विजय नगर साम्राज्य

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विजयनगर (लगभग 1350 ई. से 1565 ई.) का शाब्दिक अर्थ है- 'जीत का शहर'। प्रायः इस नगर को मध्ययुग का प्रथम हिन्दू साम्राज्य माना जाता है। 14 वीं शताब्दी में उत्पन्न विजयनगर साम्राज्य को मध्ययुग और आधुनिक औपनिवेशिक काल के बीच का संक्रान्ति-काल कहा जाता है। इस साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में दक्षिण भारत में तुग़लक़ सत्ता के विरुद्ध होने वाले राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आन्दोलन के परिणामस्वरूप संगम पुत्र हरिहर एवं बुक्का द्वारा तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित अनेगुंडी दुर्ग के सम्मुख की गयी।

विरुपाक्ष मन्दिर, हम्पी

अपने इस साहसिक कार्य में उन्हें ब्राह्मण विद्वान माधव विद्यारण्य तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार 'सायण' से प्रेरणा मिली। विजयनगर साम्राज्य का नाम तुंगभद्रा नदी के दक्षिण किनारे पर स्थित उसकी राजधानी के नाम पर पड़ा। उसकी राजधानी विपुल शक्ति एवं सम्पदा की प्रतीक थी। विजयनगर के विषय में फ़ारसी यात्री 'अब्दुल रज्जाक' ने लिखा है कि, "विजयनगर दुनिया के सबसे भव्य शहरों में से एक लगा, जो उसने देखे या सुने थे।"

इतिहास

संगम वंश
शासक शासनकाल
हरिहर प्रथम (1336-1356 ई.)
बुक्का प्रथम (1356-1377 ई.)
हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.)
विरुपाक्ष प्रथम (1404 ई.)
बुक्का द्वितीय (1404-1406 ई.)
देवराय प्रथम (1406-1422 ई.)
देवराय द्वितीय (1422-1446 ई.)
विजयराय द्वितीय (1446-1447 ई.)
मल्लिकार्जुन (1447-1465 ई.)
विरुपाक्ष द्वितीय (1465-1485 ई.)

विंध्याचल के दक्षिण का भारत 200 वर्षों से अधिक समय तक विजयनगर और बहमनी राज्यों के प्रभुत्व में रहा। उन्होंने न केवल क़ानून और व्यवस्था बनाये रखी, बल्कि व्यापार तथा हस्तशिल्प का विकास भी किया। कला और साहित्य को प्रोत्साहन दिया तथा अपनी राजधानियों को सुन्दर बनायां उत्तर भारत में जबकि विघटनकारी शक्तियाँ धीरे-धीरे विजयी हुईं, दक्षिण भारत में लम्बे समय तक स्थिर शासन रहे। इस स्थिरता का अन्त पंद्रहवीं शताब्दी के अन्त में बहमनी साम्राज्य के विघटन से और उसके पचास वर्षों के बाद 1565 की राक्षस-टंगड़ी की लड़ाई में पराजय के बाद विजयनगर साम्राज्य के टूटने से हुआ। इस बीच भारत की परिस्थितियों में पूर्णतः परिवर्तन हो गया। यह परिवर्तन पहले समुद्री मार्ग से यूरोपीयों (पुर्तग़ाल) के आगमन के कारण और फिर उत्तर भारत में मुग़लों के आक्रमण और विजय के कारण हुआ। मुग़लों के आगमन से उत्तर भारत में एकता के सूत्र एक बार फिर पनपे पर साथ ही भूमि आधारित एशियाई शक्तियों और समुद्र पर प्रभुत्व रखने वाली यूरोपीय शक्तियों के मध्य एक लम्बे संघर्ष के युग का भी सूत्रपात हुआ।

उत्पत्ति मतभेद

विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों की उत्पत्ति के बारे में स्पष्ट जानकारी के अभाव में इतिहासकारों में विवाद है। कुछ विद्वान ‘तेलुगु आन्ध्र’ अथवा काकतीय उत्पत्ति मानते हैं, तो कुछ 'कर्नाटा' (कर्नाटक) या होयसल तथा कुछ 'काम्पिली' उत्पत्ति मानते हैं। हरिहर और बुक्का ने अपने पिता संगम के नाम पर संगम राजवंश की स्थापना की। विजयनगर साम्राज्य की राजधानियाँ क्रमश: अनेगुंडी या अनेगोण्डी, विजयनगर, पेनुगोण्डा तथा चन्द्रगिरी थीं। हम्पी (हस्तिनावती) विजयनगर की पुरानी राजधानी का प्रतिनिधित्व करता है। विजयनगर का वर्तमान नाम 'हम्पी' (हस्तिनावती) है।

स्थापना

वियजनगर साम्राज्य की स्थापना पाँच भाईयों वाले परिवार के दो सदस्यों हरिहर और बुक्का ने की थी। कंवदंतियों के अनुसार वे वारंगलककातीयों के सामंत थे और बाद में आधुनिक कर्नाटक में काम्पिली राज्य में मंत्री बने थे। जब एक मुसलमान विद्रोही को शरण देने पर मुहम्मद तुग़लक़ ने काम्पिली को रौद डाला, तो इन दोनों भाईयों को भी बंदी बना लिया गया था। इन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया और तुग़लक ने इन्हें वहीं विद्रोहियों को दबाने के लिए विमुक्त कर दिया। तब मदुरई के एक मुसलमान गवर्नर ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था और मैसूर के होइसल और वारगंल के शासक भी स्वतंत्र होने की कोशिश कर रहे थे। कुछ समय बाद ही हरिहर और बुक्का ने अपने नये स्वामी और धर्म को छोड़ दिया। उनके गुरु विद्यारण के प्रयत्न से उनकी शुद्धि हुई और उन्होंने विजयनगर में अपनी राजधानी स्थापित की। हरिहर के राज्यारोहण का समय 1336 निर्धारित किया गया है। शुरू में, इस नये राज्य को मैसूर के होयसल राजा और मदुरई के सुल्तान का मुक़ाबला करना पड़ा। मदुरई का सुल्तान महत्वाकांक्षी था। एक लड़ाई में उसने होयसल राजा को हरा दिया और उसे बर्बर तरीक़े से मार डाला। होइसल राज्य की पराजय के बाद हरिहर और बुक्का को अपनी छोटी-सी रियासत के विस्तार का मौक़ा मिला। होयसल का सारा प्रदेश 1346 तक विजयनगर के अधिकार में आ गया। इस लड़ाई में हरिहर और बुक्का के भाईयों ने उनकी मदद की थी और उन्होंने अपने सम्बन्धियों के साथ मिलकर जीते हुए प्रदेश का प्रशासन सम्भाल लिया। इस प्रकार, प्रारम्भ में विजयनगर साम्राज्य एक प्रकार का सहकारी शासन था। बुक्का ने अपने भाई को उत्तराधिकारी बनाकर 1356 में और उसने 1377 तक राज्य किया।

साम्राज्य का विस्तार

विजयनगर की सैन्य शक्ति क्रमशः बढ़ रही थी और इसी विस्तार के कारण उसे दक्षिण और उत्तर दोनों ओर संघर्ष करना पड़ा। दक्षिण में उनके प्रमुख शत्रु मदुरई के सुल्तान थे। मदुरई और विजयनगर के बीच लगभग चार दशकों तक युद्ध की स्थिति बनी रही। मदुरई सुल्तान को 1377 तक मिटा दिया गया। उसके बाद विजयनगर साम्राज्य में तमिल प्रदेश और चेरों (केरल) के प्रदेश सहित रामेश्वरम तक सारा दक्षिण भारत सम्मिलित रहा। बहमनी राज्य की स्थापना 1347 में हुई थी। इसका संस्थापक एक महत्वाकांक्षी अफ़ग़ान 'अलाउद्दीन हसन' (अलाउद्दीन बहमन शाह प्रथम) था। उसने एक ब्राह्मण गंगू की सेवा में रहकर शक्ति बढ़ाई थी। इसलिए उसे 'हसन गंगू' कहा जाता है। राज्यारोहण के बाद उसने 'अलाउद्दीन हसन बहमन शाह' की उपाधि धारण की। कहा जाता है कि वह अपने को अर्द्ध-पौराणिक ईरानी योद्धा का वंशज मानता था, जिसका नाम था 'बहमनशाह'। किन्तु लोकश्रुतियों के अनुसार बहमनशाह उसके ब्राह्मण आश्रयदाता के प्रति आदर का प्रतीक था। उसके पीछे तथ्य कोई भी हो, यह निश्चित है कि इस उपाधि के कारण राज्य को बहमनी साम्राज्य कहा गया।

विजयनगर के राजवंश

विजयनगर साम्राज्य पर जिन राजवंशों ने शासन किया, वे निम्नलिखित हैं-

  1. संगम वंश - 1336-1485 ई.
  2. सालुव वंश - 1485-1505 ई.
  3. तुलुव वंश - 1505-1570 ई.
  4. अरविडु वंश - 1570-1650 ई.

बहमनी राज्य से संघर्ष

विजयनगर के शासकों और बहमनी सुल्तानों के मध्य आये दिन संघर्ष होते रहते थे। इन सुल्तानों के ये स्वार्थ तीन अलग-अलग क्षेत्रों- तुंगभद्रा के दोआब, कृष्णा-कावेरी घाटी और मराठवाड़ा में टकराये। तुंगभद्रा दोआब, कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का प्रदेश था। पहले भी यह प्रदेश अपनी आर्थिक समृद्धि के कारण पश्चिमी चालुक्यों और चोलों के बीच और बाद में होयसलों और यादवों के बीच संघर्ष का विषय रहा। कृष्णा-गोदावरी घाटी में अनेक बंदरगाहें थीं, जहाँ से इस क्षेत्र का समुद्री व्यापार होता था। तुंगभद्रा दोआब कृष्णा और तुंगभद्रा नदी के बीच का क्षेत्र था। अपनी आर्थिक सम्पदाओं के कारण यह क्षेत्र पूर्वकाल में पश्चिमी चालुक्यों और चोलाओं के बीच तथा बाद के समय में यादवों और होइसलों के बीच संघर्ष का क्षेत्र बना रहा। कृष्णा-गोदावरी क्षेत्र जो बहुत ही उपजाऊ था और जो अपने क्षेत्र में फैले असंख्य बंदरगाहों के कारण विदेश-व्यापार का नियंत्रण रख सकता था, अक्सर तुंगभद्रा दोआब पर अधिकार की लड़ाई में जुड़ जाता था।

मराठा क्षेत्र की लड़ाई हमेशा कोंकण क्षेत्र और उससे जुड़ने वाले रास्तों पर अधिकार को लेकर होती थी। कोंकण पश्चिमी घाट और समुद्र के बीच की पतली भू-पट्टी थी। यह बहुत ही उपजाऊ क्षेत्र था और प्रदेश में बनने वाली वस्तुओं के निर्यात और इराकी तथा ईरानी घोड़ों के आयात के लिए एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह गोआ भी इसी में था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अच्छी नस्लों के घोड़े भारत में नहीं मिलते थे। अतः दक्षिण राज्यों के लिए गोआ के रास्ते घोड़ों का आयात बहुत महत्त्वपूर्ण था।

बहमनी सुल्तान की प्रतिज्ञा

विजयनगर और बहमनी साम्राज्यों के बीच सैनिक संघर्ष एक दैनिक कार्य हो गया था। यह संघर्ष तब तक चलता रहा, जब तक की ये दोनों राज्य बने रहे। ये सैनिक संघर्ष उन क्षेत्रों और आस पास के क्षेत्रों के लिय भयंकर विनाश का कारण बनते थे। इससे जान-माल का भी बहुत नुक़सान होता था। दोनों पक्ष शहरों और गाँवों को रौंद डालते थे, उन्हें जला देते थे, पुरुषों-स्त्रियों और बच्चों को पकड़कर ग़ुलामों के रूप में बेच देते थे तथा और भी कई तरह की बर्बरताओं का काम करते थे। इसी प्रकार 1367 में तुंगभद्रा-दोआब के मुद्दे को लेकर बुक्का प्रथम ने मुदकल के क़िले पर चढ़ाई की तो उसने एक आदमी को छोड़कर सभी को क़त्ल कर डाला। जब यह समाचार बहमनी सुल्तान के पास पहुँचा तो उसे बहुत क्रोध आया और उसने तुरन्त कूच कर दिया। मार्ग में उसने प्रतीज्ञा की कि जब तक बदले में एक लाख हिन्दुओं का ख़ून नहीं कर लूँगा, तलवार को मयान में नहीं रखूंगा।

सुल्तान की विजय

वर्षा का मौसम और विजयनगर की सेना के कड़े मुक़ाबले के बावजूद वह कृष्णा नदी पार करने में सफल हुआ और उसने मुदकल पर पुनः अधिकार कर लिया। फिर उसने तुंगभद्रा नदी पार की। यह पहला मौक़ा था जब किसी बहमनी सुल्तान ने स्वयं विजयनगर की सीमा में पैर रखा था। विजयनगर का राजा लड़ाई में हार गया और जंगलों में जाकर छिप गया। कहा जाता है कि इसी लड़ाई में सबसे पहले दोनों ही पक्षों द्वारा तोपखाने का प्रयोग हुआ था। बहमनी सुल्तान की जीत इसलिए हुई थी, क्योंकि उसके पास बेहतर किस्म का तोपखाना और घुड़सेना थी। लड़ाई कई महीनों तक चलती रही, लेकिन बहमनी सुल्तान न तो राजा को पकड़ सका और न ही उसकी राजधानी को जीत सका। इस दौरान पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का क़त्ले-आम चलता रहा। आख़िर दोनों पक्ष थक गए और उन्होंने संधि का फैसला किया। इस संधि के अंतर्गत दोनों पक्ष अपनी पुरानी सीमाओं पर लौट गए। दोआब का प्रदेश दोनों के बीच बंट गया। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि दोनों पक्षों ने निर्णय किया कि चूँकि दोनों राज्यों को लम्बे समय तक एक-दूसरे का पड़ोसी रहना है, इसलिए यह फैसला किया गया कि बर्बरता को त्याग दिया जाए। यह फैसला भी किया गया कि युद्धों में असहाय और निहत्थों का वध नहीं किया जाएगा। हालाँकि इस संधि का उल्लंघन कई बार किया गया। परन्तु इससे दक्षिण भारत में युद्धों को अधिक मानवीय बनाने में सहायता अवश्य मिली।

विजयनगर साम्राज्य के उत्तराधिकारी

बाद के समय में विजयनगर साम्राज्य के उत्तराधिकारी मदुरई के सुल्तान को मिटाकर दक्षिण में अपनी स्थिति मज़बूत करने के बाद हरिहर द्वितीय (1377-1404) के नेतृत्व में विजयनगर साम्राज्य ने पूर्व में विस्तार की नीति अपनायी। इस क्षेत्र में कई छोटी-छोटी स्वतंत्र हिन्दू रियासतें थीं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण डेल्टा के ऊपरी भागों में बसी रेड्डियों की रियासत, और कृष्णा-गोदावरी डेल्टा के निचले हिस्से में बसा वारंगल राज्य था। उत्तर में उड़ीसा के राजा तथा पूर्व में बहमनी सुल्तानों की रुचि भी इस क्षेत्र में थी। हालाँकि वारंगल के शासक ने दिल्ली सुल्तान के ख़िलाफ़ 'हसन गंगू' (अलाउद्दीन बहमन शाह प्रथम) की मदद की थी, लेकिन उसके उत्तराधिकारी ने वारंगल पर आक्रमण करके कौलास तथा गोलकुण्डा के पहाड़ी क़िले पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। फिर उसने गोलकुण्डा को अपनी सीमा निर्धारित करके यह वचन दिया था कि उसके उत्तराधिकारी कोई भी वारंगल पर भविष्य में कभी आक्रमण नहीं करेंगे। इस संधि को पक्का करने के लिए वारंगल के शासक ने बहमनी सुल्तान को बहूमूल्य रत्नों से जड़ी एक गद्दी भेंट में दी थी। कहा जाता है कि इसका निर्माण मुहम्मद तुग़लक को भेंट करने के लिए करवाया गया था। वारंगल और बहमनी राज्य के बीच यह संधि 50 वर्षों तक रही। यही सबसे बड़ा कारण था कि विजयनगर न तो तुंगभद्रा दोआब पर ही कभी अधिकार कर सका और न ही उस क्षेत्र में बहमनी आक्रमणों को रोक पाया था।

मध्ययुगीन लेखकों ने विजयनगर व बहमनी के बीच हुई लड़ाइयों का वर्णन विस्तार से किया है। किन्तु वह सब ऐतिहासिक महत्व की बात नहीं है। दोनों पक्षों की स्थिति लगभग एक सी रही, केवल लड़ाई में पलड़ा कभी एक पक्ष की ओर झुक जाता तो कभी दूसरे पक्ष की और झुक जाता था। हरिहर द्वितीय भी बहमनी और वारंगल की संयुक्त शक्ति के मुक़ाबले अपनी स्थिति बनाये रखने में सफल रहा। उसकी सबसे बड़ी सफलता पश्चिम में बहमनी राज्य से बेलगाँव और गोआ का अधिकार छीनना था। उसने उत्तरी श्रीलंका पर भी आक्रमण किया।

देवराय प्रथम और फ़िरोजशाह

कुछ समय तक अव्यवस्था के बाद देवराय प्रथम (1406-1422) हरिहर द्वितीय का उत्तराधिकारी बना। उसके राज्य के प्रारम्भिक चरण में तुंगभद्रा दोआब की लड़ाई फिर से छिड़ी। बहमनी शासक फ़िरोजशाह के हाथों उसकी हार हुई और उसे हूवो, मोतियों और हाथियों के रूप में दस लाख के हर्जाने देने पड़ें। उसे सुल्तान के साथ अपनी लड़की की शादी करनी पड़ी और दहेज के रूप में दोआब क्षेत्र में स्थित बांकापुर भी सुल्तान को देना पड़ा ताकि भविष्य में लड़ाई की गुंजाइश न रहे। यह विवाह बड़ी शानो-शौकत के साथ किया गया। जब फ़िरोजशाह बहमनी शादी के लिए विजयनगर पहुँचा तो, राजा देवराय ने नगर से बाहर आकर बड़ी शान से उसका स्वागत किया। नगर द्वार से लेकर महल तक दस किलोमीटर लम्बे मार्ग को सोने, मखमल और रेशम के कपड़ों और अन्य बहूमूल्यों रत्नों से सजाया गया था। दोनों राजा नगर चौक के केन्द्र से घोड़ों पर सवार होकर गुजरे। देवराय के सम्बन्धी इस जुलूस के साथ मार्ग में मिले और दोनो शासकों के आगे-आगे पैदल चले। उत्सव तीन दिन तक चलता रहा।

दक्षिण भारत में यह इस प्रकार पहला राजनीतिक विवाह नहीं था। इससे पहले ख़ेरला का राजा शान्ति स्थापित करने के लिए फ़िरोजशाह बहमनी के साथ अपनी लड़की की शादी कर चुका था। कहा जाता है कि वह सुल्तान की सबसे पहली बेगम थी। किन्तु यह विवाह अपने आप में शान्ति स्थापित नहीं कर सका। कृष्ण-गोदावरी के बीच के क्षेत्र को लेकर विजयनगर, बहमनी राज्य और उड़ीसा में फिर संघर्ष छिड़ गया। रेड्डियों के राज्य में अस्त-व्यस्तता देखकर देवराय ने वारंगल के साथ उसे आपस में बांट लेने की संधि कर ली। बहमनियों से वारंगल के अलगाव ने दक्षिण में शक्ति संतुलन को बदल दिया। देवराय को फ़िरोजशाह बहमनी को बुरी तरह पराजित करने में सफलता मिली और उसने कृष्णा नदी के मुहाने तक का सारा प्रदेश हड़प लिया। देवराय प्रथम ने शान्ति की कलाओं की भी अवहेलना नहीं की। उसने तुंगभद्रा पर एक बांध बनवाया ताकि वहाँ से शहर में नहर लाकर पानी की कमी को दूर कर सके। इससे आस-पास के खेतों की सिंचाई भी होती थी। यह जानकारी भी मिलती है कि इससे उसके राजस्व में 350,000 पेरदाओं की भी वृद्धि हुई। सिंचाई के लिए उसने हरिद्रा नदी पर भी बांध बनवाया।

देवराय द्वितीय का प्रशासन

कुछ अव्यवस्था के बाद देवराय द्वितीय (1422-1446) विजयनगर की गद्दी पर बैठा। वह इस वंश का महानतम शासक माना जाता है। अपनी सेना को भी शक्तिशाली बनाने के लिए उसने और मुसलमानों को भर्ती किया। फ़रिश्ता के अनुसार देवराय द्वितीय का विचार था कि बहमनी सेना सिर्फ इसलिए बेहतर थी कि उसके पास ज्यादा मज़बूत घोड़े और ज्यादा संख्या में अच्छे तीर-अंदाज़थे। अतः उसने 2000 मुसलमानों को सेना में नौकरी और जागीरें दी और सब हिन्दू सैनिकों और सैनिक अधिकारियो को उनसे तीर-अंदाजी सीखने का आदेश दिया। विजयनगर की सेना में मुसलमानों की भर्ती कोई नयी बात नहीं थी। देवराय प्रथम की सेना में भी 10,000 मुसलमान सैनिक थे। तीर-अंदाजी भी नयी कला नहीं थी। सम्भवतः फ़रिश्ता यह कहना चाहता है कि विजयनगर की सेना में घोड़ों पर चढ़कर तीर-अंदाजी के प्रशिक्षण का अभाव था। फ़रिश्ता कहता है कि इस प्रकार देवराय द्वितीय ने तीर-अंदाजी में कुशल 60,000 हिन्दू, 80,000 घुड़ सवार और 200,000 पैदल सैनिक एकत्र कर लिए। हो सकता है कि यह संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बतायी गई हो। फिर भी यह निश्चित है कि इतनी बड़ी घुड़सेना के निर्माण से राज्य के स्रोतों पर काफ़ी दबाव पड़ा होगा, क्योंकि अच्छे घोड़े आयात करने पड़ते थे और इस व्यापार पर एकाधिकार रखने वाले अरब उनके लिए ऊँची क़ीमत वसूल करते थे।

अपनी नयी सेना को लेकर देवराय द्वितीय ने 1443 में तुंगभद्रा नदी को पार किया और मुदकल, बांकापुर आदि को फिर से जीतने की कोशिश की। ये नगर कृष्णा नदी के दक्षिण में थे और पुरानी लड़ाइयों में बहमनी राज्य के अधिकार में आ गए थे। तीन कड़ी लड़ाइयाँ लड़ी गईं, लेकिन अन्ततः दोनों पक्षों को पुरानी सीमाओं को ही स्वीकार करना पड़ा।

चरमोत्कर्ष तथा विघटन

देवराय द्वितीय की मृत्यु के बाद विजयनगर साम्राजय में अव्यवस्था आ गई थी। क्योंकि वंशधर के ही उत्तराधिकारी होने का सिद्धांत निश्चित नहीं हो सका। इसलिए गद्दी के प्रतिद्वन्द्वियों के बीच कई युद्ध हुए। इसमें कई करद राज्य स्वतंत्र हो गए। राज्य के मंत्री शक्तिशाली हो गए, और उन्होंने जनता से कई उपहार और भारी कर वसूलना आरम्भ कर दिया। इससे जनता में असंतोष पैदा होने लगा। राज्य का शासन कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के कुछ भाग तक ही सीमित रह गया। राजा ऐश्वर्य में डूब गये। वे कार्यों की अवहेलना करने लगे। कुछ समय के बाद राजा के मंत्री सालुव नरसिंह ने गद्दी पर अधिकार कर लिया। प्राचीन संगम वंश के राज्य का अंत हो गया। सालुव ने आंतरिक क़ानून और व्यवस्था को फिर से स्थापित किया और नये वंश का सूत्रपात किया। यह वंश भी जल्दी ही समाप्त हो गया। अन्ततः कृष्णदेव राय द्वारा एक नये वंश तुलुव की स्थापना हुई।

उड़ीसा व पुर्तग़ालियों से संघर्ष

कृष्णदेव राय (1509-1530) इस वंश का महानतम व्यक्ति था। कतिपय इतिहासकार उसे विजयनगर साम्राज्य का महानतम शासक मानते हैं। कृष्णदेव को आंतरिक क़ानून और व्यवस्था की पुनःस्थापना ही नहीं करनी पड़ी, बल्कि उसे विजयनगर के पुराने शत्रु बहमनी राज्य के उत्तराधिकारी राज्यों और उड़ीसा का भी मुक़ाबला करना पड़ा। उड़ीसा ने विजयनगर साम्राज्य के बहुत से हिस्सों पर अधिकार कर लिया था। इसके अतिरिक्त उसे पुर्तग़ालियों का भी सामना करना पड़ा, जो उस समय धीरे-धीरे शक्तिशाली हो रहे थे। वे समुद्र पर अधिकार का प्रयोग तटवर्ती क्षेत्रों में उपस्थित विजयनगर की छोटी नावों को घुड़कने में कर रहे थे, ताकि वे आर्थिक और राजनीतिक सुविधाएँ प्राप्त कर सकें। उन्होंने कृष्णदेव राय को तटस्थ बने रहने के लिए रिश्वत देने का प्रस्ताव भी किया। यह रिश्वत बीजापुर से गोआ का अधिकार पुनः छीनने के लिए सहायता और घोड़ों के आयात में एकाधिकार के प्रस्ताव के रूप में थी।

सात साल तक लड़ाइयाँ लड़कर कृष्णदेव ने पहले उड़ीसा को, कृष्णा नदी तक के क्षेत्र के सब जीते हुए प्रदेशों को विजयनगर को लौटाने को विवश किया। इस प्रकार अपनी स्थिति मज़बूत करके कृष्णदेव ने तुंगभद्र दोआब के लिए पुरानी लड़ाई शुरू की। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके दो शत्रुओं, उड़ीसा और बीजापुर ने, आपस में संधि कर ली। कृष्णदेव राय ने युद्ध के लिए काफ़ी तैयारियाँ कीं। उसने रायपुर और मुदकल पर आक्रमण करके युद्ध शुरू कर दिया। बीजापुर की युद्ध में 1520 में पूर्ण पराजय हुई। उसे कृष्णा नदी के पार खदेड़ दिया गया। उसकी जान मुश्किल से बची। विजयनगर की सेना बेलगाँव पहुँची, फिर उसने बीजापुर पर अधिकार किया और कई दिन तक लूटपाट होती रही। उसके बाद उन्होंने गुलबर्गा को नष्ट कर दिया। तब कहीं कोई संधि हुई।

कृष्णदेव की मृत्यु के पश्चात् उसके रिश्तदारों में आपस में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ। क्योंकि उसके पुत्र उस समय नाबालिग थे। अंततः 1543 में सदाशिव राय गद्दी पर बैठा और उसने 1567 तक राज्य किया। परन्तु वास्तविक शक्ति एक त्रिगुट के पास थी। जिनका मुखिया राम राजा था। राम राजा को कई मुस्लिम ताकतों को आपस में भिड़ाने में सफलता मिली थी। उसने पुर्तग़ालियों से एक व्यापारिक समझौता किया, जिससे बीजापुर के राजा को घोड़ों की बिक्री बंद कर दी गई। फिर कई लड़ाइयों के बाद उसने बीजापुर को पूरी तरह हरा दिया। उसके बाद बीजापुर के राजा को साथ लेकर उसने गोलकुण्डा और अहमदनगर को पराजित किया। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा राम का लक्ष्य केवल इन राज्यों के मध्य शक्ति संतुलन का पलड़ा विजयनगर के पक्ष में करने के लिए ही था। कालान्तर में उन्होंने विजयनगर के विरुद्ध संयुक्त होकर 1565 में तालीकोटा के निकट बन्नीहट्टी में उसे पराजित किया। इस युद्ध को 'राक्षस-टंग़ड़ी' या तालीकोटा का युद्ध भी कहा जाता है। राजा राम को घेर कर पकड़ लिया गया और उसे तुरन्त मार डाला गया। कहा जाता है कि इस युद्ध में 100,000 हिन्दुओं का वध किया गया। विजयनगर को पूरी तरह से लूट लिया गया और उसे खण्डहर बना दिया गया।

बन्नीहट्टी की लड़ाई को सामान्य रूप से विजयनगर साम्राज्य के शानदार युग का अंत माना जाता है। हालाँकि राज्य उसके बाद भी लगभग 100 वर्ष तक घिसट-घिसट कर चलता रहा, लेकिन उसकी सीमाएँ लगाचार संकुचित होती रहीं और दक्षिण भारत में रायों का राजनीतिक दृष्टि से कोई महत्व शेष नहीं रहा।

विद्वान कथन

निकोलो कोन्ती कहता है कि क्विलन, श्रीलंका, पूलीकट, पेगू और तेनसिरिम[1] के राजा देवराय द्वितीय को कर देते थे। किन्तु इसमें संकेत है कि विजयनगर के राजाओं के पास इतनी समुद्री शक्ति थी कि वे पेगू और तेनसिरिम से निरन्तर कर ले सकें। सम्भवतः इस कथन का आशय यह था कि इन देशों के शासकों का विजयनगर से सम्पर्क था और उन्होंने उसकी शुभकामनाएँ प्राप्त करने के लिए उपहार भेजे थे। हाँ, श्रीलंका पर अवश्य कई बार आक्रमण किए गए। इस बात की सम्भावना है कि वह विजयनगर का करद था। किन्तु शक्तिशाली नौसेना के बिना यह भी सम्भव नहीं हो सकता था।

इस प्रकार लगातार कई समर्थ राजाओं के नेतृत्व में विजयनगर पंद्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दक्षिण का सर्वाधिक शक्तिशाली और समृद्ध राज्य बन गया। इतालवी यात्री निकोलो कोन्ती ने 1420 में विजयनगर की यात्रा की थी। उसने उसका सुन्दर वर्णन किया है। वह कहता है- "नगर का घेरा साठ मील है, इसकी दीवारें पहाड़ो तक चली गई हैं। अनुमान है कि इस नगर में नब्बे हज़ार लोग ऐसे हैं, जो शस्त्र धारण करने योग्य हैं। राजा भारत के अन्य राजाओं से ज्यादा शक्तिशाली है।" फ़रिश्ता भी लिखता है- "बहमनी वंश के राजकुमार सिर्फ़ दिलेरी के बल पर अपनी श्रेष्ठता बनाये हुए हैं, अन्यथा शक्ति, समृद्धि और क्षेत्रफल में बीजानगर (विजयनगर) के राजा उनसे कहीं बढ़ कर हैं।"

फ़ारस के यात्री अब्दुर्रज्जाक ने भारत तथा अन्य देशों का बहुत भ्रमण किया था। उसने देवराय द्वितीय के समय में विजयनगर की भी यात्रा की। उसने इस राज्य का भव्य वर्णन किया है। वह कहता है कि इस राजकुमार के राज्य में 300 बंदरगाह हैं। इनमें से प्रत्येक कालीकट के बराबर है। इसके राज्य की भूमि इतनी फैली हुई है कि उसकी यात्रा करने में तीन महीने लग जाते हैं। इस बात से सभी यात्री सहमत हैं कि राज्य में बहुत अधिक नगर और गाँव थे। अब्दुर्रज़ाक कहता है कि "देश के अधिकांश हिस्सों में खेती होती है और भूमि बहुत ही उपजाऊ है। सेना की संख्या 11 लाख है।" अब्दुर्रज़ाक विजयनगर को संसार के देखे और सुने नगरों में सब से भव्य मानता है। नगर का वर्णन करते हुए वह कहता है, "वह इस तरह से बना है कि सात क़िले और इतनी ही दीवारें एक-दूसरे को घेरे हुए हैं, सातों क़िले का क्षेत्रफल, जो अन्य क़िलों के केन्द्र में बना है, हेरात के बाज़ार से दस गुना बड़ा है। महल के पास ही चार बाज़ार हैं जो बहुत ही लम्बे-चौड़े थे।" भारतीय व्यवस्था के अनुरूप एक वर्ण या व्यवसाय के लोग शहर के एक भाग में रहते थे। लगता है कि मुसलमान अपने लिए सुरक्षित अलग हिस्से में रहते थे। बाज़ारों और राजा के महल में साफ़, कटे हुए, पालिश किए पत्थरों से बने नाले और नहरें दिखाई देती थीं। बाद का एक यात्री लिखता है कि यह उस समय के पश्चिम के सबसे बड़े नगर रोम से भी बड़ा और भव्य नगर था।

प्रशासन तथा आर्थिक जीवन

विजयनगर के शासकों के मस्तिष्क में राज्य का स्वरूप बहुत साफ़ था। राजनीति पर अपनी पुस्तक में कृष्णदेव राय राजा के लिए लिखता है कि, "तुम्हें बड़े ध्यान से यथाशक्ति सुरक्षा[2] और दंड[3] काम करना चाहिए। उसमें अपने देखे-सुने की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।" वह राजा को "प्रजा पर उदार होकर कर लगाओं," जैसी सलाह भी देता है। विजयनगर साम्राज्य में राजा की सहायता के लिए एक मंत्रीमंण्डल होता था, जिसमें साम्राज्य के श्रेष्ठ विद्वान होते थे। साम्राज्य राज्यस् या मंडलम्[4] और उसके अंतर्गत नाडु[5], स्थल[6] और ग्राम में विभक्त था।

विजयनगर के शासकों ने स्वायत्त ग्राम-प्रशासन की चोल परम्परा को बनाये रखां, लेकिन वंशागत नायक होने की परम्परा ने उस स्वतंत्रता को सीमित अवश्य कर दिया। प्रान्तों के गवर्नर[7] पहले राजकुमार हुआ करते थे। बाद में साम्राज्य के शासक वंशों और सामंतों में से भी इस पद पर नियुक्तियाँ होने लगीं। प्रान्तीय प्रशासक काफ़ी सीमा तक स्वतंत्र होते थे। वे अपना दरबार लगाते थे। अपने अधिकारी नियुक्त करते थे और अपनी सेना भी रखते थे। वे अपने सिक्के भी चला सकते थे। परन्तु यह अधिकार छोटे सिक्कों के परिचालन तक सीमित था। प्रान्तीय प्रशासक की कार्रवाई निश्चित नहीं होती थी। वह उसकी योग्यता और शक्ति पर निर्भर करती थी। गवर्नर को नये कर लगाने या पुराने करों को हटाने का अधिकार भी था। प्रत्येक गवर्नर केन्द्र की सेवा में निश्चित संख्या में सैनिक और पैसा उपस्थित करता था। अनुमान है कि साम्राज्य कि कुल आय 12,000,000 पराडो थी, जिसमें आधा केन्द्रीय सरकार को मिलता था।

साम्राज्य में 'कबलकार' नाम का एक अधिकारी भी हुआ करता था, जो प्राय: सामाजिक एवं धार्मिक विषयों पर निर्णय देता था। इसे 'अरसुकवलकार' के नाम से भी जाना जाता था। नगर में बहुत से क्षेत्र ऐसे भी थे, जो अधीनस्थ शासकों द्वारा शासित थे, अर्थात उनके द्वारा जिन्हें युद्धों में परास्त करने के बाद छोटा राज्य लौटा दिया गया था। राजा सेनापतियों को भी निश्चित कर के एवज में कुछ अमरम्[8] प्रदान करता था। ये सेनापति पलाइयागार[9] अथवा नायक कहलाते थे। इन्हें साम्राज्य की सेवा के लिए पैदल-सैनिकों, घुड़-सवारों और हाथियों की एक निश्चित संख्या रखनी पड़ती थी। नायकों को भी केन्द्रीय राजस्व में एक निश्चित राशि देनी पड़ती थी। ये साम्राज्य का एक शक्तिशाली वर्ग था और कभी-कभी राजा को इन्हें काबू में रखने के लिए काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। विजयनगर साम्राज्य की इन कमज़ोरियों का बन्नीहट्ट या तालीकोटा अथवा राक्षस-तंगड़ी के युद्ध में उसकी पराजय और बाद में उसके विघटन में बहुत बड़ा हाथ था। तंजौर और मदुरई आदि स्थानों के नायक तभी से स्वतंत्र हो गए थे।

किसानों की स्थिति

विजयनगर साम्राज्य में किसानों की आर्थिक स्थिति पर सब इतिहासकार एक मत नहीं है। क्योंकि अधिकांश यात्रियों को ग्रामीण-जीवन का बहुत कम अनुभव हुआ था और उन्होंने इस विषय में मात्र सामान्य टिप्पणियाँ दी हैं। यह स्वीकार किया जा सकता है कि सामान्य नागरिक की आर्थिक स्थिति लगभग पहले जैसी ही रही। उनके मकान मिट्टी और फूस के थे, जिनके दरवाज़े भी छोटे थे। वे अक्सर नंगे पाँव चलते थे और कमर के ऊपर कुछ भी नहीं पहनते थे। उच्च वर्ग के लोग कभी-कभी मंहगे जूते, सिरों पर रेशमी पगड़ी पहनते थे, लेकिन कमर के ऊपर वे भी कुछ नहीं पहनते थे। सभी वर्गों के लोग आभूषणों के शौक़ीन थे और कानों, गर्दनों और बाज़ुओं पर कोई न कोई आभूषण पहनते थे। इस बात की कोई जानकारी नहीं मिलती कि किसान अपने उत्पादन का कितना अंश लगान के रूप में देते थे। एक आलेख के अनुसार करों की दर इस प्रकार थी-

  • सर्दियों में 'कुरुबाई', चावल की एक क़िस्म, का 1/3
  • सीसम, रग्गी और चने आदि का 1/4
  • ज्वार और शुष्क भूमि पर उत्पन्न होने वाले अन्य अनाजों का 1/6

इस प्रकार अनाज, भूमि, सिंचाई के साधनों के अनुसार लगान की दर अलग-अलग थी। लगान के अतिरिक्त सम्पत्ति कर, विक्रय-कर, व्यवसाय-कर, युद्ध के समय सैन्यकर, विवाह कर आदि भी थे। सोलहवीं शताब्दी का यात्री निकितिन कहता है कि "देश में जनसंख्या बहुत अधिक है, लेकिन ग्रामीण बहुत ग़रीब हैं जबकि सामंत समृद्ध हैं और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का आनन्द उठाते हैं।" इस प्रकार के कथन बहुत साधारण जानकारी देते हैं। ऐसी जानकारी को मध्ययुग के समस्त भारतीय समाज पर लागू किया जा सकता है।

केन्द्रीय व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य की शासन पद्धति राजतंत्रात्मक थी। राज्य एवं शासन के मूल को राजा, जिसे 'राय' कहा जाता था, होता था। इस काल में प्राचीन राज्य की ‘सप्तांग विचारधारा’ का अनुसरण किया जाता था। राजा के चुनाव में राज्य के मंत्री एवं नायक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते थे। विजयनगर में संयुक्त शासक की भी परम्परा थी। राजा को राज्याभिषेक के समय प्रजापालन एवं निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी। राज्याभिषेक के अवसर पर दरबार में अत्यन्त भव्य आयोजन होता था, जिसमें नायक, अधिकारी तथा जनता के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे। अच्युतदेव राय ने अपना राज्याभिषेक तिरुपति वेंकटेश्वर मन्दिर में सम्पन्न कराया था। राजा के बाद ‘युवराज’ का पद होता था। युवराज राजा का बड़ा पुत्र व राज्य परिवार का कोई भी योग्य पुरुष बन सकता था। युवराज के राज्याभिषेक को 'युवराज पट्टाभिषेक' कहते थे। विजयनगर में संयुक्त शासन की परम्परा भी विद्यमान थी, जैसे - हरिहर प्रथम एवं बुक्का प्रथम। युवराज के अल्पायु होने की स्थिति में राजा अपने जीवन काल में ही स्वयं किसी मंत्री को उसका संरक्षक नियुक्त करता था। इस काल में कुछ महत्त्वपूर्ण संरक्षक थे- वीर नरसिंह, नरसा नायक एवं रामराय आदि। कालान्तर में यही संरक्षक व्यवस्था ही विजयनगर के पतन में बहुत कुछ ज़िम्मेदार रही। विजयनगर के राजाओं ने अपने व्यक्तिगत धर्म के बाद भी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। यद्यपि राज्य निरंकुश होता था, पर बर्बर नहीं। उसकी निरंकुशता पर नियन्त्रण तथा प्रशासनिक कार्यों में सहयोग करने के लिए एक ‘मंत्रिपरिषद’ होती थी, जिसमें प्रधानमंत्री, मंत्री, उपमंत्री, विभागों के अध्यक्ष तथा राज्य के कुछ नज़दीक के सम्बन्धी होते थे।

सालुव वंश
शासक कार्यकाल
सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.)
तिम्मा राय (1491 ई.)
इम्माडि नरसिंह (1491-1505 ई.).

मंत्रिपरिषद

मंत्रियों के चयन में आनुवंशिकता की परम्परा का पालन होता था। मंत्रिपरिषद के मुख्य अधिकारी को ‘प्रधानी’ या ‘महाप्रधानी’ कहा जाता था। इसकी स्थिति प्रधानमंत्री जैसी थी। इसकी तुलना मराठा कालीन पेशवा से की जा सकती है। यह राजा एवं युवराज के बाद तीसरे स्थान पर होता था। मंत्रिपरिषद में कुल 20 सदस्य होते थे। मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष को ‘सभानायक’ कहा जाता था। कभी-कभी प्रधानमंत्री अध्यक्षता भी करता था। टी.वी. महालिंगम ने विजयनगर प्रशासन की राजपरिषद और मंत्रिपरिषद में अन्तर स्पष्ट किया है। राजपरिषद प्रान्तों के नायकों, सामन्त शासकों, विद्धानों व राज्यों के राजदूतों को शामिल करके गठित किया गया एक विशाल संगठन होता था। विजयनगर कालीन मंत्रिपरिषद की तुलना कौटिल्य के मंत्रिपरिषद के साथ की जा सकती है।

केन्द्र में 'दण्डनायक' नाम का उच्च अधिकारी होता था। उसका यह पद पदबोधक न होकर विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को इंगित करता था। दंडनायक का अर्थ, ‘प्रशासन का प्रमुख’ और ‘सेनाओं का नायक’ होता था। कहीं-कहीं मंत्रियों को भी दंडनायक की उपाधि प्रदान किये जाने का उल्लेख मिलता है। दण्डनायक को न्यायधीश, सेनापति, गर्वनर या प्रशासकीय अधिकारी आदि का कार्यभार सौंपा जा सकता था। कुछ अन्य अधिकारियों को ‘कार्यकर्ता’ कहा जाता था। केन्द्र में एक सचिवालय की व्यवस्था होती थी, जिसमें विभागों का वर्गीकरण किया जाता था। इन विभागों में ‘रायसम’ या सचिव, कर्णिकम या एकाउन्टेंट होते थे। रायसम राजा के मौखिक अधिकारों को लिपिबद्ध करता था। अन्य विभाग एवं उनके अधिकारी ‘मानिय प्रधान’, गृहमंत्री, मुद्राकर्ता, शाही-मुद्रा को रखने वाला अधिकारी आदि थे।

प्रांतीय प्रशासन

तुलुव वंश
शासक कार्यकाल
वीर नरसिंह (1505-1509 ई.)
कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.)
अच्युतदेव राय (1529-1542 ई.)
वेंकट प्रथम (1542 ई.)
सदाशिव राय (1542-1570 ई.)

विजयनगर साम्राज्य का विभाजन प्रान्त, राज्य या मंडल में किया गया था। कृष्णदेव राय के शासनकाल में प्रान्तों की संख्या सर्वाधिक 6 थी। प्रान्तों के गर्वनर के रूप में राज परिवार के सदस्य या अनुभवी दण्डनायकों की नियुक्ति की जाती थी। इन्हें सिक्कों को प्रसारित करने, नये कर लगाने, पुराने कर माफ करने एवं भूमिदान करने आदि की स्वतन्त्रता प्राप्त थी। प्रान्त के गर्वनर को 'भू-राजस्व' का एक निश्चित हिस्सा केन्द्र सरकार को देना होता था।

प्रान्त को ‘मंडल’ एवं मंडल को ‘कोट्म’ या ‘ज़िले’ में विभाजित किया गया था। कोट्टम को ‘वलनाडु’ भी कहा जाता था। कोट्टम का विभाजन ‘नाडुओं’ में हुआ था, जिसकी स्थिति आज के परगना एवं ताल्लुका जैसी थी। नाडुओं को ‘मेंलाग्राम’ में बाँटा गया था। एक मेलाग्राम के अन्तर्गत लगभग 50 गाँव होते थे। ‘उर’ या ‘ग्राम’ प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई थी। इस सम गांवों के समूह को ‘स्थल’ एवं ‘सीमा’ भी कहा जाता था। विभाजन का क्रम इस प्रकार था।

  1. प्रान्त - मंडल-कोट्टम या वलनाडु
  2. प्रकोट्टम - नाडु-मेलाग्राम-उर या ग्राम।

सामान्यतः प्रान्तों में राजपरिवार के व्यक्तियों (कुमार या राजकुमार) को ही नियुक्त किया जाता था। गर्वनरों को सिक्के जारी करने, नये कर लगाने, पुराने करों को माफ करने, भूमिदान देने जैसे अधिकार प्राप्त थे। संगम युग में गर्वनरों के रूप में शासन करने वाले राजकुमारों को 'उरैयर' की उपाधि मिली हुई थी। चोल युग और विजयनगर युग के राजतंत्र में सबसे बड़ा अन्तर 'नायंकार व्यवस्था' थी।

अरविडु वंश
शासक कार्यकाल
तिरुमल (1570-1572 ई.)
श्रीरंग (1572-1585 ई.)
वेंकट प्रथम (1585-1614 ई.)
श्रीरंग प्रथम (1614 ई.)
रामदेव (1614-1630 ई.)
वेंकट द्वितीय (1630-1642 ई.)
श्रीरंग द्वितीय (1642-1652 ई.)

नायंकार व्यवस्था

इस व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ का मानना है कि, विजयनगर साम्राज्य की सेना के सेनानायकों को ‘नायक’ कहा जाता था, कुछ का मानना है कि, नायक भू-सामन्त होते थे, जिन्हें वेतन के बदले एवं स्थानीय सेना के ख़र्च को चलाने के लिए विशेष भू-खण्ड, जिसे ‘अमरम’ कहा जाता था, दिया जाता था। चूंकि ये अमरम भूमि का प्रयोग करते थे, इसलिए इन्हे ‘अमरनायक’ भी कहा जाता था। अमरम भूमि की आय का एक हिस्सा केन्द्रीय सरकार के कोष के लिए देना होता था। नायक को अमरम भूमि में शांति, सुरक्षा एवं अपराधों को रोकने के दायित्व का भी निर्वाह करना होता था। इसके अतिरिक्त उसे जंगलों को साफ़ करवाना एवं कृषि योग्य भूमि का विस्तार भी करना होता था। नायंकारों के आंतरिक मामलों में राजा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। इनका पद आनुवंशिक होता था। नायकों का स्थानान्तरण नहीं होता था। राजधानी में नायकों के दो सम्पर्क अधिकारी - एक नायक की सेना का सेनापति और दूसरा प्रशासनिक अभिकर्ता ‘स्थानपति’ रहते थे। अच्युतदेव राय ने नायकों की उच्छृंखता को रोकने के लिए ‘मंहामंडलेश्वर’ या 'विशेष कमिश्नरों' की नियुक्त की थी। नायंकार व्यवस्था में पर्याप्त रूप में सामंतवादी लक्षण थे, जो विजयनगर साम्राज्य के पतन का कारण बनी।

आयंगार व्यवस्था

प्रशासन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए प्रत्येक ग्राम को एक स्वतन्त्र इकाई के रूप में संगठित किया गया था। इन संगठित ग्रामीण इकाइयों पर शासन हेतु एक 12 प्रशासकीय अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी, जिनकों सामूहिक रूप से ‘आयंगार’ कहा जाता था। ये अवैतनिक होते थे। इनकी सेवाओं के बदले सरकार इन्हे पूर्णतः कर मुक्त एवं लगान मुक्त भूमि प्रदान करती थी। इनका पद ‘आनुवंशिक’ होता था। यह अपने पद को किसी दूसरे व्यक्ति को बेच या गिरवी रख सकता था। ग्राम स्तर की कोई भी सम्पत्ति या भूमि इन अधिकारियों की इजाजत के बगैर न तो बेची जा सकती थी, और न ही दान दी जा सकती थी। 'कर्णिक' नामक आयंगार के पास ज़मीन के क्रय एवं विक्रय से सम्बन्धित समस्त दस्तावेज होते थे। इस व्यवस्था ने ग्रामीण स्वतंत्रता का गला घोंट दिया।

स्थानीय प्रशासन

विजयनगर काल में चोल कालीन सभा को कहीं-कहीं 'महासभा', 'उर' एवं 'महाजन' कहा जाता था। गाँव को अनेक वार्डों या मुहल्लों में विभाजित किया गया था। ‘सभा’ में विचार-विर्मश के लिए गाँव या क्षेत्र विशेष के लोग भाग लेते थे। ‘सभा’ नई भूमि या अन्य प्रकार की सम्पत्ति उपलब्ध कराने, गाँव की सार्वजनिक भूमि को बेचने, ग्रामीण की तरफ़ से सामूहिक निर्णय लेने, गाँव की भूमि को दान में देने के अधिकार अपने पास सुरक्षित रखती थी। यदि कोई भूमि स्वामी लम्बे समय तक लगान नहीं दे पाता था तो, ग्राम सभाएँ उसकी ज़मीन जब्त कर लेती थीं। न्यायिक अधिकारों के अन्तर्गत सभा के पास दीवानी मुकद्दमों एवं फ़ौजदारी के छोटे-छोटे मामलों का निर्णय करने का अधिकार होता था। ‘नाडु’ गाँव की बड़ी राजनीतिक इकाई के रूप में प्रचलित थी। नाडु की सभा को नाडु एवं सदस्यों को ‘नात्वार’ कहा जाता था। अधिकार क्षेत्र काफ़ी विस्तृत होते थे, पर शासकीय नियंत्रण में रहना पड़ता था। विजयनगर के शासन काल में इन स्थानीय इकाइयों का ह्मस हुआ। ‘सेनेटेओवा’ गाँव के आय-व्यय की देखभाल करता था, ‘तलरी’ गांव के चौकीदार को कहते थे। ‘बेगरा’ गाँव में बेगार, मज़दूरी आदि की देखभाल करता था। ब्रह्मदेव ग्रामों (ब्राह्मणों को भूमि-अनुदान के रूप में प्राप्त ग्राम) की सभाओं को 'चतुर्वेदीमंगलम' कहा गया है। ग़ैर ब्रह्मदेव ग्राम की सभा 'उर' कहलाती थी।

इस समय आय के प्रमुख स्रोत थे - लगान, सम्पत्ति कर, व्यवसायिक कर, उद्यागों पर कर, सिंचाई कर, चरागाह कर, उद्यान कर एवं अनेक प्रकार के अर्थ दण्ड।

विजयनगर साम्राज्य के प्रमुख पदाधिकारी
अधिकारी प्रमुख
नायक बड़े सेनानायक
महानायकाचार्य ग्राम सभाओं का निरीक्षक अधिकारी
दण्डनायक सैनिक विभाग प्रमुख तथा सेनापति
प्रधानी अथवा महाप्रधानी मंत्रिपरिषद का प्रमुख
रायसम सचिव
कर्णिकम लेखाधिकारी
अमरनायक सैन्य मदद देने वाला सामंतों का वर्ग
आयंगार वंशानुगत ग्रामीण अधिकारी
पलाइयागार (पालिगार) ज़मीदार
स्थानिक मंदिरों की व्यवस्था करने वाला
सेनंटओवा ग्राम का लेखाधिकारी
तलर ग्राम का रखवाला
गौड ग्राम प्रशासक
अंत्रिमार ग्राम प्रशासन का एक अधिकारी
परूपत्यगार राजा या गर्वनर का प्रतिनिधि

भू-राजस्व व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य द्वारा वसूल किये जाने वाले विविध करों के नाम थे - 'कदमाई', 'मगमाइ', 'कनिक्कई', 'कत्तनम', 'कणम', 'वरम', 'भोगम', 'वारिपत्तम', 'इराई' और 'कत्तायम'। ‘शिष्ट’ नामक भूमिकर विजयनगर राज्य की आय का प्रमुख एवं सबसे बड़ा स्रोत था। राज्य उपज का 1/6 भाग कर के रूप में वसूल करता था। कृष्णदेव राय के शासन काल में भूमि का एक व्यापक सर्वेक्षण करवाया गया तथा भूमि की उर्वरता के अनुसार उपज का 1/3 या 1/6 भाग कर के रूप में निर्धारित किया गया। सम्भवतः राजस्व की दर विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग थी। आय का एक अन्य स्रोत था - सिंचाई कर, जिसे तमिल प्रदेश में ‘दासावन्दा’ एवं आन्ध्र प्रदेशकर्नाटक में ‘कट्टकोडेज’ कहा गया। यह कर उन व्यक्तियों से लिया जाता था, जो सिंचाई के साधनों का उपयोग करते थे। ब्राह्मणों के अधिकार वाली भूमि से उपज का 20 वाँ भाग तथा मंदिरों की भूमि से उपज का 30वाँ भाग लगान के रूप में वसूला जाता था। विजयनगर साम्राज्य में कोई ऐसा वर्ग नहीं था, जिससे व्यवसायिक कर नहीं लिया जाता हो। रामराय ने केवल नाइयों को व्यावसायिक कर से मुक्त कर दिया। केन्द्रीय राजस्व विभाग को अठनवे (अयवन) कहा जाता था।

भूमि के प्रकार व कर

सामाजिक एवं सामुदायिक कर के रूप में विवाह कर लिया जाता था। विधवा से विवाह करने वाले इस कर से मुक्त होते थे। कृष्णदेव राय ने विवाह कर को समाप्त कर दिया था। राज्य का राजस्व वस्तु एवं नकद दोनों ही रूपों में वसूल किया जाता था। विजयनगर काल में मंदिरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। वे सिंचाई परियोजनाओं के साथ-साथ बैंकिग गतिविधियों का संचालन भी करते थे। इनके पास सुरक्षित भूमि को देवदान अनुदान कहा जाता था। एक शिलालेख के उल्लेख के आधार पर माना जाता है कि, इस समय मंदिरों में लगभग 370 नौकर होते थे। भंडारवाद ग्राम वे ग्राम थे, जिनकी भूमि सीधे राज्य के नियंत्रण में थी। यहाँ के किसान राज्य को कर देते थे।

  1. उंबलि - ग्राम में विशेष सेवाओं के बदले दी जानी वाली कर मुक्त भूमि की भू-धारण पद्धति ‘उंबलि’ थी।
  2. रत्त (खत्त) कोड़गे - युद्ध में शौर्य का प्रदर्शन करने वाले या अनुचित रूप से युद्ध में मृत लोगों के परिवार को दी गई भूमि।
  3. कुट्टगि - ब्राह्मण, मंदिर एवं बड़े भू-स्वामी, जो स्वयं खेती नहीं कर सकते थे, वे खेती के लिए किसानों को पट्टे पर भूमि देते थे। इस तरह की पट्टे पर ली गयी भूमि ‘कुट्टगि’ कहलाती थी।
  4. कुदि - वे कृषक मज़दूर होते थे, जो भूमि के क्रय-विक्रय के साथ ही हस्तांतरित हो जाते थे, परन्तु इन्हें इच्छापूर्वक कार्य से विलग नहीं किया जा सकता था।

व्यापार

विजयनगर काल में मलाया, बर्मा, चीन, अरब, ईरान, अफ़्रीका, अबीसीनिया एवं पुर्तग़ाल से व्यापार होता था। मुख्य निर्यातक वस्तुऐं थीं - कपड़ा, चावल, गन्ना, इस्पात, मसाले, इत्र, शोरा, चीनी आदि। आयात की जाने वाली वस्तुऐं थीं - अच्छी नस्ल के घोड़े, हाथी दांत, मोती बहुमूल्य पत्थर, नारियल, पॉम, नमक आदि। मोती फ़ारस की खाड़ी से तथा बहुमूल्य पत्थर पेगू से मंगाये जाते थे। नूनिज ने हीरों के ऐसे बन्दरगाह की चर्चा की है, जहाँ विश्व भर में सर्वाधिक हीरों की खानें पायी जाती थीं। व्यापार मुख्यतः चेट्टियों के हाथों में केन्द्रित था। दस्तकार वर्ग के व्यापारियों को 'वीर पांचाल' कहा जाता था।

विजयनगर कालीन कृतियाँ
रचना रचनाकार
इरूसलय विलक्कम हरिदास
धर्मनाथ पुराण मधुर
आमुक्त-माल्यद कृष्णदेव राय
स्वारोचित सम्भव पेद्दन
मनुचरित तेनालीराम
पाण्डुरंग महात्म्य तेनालीराम
रामकृष्ण कथे विशेश्वर
रसवर्ण सुधारक लकन्ना
शिवतत्व चिंतामणि जक्कनार्थ
नूरोदुस्थल हथ्य
बुद्धराय चरित विश्वेश्वर
चमत्कार-चन्द्रिका हथ्य
परिजातहरण विशेश्वर
जाम्बवती कल्याण कृष्णदेव राय
प्रमुलिंग लीले चामरस
भचिंतारत्न मल्लनार्थ
सत्येन्द्र चोलकथे मल्लनार्थ
वीर शैवमृत मल्लनार्थ

मुद्रा व्यवस्था

विजयनगर में स्वर्ण का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का 'वराह' था, जिसका वज़न 52 ग्रेन था, और जिसे विदेशी यात्रियों ने हूण, परदौस या पगोड़ा के रूप में उल्लिखित किया है। चाँदी के छोटे सिक्के ‘तार’ कहलाते थे। सोने के छोटे सिक्के को 'प्रताप' तथा 'फणम' कहा जाता था। विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम के स्वर्ण सिक्कों (वराह) पर हनुमान एवं गरुड़ की आकृतियाँ अंकित है। तुलुव वंश के सिक्कों पर गरुड़, उमा, महेश्वर, वेंकटेश और कृष्ण की आकृतियाँ एवं सदाशिव राय के सिक्कों पर लक्ष्मी, नारायण की आकृति अंकित है। अरविडु वंश के शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे, अतः उनके सिक्कों पर वेंकटेश, शंख एवं चक्र अंकित हैं।

सैन्य व्यवस्था

विजयनगर की सेना में पैदल, अश्वारोही, हाथी तथा ऊँट शामिल थे। सैन्य विभाग को ‘कन्दाचार’ कहा जाता था। इस विभाग का उच्च अधिकारी ‘दण्डनायक’ या ‘सेनापति’ होता था।

न्याय व्यवस्था

राज्य का प्रधान न्यायधीश राजा होता था। भयंकर अपराध के लिए शरीर के अंग विच्छेदन का दंड दिया जाता था। प्रान्तों में प्रान्तपति तथा गाँवों में 'आयंगार' न्याय करता था। न्याय व्यवस्था हिन्दू धर्म पर आधारित थी। पुलिस विभाग का ख़र्च वेश्याओं पर लगाये गये कर से चलता था।

सामाजिक दशा

विजयनगर साम्राज्य में समाज चार वर्गों में विभाजित था, जो इस प्रकार थे -

  1. विप्रुल
  2. राजलु
  3. मोतिकिरतलु और
  4. नलवजटिवए

इनका संबंध क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र से था। समाज में ब्राह्मणों को चारों वर्णों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। क्षत्रियों के बारे में विजयनगर कालीन समाज में कोई जानकारी नहीं मिलती। ब्राह्मणों को अपराध के लिए कोई सज़ा नहीं मिलता थी। मध्यवर्गीय लोगों में शेट्टियों एवं चेट्टियों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। अधिकांश व्यापार इन्हीं के द्वारा किया जाता था। व्यापार के अतिरिक्त ये लोग लिपिक एवं लेखाकार्यों में भी निपुण थे। चेट्टियों की तरह व्यापार में निपुण दस्तकार वर्ग के लोगों को ‘वीर पांचाल’ कहा जाता था। उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आकर बसे लोगों को ‘बडवा’ कहा गया। निम्न व छोटे समूह के अन्तर्गत लोहार, बढ़ई, मूर्तिकार, स्वर्णकार व अन्य धातुकर्मी तथा जुलाहे आते थे। जुलाहे मंदिर क्षेत्र में रहते थे और साथ ही मंदिर प्रशासन व स्थानीय घरों के आरोपण में उनका सहयोग होता था।

दास प्रथा

इस दौरान दास प्रथा का भी प्रचलन था। महिला एवं पुरुष दोनों वर्ग के लोग दास हुआ करते थे। मनुष्यों के ख़रीदे एवं बेचे जाने वाले को ‘बेस-वाग’ कहा जाता था। लिये गये ऋण को न दे पाने एवं दिवालिया होने की स्थिति में ऋण लेने वालों को दास बनना पड़ता था।

स्त्रियों की स्थिति

विजयनगर कालीन समाज में स्त्रियों की सम्मानजनक स्थिति थी। संपूर्ण भारतीय इतिहास में विजयनगर ही ऐसा एकमात्र साम्राज्य था, जिसने विशाल संख्या में स्त्रियों को राजकीय पदों पर नियुक्त किया था। किन्तु समाज में बाल विवाह, देवदासी एवं सती प्रथा जैसी कुप्रथाएँ भी विद्यमान थी। राजा की अंगरक्षिकाओं के रूप में स्त्रियों की नियुक्ति होती थी। मंदिरों में देवपूजा के लिए रहने वाली स्त्रियों को देवदासी कहा जाता था, जो आजीवन कुँवारी रहती थीं। गणिकाओं का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान था। ये दो तरह की होती थीं-

  1. मंदिरों से सम्बन्धित और
  2. स्वतन्त्र ढंग से जीवन-यापन करने वाली।

ये पर्याप्त शिक्षित तथा विशेषाधिकारी सम्पन्न होती थीं। राजा एवं सामन्त लोग बिना किसी आपत्ति के इनसे सम्बन्ध बनाते थे।

सती प्रथा का प्रचलन

विजयनगर कालीन समाज में सती प्रथा का प्रचलन नायकों एवं राजपरिवार तक ही सीमित था। एडवर्ड बार्बोसा भी विजयनगर में प्रचलित सती प्रथा का उल्लेख करता है। राज्य ने व्यावहारिक दृष्टि से सती प्रथा को पश्रय नहीं दिया। युद्ध में शौर्य का प्रदर्शन करने के कारण उन व्यक्तियों को सम्मान के रूप में पैर में ‘गंडपेद्र’ का कड़ा पहनाया जाता था। बाद में यह सम्मान असैनिक सम्मान के रूप में मंत्रियों, विद्धानों सैनिकों एवं अन्य सम्मानीय व्यक्तियों को दिया जाने लगा। विजयनगर नरेश शिक्षा को प्रत्यक्ष प्रोत्साहन नहीं देते थे। मंदिर, मठ एवं अग्रहार मुख्य शिक्षा के केन्द्र थे। अग्रहारों में मुख्य रूप से वेदों की शिक्षा दी जाती थी। तुलुव वंश ने शिक्षा को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया।

मनोरंजन के क्षेत्र में नाटक एवं संगीतमय अभिनय (यक्षगान) का प्रचलन था। बोमघाट (छाया-नाटक) नाटक काफ़ी सराहा जाता था। शतरंज, जुआ व पासे के खेल के प्रचलन में होने का उल्लेख मिलता है। कृष्णदेव राय स्वयं शतरंज के खिलाड़ी थे।

धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति

विजयनगर कालीन शासकों ने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति को प्रोत्साहित किया। यह दक्षिण भारत का एक मात्र हिन्दू राज्य था, जिसने हिन्दू धर्म की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखा। विजयनगर के शासकों ने स्थापत्यकला, नाट्यकला, प्रतिमाकला एवं भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी विशेष रुचि दिखाई।

भाषा और साहित्य

विजयनगर साम्राज्य में दक्षिण भारतीय भाषाओं तेलुगू, कन्नड़, तमिल के अतिरिक्त संस्कृत भाषा का भी विकास हुआ। वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण तथा माधव विद्यारण्य विजयनगर के थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. क्रमशः ब्रह्म और मलय में
  2. निर्दोष की
  3. अपराधी को
  4. प्रान्त
  5. ज़िला
  6. तहसील या उप-ज़िला
  7. प्रशासक
  8. क्षेत्र
  9. पालिगार

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