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शंख लिपि

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शंख लिपि

शंख लिपि प्राचीन लिपियों में से एक है, जो आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है। इनमें लिखित अभिलेख आज तक नहीं पढ़े जा सके हैं। भारत तथा जावा और बोर्निया में प्राप्त बहुत से शिलालेख शंख लिपि में हैं। इस लिपि के वर्ण 'शंख' से मिलते-जुलते कलात्मक होते हैं। इसीलिए इसे शंख लिपि कहते हैं।

विस्तार

शंख लिपि को विराटनगर से संबंधित माना जाता है। उदयगिरि की गुफाओं के शिलालेखों और स्तंभों पर यह लिपि खुदी हुई है। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखाकृति उभरकर सामने दिखाई पड़ती है। इसलिए इसे शंख लिपि कहा जाने लगा। राजस्थान के जयपुर में स्थित बिजार अथवा बीजक की पहाड़ियों में बड़ी संख्या में ऐसी कंदराएं हैं, जिनमें एक रहस्यमय लिपि उत्कीर्ण है। इस लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। शंख लिपि के नाम से जानी जाने वाली इस लिपि के लेख बड़ी संख्या में बीजक की पहाड़ी, भीम की डूंगरी तथा गणेश डूंगरी में बनी गुफाओं में अंकित हैं। इन लेखों के अक्षर शंख की आकृति के हैं। वैज्ञानिकों को इस लिपि के अभिलेख भारतीय उपमहाद्वीप के भारत, इण्डोनेशिया, जावा तथा बोर्निया आदि देशों से मिले हैं, जिनसे यह धारणा बनती है कि जिस तरह किसी कालखंड में सिंधु लिपि जानने वाली सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित हुई थी, उसी तरह शंख लिपि जानने वाली कोई सभ्यता किसी काल खण्ड में भारतीय उपमहाद्वीप में फली-फूली। ये लोग कौन थे? इनका कालखंड क्या था? आदि प्रश्नों का उत्तर अभी तक नहीं दिया जा सका है। भारत में शंख लिपि के अभिलेख उत्तर में जम्मू-कश्मीर के अखनूर से लेकर दक्षिण में सुदूर कर्नाटक तथा पश्चिमी बंगाल के सुसुनिया से लेकर पश्चिम में गुजरात के जूनागढ़ तक उपलब्ध हैं। ये अभिलेख इस लिपि के अब तक ज्ञात विशालतम भण्डार हैं।

राजगीर की प्रसिद्ध सोनभंडा की गुफाओं में लगे दरवाजों की प्रस्तर चौखटों पर एवं भित्तियों पर शंख लिपि में कुछ संदेश लिखे हैं, जिन्हें पढ़ा नहीं जा सका है। बिहार में मुण्डेश्वरी मंदिर तथा अन्य कई स्थानों पर यह लिपि देखने को मिलती है। मध्य प्रदेश में उदयागिरि की गुफाओं में, महाराष्ट्र में मनसर से तथा बंगाल एवं कर्नाटक से भी इस लिपि के लेख मिले हैं। इस लिपि के लेख मंदिरों एवं चैत्यों के भीतर, शैल गुफाओं में तथा स्वतंत्र रूप से बने स्तम्भों पर उत्कीर्ण मिलते हैं।

कालखण्ड

उत्कीर्ण अभिलेखों में लिपि को अत्यंत सुसज्जित विधि से लिखा गया है। कुछ विद्वान इस लिपि को ब्राह्मी लिपि के निकट मानते हैं। विराटनगर से प्राप्त अभिलेखों की तिथि तीसरी शताब्दी ईस्वी मानी गई है। एक लेख में ‘चैल-चैतरा’ पढ़ा गया है, जो संस्कृत का ‘शैल-चैत्य’ माना गया है। इसका अर्थ होता है- ‘पहाड़ी पर स्थित चैत्य।’ इससे अनुमान लगाया जाता है कि ईसा की तीसरी शताब्दी में यहां कोई पहाड़ी बौद्ध चैत्य था। विराटनगर तीसरी शताब्दी के आसपास तक बौद्ध धर्म का बड़ा केन्द्र था। मौर्य सम्राट अशोक के भब्रू तथा विराटनगर अभिलेख इसी स्थान से मिले हैं। इन पहाड़ियों में अनेक चैत्य एवं विहारों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

प्राचीन बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर में उन 64 लिपियों के नाम गिनाए गए हैं, जो बुद्ध को सिखाई गई थीं। उनमें नागरी लिपि का नाम नहीं है, ब्राह्मी लिपि का नाम है। 'ललित विस्तर' का चीनी भाषा में अनुवाद ईस्वी 308 में हुआ था। जैनों के पन्नवणा सूत्र और समवायांग सूत्र में 18 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) लिपि का है। भगवतीसूत्र का आरंभ 'नमो बंभी लिबिए' (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है। यद्यपि इन लिपियों का काल निर्धारण नहीं किया जा सका है, किंतु ये लिपियां महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध के युग में प्रचलन में थीं। शंख लिपि भी उनमें से एक है। इस लिपि के लेख आज तक पढ़े नहीं जा सके हैं।

प्रचलन समय

ब्राह्मी लिपि उत्तर भारत में ईसा से चार सौ साल पहले प्रचलन में आई, किंतु दक्षिण भारत तथा श्रीलंका में यह लिपि ईसा से 600 साल पहले प्रचलन में थी। शंख लिपि का उद्भव भी उसी काल में माना जाना चाहिए। भरहुत स्तम्भों पर मिले इस लिपि के अभिलेख ईसा से 300 वर्ष पुराने हैं। उदयगिरि की गुफाओं में शंख लिपि के लेख गुप्त कालीन हैं, जिनके पांचवीं शताब्दी ईस्वी का होना अनुमानित है। देवगढ़ के स्तम्भों की तिथि पांचवीं शताब्दी ईस्वी की है। अतः इस पर लेखों के उत्कीर्णन की तिथि पांचवीं-छठी शताब्दी ईस्वी की होनी चाहिए। सोलोमन ने गुजरात के पठारी नामक स्थान से शंख लिपि का एक ऐसा शिलालेख ढूंढा था, जिसे प्रतिहार कालीन माना जाता है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि शंख लिपि प्रतिहार काल में भी मौजूद थी।

एक आख्यान के अनुसार गौतम बुद्ध अपने जीवन काल के प्रारम्भ में जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी के शिष्य थे। जब वे महावीर स्वामी से अलग होकर उदयगिरि आए तो महावीर के लिए शंख लिपी में संदेश छोड़कर आए। यह एक आख्यान है, जिसकी विश्वसनीयता अधिक नहीं है।

अक्षर

प्राप्त शिलालेखों के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि इस लिपि में 12 अक्षर हैं। इस लिपि के लेखों में बहुत छोटे-छोटे संदेश खुदे हुए हैं। अर्थात् इन लेखों में पवित्र शब्द, ईश्वरीय नाम, ‘शुभास्ते पंथानः संतु’ एवं ‘ऑल दी बैस्ट’ जैसे मंगल कामना करने वाले शब्द उत्कीर्ण हो सकते हैं। सोलोमन नामक एक विद्वान ने सिद्ध किया है कि इस लिपि में उतने अक्षर मौजूद हैं, जिनमें संस्कृत भाषा के समस्त शब्दों को व्यक्त किया जा सके। उत्तर प्रदेश के देवगढ़ में इस लिपि के अक्षरों का आकार ब्राह्मी लिपि के अक्षरों से कुछ ही बड़ा है, जबकि उदयगिरि की गुफाओं में शंख लिपि के अक्षरों को कई मीटर की ऊंचाई वाला बनाया गया है। कुछ विद्वान इस लिपि का काल चौथी से नौंवी शताब्दी ईस्वी निर्धारित करते हैं; किंतु यह काल निर्धारण सही नहीं लगता। इस लिपि को ब्राह्मी लिपि की समकालीन माना जा सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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