का शाप दे दिया। उस शाप के प्रभाव से इन्द्र श्री भ्रष्ट हो गये और सम्पूर्ण देवलोक पर असुरों का शासन हो गया। समस्त देवता असुरों से संत्रस्त होकर इधर-उधर भटकने लगे। ब्रह्मा जी की सलाह से सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गये। भगवान विष्णु ने उन लोगों को असुरों के साथ मिलकर क्षीरसागर को मथने की सलाह दी। भगवान की आज्ञा पाकर देवगणों ने दैत्यों से सन्धि करके अमृत-प्राप्ति के लिये समुद्र मंथन का कार्य आरम्भ किया। मन्दराचल की मथानी और वासुकि नाग की रस्सी बनी। भगवान विष्णु स्वयं कच्छपरूप धारण करके मन्दराचल के आधार बनें।


लक्ष्मी देवी

इस प्रकार मन्थन करने पर क्षीरसागर से क्रमश: कालकूट विष, कामधेनु, उच्चैश्रवा नामक अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ, लक्ष्मी, वारूणी, चन्द्रमा, शंख, शांर्ग धनुष धनवन्तरि और अमृत प्रकट हुए। क्षीरसमुद्र से जब भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं, तब वे खिले हुए श्वेत कमल के आसन पर विराजमान थीं। उनके श्री अंगों से दिव्य कान्ति निकल रही थी। उनके हाथ में कमल था। लक्ष्मी जी का दर्शन करके देवता और महर्षि गण प्रसन्न हो गये। उन्होंने वैदिक श्रीसूक्त का पाठ करके लक्ष्मी देवी का स्तवन किया। सबके देखते-देखते वे भगवान विष्णु के पास चली गयीं।

महाभारत में लक्ष्मी

  • एक बार लक्ष्मी ने गौओं के समूह में प्रवेश किया। गौओं ने उस रूपवती का परिचय पूछा। लक्ष्मी ने बताया कि उसका सहवास सबके लिए सुखकर है तथा वह लक्ष्मी है और उसके साथ रहना चाहती है। गौओं ने पहले तो लक्ष्मी को ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वह स्वभाव से ही चंचला मानी जाती है, फिर लक्ष्मी के बहुत अनुनय-विनय पर उन्होंने उसे अपने गोबर तथा मूत्र में रहने की आज्ञा प्रदान की।[1]
  • सृष्टि के आदि में राधा और कृष्ण थे। राधा के वामांग से लक्ष्मी प्रकट हुई। कृष्ण ने भी दो रूप धारण किये- एक द्विभुज और एक चतुर्भुज। द्विभुज कृष्ण राधा के साथ गोलोक में तथा चतुर्भुज विष्णु महालक्ष्मी के साथ बैकुंठ चले गये। एक बार दुर्वासा के शाप से इन्द्र श्री भ्रष्ट हो गये। मृत्युलोक में देवगण एकत्र हुए। लक्ष्मी ने रुष्ट होकर स्वर्ग त्याग दिया तथा वह बैकुंठ में लीन हो गयी। देवतागण बैकुंठ पहुंचे तो पुराणपुरुष की आज्ञा से लक्ष्मी सागर-पुत्री होकर वहां चली गयी। देवताओं ने समुद्र मंथन में पुन: लक्ष्मी को प्राप्त किया। लक्ष्मी ने सागर से निकलते ही क्षीरसागरशायी विष्णु को वनमाला देकर प्रसन्न किया।[2]
  • भृगु के द्वारा ख्याति ने धाता और विधाता नामक दो देवताओं को तथा लक्ष्मी को जन्म दिया। लक्ष्मी कालांतर में विष्णु की पत्नी हुई। लक्ष्मी नित्य, सर्वव्यापक है। पुरुषवाची भगवान हरि है और स्त्रीवाची लक्ष्मी, इनसे इतर और कोई नहीं है। एक बार शंकर के अंशावतार दुर्वासा को याचना करने पर एक विद्याधरी से संतानक पुष्पों की एक दिव्य माला उपलब्ध हुई। ऐरावत हाथी पर जाते हुए इन्द्र को उन्होंने वह माला दे दी। तदुपरांत इन्द्र ने अपने हाथी को पहना दी। हाथी ने पृथ्वी पर डाल दी। इस बात से रुष्ट होकर दुर्वासा ने इन्द्र को श्रीहीन होने का शाप दिया। समस्त देवता तथा जगत के तत्त्व श्रीहीन हो गये तथा दानवों से परास्त हो गये। वे सब ब्रह्मा की शरण में गये। उन्होंने विष्णु के पास भेजा। विष्णु ने दानवों के सहयोग से समुद्र मंथन का संपादन किया। समुद्र मंथन में से लक्ष्मी (श्री) पुन: प्रकट हुई तथा विष्णु के वक्ष पर स्थित हो गयी। इन्द्र की पूजा से प्रसन्न होकर उन्होंने वर दिया कि वह कभी पृथ्वी का त्याग नहीं करेंगी। जब भी विष्णु अवतरित होते हैं, 'श्री' सीता, रुक्मिणी आदि के रूप में प्रकट होती हैं।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, दानधर्मपर्व, 82।
  2. भागवत, 9।39-40
  3. विष्णु पुराण, 1।8।15-35, 1।9।

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