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विश्व विवाह दिवस

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विश्व विवाह दिवस
विश्व विवाह दिवस
विवरण 'विश्व विवाह दिवस' पति-पत्नी के आपसी संबंधों को नयी ताजगी एवं सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए पूरे विश्व में मनाया जाता है।
तिथि फ़रवरी माह का दूसरा रविवार
उद्देश्य इस दिन दाम्पत्य जीवन में प्यार, प्रणय एवं सौहार्द भरने का प्राणवान संकल्प लिया जाता है। यह दिवस संस्कार और संस्कृति का संवाहक है।
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अन्य जानकारी भारत का विवाह आदर्श इसलिये माना गया है, क्योंकि यहां विवाह प्रकाश का दूसरा नाम है। समस्याओं से मुक्ति एवं अंधेरों में उजालों के लिये विवाह के बंधन में बंधकर जीवन को रोशन किया जाता है। यही विवाह की सार्थक यात्रा का सारांश है।

विश्व विवाह दिवस (अंग्रेज़ी: World Marriage Day) प्रत्येक वर्ष फ़रवरी माह के दूसरे रविवार को मनाया जाता है। यह दिवस विवाह संस्कार के संक्षिप्त संस्करण के रूप में मनाया जाता है। विवाह दो महिला-पुरुष के कानूनी, सामाजिक और धार्मिक रूप से एक साथ रहने को मान्यता प्रदान करता है। विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा एवं समाजशास्त्रीय संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई, परिवार का मूल है। देश और दुनिया में विवाह का प्रचलन सर्वत्र विभिन्न शक्लों में देखने को मिलता है, इसकी परम्परा अति प्राचीन है, हमारी जीवन शैली का अभिन्न अंग है। यही कारण है कि सम्पूर्ण विश्व में फ़रवरी के दूसरे रविवार को 'विश्व विवाह दिवस' के रूप में मनाया जाता है और पति-पत्नी के आपसी संबंधों को नयी ताजगी एवं सुदृढ़ता देने का प्रयास किया जाता है।[1]

संस्कार और संस्कृति का संवाहक

पति-पत्नी के रिश्तों में रस भरा रहे, इसके लिये फ़रवरी माह के दूसरे रविवार को विश्व विवाह दिवस मनाया जाता है और उसमें प्यार, प्रणय एवं सौहार्द भरने का प्राणवान संकल्प लिया जाता है। पति-पत्नी की जिन्दगी जब सारी खुशियां स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना मांगती है, तब विवाह दिवस जैसा अवसर उपस्थित होता है। यह दिवस संस्कार और संस्कृति का संवाहक है। वैवाहिक रिश्तों का संबोध पर्व है। मानवीय मन का व्याख्या-सूत्र है। बाहरी और भीतरी चेतना का संवाद है। यह दिवस दिशा और दर्शन लेने का अवसर है। संकल्प से भाग्य और पुरुषार्थ का रचने का अवसर है। विवाह परिवाररूपी संस्था का आधार है। प्राचीन एवं मध्य काल के धर्मशास्त्री तथा वर्तमान युग के समाजशास्त्री, समाज द्वारा अनुमोदित, परिवार की स्थापना करने वाली किसी भी पद्धति को विवाह मानते हैं।

विवाह का अर्थ

'विवाह' शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है-

  • पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार, विधि या पद्धति है, जिससे पति-पत्नी के स्थायी-संबंध का निर्माण होता है। रघुनंदन के मतानुसार उस विधि को विवाह कहते हैं, जिससे कोई स्त्री किसी की पत्नी बनती है। वैस्टरमार्क ने इसे एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ ऐसा संबंध बताया है, जो इस संबंध को करने वाले दोनों पक्षों को तथा उनकी संतान को कुछ अधिकार एवं कर्तव्य प्रदान करता है। मनुस्मृति के अनुसार विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जाने वाला, अनेक विधियों से संपन्न होने वाला तथा कन्या को पत्नी बनाने वाला संस्कार है।
  • विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जाने वाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति-पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति-पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहाँ दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरण-पोषण के लिए बाध्य करता है। भारत की संस्कृति में विवाह को 'पाणिग्रहण' की संज्ञा दी गई है।[1]

विवाह संस्कार की मानसिकता

विवाह संस्कार के पीछे मानसिकता यह थी कि जिसका हाथ एक बार पकड़ लिया, उसका साथ आजीवन नहीं छोड़ना। दुनिया के लिये भारत का विवाह आदर्श इसलिये माना गया है, क्योंकि यहां विवाह प्रकाश का दूसरा नाम है। समस्याओं से मुक्ति एवं अंधेरों में उजालों के लिये विवाह के बंधन में बंधकर जीवन को रोशन किया जाता है। यही विवाह की सार्थक यात्रा का सारांश है। हमारे यहां दाम्पत्य का सुख मिलकर भोगा जाता है तो उसमें आने वाली परेशानियों को भी मिलकर ही निपटाया जाता है। साथी से प्यार करते हैं, तो उसके काम से भी प्यार किया जाता है। मानव-समाज में विवाह की संस्था के प्रादुर्भाव के बारे में अनेक तरह की बातें प्रचलित हैं। मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नर-नारियों को यथेच्छित कामसुख का अधिकार था। महाभारत में पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को नियोग के लिए प्रेरित करते हुए कहा था कि पुराने जमाने में विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध करने की पूरी स्वतंत्रता थी। कहा जाता है, भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की। चीन, मिस्र और यूनान के प्राचीन साहित्य में भी कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं।

नर-नारी की अनेक आकांक्षाएँ विवाह एवं संतान-प्राप्ति द्वारा पूर्ण होती हैं। उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न रहने पर भी संतान उनका नाम और कुल की परंपरा अक्षुण्ण रखेगी, उनकी संपत्ति की उत्तराधिकारिणी बनेगी तथा वृद्धावस्था में उनके जीवन का सहारा बनेगी। हिन्दू समाज में वैदिक युग से यह विश्वास प्रचलित है कि पत्नी पति का आधा अंश है, पति तब तक अधूरा रहता है, जब तक वह पत्नी प्राप्त करके संतान नहीं उत्पन्न कर लेता।

नया उल्लास नया आरम्भ

पति-पत्नी को नये वर्ष में नये उल्लास एवं नये आनन्द से परिपूर्ण जीवन बनाने-बिताने की नई प्रेरणा के साथ अपना नया कार्यक्रम बनाना चाहिए। अब तक वैवाहिक जीवन अस्त-व्यस्त रहा हो, तो रहा हो; पर अब अगले वर्ष के लिए यह प्रेरणा लेनी चाहिए, ऐसी योजना बनानी चाहिए कि वह अधिकाधिक उत्कृष्ट एवं आनन्ददायक हो। उस दिन को अधिक मनोरंजक बनाने के लिए छुट्टी के दिन के रूप में मनोरंजक कार्यक्रम के साथ बिताने की व्यवस्था बन सके, तो वैसा भी करना चाहिए। केवल कर्मकाण्ड की दृष्टि से ही नहीं, भावना-उल्लास और उत्साह की दृष्टि से भी विवाह दिन की अभिव्यक्तियों को नवीनीकरण के रूप में मना सकें, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए। यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि गृहस्थ एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें तानाशाही की गुंजाइश नहीं, दोनों को एक-दूसरे को समझना, सहना और निबाहना होगा। दो मनुष्य अलग-अलग प्रकृति के ही होते और रहते हैं, उनका पूर्णतया एक में घुल-मिल जाना सम्भव नहीं। जिनमें अधिक सामंजस्य और कम मतभेद दिखाई पड़ता हो, समझना चाहिए कि वे सद्गृहस्थ हैं। मतभेद और प्रकृति भेद का पूर्णतया मिट सकना तो कठिन है। सामान्य स्थिति में कुछ न कुछ विभेद बना ही रहता है, इसे जो लोग शान्ति और सहिष्णुता के साथ सहन कर लेते हैं, वे समन्वयवादी व्यक्ति ही गृहस्थ का आनन्द ले पाते हैं।[2]

भूलना नहीं चाहिए कि हर व्यक्ति अपना मान चाहता है। दूसरे का तिरस्कार कर उसे सुधारने की आशा नहीं की जा सकती। अपमान से चिढ़ा हुआ व्यक्ति भीतर ही भीतर क्षुब्ध रहता है। उसकी शक्तियाँ रचनात्मक दिशा में नहीं, विघटनात्मक दिशा में लगती हैं। पति या पत्नी में से कोई भी गृह व्यवस्था के बारे में उपेक्षा दिखाने लगे, तो उसका परिणाम आर्थिक एवं भावनात्मक क्षेत्रों में विघटनात्मक ही होता है। दोनों के बीच यह समझौता रहना चाहिए कि यदि किसी कारणवश एक को क्रोध आ जाए, तो दूसरा तब तक चुप रहेगा, जब तक कि दूसरे का क्रोध शान्त न हो जाए। दोनों पक्षों का क्रोधपूर्वक उत्तर-प्रत्युत्तर अनिष्टकर परिणाम ही प्रस्तुत करता है। इन तथ्यों को दोनों ही ध्यान में रखना चाहिए।

प्रतीज्ञा धारण करना

जिस प्रकार जन्मदिन के अवसर पर कोई बुराई छोड़ने और अच्छाई अपनाने के सम्बन्ध में प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, उसी तरह विवाह दिवस के उपलक्ष में पतिव्रत और पत्नीव्रत को परिपुष्ट करने वाले छोटे-छोटे नियमों को पालन करने की कम से कम एक-एक प्रतिज्ञा इस अवसर पर लेनी चाहिए। परस्पर 'आप या तुम' शब्द का उपयोग करना 'तू' का अशिष्ट एवं लघुता प्रकट करने वाला सम्बोधन न करना जैसी प्रतिज्ञा तो आसानी से ली जा सकती है। पति द्वारा इस प्रकार की प्रतिज्ञाएँ ली जा सकती हैं, जैसे[2]-

  1. कटुवचन या गाली आदि का प्रयोग न करना।
  2. कोई दोष या भूल हो, तो उसे एकान्त में ही बताना-समझाना, बाहर के लोगों के सामने उसकी तनिक भी चर्चा न करना।
  3. युवती-स्त्रियों के साथ अकेले में बात न करना।
  4. पत्नी पर सन्तानोत्पादन का कम से कम भार लादना।
  5. उसे पढ़ाने के लिए कुछ नियमित व्यवस्था बनाना।
  6. खर्च का बजट पत्नी की सलाह से बनाना और पैसे पर उसका प्रभुत्व रखना।
  7. गृह व्यवस्था में पत्नी का हाथ बँटाना।
  8. उसके सद्गुणों की समय समय पर प्रशंसा करना।
  9. बच्चों की देखभाल, साज-सँभाल, शिक्षा-दीक्षा पर समुचित ध्यान देकर पत्नी का काम सरल करना।
  10. पर्दा का प्रतिबन्ध न लगाकर उसे अनुभवी-स्वावलम्बी होने की दिशा में बढ़ने देना।
  11. पत्नी की आवश्यकताओं, सुविधाओं पर समुचित ध्यान देना आदि।
विश्व विवाह दिवस


पत्नी द्वारा भी इसी प्रकार की प्रतिज्ञाएँ की जा सकती हैं, जैसे-

  1. छोटी-छोटी बातों पर कुढ़ने, झल्लाने या रूठने की आदत छोड़ना।
  2. बच्चों से कटु शब्द कहना, गाली देना या मारना-पीटना बन्द करना।
  3. सास, ननद, जिठानी आदि बड़ों को कटु शब्दों में उत्तर न देना।
  4. हँसते-मुस्कराते रहने और सहन कर लेने की आदत डालना, परिश्रम से जी न चुराना, आलस्य छोड़ना।
  5. साबुन, सुई, बुहारी इन तीनों को दूर न जाने देना, सफाईऔर मरम्मत की ओर पूरा ध्यान रखना।
  6. उच्छृङ्खल फैशन बनाने में पैसा या समय तनिक भी खर्च न करना।
  7. पति से छिपा कर कोई काम न करना।
  8. अपनी शिक्षा-योग्यता बढ़ाने के लिए नित्य कुछ समय निकालना।
  9. पति को समाज सेवा एवं लोकहित के कार्यों में भाग लेने से रोकना नहीं, वरन् प्रोत्साहित करना।
  10. स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने में उपेक्षा न बरतना।
  11. घर में पूजा का वातावरण बनाये रखना, भगवान् की पूजा, आरती और भोग का नित्य क्रम रखना।
  12. पर्दा के बेकार बन्धन की उपेक्षा करना।
  13. पति, सास आदि के नित्य चरण स्पर्श करना। आदि- आदि।


हर दाम्पत्य जीवन की अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं। अपनी कमजोरियों, भूलों, दुर्बलताओं और आवश्यकताओं को वे स्वयं अधिक अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए उन्हें स्वयं ही यह सोचना चाहिए कि किन बुराइयों-कमियों को उन्हें दूर करना है और किन अच्छाइयों को अभ्यास में लाना है। उपस्थित लोगों के सामने अपने संकल्प की घोषणा भी करनी चाहिए; ताकि उन्हें उसके पालने में लोक-लाज का ध्यान रहे, साथ ही जो उपस्थित हैं, उन्हें भी वैसी प्रतिज्ञाएँ करने के लिए प्रोत्साहन मिले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 विश्व विवाह दिवस (हिंदी) dainiklokmat.in। अभिगमन तिथि: 13 फ़रवरी, 2018।
  2. 2.0 2.1 विवाह दिवस संस्कार (हिंदी) literature.awgp.org। अभिगमन तिथि: 13 फ़रवरी, 2018।

बाहरी कड़ियाँ

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