श्रौतसूत्र

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ऋग्वेद के श्रौतसूत्र

ऋग्वेद के श्रौत सूत्र ग्रन्थ दो लघु पुस्तिकाओं (चरणों) से सम्बन्धित हैं—शांखायन और आश्वलायन, जिनमें शांखायन बाद में उत्तर गुजरात में स्थिर हो गया और आश्वलायन गोदावरी और कृष्णा के मध्य में दक्षिण भारत में स्थिर हुआ। अधिकतर दोनों एक ही क्रम से यज्ञ का वर्णन करते हैं। किन्तु बड़े राजकीय यज्ञों का शांखायन श्रौत–सूत्र में कहीं अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है। शांखायन श्रौत सूत्र शांखायन ब्राह्मण से अत्यधिक निकटता के साथ सम्बद्ध है और दोनों ही में प्राचीनतर प्रतीत होता है। यह बात वस्तुतत्त्व और शैली दोनों दृष्टियों से सिद्ध होती हैं। ये दोनों (वस्तु और शिल्प) अनेक भागों में ब्राह्मण ग्रन्थों से मेल खाते हैं। इसमें 18 अध्याय हैं, जिनमें अन्तिम दो बाद में जोड़े गए और कौषतकी आरण्यक के प्रथम दो अध्यायों से मेल खाते हैं। आश्वालायन के श्रौतसूत्र में 12 अध्याय है, यह ऐतरेय ब्राह्मण से सम्बन्धित हैं। आश्वालायन ऐतरेय आरण्यक के चौथे काण्ड के रचयिता भी माने जाते हैं और परम्परा के अनुसार वे शौनक के शिष्य थे।

सामवेद के श्रौतसूत्र

सामवेद के तीन श्रौतसूत्र सुरक्षित रखे जा सकते हैं। इनमें सबसे पुराना मशक सूत्र है, जिसे आर्षेय कल्प भी कहा जाता है। यह इससे अधिक और कुछ नहीं है कि इसमें पंचविंश ब्राह्मण की क्रम व्यवस्था के अनुसार सोमयाग के विभिन्न क्रियाकलापों से सम्बन्ध रखने वाले प्रार्थना मन्त्रों का केवल परिगणन कर दिया गया है। लाट्यायन द्वारा रचित श्रौतसूत्र कौथुमशाखा का एक स्वीकृत ग्रन्थ (गुटका) मान लिया गया। यह सूत्र मशक के समान पंचविंश ब्राह्मण के साथ निकट रूप में सम्बन्धित है। इसमें मशक सूत्र से उद्धरण भी दिए गए हैं। द्राह्ययनों का श्रौतसूत्र जो लाट्यायनों से बहुत कम भिन्न है, सामवेद की राणायणीय शाखा से सम्बन्ध रखता है।

शुक्ल यजुर्वेद के श्रौतसूत्र

शुक्ल यजुर्वेद का सम्बन्ध कात्यायन श्रौतसूत्र से है। यह गुटका, जिसमें 26 अध्याय हैं, समय दृष्टि से शतपथ ब्राह्मण की यज्ञ व्यवस्था का अशिथिल रूप में अनुसरण करता है। हाँ यह अवश्य है कि इसके तीन अध्याय (22 से 24 तक) सामवेद के विधि–विधानों का वर्णन करते हैं। इसकी शैली के दुर्ज्ञेय स्वरूप के कारण यह सूत्रकाल की बाद की रचनाओं में एक प्रतीत होती है।

कृष्ण यजुर्वेद के श्रौतसूत्र

कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित श्रौतसूत्र जो सुरक्षित रखे गए हैं, उनकी संख्या 6 से कम नहीं है, किन्तु उनमें अब तक केवल दो प्रकाशित हो सके हैं। इनमें चार बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले वर्ग का निर्माण करते हैं, कारण यह है कि ये तैत्तिरीय शाखा की चार उपशाखाओं के कल्पसूत्रों का अंग हैं, जिन्होंने बाद के सूत्र सम्प्रदाय (चरणों) का प्रतिनिधित्व किया जो वेद या ब्राह्मण के समान विशिष्ट ईश्वरीय ज्ञान का उन्मेष होने का दावा नहीं करते। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र तीस अध्यायों (प्रश्नों) में प्रथम चौबीस का कलेवर बनाता है; उन तीस अध्यायों में जिनमें उन्हीं (आपस्तम्ब) के कल्पसूत्र का विभाजन हुआ था। आपस्तम्ब कल्पसूत्र के अध्यायों को प्रश्न कहा जाता है। हिरण्यकेशी का श्रौतसूत्र भी उनके कल्पसूत्र के 29 अध्यायों में प्रथम 18 अध्यायों का निर्माण करता है। हिरण्यकेशी का कल्पसूत्र भी आपस्तम्ब से फूटे हुए अंकुर की एक उपशाखा है। बौधायन का सूत्रग्रन्थ जो कि आपस्तम्ब से पुराना है और उसी प्रकार भारद्वाज का भी श्रौतसूत्र अब तक प्रकाशित नहीं हुए हैं।

मैत्रायणीय संहिता

मैत्रायणीय संहिता से जुड़ा हुआ मानव श्रौतसूत्र है; इसका सम्बन्ध मानवों से है जो कि मैत्रायणीय के उपभिवाग थे और जिनमें सम्भवतः मनु की धर्म–पुस्तक अपने उदगम का अनुसरण करती है। यह सर्वाधिक प्राचीन श्रौतसूत्रों में एक मालूम पड़ता है। इसका स्वरूप वर्णनात्मक है जो कि यजुर्वेद के ब्राह्मण भागों से मिलता–जुलता है और सामान्य रूप से केवल यज्ञ विधि के वर्णन करने के कारण उनसे भिन्न है तथा पौराणिक आख्यानों विचारों और किसी भी प्रकार के विवादों को बचाने में भी इसका विभेद है। कृष्ण यजुर्वेद से जुड़ा हुआ एक वैखानस श्रौतसूत्र भी है, किन्तु इसका पता कुछ पाण्डुलिपियों में ही बचता है।

अथर्ववेद के श्रौतसूत्र

अथर्ववेद का श्रौतसूत्र है वैतानसूत्र; न तो यह पुराना है और न ही मौलिक। किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि अथर्ववेद को दूसरे वेदों के समान अपने स्वयं के श्रौतसूत्र से सम्पन्न करने के ही उद्देश्य से इसका संकलन किया गया था। सम्भवतः इसने अपना नाम उस शब्द से ग्रहण किया, जिससे इसका प्रारम्भ हुआ था; क्योंकि वैतान (जिसका सम्बन्ध तीन याज्ञिक अग्नियों से है) समान रूप से सभी श्रौतसूत्रों पर लागू होता है। अत्यधिक सीमा तक यह गोपथ ब्राह्मण से सहमत है, यद्यपि यह स्पष्ट रूप में शुक्ल यजुर्वेद के कात्यायन सूत्र का अनुसरण करता है। इसके परवर्ती होने का एक संकेत इस बात से मिलता है जबकि दूसरे मामलों में एक गृह्यसूत्र नियमित रूप से सम्बद्ध श्रौतसूत्र को प्राग्वर्ती मानता है, जबकि वैतान अथर्ववेद के गृह्यसूत्र पर निर्भर है।

यद्यपि श्रौतसूत्र याज्ञिक विधियों को ठीक रूप में समझने के लिए अपरिहार्य है, किन्तु वे किसी दूसरे दृष्टिकोण से साहित्य का अत्यधिक अनाकर्षक स्वरूप है। इसलिए जिन विधि विधानों का वे वर्णन करते हैं, उनका सर्वाधिक संक्षिप्त रूपरेखा में उल्लेख करना पर्याप्त होगा। सर्वप्रथम तो यह याद रखना आवश्यक है कि विधान कभी भी सामाजिक नहीं होते सर्वदा एकाकी व्यक्ति की ओर से सम्पन्न किए जाते हैं, जो तथाकथित यजमान या यज्ञ करने वाला होता है, जो उन विधानों में बहुत कम भाग लेता है। प्रतिनिधि ब्राह्मण पुरोहित होते हैं, जिनकी संख्या यज्ञकर्म की आवश्यकता के अनुसार चार से 16 तक भिन्न–भिन्न हो सकती है। इन समस्त विधि विधानों में महत्त्वपूर्ण भाग तीन पवित्र अग्नियों द्वारा लिया जाता है, जो कि वेदी को घेरे रहती है। वेदी कुछ खोदी हुई भूमि होती है, जो घास की तृण शय्या से ढक दी जाती है, जिसमें देवताओं को प्रदेय वस्तु ग्रहण की जा सके। सभी यज्ञों की पहली विधि होती है, पवित्र अग्नि की स्थापना (अग्न्याधान) जो यजमान और उसकी पत्नी के द्वारा अग्निकाष्ठों (समिधाओं) के द्वारा प्रज्ज्वलित की जाती है और इसीलिए उसे नियमित रूप से स्थायी रखा जाता है।

श्रोत विधि

श्रोत विधियों की संख्या 14 है, जिनको दो मुख्य समूहों में बाँटा जाता है, जिनमें सात हवि के यज्ञ और 7 साम यज्ञ होते हैं। प्रत्येक समूह के साथ विभिन्न स्वरूप के पशुयागों को भी सम्मिलित किया जाता है। हविर्याग के प्रदान में दूध (खीर), घी, हल्वा, अन्न, पूड़ी तथा और बहुत सी वस्तुएँ सम्मिलित रहती हैं। अग्निहोत्र सबसे अधिक सामान्य यज्ञ होता है, जिसमें प्रातः और सायम् तीन अग्नियों को दूध की वस्तुओं की आहूति दी जाती है। दूसरों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यज्ञ है, नये तथा पूर्ण चन्द्रमा के यज्ञ (दर्श पूर्णमास) और वे जो तीनों ऋतुओं के प्रारम्भ में किए जाते हैं (चातुर्मास्य)। बार–बार होने वाले कुछ दूसरों यज्ञों के अतिरिक्त बहुत से ऐसे भी हैं, जिनका प्रदान किसी विशेष अवसर पर किया जाता है, अथवा किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के लिए भी किया जाता है।

विभिन्न प्रकार के सोमयाग कहीं अधिक जटिल थे। सबसे साधारण और मूलभूत स्वरूप के अग्निष्टोंम (अग्नि की प्रशंसा) को भी 16 पुरोहितों के साचिव्य (मन्त्रणा) की आवश्यकता पड़ती थी। इसमें केवल एक दिन लगता था, जिसमें सोम का पेषण तीन बार होता था-प्रातःकाल, मध्याह्न में और सायंकाल में। किन्तु इस दिन से पहले वाला दिन अत्यन्त विस्तृत तैयारी की विधियों का होता था। जिसमें एक विधि थी यजमान और उसकी पत्नी का यज्ञ में प्रवेश (दीक्षा) लेना। दूसरे सोमयाग कई दिन 12 दिन तक चलते थे। दूसरे प्रकार के यज्ञ जिन्हें सत्र (कालावधि) कहा जाता था, एक वर्ष या उससे भी अधिक चलते थे।

यज्ञविधि

एक बहुत ही पवित्र यज्ञविधि, जिसे सोमयाग से जोड़ा जा सकता है अग्निचयन या 'अग्निसञ्चय' करना है। जो एक साल तक चलती थी। इसका प्रारम्भ 5 पशुओं की बलि से होता है। तब मृत्तिका पात्र के तैयार करने में बहुत समय लग जाता था जिसे (मृत्तिका पात्र को) उखा कहते हैं। जिसमें एक वर्ष तक अग्नि को सुरक्षित रखा जाता है। दोनों के लिए अतिश्रमसाध्य नियम दिए गए हैं। घटक द्रव्यों के लिए भी जैसे कृष्ण मृग के बाल जिनको मिट्टी के साथ मिलाया जाता है और इसके लिए भी कि उनको स्वरूप किस प्रकार दिया जाए और अन्त में जलाया जाए। तब निर्धारित व्यवस्था के अनुसार ईटें बनानी पड़ती हैं। जिनके आकार और परिमाण भिन्न प्रकार के तथा विशिष्ट पद्धति के होते हैं। वेदी 5 स्तरों की होती है। जिनमें सबसे निचले स्तर में 1950 ईटें और उन सबकों मिलाकर जोड़कर 10,800 ईटें लगनी चाहिए। उन (ईटों) में बहुतों का अपना विशिष्ट नाम होता है और अपनी स्वतंत्र सार्थकता होती है। इस प्रकार वेदी धीरे–धीरे बनाई जाती है, क्योंकि इसकी ईटें निर्धारित स्थिति में ही रखा जाती हैं। जिनके साथ ठीक विधियों और मन्त्रों का समावेश रहता है। जिनका निर्वाह भयजनक पुरोहितों के समूह के द्वारा किया जाता है। प्रयोग विधि के कुछ प्रधान तत्त्व हैं। किन्तु ये सम्भवतः बहुत बढ़ी–चढ़ी जटिलता और विस्तार की बहुत बड़ी राशि का कुछ धुँधला सा विवेक प्रदान कर सकेंगे, जिससे सबसे छोटे अणुमात्र की भी ब्राह्मण विधियों में महत्ता है। किसी दूसरे धर्म ने इसकी समानता को कभी नहीं जाना।




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